प्रकृती के शरण और हनन की अजीब दास्तान
मधु टाइटस
हमारे देश में आज बहुत बड़ा तबका ऐसा हो चुका है ,जो अपने जीवन को प्रकृती की शरण में जीना चाहता है या फिर ये चाहता है कि दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुएं खाद्य सामग्री ऐसी हो जो रसायन मुक्त हो या उनके उपयोग से स्वम का एवं पर्यावरण को नुक्सान ना होता हो ,यह जागरूकता पश्चिमी देशों पिछले ६० वर्षों से देखी जा रही है। यह अब अत्यधिक चिंता का विषय बन चुका है कि प्रकृति अपना मूल सवरूप खोती जा रही है।
इसके विपरीत यदी हम अपने दैनिक जीवन पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि सुबह उठकर ८-१० लीटर पानी फ्लश में बहाने से लेकर कई दैनिक वस्तुएं जैसे पेस्ट ,साबुन,खाद्य सामग्री के हमारे घरों तक पहुँचने के पीछे प्रकृति के हनन की एक लम्बी और अजीब दास्तान छुपी हुई है। खेर नुक्सान सिर्फ प्रकृति के मूल सवरूप का ही नहीं बल्की सम्पूर्ण मानव जाती को हो रहा है।
एक ओर दैनिक जीवन में बदलाव भी लाना भी बहुत कठिन है तो दूसरी ओर प्रकृति के विनाश को रोकना भी है। हमारे दैनिक जीवन में प्राथमिकता के आधार पर देखें तो रसायन मुक्त खाद्य सामग्री प्राप्त करना प्राथमिकता में सबसे पहले है फिर पहनने के कपडे फिर अन्य दैनिक उपयोग की सामग्री जैसे साबुन,पेस्ट,बर्तन धोने के पॉवडर इत्यादी और उसके बाद जहाँ हम रहते हों, बच्चों के स्कूल हों वहाँ का वातावरण अच्छा हो ऐसा दुनिया में बहुत कम लोगों को प्राप्त होगा जो कि सभी को मिलना चाहिए।
यहाँ ख़ास तौर पर उस तबके के लोगों का जिक्र किया है जो कि आज जागरूक है और चिंता में है कि ये सारी चीजें कैसे पाप्त हों?
एक ओर है इस तबके की चिता है तो दूसरी ओर इस चिंता की भनक बड़ी-बड़ी कम्पनीज़ को भी लग चुकी है कम्पनीज़ अब इस चिंता को भुनाने की तैयारी में हैं। आने वाले पांच वर्षों में केमिकल फ्री , ऑर्गेनिक लेबल लगे हुए कई महंगे उत्पाद होंगे पर क्या ऐसा हो जाने पर चिंता ख़तम होगी फिलहाल ये सवाल बना ही रहेगा?
अब हम उस तबके की और देखें जो कृषि आधारित है। बहुत ज्यादह समय नहीं बीता है मात्र ३० -३५ साल पहले पंजाब में आई 'हरित क्रांती' को आधार मानकर रसायन युक्त आधुनिक कृषी कही जाने वाली पद्धती किसानो पर लाद दी गयी।
जिसके दुष्परिणाम अब सामने आ चुके हैं। आज सारी दुनिया में पर्यावरणीय बदलाव के मद्दे नजर कृषी को स्थाई विकल्प देने की जरुरत है। विकल्प जो कि स्थाई हो यह एक असाधारण सवाल आज सारी दुनिया के सामने बना हुआ है।
विगत २७ सालो से पारिवारिक तौर पर बिना जुताई आधारित ' प्राकृतिक खेती' से जुड़े एवं इस विषय से जुड़े रहने के अनुभव के आधार पर इस लेख को प्रस्तुत करने का उद्शेय है इस विषय पर जागरूक लोगों की संख्या बढ़ाना एवं कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करना है जिस से जागरूकता और विषय स्पस्ट हो सके।
चूंकी यह तबका जिनका जीवन कृषी आधारित नहीं है उनकी लगभग सारी जरुरतें बाज़ार पूरी करता है।
यदी हम बाज़ार और हमारे रिश्ते का बारीकी से अध्यन करेंगे तो हम पाएंगे कि आमतौर पर एक परिवार अपनी एक निश्चित राशन के दूकान एवं निश्चित सब्जी बाज़ार या साप्ताहिक हाट बाजार या कई बार तो एक निश्चित सब्जी वाले की दूकान तक तय कर लेता है। जो कि उस परिवार की जरूरतों एवं इस परिवार के गुणवत्ता के मायनों के आधार पर होता है। इस पहलू की और भी बारीकियां हैं जिनका ज्यादह वर्णन हमें समाज शास्त्र में देखने को नहीं मिलता है जो कि एक शोध का विषय भी है।
यहाँ इस पहलू को उजागर करने का उद्शेय यह है कि मेरा यह मानना है कि इस जागरूकता विषय को जागरूक तबका बाज़ार तक पहुंचा सकता है और छोटे -छोटे सब्जी या राशन के जरिये यह सन्देश उत्पादकों तक पहुँच कर उत्पाद को बदलने की दम रखता है।
उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश के सब्जी बाज़ारों में ४ या ५ साल पहले नासिक के गोल टमाटर की धूम थी और देशी पतले छिलके का टमाटर पूर्णतया गायब हो चुका था पर एक दो सालों बाद एक नया टमाटर आया जो मोटे छिलके का था पर देशी की शक्ल का था. अब वापस से देशी टमाटर सब्जी बाज़ार में दिखने लगे हैं और देशी टमाटर का भाव भी ज्यादह होता है।
आपने यदी सब्जी बाज़ार पर और ध्यान दिया हो तो आप पाएंगे कि दुकानदार ज्यादह ग्राहकों से देशी सम्बोधन देकर लुभाने लगे हैं। जैसे देशी धनिया,देशी बल्हर है या देशी छोटा आलू आदी ज़िस तरह आज देशी ने सब्जी बाज़ार में पैठ की है कल 'प्राकृतिक रसायन मुक्त' भी पैठ सकता है।
खेर किसी भी विषय पर सामाजिक बदलाव आना एक जटिल प्रक्रिया है और इसका कोई सीधा सादा रास्ता भी नहीं है।
अंतत: कुछ उदाहरण ऐसे प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिनको अपने में जीवन में उपयोग लाने से हम कुछ हद तक अपने को एवं अपने परिवार को विषैली ,खाद्य सामग्री से बचा सकते हैं। एक बार सब्जी बाज़ार में एक सब्जी की दूकान पर बेंगन खरीदते समय दुकानदार ने मुझ से कहा भईया कोई भी उठा लो एक भी कीड़ा नहींहै मैने दुकानदार से कहा कि भैया जिसे कीड़ा नहीं खाता है उसे इंसान क्यों खाता है ? और मै उसे समझते हुए दूसरी दूकान पर चल दिया।
उपरोक्त उदाहरण प्रस्तुत करने का तात्पर्य यह है कि चमकदार, दोष रहित,एक से आकार की सब्जियों के लाट से आकर्षित नहीं होना चाहिए जबकि इसका उल्टा दोषपूर्ण लाट आड़ा -तिरछा,छोटा बड़ा इस तरह के लाटों से अपनी सब्जियों को चुने जो कि शायद कुछ हद तक जहरीली कीटनाशक दवाओं से वंचित रह गयी हों।
मौसम से पूर्व आने वाली सब्जियों को खरीदना भी बहुत खतरनाक होता है। भिन्डी,गोभी और पत्ता गोभी में बहुत ताकतवर जहरीले रसायनो का उपयोग किया जाता है। मौसम में आने वाली बेलाओं पर लगने वाली सब्जियों जैसे गिलकी, करेला, बल्हर कम नुक्सान देय हो सकते हैं. स्थानीय फलों का मौसम आने पर ज्यादह सेवन करें जैसे अमरुद, बेर ,पपीता आदी।
यदी आपके आस पास कोई ग्रामीण बाज़ार हाट हो तो कुछ जंगली फल प्राप्त किए जा सकते हैं जैसे भिलवां ,तेंदू ,अचार आदी।
कृषी में स्थाई विकल्प प्रदान करने के लिए सिर्फ किसानो का ही नहीं सभी का सहयोग वांछनीय है।
मधु टाइटस
टाइटस नेचरल फार्म
होशंगाबाद।
गैर कुदरती खेती के कारण पनपते मरुस्थल |
इसके विपरीत यदी हम अपने दैनिक जीवन पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि सुबह उठकर ८-१० लीटर पानी फ्लश में बहाने से लेकर कई दैनिक वस्तुएं जैसे पेस्ट ,साबुन,खाद्य सामग्री के हमारे घरों तक पहुँचने के पीछे प्रकृति के हनन की एक लम्बी और अजीब दास्तान छुपी हुई है। खेर नुक्सान सिर्फ प्रकृति के मूल सवरूप का ही नहीं बल्की सम्पूर्ण मानव जाती को हो रहा है।
एक ओर दैनिक जीवन में बदलाव भी लाना भी बहुत कठिन है तो दूसरी ओर प्रकृति के विनाश को रोकना भी है। हमारे दैनिक जीवन में प्राथमिकता के आधार पर देखें तो रसायन मुक्त खाद्य सामग्री प्राप्त करना प्राथमिकता में सबसे पहले है फिर पहनने के कपडे फिर अन्य दैनिक उपयोग की सामग्री जैसे साबुन,पेस्ट,बर्तन धोने के पॉवडर इत्यादी और उसके बाद जहाँ हम रहते हों, बच्चों के स्कूल हों वहाँ का वातावरण अच्छा हो ऐसा दुनिया में बहुत कम लोगों को प्राप्त होगा जो कि सभी को मिलना चाहिए।
यहाँ ख़ास तौर पर उस तबके के लोगों का जिक्र किया है जो कि आज जागरूक है और चिंता में है कि ये सारी चीजें कैसे पाप्त हों?
एक ओर है इस तबके की चिता है तो दूसरी ओर इस चिंता की भनक बड़ी-बड़ी कम्पनीज़ को भी लग चुकी है कम्पनीज़ अब इस चिंता को भुनाने की तैयारी में हैं। आने वाले पांच वर्षों में केमिकल फ्री , ऑर्गेनिक लेबल लगे हुए कई महंगे उत्पाद होंगे पर क्या ऐसा हो जाने पर चिंता ख़तम होगी फिलहाल ये सवाल बना ही रहेगा?
अब हम उस तबके की और देखें जो कृषि आधारित है। बहुत ज्यादह समय नहीं बीता है मात्र ३० -३५ साल पहले पंजाब में आई 'हरित क्रांती' को आधार मानकर रसायन युक्त आधुनिक कृषी कही जाने वाली पद्धती किसानो पर लाद दी गयी।
नाम है हरित क्रांती पर आग नरवाई में लगाई जा रही है। |
जिसके दुष्परिणाम अब सामने आ चुके हैं। आज सारी दुनिया में पर्यावरणीय बदलाव के मद्दे नजर कृषी को स्थाई विकल्प देने की जरुरत है। विकल्प जो कि स्थाई हो यह एक असाधारण सवाल आज सारी दुनिया के सामने बना हुआ है।
विगत २७ सालो से पारिवारिक तौर पर बिना जुताई आधारित ' प्राकृतिक खेती' से जुड़े एवं इस विषय से जुड़े रहने के अनुभव के आधार पर इस लेख को प्रस्तुत करने का उद्शेय है इस विषय पर जागरूक लोगों की संख्या बढ़ाना एवं कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करना है जिस से जागरूकता और विषय स्पस्ट हो सके।
मधु टाइटस किसानो से बात करते हुए। |
चूंकी यह तबका जिनका जीवन कृषी आधारित नहीं है उनकी लगभग सारी जरुरतें बाज़ार पूरी करता है।
यदी हम बाज़ार और हमारे रिश्ते का बारीकी से अध्यन करेंगे तो हम पाएंगे कि आमतौर पर एक परिवार अपनी एक निश्चित राशन के दूकान एवं निश्चित सब्जी बाज़ार या साप्ताहिक हाट बाजार या कई बार तो एक निश्चित सब्जी वाले की दूकान तक तय कर लेता है। जो कि उस परिवार की जरूरतों एवं इस परिवार के गुणवत्ता के मायनों के आधार पर होता है। इस पहलू की और भी बारीकियां हैं जिनका ज्यादह वर्णन हमें समाज शास्त्र में देखने को नहीं मिलता है जो कि एक शोध का विषय भी है।
यहाँ इस पहलू को उजागर करने का उद्शेय यह है कि मेरा यह मानना है कि इस जागरूकता विषय को जागरूक तबका बाज़ार तक पहुंचा सकता है और छोटे -छोटे सब्जी या राशन के जरिये यह सन्देश उत्पादकों तक पहुँच कर उत्पाद को बदलने की दम रखता है।
उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश के सब्जी बाज़ारों में ४ या ५ साल पहले नासिक के गोल टमाटर की धूम थी और देशी पतले छिलके का टमाटर पूर्णतया गायब हो चुका था पर एक दो सालों बाद एक नया टमाटर आया जो मोटे छिलके का था पर देशी की शक्ल का था. अब वापस से देशी टमाटर सब्जी बाज़ार में दिखने लगे हैं और देशी टमाटर का भाव भी ज्यादह होता है।
सब्जियों में जहर की मात्र बहुत रहती है। |
आपने यदी सब्जी बाज़ार पर और ध्यान दिया हो तो आप पाएंगे कि दुकानदार ज्यादह ग्राहकों से देशी सम्बोधन देकर लुभाने लगे हैं। जैसे देशी धनिया,देशी बल्हर है या देशी छोटा आलू आदी ज़िस तरह आज देशी ने सब्जी बाज़ार में पैठ की है कल 'प्राकृतिक रसायन मुक्त' भी पैठ सकता है।
खेर किसी भी विषय पर सामाजिक बदलाव आना एक जटिल प्रक्रिया है और इसका कोई सीधा सादा रास्ता भी नहीं है।
अंतत: कुछ उदाहरण ऐसे प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिनको अपने में जीवन में उपयोग लाने से हम कुछ हद तक अपने को एवं अपने परिवार को विषैली ,खाद्य सामग्री से बचा सकते हैं। एक बार सब्जी बाज़ार में एक सब्जी की दूकान पर बेंगन खरीदते समय दुकानदार ने मुझ से कहा भईया कोई भी उठा लो एक भी कीड़ा नहींहै मैने दुकानदार से कहा कि भैया जिसे कीड़ा नहीं खाता है उसे इंसान क्यों खाता है ? और मै उसे समझते हुए दूसरी दूकान पर चल दिया।
अमरुद |
मौसम से पूर्व आने वाली सब्जियों को खरीदना भी बहुत खतरनाक होता है। भिन्डी,गोभी और पत्ता गोभी में बहुत ताकतवर जहरीले रसायनो का उपयोग किया जाता है। मौसम में आने वाली बेलाओं पर लगने वाली सब्जियों जैसे गिलकी, करेला, बल्हर कम नुक्सान देय हो सकते हैं. स्थानीय फलों का मौसम आने पर ज्यादह सेवन करें जैसे अमरुद, बेर ,पपीता आदी।
यदी आपके आस पास कोई ग्रामीण बाज़ार हाट हो तो कुछ जंगली फल प्राप्त किए जा सकते हैं जैसे भिलवां ,तेंदू ,अचार आदी।
कृषी में स्थाई विकल्प प्रदान करने के लिए सिर्फ किसानो का ही नहीं सभी का सहयोग वांछनीय है।
मधु टाइटस
टाइटस नेचरल फार्म
होशंगाबाद।
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