Saturday, September 9, 2017

एक कचरा क्रांति

एक कचरा क्रांति 

ऋषि खेती 

बिना जुताई ,बिना खाद , बिना निंदाई ,बिना दवाई ,बिना मशीन की कुदरती खेती 

फुकुओका जी का गेंहू और धान  का फसल चक्र   



  खड़ी धान की फसल में गेंहू के बीजों को बिखेरा जा रहा है 
 धाकी पुआल और गेंहू की नरवाई जिसे कचरा समझ कर किसान जला देते हैं ने एक बड़ी क्रांति को जन्म दिया है। जिसे हम कचरा क्रांति कहते हैं। 
यह कचरा भले किसानो को बेकार दिखता है किन्तु यह उनकी मुसीबत को दूर करने के लिए अब सोना बन गया है । 
 शायद ही किसी को विश्वास होगा कि वह किसी
क्रांति  की शुरआत कर सकता है। लेकिन हमे  इस कचरे  के वजन और क्षमता का अहसास हो चुका
है। यह क्रांति असली क्रांति है। फुकुओका जी कहते हैं। 
जरा सरसों  और गेंहू  के इन खेतों को देखिए।


धान का पुआल गेंहू के नन्हे पौधों पर फेंका जा रहा है 


इस पक रही फसल से प्रति चैथाई एकड़ में लगभग
एक टन  पैदावार ली जा सकेगी (एक किलो प्रति वर्ग मीटर )
 मेरे ख्याल से यह जापान
के रासायनिक खेती के सबसे अधिक उत्पादन देने वाले  इलाकों  की पैदावार के बराबर या उस से भी अधिक है। 
 इन खेतों को पिछले कई दशकों  से जोता नहीं गया है न ही इसमें खाद ,दवाई ,निंदाई की गई है। 
 बुआई के नाम पर मैं सिर्फ गेंहू  और सरसों  के बीजों को सितम्बर /ओक्टूबर  के मौसम में, जबकि धान  की फसल खेतों में खड़ी होती है बिखेर देता हूं।




पुआल से गेंहू ढक गया है 

कुछ हफ्तों  बाद मैं धान  की फसल काट लेता हूं और धान  का पुआल सारे खेत में फैला देता हूं।




यही तरीका धान  की बुआई के लिए भी अपनाया जाता है।
ठण्ड  की फसल  की कटाई तथा गहाई हो जाने के बाद मैं इसकी  नरवाई  भी खेतों में बिखेर देता हूं।




 

गेंहू की फसल में धान  की बीज गोलियां डाल रहे हैं 
धान ,गेंहू और सरसों की फसलों की बुआई के लिए यह तरीका सर्वोत्तम है। 




लेकिन एक तरीका इससे भी आसान है। 
 धान को यहां ठण्ड की फसल के साथ क्ले की सीड बॉल से बोया गया था। यानि गेंहू और धान की बुआई का सारा काम जनवरी  के पहले हफ्ते  तक निपटा लिया गया है। धान के बीज अपने मौसम में ही उगते हैं। ठण्ड में ये सुप्त अवस्था में रहते हैं। 


गेंहू और सरसों की नरवाई वापस डाली गई है 





खरपतवार उगने की मैं परवाह नहीं करता क्योंकि उनके बीज अपने आप आसानी से झड़ते


और उगते



धन की फसल में खरपतवार भी है 
रहते हैं। धान के साथ पनपते  बरसाती कचरे नमि संरक्षण ,पोषक तत्वों की आपूर्ति ,बीमारियों से बचाव का काम करते हैं। 
अतः इन खेतों में बुआई का क्रम इस प्रकार रहता हैः अक्तूबर  के प्रारंभ में रिजका या बरसीम  धान  खड़ी फसल  बीच बिखेरी
जाती है ।   नवम्बर की शुरआत में

धान का एक पौधा 
धान  काट लिया जाता है और उसके बाद अगले वर्ष के लिए धान  के  और सारे खेत में पुआल फैला दिया जाता है।





सरसों की फसल 
 आपको यहां जो सरसों  और गेंहू  दिखलाई दे रही है, उसे इसी ढंग से उगाया गया है।
चैथाई एकड़ में खेत में ठण्ड  की फसलों और धान  की खेती का सारा काम केवल एक-दो व्यक्ति
ही कुछ ही दिनों में निपटा लेते हैं। मेरे ख्याल से धान ,गेंहू और सरसों को उगाने का इससे ज्यादा आसान, सहज तरीका
कोई अन्य नहीं हो सकता।

खेती का यह तरीका रासायनिक  कृषि की तकनीकों के सर्वथा विपरीत है। यह जैविक कृषि ,जीरो बजट खेती और परंपरागत देशी खेती की तकनीकों को बेकार सिद्ध कर देता है। खेती के इस तरीके, जिसमें कोई मशीनों द्वारा निर्मित खादों तथा रसायनों का उपयोग नहीं होता, के द्वारा भी औसत जापानी खेतों के बराबर या कई बार उससे भी ज्यादा पैदावार हासिल करना संभव है। इसका प्रमाण यहां आपकी आंखों के सामने

गेंहू के बीज छिड़क कर पुआल दाल दिया है 
है।


सिंचाई के साथ (टाइटस फार्म )



पुआल से गेंहू निकल रहा है 
गेंहू की फसल नरेंद्र पटेल के साथ 

धान को काटने के पश्चात् हम बरसीम + गेंहू या सरसों +गेंहू के बीजों को बिखेर कर ऊपर से पुआल आड़ा तिरछा इस प्रकार फैला देते हैं जिस से सूर्य रौशनी नीचे तक आती रहे फिर सिंचाई कर देते हैं। इसमें पैदावार बीजों की छमता के अनुसार बढ़ते क्रम में मिलती है। इसमें किसी भी प्रकार की मानव निर्मित खाद और कल्चर को नहीं डाला जाता है। 

 

 

सुबबूल के पेड़ों के साथ गेंहू की खेती और पशु पालन 

सुबबूल  एक दलहन जाती का पेड़ होता है।

जो अपनी छाया  के छेत्र में लगातार कुदरती यूरिया (नत्रजन ) सप्लाई करने का काम करता है।

इसकी लकड़ी पेपर बनाने ,फर्नीचर बनाने और जलाऊ के काम आती है। इसका चारा बहुत पोस्टिक होता है।

इसके साथ गेंहू की बिना जुताई ,बिना खाद की खेती आसानी से हो जाती है। गेंहू और चावल की उत्पादकता और गुणवत्ता सबसे अधिक मिलती है। 

 यह पेड़ जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सूखा और बाढ़ का भी नियंत्रण करता है। 

इसकी पत्तियों का हरा रस बीमारियों में दवाई के काम आता है। पत्तियों को बकरियां बड़े शौक से खाती हैं। एक एकड़ से फसलों के आलावा लकड़ियों और पशु पालन से अतिरिक्त
आमदनी मिलती है। 

 

 

 
 

 

 


 सुबबूल के पेड़ों के साथ बिना जुताई बिना खाद गेंहू की कुदरती खेती करने का यह  जग प्रसिद्ध टाइटस फार्म का प्रयोग है। इसमें गेंहू चावल के साथ  चारा और जलाऊ ईंधन भी मिलता है। आमदनी डबल हो जाती है। पेड़ों से पेड़ की

 

 

दूरी करीब १० फ़ीट  जाती है। जिस से भरपूर कुदरती यूरिया जो पेड़ बनाते हैं मिलता है। तथा यह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को थमने का भी काम करती है। सुबबूल की लकड़ियां पेपर बनाने  काम आती है। बीज नीचे गिरते रहते हैं अपने आप उग आते हैं। पत्तियां बकरियां बड़े शोक से खाती हैं जो एटीएम के जैसे रहती हैं। सुबबूल फसलों को बीमारियों से बचाते हैं। 

बरसाती कचरे में बरसाती और ठण्ड की फसलों की बुआई

पहले हम बरसाती कचरों को बड़ा होने देते है जिस से उसमे असंख्य जीव जंतु  कीड़े मकोड़े काम करने लगते हैं।

बरसाती कचरा 
 

  

जैव विविधता के कारण खेतों में बखरनी हो जाती है ,खेत जैविक खाद से भर जाते हैं ,बरसात का पानी जमीन में समां जाता है ,फिर फसलों के अनुसार काट कर या बिना काटे अनेक बीजों को क्ले और हरे ताजे  पशु गोबर से कोटिंग करके बिखरा देते हैं। इसे हम बिना जुताई की बारह  अनाजी खेती कहते हैं। मिश्रित फसलों के कारण कभी किसान को घाटा नहीं होता है।

कचरे की कटाई 

कचरो में मिश्रित अनाजों के बीजों को क्ले + ताजे हरे पशु गोबर से कोटिंग कर फेंक देते हैं। बाद में बड़े बड़े कचरो को तलवार या हासिए  की सहायता से काट दिया जाता है। कटे हुए कचरों से बीज ढँक जाते हैं। जो ऊग कर बाहर आ जाते हैं। 



बीज कचरे से ढक गए है 

कचरो की घकावान  बाद में सूख कर जैविक खाद में तब्दील हो जाती है। इस से नमि भी संरक्षित रहती है हरी धकावन जैवविबिधताओं को सुरक्षित रखती है। 

 

 


 

 

 

 

 

 





Saturday, September 2, 2017

कचरे यानि भूमि ढकाव की फसलों के साथ कुदरती खेती

कचरे यानि भूमि ढकाव की फसलों के साथ कुदरती खेती 

सामान्य खेत के कचरे 

चरों को सामन्य भाषा में खरपतवार या नींदा कहा जाता है। ज्न्हे बरसों से किसान मारता  आ रहा है। आदिवासी किसान इन्हे जला कर बिना जुताई की खेती करते हैं परम्परगत खेती किसानी  में इन्हे जुताई कर मारा जाता रहा है जबसे रासायनिक खेती का आगमन हुआ है तब से अनेक खरपतवार नाशक जहर आ गए जिन्हे डालने से नींदे जल जाते हैं। 

फसलोत्पादन के लिए वर्षों से यह माना जाता रहा है की कचरे मूल फसलों का खाना खा लेते हैं इसलिए फसलों का उत्पादन कम हो जाता है। इसलिए किसान बार बार खेतों की जुताई करता है ,कचरों को चुन चुन कर निकलता रहता है तथा अनेक किस्म के जहर डालता रहता है। 

बीजों को बोने  से पहले

पशु मूत्र +क्ले कीचड से उपचारित करते हैं। 

इस कारण खेत बीमार हो जाते हैं जिन में बीमार फसले  पैदा होती है किसान को घाटा हो जाता है । जापान के मस्नोबू फुकुओका जी ने अस्सी   साल और हम पिछले तीस सालो से बिना जुताई ,बिना निंदाई गुड़ाई करे कुदरती खेती कर रहे हैं। हमने ये पाया है की ये कचरे कुदरती खेती में विशेष सहयोग प्रदान करते हैं।

फेके गए बीज उग रहे हैं। 

इन कचरो के नीचे असंख्य जीव जंतु कीड़े मकोड़े रहते हैं जो खेत को खटोडा और पानीदार बना देते हैं और खेत को बहुत अच्छा बखर देते है । इस काम को कोई  मशीन या रसायन नहीं कर सकता है। 

इसलिए हम बरसात आने के बाद कचरों को आने देते है जब वो बड़े हो जाते हैं उनके साथ फसलों के बीज भी उपचारित कर फेंक देते है। ये उग कर कचरों से ऊपर निकल आते है कचरे उन्हें आने देते हैं उन पर कोई रोग  आता है तो उसे भगा देते है ,नमि को संरक्षित रखते हैं खाद बनाते है। 

कचरे में चल रही सब्जी की बेला