Wednesday, December 12, 2012

CARIER IN NATURAL FARMING बिना-जुताई की कुदरती खेती कर अपना भविष्य सुरक्षित करें।

बिना-जुताई की कुदरती खेती कर अपना भविष्य सुरक्षित करें।

    आज-कल जब से आधुनिक वैज्ञानिक खेती का चलन शुरू हुआ है खेती-किसानी की हालत बहुत ख़राब हो गयी है। ऐसा खेतों में जुताई करने और रसायनों के इस्तमाल से हुआ है।

वैसे तो बरसों से फसलों को पैदा करने के लिए की जा रही जमीन की जुताई एक पवित्र काम माना जाता रहा है। किन्तु इस से होने वाले नुकसान को नजर-अंदाज करने के कारण जमीने बहुत कमजोर हो जाती हैं,वे मरुस्थल (केंसर के रोगी की तरह ) में परणित हो जाती हैं। मरुस्थल में फसलों को पैदा करने के लिए खाद दवाओं का इस्तमाल बढ़ते क्रम में रहता है,और उत्पादन तथा गुणवत्ता घटते क्रम में रहती है इस कारण किसान को लगातार घाटा होता रहता है।
                                                              कुदरती चावल की फसल 
यही कारण है की किसान खेती छोड़ रहे हैं, कर्जे में डूब रहे हैं,आत्म -हत्या करने लगे हैं। किन्तु जब से बिना-जुताई की खेती का चलन शुरू हुआ है, इस में ब्रेक लगा है। अनेक किसान इस से लाभ कमा रहे है। बिना-जुताई और बिना रसायनों से खेती करने से जमीने पुन: ताकतवर हो जाती हैं। उनमे ताकतवर फसलें पैदा होती हैं किसी भी प्रकार की दवा की जरुरत नहीं रहती है। इस लिए फसलें कुदरती गुणों से भरपूर रहती हैं। इन फसलों को खाने से केंसर जैसा रोग भी ठीक हो जाता है।

कुदरती खेतों में कुदरती खेती करने से एक और लागत 80% घट जाती है  वहीँ उत्पादन हर मोसम बढ़ता जाता है उसकी गुणवत्ता भी बढती जाती है। इस लिए कुदरती उत्पाद बहुत महंगे बिकते हैं। आज -कल हमारे पढ़े-लिखे युवक-युवतियों के आगे रोजगार की गंभीर समस्या है। मंदी के कारण पिछले अनेक सालों से उधोग धंदे पनप नहीं पा रहे हैं। इस लिए बेरोजगारी की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी है। बड़े से बड़े किसान का बेटा  या बड़ी से बड़ी डिग्री वाला आज चपरासी की नोकरी के लिए तरस रहा है।
किन्तु हम जो पिछले 27 सालों से बिना-जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं का ये दावा है की कोई भी आज आसानी से एक चोथाई एकड़ में इस पद्धति से खेती कर आत्म निर्भर बन सकता है। इस खेती का अविष्कार जापान के कृषि वैज्ञानिक श्री मस्नोबू फुकुओकाजी ने किया है। जब जमीन की जुताई की जाती है तो बारीक बखरी मिट्टी बरसात के पानी के साथ मिलकर कीचड में तब्दील हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है। जुताई के कारण चूहों ,चीटे -चीटि ,केंचुओं आदि के घर जो बरसात के पानी को जमीन के भीतर ले जाने का काम करते हैं मिट जाते हैं,जिस से भी बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है।

ऊपरी सतह की मिट्टी असली कुदरती खाद होती है करीब 10 टन प्रति एकड़ कुदरती खाद  हर साल इस प्रकार बह जाती है। खेत भूके और प्यासे रहते हैं। किन्तु जुताई नहीं करने से इस के विपरीत खेत ताकतवर हो जाते हैं। उनमे ताकतवर फसलें पैदा होती हैं। ताकतवर फसलों में बीमारी का कोई प्रकोप नहीं रहता है।

हम मोसम अनुसार फसलों के बीजों का छिडकाव कर देते हैं जरुरत पड़ने पर पानी दे देते हैं। फसलें पकने के बाद उनको काट कर गहाई करने के बाद बचे अवशेषों को वापस खेतों में जहां का तहां वापस डाल देते हैं। बिना-जुताई की कुदरती खेती जिसे बिना-जुताई की जैविक खेती भी कहा जाता है के उत्पाद केंसर जैसी गंभीर बीमारी को ठीक करने के काम आते हैं जो बहुत कम उपलब्ध हैं इस लिए बहुत महंगे बिकते हैं।

                                                          कुदरती गेंहूं की फसल
 इस खेती को करके कोई भी कुदरती आहार पैदा कर उन्हें खाकर ,बेच कर अपना भविष्य सुरक्षित कर सकता है। अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें। ये खेती सामाजिक,पर्यवार्नीय, धार्मिक और वैज्ञानिक सत्य पर आधारित है।
राजू टाइटस
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*Raju Titus.Natural farm.Hoshangabad. M.P. 461001.*
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Friday, December 7, 2012

NATURAL FARMING TAKING ROOT IN M.P. जड़ जमा रही है बिना -जुताई की खेती

जड़ जमा रही है बिना -जुताई की खेती

कमाल किया बसंत राजपूत जी ने

होशंगाबाद म .प्र .में बह रही पवित्र नदी नर्मदा नदी को कौन नहीं जानता जब भी कोई यहाँ  आता है वह सिठानी घाट जरुर जाता है। ठीक इस घाट से उस पार  जब हम नाव से जाते हैं हमें जोशीपुर गाँव मिलता है। इस गाँव में खेती करते हैं श्री बसंत राजपूत जी .राजपूत जी से मिलने की भी कहानी है।
            अपर्णा,श्रुति,एंजिल ,राजू ,अभिनव और पीछे श्रीमती हेमा जैन,फोटो लिया श्री देव कुमार जैन ने।
हमारे यहाँ देवकुमार जी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पधारे थे वे हाल ही में अमेरिका की नोकरी छोड़ कर बिना जुताई की कुदरती खेती को समझने यहाँ पधारे थे हम उनके साथ नाव की सेर करते जोशीपुर जा पहुंचे वहां हम किसानो को खोज रहे थे वहां अचानक हमारी भेंट बसंत राजपूत जी से हो गयी। उन्होंने बताया की वे पिछले चार सालों से बिना-जुताई करे अरहर और गेंहूं की खेती कर रहे है।
                                                        श्री बसंत राजपूत और मधु टाइटस 
      उस समय तो हमारे पास वक्त कम था हम उनके खेत देखे बिना ही लौट आये किन्तु हम 5 दिसम्बर को मधु मेरे बेटे के साथ उनके खेतों पर जा पहुंचे। हम ये देख कर दंग रह गए की वे हमारे इतने करीब चुपचाप बिना जुताई की खेती कर रहे हैं हमने जब उनसे पूछा की आपको इस खेती को करने की प्रेरणा कहाँ से मिली तो उन्होंने हमारे फार्म के बारे में छपे लेख का हवाला दिया और कहा की हमारे खेत असमतल हैं इनमे जुताई नहीं 
हो सकती है इस लिए भी हम ऐसी खेती करने लगे है।
   वे चार सालों से अपने खेतों में शुरुआती बरसात में अरहर के बीज बिखेर देते हैं। इसके बाद वे एक निंदाई कर देते है। इसके बाद जब अरहर काटने का समय आता है वे उस से करीब 25 दिन पहले अरहर को काट लेते हैं उसे खलियान में सुखा लेते हैं और खेतों में गेंहूं के बीजों को छिटक  कर स्प्रिंकलर से सिंचाई कर देते हैं।
                                                                         अरहर का पौधा 
    इस प्रकार वे अपने गाँव में अकेले ऐसे किसान हैं जो बिना-जुताई करे खेती करते हैं और साल में  दो फसलें लेते हैं। अभी वे जानकारी के आभाव में कुछ रसायनों का इस्तमाल कर रहे हैं किन्तु हमसे मिली जानकारी के बाद वे अब अपनी जीरो-टिलेज खेती को कुदरती खेती में बदलने लगे हैं।
     बसंत भाई बड़े समझदार और प्रयोग शील हिम्मत वाले किसान हैं उनकी फसल निरोगी ताकतवर पैदा हो रही है। उनकी इस खेती के सामने तवा कमांड की आधुनिक वैज्ञानिक खेती फीकी है।
     इन दिनों वे खड़ी अरहर की फसल में गेंहूं की बुआई करने का प्रयोग कर रहे हैं। इस प्रयोग से उन्हें अगेती अध्-कच्ची फसल नहीं कटनी पड़ेगी और वे रसायनों से भी मुक्ति पा जायेंगे और उनके खेत पूरी तरह कुदरती खेती में तब्दील हो जायेंगे।
      हम उनकी खेती से सीख कर अब बरसात में अरहर की खेती शुरू कर देंगे वे हमारे गुरु बन गए हैं। उनकी इस खेती को देख कर अनेक किसान भी बदलेंगे।
धन्यवाद
शालिनी एवं राजू टाईटस

 Zero-Tillage

NO-TILL FARMING GETTING ROOTS
STORY OF MR BASANT RAJPUT OF HOSHANGABAD.
 Dear friends,
This story in Hindi of a farmer who inspired by Titus farm news.
He is scattering Arhar (Pigeon pea)in rainy season in 12 acre and scattering wheat seeds in standing Arhar crop.In some plots he harvest Arhar early for wheat crop.Although he is not aware of many unwanted things such as using chemicals and breaking stubble by machine but after meeting with me realized and will stop.
  Conversion of zero tillage farming in to Natural way of farming.
Thanks
Raju

Thursday, December 6, 2012

RELIGIOUS FARMING विश्वाशी-खेती( कुदरती खेती का परिचय)

विश्वाशी-खेती
(कुदरती खेती का परिचय)
   प्रभु यीशु मसीह का जीवन दर्शन सत्य और अहिंसा पर आधारित है।यही हमारा
विश्वाश है।खेती हमारी जीवन पद्धति है।पहले हम सभी इस पद्धति के सहारे
कुदरत के साथ मिल कर रहते थे।हम कुदरत से मिले हवा,पानी ओर भोजन को सेवन
करते स्वस्थ और खुश रहते थे। इस से हमारे समाज में शांति थी।आपस में
प्रेम था।किन्तु धीरे धीरे हमारी खेती कुदरत से दूर होती गयी। इस कारण
कुदरती हवा,पानी और भोजन की कमी में रहने लगे, आपस का प्रेम नहीं रहा और
शांति भंग हो गयी है।
    हम सामजिक लड़ाईयों ,बुराइयों ,बीमारियों में फंस गए हैं। हमें इस से
बाहर निकलना है।इस में परवर्तन  लाना है।इस लिए सब से पहले हमें अपने
विश्वाश को मजबूत करना है।ये विश्वाश कुदरती पर्यावरण के बिना असंभव
है।जिसकी पहली सीढ़ी है विश्वाशी खेती यानि कुदरती खान,पान और हवा की फसल
काटना है।
   हरयाली को नस्ट कर, खेतों को खूब जोत कर, उस में अनेक प्रकार के जहर
डालने से जो फसल हमें मिलती है उस से एक और जहाँ हम बीमार हो जाते हैं
वहीँ हमारा मन भी दूषित हो जाता है।हमारे मन का पर्यावरण हमारे बाहरी
पर्यावरण पर निर्भर करता है।एक कहावत है जैसा खाएं अन्न वैसा होय मन।
  एक कहानी है जिस में दो बेटे रहते हैं एक कुदरती खेती करता है दूसरा
गेरकुदरती खेती करता है दोनों जब अपनी भेंट परमेश्वर को देते हैं तो
कुदरती भेंट स्वीकारी जाती है दूसरी नहीं स्वीकारी जाती है इस लिए वह
गुस्सा हो जाता है और अपने भाई को मार देता है। आज हमारे समाज में जो
हिंसा व्याप्त है वह इसी कारण है।
                                                     
    इस लिए परिवर्तन जरूरी है। एक कहावत है की हम बदलेंगे तो जग
बदलेगा।इस लिए विशवास के साथ बदलना है।हमें विश्वाश के पेड़ लगाने है।एक
पेड़ से जब बीज गिरते हैं तो पूरा खेत बदल जाता है। खेती करने के लिए की
जारही जमीन की जुताई सब से बड़ा पाप है।इस को बंद कर भर देने से विश्वाशी
 विश्वासी खेती के जनक मस्नोबू फुकुओका जी

खेती शुरू हो जाती है।हमें कुदरती खान,पान मिलने लगता है।
हम बदलने लगते हैं,हमारा मन बदलने लगता है।हम एक सच्चे इंसान बन जाते
हैं,हमारा परिवार भी बदलने लगता है।जिस से हमारे समाज में बदलाव आने लगता
है।
    विश्वाशी खेती आत्म निर्भर खेती है।अविश्वाशी खेती जो मशीनो और
रसायनों पर आधारित है वह आयातित तेल की गुलाम है।जो सात समुन्दर पार से
हजारों फीट गहराई से निकलता है जो अब ख़तम हो रहा है।इस से प्रदुषण इस हद
तक फेल गया है की हर दसवे  इंसान को कोई न कोई जान लेवा बीमारी हो रही
है। हमारे खून और मां के दूध में जहर घुल गया है।नवजात बच्चों की मौत
सामान्य हो गयी है।70% महिलाएं खून की कमी का शिकार है।हर दसवे घर में
केंसर दस्तक देने लगा है।
बच्चों में हिंसक प्रवत्तियां पनपने लगी हैं वे हत्याएं करने लगे
हैं।पुरुषों में नापुन्सगता पनप रही है। मधुमेह और दिल की बीमारियाँ आम
हो गयी हैं।अविश्वाशी खेती के कारण अब किसान खेती छोड़ने लगे हैं लाखों
किसान घाटे के कारण आत्म हत्या कर चुके है। पंजाब जो अविश्वाशी खेती के
कारण संपन्न दिखता है वहां केंसर महामारी के रूप में फेल रहा है।
हर रोज दो किसान आत्म हत्या कर रहे हैं।
    विश्वाशी -खेती जिसे हम नेचरल -फार्मिंग ,कुदरती-खेती ,ऋषि-खेती आदि
के नाम से पुकारते हैं में फसलों के उत्पादन के लिए जमीन को जोता या खोदा
नहीं जाता है। क्योंकि ये मिट्टी जीवित है इसमें आंख से दिखाई नहीं देने
वाले असंख्य सूक्ष्म-जीवाणु ,जीव-जंतु,पेड़-पौधे ,कीड़े-मकोड़े,तथा जानवर
रहते हैं। बखरी बारीक मिट्टी  बरसात के   साथ मिल कर कीचड में तब्दील
हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है पानी तेजी से
बहता  है अपने साथ उपजाऊ मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है।
इस कारण सूखा-बाढ़ ,भूकंप ,ज्वार -भाटे आदि आते हैं। यही
क्लाईमेट चेंज है जिसके कारण ग्लोबल-वार्मिंग है,बरफ के ग्लेशियर पिघल
रहे हैं।
     विश्वाशी-खेती बिना किसी मानव निर्मित खाद और रसायन के की जाती है
जिस से प्रदुषण नहीं फेलता है।जितनी भी वनस्पतियाँ या जीवजन्तु परमेश्वर
ने बनाये हैं सब जरुरी हैं। इन्हें मारने का कोई भी उपाय अमल में नहीं
लाया जाता है।
ऐसा करने से खेतों का उद्धार हो जाता है उस में आशीषों की बारिश होने
लगती है।हमारे खेत अदन की बाड़ी में परिवर्तित होने लगते हैं।कुदरती
हवा,जल,कुदरती आहार ,चारा,ईंधन सब आसानी से उपलब्ध रहता है।
    हम पर्या -मित्र समूह के सदस्य हैं,पिछले 27 सालों से विश्वाशी -खेती
कर रहे हैं तथा इस के प्रचार-प्रसार में सलग्न हैं।हमारा उदेश्य
जाती,धर्म,भाषा और छेत्रीय भेद भाव के बिना प्रभु यीशु मसीह के बताये
मार्ग पर विश्वाश करते विश्वाशी खेती करते हुए सच्चा ग्रामीण विकास करना
है।  यही हमारी सामाजिक परिवर्तन योजना का लक्ष्य है।
    हमारे हर पासवान की ये जिम्मेदारी है की वह प्रभु यीशु की शिक्षा के
माध्यम  से लोगों के मन में विश्वाश जाग्रत करे उन्हें अविश्वाशी खेती के
दुश्परिनामो के प्रति जाग्रत कर विश्वाशी खेती के लाभों की जानकारी दे
खुद  सीखें और सिखाएं क्यों की उद्धार की कुंजी धरती माँ के हाथों में
है।
शालिनी एवं राजू टाईटस
ग्राम -खोजनपुर जि .होशंगाबाद .म .प्र .

Thursday, October 4, 2012

FARMERS RULE किसान राज

 किसान राज
(बिना जुताई की कुदरती खेती ने किया कमाल)
भारतीय प्राचीन खेती किसानी में किसान आत्म निर्भर और समाज  में सर्वोपरी स्थान रखते थे. उस का कारण था वे लोगों को खाना खिलाते थे. उनके कहने से  सब काम होते थे उन का राज था. किन्तु आज क़ल उल्टा हो गया  है किसान समाज  में सबसे नीचे के स्तर पर खड़ा है वह खुद अब खाने के लिए मोताज हो गया है. वह सरकार की ओर हर चीज के लिए मुंह ताक रहा है. इस का सबसे बड़ा कारण मशीनी करण ओर तेल की  गुलामी है.

पहले किसान आसानी से बिना जुताई ,बिना सिचाई ,बिना खाद ओर दवाई के आसानी से आत्म निर्भर खेती करता था. उसके अनाजों के भंडार हमेशा भरे रहते थे. जब नयी फसल आती थी ओर उनका भंडार सीमा से अधिक हो जाता था वह वह उसे अन्य सेवाओं के  बदले दे देता था वह गर्व से अन्नदाता कहलाता था. सब उसे सम्मान की निगाह से देखते थे.

इस देश को अंग्रेजों से आज़ादी उस समय मिली जब देश का किसान एक साथ गाँधी जी के साथ खड़ा हो गया. किन्तु अफ़सोस की बात है की हमारी खुद की सरकार ने उन किसानो  को गुलाम बना दिया. उसके बेल नहीं रहे वे आयातित तेल से चलने वाले ट्रेक्टरों में बदल गए. कुदरती  खाद के बदले उन्हें जहरीले आयातित तेल से बनी खाद थमा दी गयी. उसके अपने बचाए देशी बीज छीन कर उसे संकर /जी .एम् जैसे कमजोर बीज थमा दिए. जिन में आये दिन रोग लगते हैं जिस के लिए उसे जहरीले कीट ओर खरपतवार नाशक दे दिए गए. उसके भंडार खाली करवाकर अनाज को सरकारी गोदामों में भर दिया जो चोरी हो रहा है ,जिसे कीड़े खा रहे हैं,जो पानी से सड रहा है.

इस से किसान तो कर्जदार हुआ ही देश भी विदेशी कर्जे में फंस गया. जिस ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश को गुलाम बनाया था जिसे इन किसानो ने गाँधी,विनोबा, टेगोर ,नेहरु की मदद  से भगाया था. उन्ही कंपनियों को अब देश में पुन: गुलाम बनाने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है. उन्हें देश को लूटने के लिए खुली छूट दे दी गयी है.
किसानो का देश अब विदेशी व्यापारियों का देश बन गया है.

हमारी  माटी, रोटी ,हवा और पानी सब उनके हाथों में चला गया है हम फ़िर से गुलाम हो गए हैं.

किन्तु हम शुक्रगुजार हैं जापान के गाँधीवादी कुदरती खेती के किसान स्व. श्री मस्नोबू फुकुओका जी के जिन्होंने हमें ऐसी आत्म नर्भर खेती का पाठ पढ़ाया जिसे हम पिछले २७ सालों से कर रहे हैं. जिस से हमारे खेत इस गुलामी से पूरी तरह मुक्त हो गए हैं. ये सरकारी .अनुदान ,कर्ज,और मुआवजे की कोई जरुरत नहीं है. ये कुदरती खेती पूरी तरह आत्म निर्भर हैं.

अनेक वैज्ञानिक ,साधू संत,किसान, और नेतागण इसे देखने यहाँ आते हैं.वे इस विधा को केवल भारत में ही नहीं वरन पूरी दुनिया में फेलाने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. अनेक बिना जुताई की कुदरती खेती खेती के किसान और फार्म बन गए हैं, अब वह समय दूर नहीं जब भारत का हर किसान बिना जुताई की कुदरती खेती कर आत्म निर्भर हो जायेगा उसे आयातित तेल और विदेशी पैसे की कोई जरुरत नहीं रहेगी.
किसान का राज चलेगा.
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Raju Titus.Natural farm.Hoshangabad. M.P. 461001.
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Wednesday, October 3, 2012

FOOD SECURITY खाद्य सुरक्षा , अनुदान और विदेशी निवेश

खाद्य सुरक्षा , अनुदान और विदेशी निवेश
आज अचानक टीवी खोला तो देवेन्द्र शर्मा जी को देख वार्तालाप सुनने लगा विषय था खाद्य सुरक्षा ,अनुदान और विदेशी निवेश. सुन कर बहुत बुरा लगा की एक और  जहाँ अनाज(जहरीला)  गोदामों में सड रहा है, लोग भूखों मर रहे हैं,किसान आत्म हत्या कर रहे हैं, अनुदान, कर्ज माफी और मुआवजों के कारण सरकार अब कंगाल होने लगी है.
. एक और किसान "और दो और दो" चिल्ला रहे है तो वहीँ
सरकारें भी विदेशों का मुंह ताक रही हैं.
       देश में खाद्य सुरक्षा पूरी तरह ध्वस्त हो गयी है.
 किसी को भी देश की आत्म निर्भरता की चिंता नहीं है. हमारी खाद्य सुरक्षा आयातित तेल  की गुलाम हो गयी है.
   हम २७ सालों से आत्म निर्भर कुदरती खेती कर रहे हैं. इस खेती में ८०% खर्च की कमी हो जाती है खाद्य स्वादिस्ट ,स्वास्थवर्धक, पैदा होते हैं. इस में अनुदान ,कर्ज,और मुआवजों की जरुरत नहीं रहती है. उत्पादकता सर्वोपरि है. आत्म निर्भर खेती से ही देश आत्म निर्भर हो सकता है.
  शर्मा जी ने सही  कहा की एक गाँव तो आप आत्म निर्भर बना के बताएं.

F.D.I. विदेशी निवेश और आत्म निर्भर खेती

विदेशी निवेश और आत्म निर्भर खेती


मै ऐसा सोचता हूँ की हमारा देश हमारे शरीर के माफिक है.
यदि हमारा शरीर ताकतवर है तो वह हमारे शरीर में बाहरी बीमारियों को नहीं आने देगा और हम स्वास्थ रहेंगे. यद हम स्वं अपने खान पान और रहन सहन से अपने शरीर को कमजोर करते हैं तो वह बाहरी बीमारी से नहीं बच सकता है.

विदेशी निवेश एक बीमारी है जो हमारे देश में हमारी कमजोरी के कारण आ रही है. आपने अमूल का उदाहरण दिया है एक जमाना था अमूल के किसान सरकार से कहते थे हमें आप के पैसे और नेता की जरुरत नहीं है.

हमारी खेती किसानी हजारों साल आत्म निर्भर रही वह बिना बिजली और बिना आयातित तेल के अनेक कुदरती आपदाओं के रहते सुरक्षित रही. उस में जान थी. किसान सम्मान से जीता था. किन्तु आयातित तेल से की जाने वाली "हरितक्रांति" ने हमारी खेती किसानी को इतना निर्बल बना दिया है की हम विदेशी तेल के बिना कुछ नहीं कर सकते हैं.
  खाद्य सुरक्षा और खेती किसानी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
इस का उद्धार विदेशी निवेश से नहीं वरन आत्म निर्भर खेती से ही संभव है. जिस में सरकारी निवेश की भी कोई जरुरत नहीं है. ये भी बहुत बड़ा धोका है.
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Raju Titus.Natural farm.Hoshangabad. M.P. 461001.
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Monday, October 1, 2012

. Non-Violent Way of Agriculture. Natural way of farming


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Non-Violent Way of Agriculture.

Natural way of farming
            Globally Human beings are facing many environmental problems such as Global warming, disturbed weather conditions, Drought, Flood, Earthquakes and Tidal etc.                                                                                                                                                                                                    We the human beings have forced our Earth towards environmental destruction. The main reason for this destruction is violence based development and the violent agricultural practices have played a major role in it.                                                                                      Since thousands of year tilling of land has been practiced and considered as a holy work in agriculture but it is the biggest violent torture towards biodiversity. What I want to emphasize here that this is the biggest violence globally and hence causing desertification. Tilling practices does not allow rain water to reach ground water level and the fertile top soil is flooded. This converts the organic manure into green house gas. The layer of this gas in the atmosphere causes global warming and also the reason for disturbed weather conditions. The first step in agriculture which is plowing makes the land diseased and hence creates a need of treatment. The worst beginning starts a long course of chemical use and wrong practices. Which includes chemical fertilizers, insectisides, weedisides and harmones etc? Availability of chemically grown food everywhere has become most hazardous part to the health of human beings. Cancer and many diseases have become common by eating chemically grown food.                                             In the context of Indian scenario this chemical based farming has made agriculture a practice of losing terms of input and returns. To meet the expenses, farmers depends on loans which makes agro-produce costly. Farmers are committing suicide. In the last 15 years 3 lacs farmers have committed suicide in India.                                                                                                                                                                     In our family farm we have been practicing Natural Way of Farming without tilling, weeding and manure since 27 years. This farming system has been innovated by a Japanese Microbiologist and Natural farmer Masnobu  Fukuoka. Now it has the highest productivity and highest nutritive value. This farming system is totally dependent upon "Natural truth and Nonviolence" practicing this way of farming leads to grow different types of vegetation even in deserts. And even by eating natural produces, Cancer can be treated. There is a lowest need of petroleum and electricity in this farming practice hence it is a low cost farming system and the agro-produce are much cheaper than other. It is the best system to revive water holding capacity of the land which can even fight with the problems like drought, flood, global warming and carbon emission problems.                                                                                 Now a day many alternative agricultural practices have been practiced by farmers all over the world but No farming system makes a cordial relationship with Nature. Searching alternative organic methods of killing insects, using pheromone traps etc. which does not involves chemical but disturbs the ecological balance of our farm hence far from sustainability and involves Violence.                                                                                                                                                                                                                                                                           Our system of Natural farming proves the "Natural Truth" which is "Live And Let Live" philosophy cordially with a balanced ecology. In a farm the farmer and his family gets Natural food, fresh air and naturally treated soothing mineral water which enhances a feeling of Simplicity and peaceful living. Nature Itself mobilizes an individual to become a peaceful good Human being and it can be a way back to the Nature. Nature and God is like a coin with two different faces both sides.                                                                       During these 27 years we found that the "Quaker way of life" and Natural farming is based on "Do Nothing" concept. We have been promoting this system in our farm and the approach is "Practice and Learn". We conduct Trainings for interested people and farmers in our farm and even go to their farm for trainings and Model setup.  We have mobilized farmers and established Natural farming system all over India. Marginal and small farmers in rural areas have been benefited by our trainings. Quarter Acre of land is sufficient for 4 to 6 members of a family. Per day one hour working is sufficient by each member in this system; the rest of the time can be given to Humanity by the members. We found the key of “peace" is near to Nature N.F. is the way.
                                                                        We promise to contribute to the Quakers "Global Change Consultation” by promoting peaceful system of farming and living. You can invite us for trainings in your farm or nearby areas to benefit community. We invite interested volunteers to our farm to practice and learn. If you feel our contribution is valuable towards Humanity then you can also assist in terms of Donation for training program because the Destiny of our Planet is now depends upon Human Hands.

GLOBAL CHANGE वैश्विक परिवर्तन अहिंसात्मक खेती का आन्दोलन

वैश्विक परिवर्तन
अहिंसात्मक खेती का आन्दोलन
हम लोग इन दिनों अनेक पर्यावरणीय संकट जैसे ग्लोबल वार्मिंग, मोसम परिवर्तन, सूखा और बाढ़, भूकंप , ज्वार भाटों आदि से जूझ रहे हैं. इन तमाम मुसीबतों के पीछे पर्यावरण विनाश, कुदरती कम वरन मानव निर्मित अधिक हैं.  इस का मूल कारण  हिंसात्मक  विकास है. जिस में हिंसात्मक  खेती का सब से बड़ा हाथ है.
   खेती करने के लिए की जा रही जमीन की  जुताई  (Plowing) भले हजारों सालों से एक पवित्र काम समझा जाता रहा है किन्तु  इस से होने वाली जैव-विवधताओं की हिंसा  विश्व की किसी भी हिंसा से बड़ी है.  इस से एक और जहाँ हरे भरे वन, कुदरती बाग़ बगीचे, और चारागाह रेगिस्थान में तब्दील हो रहे हैं वही बारिश का पानी जमीन  में ना जाकर तेजी से बहता है वह अपने  साथ उपजाऊ मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है.और जुताई करने से जैविक खाद, ग्रीन हॉउस गेस में तब्दील हो जाती है जो  आकाश में एक आवरण बना लेती है जिस से ग्लोबल वार्मिंग और मोसम परिवर्तन की समस्या निर्मित हो रही है.
 इस से खेत कमजोर हो जाते हैं जिनमे फसलों को पैदा करने के लिए रासयनिक उर्वरक,कीट नाशकों,खरपतवार नाशकों, हारमोन  आदि डाले जाते हैं. जिस से मिट्टी,पानी और फ़सलें जहरीली हो जाती हैं. हमारी थाली में जहर घुल जाता है. जिसको खाने से केंसर, खून की कमी, नव जात बच्चों की मौत, अपंगता आदि अनेक समस्याएँ आम हो गयी हैं. जुताई और रसायनों के उपयोग के कारण खेती की लागत बहुत  बढ़ जाती है. इस खर्च को पूरा करने के लिए किसान कर्जों पर आश्रित हो जाते हैं. इस से एक और जहाँ खेती के उत्पाद महंगे हो जाते हैं वहीँ खेती घाटे का सौदा बन रही है किसान आत्म हत्या कर रहे हैं . भारत में पिछले १५ सालों में करीब ३ लाख किसान आत्म हत्या कर चुके हैं.
   हम पिछले २७ सालों से अपने पारिवारिक फार्म पर जुताई ,दवाई और खाद के बिना की जाने वाली कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं जिसे दुनिया भर में लोग "नेचरल फार्मिंग " के नाम से जानते हैं. इस का अविष्कार जापान के जाने माने कुदरती किसान मस्नोबू फुकुओका जी ने किया है. इस खेती की उत्पादकता और गुणवत्ता सब से अधिक है. ये खेती पूरी तरह  "कुदरती सत्य और अहिंसा" पर आधारित है. इसको करने से एक और जहाँ रेगिस्थान हरयाली में तब्दील हो जाते हैं वहीँ इनके उत्पादों को खाने से केंसर जैसी बड़ी से बड़ी बीमारी अच्छी हो जाती है. खेती में लागत नहीं के बराबर रहने से उत्पाद बहुत सस्ते होते हैं और किसानो को घाटा नहीं होता है. इस में पेट्रोलियम और बिजली की मांग नहीं के बराबर रहती है, बरसात का पानी जमीन में समां कर स्टोर हो जाता है. जिस से सूखा और बाढ़ की समस्या नहीं रहती है.
CO2 का उत्सर्जन रुक जाता है जिस से ग्लोबल वार्मिंग और मोसम  परिवर्तन जैसी विकट समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है.
 कुदरती खेती " जिओ और जीनो" पर आधारित है. इस में जमीन में पैदा होने वाली तमाम वनस्पतियों,कीड़े मकोड़ो,जीव जंतुओं ,सूक्ष्म जीवाणु को सुरक्षा प्रदान की जाती है जिनके  के सहारे हम अपना भोजन उगाते हैं.
कुदरती खेती में परम्परागत खेती की तुलना में उत्पादकता और गुणवत्ता अधिक रहती है. हरियाली पनपती है और भूमिगत जल का स्तर बढ़ता है. कुदरती खान,पान और हवा के सेवन से जीवन में सादगी और शांति से रहने की इच्छा जाग्रत हो जाती है. ये केवल खेती नहीं है वरन अच्छे इन्सान बनने का जरिया है.
इन दिनों हमें राजनीतिक और धार्मिक भेदभाव के कारण हो रही लड़ाइयों का संकट सता रहा है. आतंकवाद और नक्सलवाद इस की देन है. इस के पीछे हिंसात्मक खेती के कारण हो रहे विनाश का सीधा सबंध है. कुदरती खेती क़ुदरत की और वापसी का मार्ग है ये हमें बचा सकती है. क़ुदरत और ईश्वर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
   हमने २७ सालों में कुदरती खेती के अभ्यास से  सीखा है की  क्वेकर जीवन पद्धति और कुदरती खेती "कुछ मत करो" के नेतिक मूल्यों पर आधारित है.  हम इस के प्रचार और प्रसार में कार्यरत हैं. अपने फार्म पर" करो और सीखो " के माध्यम से प्रशिक्षण देते हैं. और दूसरों के फार्म पर जाकर उनको" करके सिखाते हैं". ये हमारे "विश्वाश का व्यव्हार"  है. अब तक हम भारत के अनेक प्रान्तों में अनेक फार्म बनवा चुके हैं. हम इस योजना का लाभ गाँव में रहने वाले गरीबों में सबसे गरीब भूमिहीन,छोटे और मंझोले  किसान परिवारों को उपलब्ध करा रहे हैं. मशीनों से की जाने वाली जुताई और रसायनों के उपयोग के कारण  इन परवारो को रोटी.कपडा और मकान नसीब नहीं हो रहा है. बेरोजगारी बढ़ रही है. ये खेती हाथों से की जाती है महिलाएं या बच्चे भी इसे आसानी कर लेते हैं. एक चोथाई एकड़ जमीन ५-६- सदस्यों वाले परिवार के लिए पर्याप्त है इस में परिवार के एक सदस्य को एक घंटे से अधिक काम करने की जरुरत नहीं है. बाकि समय वे समाज की सेवा में लगा सकते हैं.
   हम सब जानते हैं की हमारी खेती और हमारे खान पान और हमारे पर्यावरण का सीधा सबंध है. यदि हम अहिंसात्मक कुदरती खेती का अभ्यास करते हैं तो हम शांति से रह सकते हैं हिंसात्मक खेती से हिंसा पनपती है. विश्व शांति की कुंजी और कही नहीं वह धरती के पास है.
    हमारा सभी मित्रो से अनुरोध है की इस पुनीत कार्य में सहयोग प्रदान कर क्वेकर की "वैश्विक परिवर्तन " योजना में सहयोग करें , आप अपने छेत्र में इस का अभ्यास और प्रचार प्रसार का काम कर सकते हैं. हम इस में हर प्रकार से सहयोग करने का वादा करते हैं. आप प्रशिक्षण के लिए हमारे यहाँ स्वं सेवक भेज सकते हैं. आप हमारे फार्म की प्रशिक्षण सेवा के लिए दान भी दे सकते हैं.
धन्यवाद
--Shalini and Raju Titus.
Quaker Family Farm.
vil. Khojanpur
 Hoshangabad. M.P.
461001.

 rajuktitus@gmail.com. +919179738049.
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Saturday, September 29, 2012

फलों की कुदरती खेती PROTECT FRUIT TREES IN DROUGHT

फलों की कुदरती खेती
भी कुछ सालों पहले तक महारास्ट्र में संतरों की खेती बहुत अच्छी होती थी किन्तु फल बागों में, खेती के वैज्ञानिकों की सलाह से किये जाने वाले गेर कुदरती कार्यों के कारण अब फल बाग़ बुरी तरह सूख रहे हैं. इस का मूल कारण फलों के बीच में जुताई कर की जाने वाली खेती है. ये समस्या पूरी दुनिया में की जा रही फलो की खेती के साथ है
     फुकुओका जी सब से  पहले किसान थे जो अपने फलों के बागानों में जुताई नहीं करते थे और बीच में होने वाली तमाम खरपतवारों को भी वे सहेजते थे यानि उनकी रक्षा करते थे. उनका मतलब ये है की हर पेड़ के अपने साथी होते हैं जो जो एक दूसरे के पूरक होते हैं. वे जब १९८८ में हमरे फार्म पर पधारे थे बता रहे थे की पेडों की छाया की गोलाई में जितनी भी हरयाली होती है उस में फल के पेडों के अनेक साथी निवास करते हैं. इस के अलावा फलों के पेडों पर लगने वाली बीमारी के कीड़ों के दुश्मन भी रहते हैं. इस कारण फलों के पेड़ एक और जहाँ बीमारी से सुरक्षित रहते हैं वहीँ वे हर साल बढ़ते क्रम में फल देते हैं .उनके फलों का रंग ,स्वाद,और जायका भी हर साल बढ़ता जाता है.
   दूसरी महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने बताई है फलों के पेडों के आस पास गडडे बनाके जड़ों को कतरकर और उसमे अनेक प्रकार की खाद, दवा और गोबर / गो मूत्र आदि को डालने से तथा शाखाओं की छटाई करने से पेड कमजोर हो जाते है वे हर साल फलते नहीं है उत्पादन गिरजाता है वे बीमार होकर सूख जाते हैं.
   जब से महारास्ट्र में फुकुओका जी की इस विधि की जानकारी मिली है अनेक किसानो ने अपने बगीचे सूखने से बचा लिए हैं. अब वे हर साल बढ़ते क्रम में फलों का उत्पादन ले रहे हैं. फलों के स्वाद और खुशबू के कारण उनका मुनाफा बहुत बढ़ गया है.


PROTECT FRUIT TREES IN DROUGHT
     Fruit growers are in  crisis due drought. Their orchards are dying. Many orange orchards in Maharashtra  are dying. This is happening due to unnatural way of farming.
Farmers are tilling under the shade area of trees. Rain water is not going in is flowing and removing organics.
   Masnobu Fukuoka founder of Natural Farming was first  who stopped tilling and removing green cover of weeds from his orchards .Now all fruit growers of Japan following his method. Many orange growers in America are also in crisis due to drought.
  He visited my farm in 1988. He was saying that many small, insects and microbes lives the under green cover of weeds. This diversity supply nutrients, make soil perforated,rain water easily goes inside the soil. Many predators living in green weed cover control harmful insects,  trees remain healthy  gives every year fruits in increasing manner. Taste and flavor also improves.
   Second he told that digging around trees, cutting roots and filling cow dung, chemicals etc. and pruning is harmful in natural growth. Trees become sick and dye .
   Many farmers of  Maharashtra  near Nagpur are following  Fukuoka's method are safe in drought.


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Thursday, September 27, 2012

Growing winter crops with the help of Rice straw. धान की पुआल से करें ठण्ड में गेंहूं की कुदरती खेती. Growing winter crops with the help of Rice straw.

धान की पुआल से करें ठण्ड में गेंहूं की कुदरती खेती.
ज क़ल अनेक किसान धान की कटाई हार्वेस्टर से करते हैं इस लिए गेंहूं की अंतर फसल  संभव नहीं रहती है और वे पुआल को अपने खेतों पर वापस डाल भी नहीं पाते हैं. उसे वे जला देते हैं ये बहत गलत है.गेंहूं की खेती के लिए जुताई,खाद,दवाई और दवाई  तथा सिंचाई काफी महंगी पड़ती है. ऐसे में आप धान की कटाई और गहायी के उपरांत भी बिना जुँताई करे आसानी से गेंहूं की बोनी कर सकते है. उसके लिए आप को खेतों में गेंहूं के बीजों को  ४० किलो. प्रति एकड़ के हिसाब छिटक दीजिये और उस के ऊपर मशीन से काटे पुआल को आडा तिरछा इस प्रकार से फेंक दीजिये की सूर्य की रोशनी आपके खेतों में नीचे तक पहुँच जाये. फ़िर सिंचाई कर दीजिये.
    आप देखेंगे की पुआल के भीतर से सब गेंहूं उग कर बाहर निकाल आता है. इस में समय समय से जुताई करते रहें. इस प्रकार आप चने आदि को भी बो सकते हैं.  इस तरीके से आसानी से १/२ टन से एक टन/ चोथाई एकड़  तक फसल मिल जाती है जो हर साल बढती रहती है इस से जमीन भी की ताकत भी बढती रहती है.

 Growing winter crops with the help of Rice straw.
Many Rice grower are doing harvesting with machine (Harvester). Therefor they can not do inter cropping of winter grain.They burn precious straws. If farmer use rice straw they can save cost of tilling ,cost of composting ,cost of chemical fertilizers,cost on killing of weeds and insects,
cost of Tonic and cost of making bio fertilizer from cow' dung and urine.
     Simply scatter winter gains directly on the field and cover field by Rice straws  uniformly in a manner in which  sun light properly penetrate up to ground, so seedlings easily come out through straws. In the absence of moisture irrigation can be done it saves about 50% water also. Winter grain gives normal yield it will not low even in first year. The production increase every year with because zero soil ,water and bio diversity erosion.

--Raju Titus.Natural farm.Hoshangabad. M.P. 461001.
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Wednesday, September 26, 2012

गाजर घास से करें बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना दवाई 'गेंहूं की खेती'

गाजर घास से करें बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना दवाई 'सोयाबीन /गेंहूं ' की खेती 
ज क़ल जहाँ देखो वहां खेतों में गाजर घास दिखाई देती है. आम किसानो के लिए ये एक बड़ी दुःखदाई खरपतवार है. किन्तु बिना जुताई खाद और दवाई के होने वाली कुदरती खेती में ये वरदान है. इस के सहारे बरसात में सोयबीन,धान आदि की खेती आसानी से हो जाती है. ठण्ड में इस के सहारे गेंहूं की खेती बिना किसी खर्च के आसानी से हो जाती है. इसे करने  के लिए जमीन जुताई बिलकुल जरुरी नहीं है नहीं इस में किसी भी प्रकार के मानव निर्मित खाद की जरुरत है. कीट और खरपतवार नाशक उपाय इस में गेर जरुरी हैं. कोई भी टोनिक या गाय के गोबर और गो मूत्र की इस में जरुरत नहीं है.
    बस चाहिए तो बस गाजर घास का अच्छा भूमि ढकाव जिस को पैदा करने के लिए कुछ करना नहीं होता वरन उसे हटाने के प्रयासों को रोकना पड़ता है. तक जब तक गेंहूं बोने का समय नहीं हो जाता गाजर घास को बचाने की जरुरत है जब गेंहूं बोने का समय हो जाये इसके ढकाव में ४० किलो प्रति एकड़ के हिसाब से गेंहूं के बीजो का छिडकाव कर दीजिये. बीज अच्छी नस्ल के अच्छे होने चाहिए. जैसे बीज होंगे वैसी फसल मिलेगी . इस के बाद हासिये, तलवार या घास काटने की मशीन से गाजर घास को काट कर  जहाँ का तहां फेला दीजिये.पर्याप्त  नमी नहीं होने की स्थिति में सिचाई कर दीजिये. सब गेंहूं उग कर काटे हुए गाजर घास से ऊपर आ जायेगा. आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहिये. ऐसा करने से पहले साल में ही  आधा टन से लेकर एक टन गेंहूं की पैदावार  आधा एकड़ मिल जायेगी जो आस पास के सब से अच्छे खेतों की पदावर से किसी भी हालत में कम नहीं रहती है. इस खेती से किसानो एक और जहाँ ८०% लागत कम आती है वही ५०% प्रतिशत पानी कम लगता है. ये अनाज कुदरती अनाज कहलाता है जिस की बाजार में कीमत रासायनिक गेंहू की तुलना में कई गुना अधिक है.
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Tuesday, September 25, 2012

ओरगनिक और आयुर्वेदिक का भ्रम

         

               जो कुदरत बनाती है इंसान नहीं बना सकता है। 

जैसे जैसे लोगों को पता चल रहा है की रासायनिक खाद और दवाओं से नुकसान होता है लोग कुदरती खान ,पान दवाओं की और आकर्षित हो रहे हैं. इस  का लाभ वैकल्पिक खान,पान और दवा बनाने वाले खूब उठा रहे हैं. अनेक लोग आयुर्वेदिक, ऑर्गनिक आदि की खेती करने लगे और दुकान चलाने लगे हैं. इस में कोई बुरी बात नहीं है किन्तु फसलो के उत्पादन के लिए जुताई करने से कोई भी फसल आयुर्वेदिक या ओरगनिक नहीं रहती है. जुताई करने से बड़ी मात्रा में भूमि ( ओरगनिक खाद ) का  छरण होता है. लोग इस छरण की आपूर्ति के लिए रसायनों का इस्तमाल करते हैं इस से ये उत्पाद जहरीले हो जाते है.
    अनेक लोग इस तथ्य को स्वीकारते  हैं और वे खेती में गेर रासायनिक खाद और दवाओं का उपयोग कर रहे हैं. किन्तु ये कोई नहीं जनता है की हर बार जमीन की जुताई करने से खेत की आधी कुदरती  शक्ति नस्ट हो जाती है. खेत कमजोर होते जाते हैं. कमजोर खेतों में कमजोर फसले पैदा होती है. इनमे रोग लगते हैं. जो रोग पैदा करती हैं. अनेक लोग आज क़ल रासयनिक खादों के विकल्प में गोबर और गोमूत्र से बनी खाद डालने की सलाह देते हैं. गोबर और गो मूत्र में नत्रजन होता है. इसका हल्का लाभ यूरिया की तरह दीखता है पीली कमजोर फसल हरी दिखने लगती है. किन्तु इस से खेतों की कमजोरी जहाँ की तहां ही रहती है. इस से निकलने वाली फ़सलें भी कमजोर रहती है. उनमे भी रोग लग जाते हैं.
   जंगलों में मिलने वाले कुदरती आंवले और खेतों में पैदा किए जा रहे आंवले में यही फर्क रहता है वे ताकतवर रहती है उनमे  रोग नहीं लगते हैं. उनके सेवन से रोग भाग जाते हैं. यही फर्क तुलसी और एलोवीरा में होता है. यही बिना जुताई की कुदरती खेती और जुताई वाली ओरगेनिक खेती से मिलने वाले खाद्यों में होता है. इसी प्रकार शहद है यदि मधुमखियों को पालने में रासयनिक या  किसी गेर रासयनिक दवा का इस्तमाल  होता है तो भी वह शहद अपनी तासीर खो देता है. जहाँ तक मिलावट की बात है वह अलग है.
       जुताई नहीं करने से जमीन पर अनेक प्रकार की जैव विवधताओं के पनपने से और फसलों  के अवशेषों ,गोबर ,गोंजन ,पत्तियों आदि को जहाँ का तहां खेतों में लोटा देने से खेतों की ताकत बढती जाती है. फसलों की ताकत भी बढती जाती है. फ़सलें निरोगी पैदा होती हैं. इनका स्वाद और जायका अलग होता है. वे सही में स्वस्थ्वर्धक होती हैं.
  सवाल ये पैदा होता है की आम लोग सही ओरगनिक ,जैविक,कुदरती आयुर्वेदिक की पहचान कैसे करें ? हर कुदरती  खाद्य और दवाई का एक कुदरती स्वाद होता है इसकी पहचान करने के लिए स्वाद को पहचानना  जरूरी है. मिर्ची में झाल होना चाहिए,करेले में कड़वाहट होनी चाहिए सब का अपना अपना  स्वाद जायका होता है.
आंवले से बनी  दवाई में जंगली आंवले का जायका हर कोई पहचान सकता है. इसी प्रकार शहद है.
  गाय का दूध भी गाय के खाने पर निर्भर रहता है. एक गाय को खूंटे पर बांध कर अनाज खिलाया जाता है. उसे अनेक प्रकार की दवाई पिलाई जाती है वो अधिक दूध देने लगती है पर उस का दूध स्वाद  और खुशबू खो देता है.
एक गाय खुले कुदरती चारागाह में अपने मन से चर कर जब घर आती है उस की आत्मा प्रसन्न हो जाती है. उस के दूध और घी  में जो स्वाद होता है. वह खूंटे पर बंधी गाय से कभी प्राप्त नहीं हो सकता है.
   अनेक लोग हम से कहते हैं की हम शहरों में रहते है हमें असली कुदरती खान पान की चीजे कैसे मिले हम उन से कहते है की जब हम कुछ खरीदते हैं तब हम स्वाद का ध्यान रखें और उस किसान को प्रोत्साहित करें जो हमें अच्छा स्वदिस्ट कुदरती आहार लाकर देता है. विज्ञापन और सर्टिफिकेट की कोई गेरेंटी नहीं है.
     पहले हम सभी किसान थे अब किसान और उपभोगता  अलग हो गए हैं.  बिना जुताई की कुदरती खेती बहुत आसान है इस बच्चे  भी आसानी से कर सकते है इस लिए इस के लिए थोड़ी सी जमीन चाहिए और बस कुछ मिनट प्रति दिन देने से हम अपना कुदरती खाना स्वं उगा सकते हैं. बिना जुताई की कुदरती  खेती का आधार कुछ मत करो है. यानि जुताई ,खाद और दवाओं की कोई जरुरत नहीं है.
आयुर्वेद कुदरती जीवन पद्धती है वह कोई डाक्टरी नहीं है उसी प्रकार जमीन की जुताई जैविक पद्धती नहीं है.
     हम सब  छुट्टियों में भी आराम से  कुदरती खेती को कर के अपना आहार को स्वं पैदा कर सकते हैं.

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खड़ी धान में गेंहूं की बुआई

खड़ी धान में गेंहूं की बुआई
बिना जुताई की कुदरती खेती में धान की खड़ी फसल के भीतर ही फसलों को ऊगाने की प्रथा काफी पुरानी है. सामन्त : किसान  धान  को काटने से करीब दो सप्ताह पहले खड़ी धान  की फसल में ठण्ड में बोने वाली फसलों को फेंक देते हैं जिस से पर्याप्त नमी होने के कारण फ़सलें जम जाती हैं. धान को हाथ से काटा जाता है कटाई करने वालों के पांव के नीचे आगामी फसल के नन्हे पौधे दबने से उनका कोई नुक्सान नहीं होता है. धान को काटने तथा उसे झाड़ने के बाद बचा सब पुआल जहाँ खेतों से लिया जाता है उसे वही वापस उगती हुई फसल के उपर आडा तिरछा डाल दिया जाता है. जो खरपतवार नियंत्रण ,नमी संरक्षण,फसलों को रोग से बचाने ,और सड़ कर जैविक खाद देने में सहायक तो होता है साथ में इस के नीचे असंख्य केंचुए तथा उनके साथी चीटे चीटी दीमक आदि खेत को गहराई तक बखर देते हैं. ये बखरई मशीनों से की जाने वाली बखरई से भी अच्छी होती है. ठण्ड की फसल में किसी भी प्रकार की खाद ,दवाई की जरुरत नहीं रहती है. फसल की पैदावार ५००से १००० ग्राम /एक वर्ग मीटर  तक मिल जाती है जो आसपास के अच्छे से अच्छे खेतों से कम नही रहती है.
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Monday, September 24, 2012

कुदरत के आगे विज्ञान फेल है।


कुदरत के आगे विज्ञान फेल है।
महोदय,
जब से म.प्र. के माननीय मुख्यमन्त्री महोदय ने आयातित लाल गेहूं की गुणवत्ता पर प्रष्न चिन्ह लगाया है। खाद्य पदाथों को परखने वाले वैज्ञानिकों मे खलबली मची है। वे इसे प्रदूषित नहीं मान रहे हैं। उनका यह कहना कि यह खाने योग्य है, बिलकुल हास्यासप्रद है।
असल मे वैज्ञानिकों के पास कुदरति जिस्नों को परखने का कोई प्रबन्ध है ही नही, होता तो बरसों से हरित क्रान्ति के द्वारा परोसा जाने वाला प्रदूषित अनाज कब का बन्द हो गया होता। विज्ञान कुदरति स्वाद और ज़ायके की पहचान करने मे पूरी तरह फेल है। यही कारण है अंसख्य लागों के कहने पर इस गेहूं की रोटी कड़वी,बेस्वाद और रबर जैसी खाने येाग्य नही है कोई मान नही रहा है। मामला कोर्ट से भी बेरंग वापस आने वाला है। यदि जज या हमारे मुख्य मन्त्री महोदय भी यह कहें कि यह बेस्ुवाद है तो भी इसे प्रूफ करने के लिये किसी डाक्टर के सर्टीफिकेट की आवष्यकता होगी जिसके लिये वैज्ञानिक जांच की जरुरत होगी और वैज्ञानिक इसे विज्ञान की अंधी आंख से प्रेाटीन और विटामिनो के तुलनात्मक प्रमाणों के आधार पर खाने येाग्य बताकर अपना पल्लू झाड़ एक तरफ हो जायेंगे।
जबसे हरित क्रान्ति बनाम आधुनिक वैज्ञानिक खेती का अनाज आना शुरु हुआ है तबसे कुदरति स्वाद और जायका हम भूल ही गये हैं। गरीब मज़दूर वर्ग कब से यह कहते कहते थक गया कि जहां दो रोटी से पेट भर जाता था वहां अब आठ रोटी से भी पेट नहीं भरता है। छोटे बच्चे कुदरति स्वाद जायके को खूब पहचानते हैं क्योंकि वे प्रोटीन और विटामिन की भाषा से अनभिज्ञ रहते हैं।
कुदरति स्वाद और जायके का हमारे स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। कुदरति हवा पानी और भोजन बड़ी से बड़ी बीमारी को ठीक कर देते हैं। हमारा निवेदन है कि सरकार को अनाज और सब्जियों की कुदरति गुणवत्ता जांचने के लिये वैकल्पिक उपाय पर जोर देना चाहिये।
शालिनी एवं राजू टाईटस
बिना-जुताई की कुदरति खेती के किसान
खोजनपुर,होशंगाबाद ,म.प्र. ४६१००१ फोन .07574.२८००८ मोब.9179738049

Sunday, September 23, 2012

आयातित तेल की गुलामी और खाने में जहर से कैसे बचें ?

आयातित तेल की  गुलामी और खाने में जहर से कैसे बचें ?
ब मैने ये सुना की हम इन दिनों अपनी जरुरत का ८०% तेल आयात कर रहे हैं  तो बहुत जोर का झटका लगा. आज़ादी के इतने साल के बाद  जहाँ हम विकास और विकास को सुनते थकते नहीं थे वहीँ ये विकास हमें मिला है की हम तेल के गुलाम हो गए हैं.ये गुलामी अंग्रेजों की गुलामी से कहीं बहुत बड़ी गुलामी है.
दूसरे जहाँ हमारे नेता ये कहते थकते नहीं हैं की हमने खेती में इतना विकास कर लिया है की पहले हम खाना बाहर से बुलाते थे और अब विदेशों को भेज रहे हैं.हमारे पास रखने को जगह नहीं है. किन्तु जब हमने अमीर खान का शो ( थाली में जहर) देखा जो उन्होंने सत्यमेव जयते के माध्यम से दिखाया था तो हमें ये जान कर बहुत दुःख हुआ इस अनाज से जिस के लिए हम गर्व कर रहे हैं वह पूरा का पूरा रासायनिक जहरों से भरा है जिस से केंसर जैसी अनेक बीमारियाँ पनप रही हैं. इस अनाज को हमारी सरकार छोटे छोटे बच्चों के पोषण हेतु खिला रही है.
ये बहुत ही गंभीर समस्या है जिस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है. पर्या-मित्र विकास की तो बात सब करते हैं किन्तु कोई भी इस पर अमल नहीं कर रहा है.
  इस से तो हम बहुत खुश हैं की हम अपने कुदरती खेतों में रहते हैं बिना आयातित तेल की मशीनों का उपयोग करे ,बिना रसायनों का उपयोग करे ,बिना कीट और खरपत नाशक दवाओं का उपयोग करे. आत्म निर्भर कुदरती खेती कर आराम से जीवन व्यतीत कर रहे हैं. हमारे पडोसी किसान अभी हवा में उड़ रहे हैं वे आयातित तेल की गुलाम आधुनिक वैज्ञानिक खेती कर रहे हैं. और गेस ,डीज़ल के बढे दामो से परेशान हैं.
बिना जुताई की कुदरती खेती बहुत आसान है इसकी गुणवत्ता और उत्पादकता भी आधुनिक वैज्ञानिक खेती के मुकाबले बहुत अधिक है.
हम पेडों पर पैसे उगाते हैं. हमने अपनी जमीन में अधिकतर भू भाग में सुबबूल नाम के पेड़ लगायें हैं. ये पेड़ बड़ा ही चमत्कारी  है इस के बीज जमीन पर गिरते हैं वे वहाँ अपने आप सुरक्षित पड़े रहते हैं बरसात आने पर उग आते हैं और एक साल में पेड़ बन जाते हैं. इनसे हमारे पशुओं को चारा मिलता है जिस से हमें दूध और जलाऊ लकड़ी मिलती जिसे बेचकर हमें पर्याप्त पैसा मिल जाता है. इस के अलावा गोबर से गोबर गेस और जैविक खाद पर्याप्त है.
आज क़ल सब जगह कुदरती जल की बहुत कमी है सत्यमेव जयते के पानी वाले एपिसोड में बताया गया है दिल्ली में लोग अपने टॉयलेट के पानी को साफ कर बार बार काम में ला रहे हैं. बिना जुताई की कुदरती खेती करने से हमारे  उथले कुए साल भर कुदरती जल से भरे रहते हैं एक विदेशी मेहमान हमारे कुओं के जल को पी कर कह रहे थे आप टोकियो और अमेरिका के अच्छे से अच्छे तरीके से साफ़ किए पानी को नहीं पी सकते क्यों की आप इन कुदरती कुओं का पानी पीते हैं.
आयातित तेल की गुलामी और हमारे खाने में मिल रहे रासायनिक जहरों से मुक्ति बहुत आसान है यदि हम बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास करें. इस से ८०% खर्च में कटोती हो जाती है. अन्य लाभ अतिरिक्त हैं.
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Saturday, September 22, 2012

बिना जुताई की कुदरति खेती के मसीहा मसनेबु फुकुओका !


बिना जुताई की कुदरति खेती के मसीहा मसनेबु
फुकुओका !
जापान मे जन्मे ,पढ़े और बढ़े तथा एक कृषि वैज्ञानिक
के रुप मे ख्याति अर्जित करने के बाद एक कुदरति किसान के रुप मे खूब नाम कमा
कर अब 95 वर्ष की उर्म मे मसनेबु फुकुओका ने अपना जीवन त्याग दिया।
फुकुओकाजी एक ऐसे कृषि वैज्ञानिक थे जिन्होने न सिर्फ आधुनिक वैज्ञानिक
खेती को वरन् तमाम जुताई पर आधारित खेती करने के तरीकों को हमारे
पर्यावरण ,स्वास्थ ,और खाद्य सुरक्षा के प्रतिकूल निरुपित कर दिया।
उन्होने बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना निन्दाई ,बिना दवाइयों से दुनिया भर
मे सबसे अधिक उत्पादकता एवं गुणवत्ता वाली खेती की न सिर्फ खेाज की वरन् उसे
लगातार पचास सालों तक स्वयं कर मौज़ूदा वैज्ञानिक खेती को कटघरे मे खड़ा
कर दिया।उन्होने जापान मे उंची पहाडि़यों पर संतरों का कुदरति बगीचा बनाया
जिसमे अनेक फलों के साथ साथ अनेक प्रकार की सब्जियां बिना कुछ किये मौसमी
खरपतवारों की तरह पैदा होती हैं। पहाडि़यों के नीचे वे धान के खेतो मे
बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना रोपा लगाये ,बिना पानी भरे एक चैथाई एकड़
से एक टन चांवल आसानी से 50 सालों तक लेते रहे, इतना नहीं धान की खड़ी
फसलों मे गेहूं के बीजों को छिटककर वे इतना गेहूं भी लेते रहे। उनके
कुदरति अनाजों मे इतनी ताकत है कि इनके सेवन मात्र से केंसर भी ठीक हो जाता
है।
वे सच्चे अहिंसावादी थे। जिस समय वे एक सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक के रुप मे
सूक्ष्मदर्शी यंत्रो का उपयोग कर धान के पौधों मे लगने वाली बीमारियों
का अध्ययन कर रहे थे तो उन्ंहे यह पता चला कि आज का विज्ञान बीमारियों की
रोकथाम के लिये सूक्ष्मजीवाणुओं को दोषी मानकर उनकी अनावश्यक हत्या
करता है। जबकि ये सूक्ष्मजीवाणु ही असली निर्माता हैं।उनकी बिना जुताई की
कुंदरति खेती का यही आधार है।उन्होने मिटटी के एक कण को बहुत बड़ा
कर देखकर यह पाया कि मिटटी अनेक सूक्ष्मजीवाणुओं का समूह है। इसे जोतने ,
हांकने बखरने या इसमे रासायनिक खादों को डालने ,खरपतवार नाशकों को
डालने ,कीटनाशकों को छिड़कने या कीचड़ आदी मचाने से आंखों से
दिखाई न देने वाले अंसख्य सूक्ष्मजीवों की हत्या होती है।यह सबसे बड़ी हिंसा
है।
सन 1988 जनवरी जब वे हमारे खेतों मे पधारे थे तब उन्होने बताया था कि
जमीन को बखरने से बखरी हुई बारीक उपरी सतह की मिटटी थोड़ी बरसात होने
पर कीचड़ मे तब्दील हेा जाती है जो बरसात के पानी के पानी को भीतर नहीं
जाने देती बरसात का पानी तेजी से बहने लगता है साथ मे बहुमूल्य उपरी सतह की
मिटटी(खाद) को भी बहा ले जाता है।कृषि वैज्ञानिकों का यह कहना कि
फसलें खाद खाती हैं अैार पानी पी जाती हैं यह भ्रान्ति है। जुताई के कारण
होने वाले भू एवं जल क्षरण के कारण ही खेत खाद और पानी मांगते हैं।
फुकुओकी जी के 25 सालों के अनुभव की किताब दि वन स्ट्रा रिवोलूशन
दुनिया भर मे बहुत पसदं की गई इस किताब को अनेक भाषाओं मे छापा जा रहा
है। स्ट्रासे उनका तात्पर्य मूलतः नरवाई या धान के पुआल से है। दुनिया
भर मे अधिकतर किसान इसे जला देते हैं या खेतों से हटा देते हैं। उनका कहना
है कि यदि इसे जलाने कि अपेक्षा किसान इसे खेतों मे जहां कि तहां फैला दें
तो इसके अनेक लाभ हैं। पहला नरवाई के ढकाव के नीचे असंख्य केचुए आदी
जमा हो जाते हैं जो बहुत गहराई तक भूमी को पोला कर देते हैं आज तक
कोई भी ऐसी मशीन नहीं बनी है जो इस काम को कर सकती है।इसके दो फायदे
हैं एक तो बरसात का पानी बह कर खेतों से बाहर नहीे निकलता है दूसरे फसलों की
जड़ों को पसरने मे आसानी हाती है।दूसरा यह ढकाव सड़ कर खेतों को उत्तम
जरुरी जैविक अशं दे देता है। तीसरा इसमे फसलों की बीमारियों के कीड़ों के
दुश्मन रहते हैं जिससे फसलें बीमार नहीं पड़ती। चैथा ढकाव की छाया के कारण
खरपतवारों के बीज अंकुरित नहीं होते जिससे खरपतवारों की कोई समस्या नहीे
रहती है।निन्दाई गैर जरुरी हो जाती है।
जब वे हमारे खेतों पर पधारे थे उस समय हम नेचरल फार्मिंग के मात्र तीसरे बर्ष
मे थे. और अब तक ’’दि.व.स्ट्रा.रि’’. के अलावा हमारा कोई गाइड नहीं था।
वह तो बरसात के दिनों मे एक अनायास प्रयोग हमसे हो गया ।हमने सोयाबीन के कुछ
दानों को जमीन पर छिटकर उस पर प्याल की मल्चिगं कर दी ,मात्र 4 दिनो बाद हमने
देखा कि सोयाबीन बिलकुल बखरे खेतों के माफिक उग कर प्याल के उपर निकल आई
है। बस हम खुशी से फूले नहीे समाये हमे बिना जुताई कुदरति खेती करने का
तरीका मिल गया था। बिना जुताई की कुदरति खेती करने से पूर्व हम अपने खेतों
मे गहरी जुताई ,भारी सिंचाई ,कृषि रसायनों पर आधारित खेती का अभ्यास करते
थे, जिससे हमारे खेत मरुस्थल मे और हम कंगाली की कगार तक पहुंच गये थे।
हमारे खेत कांस घांस से भर गये थे,कांस घांस एक ऐसी घास है जिसकी जड़ें 25
फीट से 30 फीट तक की गहराई तक फैल जाती हैं जिस के कारण कोई भी खेती
करना मुश्किल रहता है।
हमने पहले बरसात मे कांस घास को बढ़ने दिया फिर ठण्ड के मौसम मे खडी घांस
मे दलहन जाती के बीजों जैसे चना ,मसूर ,मटर ,तिवड़ा ,बरसीम आदी के बीजों
को छिटकर ,घास को काटकर जहां का तहां आड़ा तिरछा फैला दिया और स्प्रिंकलर
से सिंचाई कर दी। ठीक हमारे प्रयोग की तरह पूरा खेत फसलों से लहलहा उठा।
हालाकि हम फुकुओका विधी से अभी काफी दूर थे इसलिये उनके आगमन से काफी
डरे हुए थे। किन्तु जब उन्होंने हमारे खेत मे इस विधी से खेती करते देखा तो
उन्होने कहा कि मै अभी अमेरिका से आ रहा हूं ,वहां की करीब तीन चैथाई
भूमी मे यह घास छा गई है ,जिसमे अब खेती नहीं की जाती है क्योंकि उन्हें
नहीं मालूम है कि क्या करें? यह घास जुताई के कारण पनपते रेगीस्तानों की
निशानी है। चूंकि आप यहां इस घास मे कुदरति खेती कर रहे हैं इसलिये हम
आपको हमारे द्वारा दुनिया भर मे चल रहे प्रयोगों मे न. वन देते हैं, किन्तु
अभी आपको केवल 60 प्रतिशत ही नम्बर मिलेंगे क्योंकि अभी आपको बहुत कुछ
सीखने की जरुरत है। पर यदि आप ठीक ऐसा ही करते रहे तो आप आराम से बिना कुछ
किये जीवन बिता सकते हैं।
और आज हमे अपने गुरु के वे शब्द याद आते हैं हमारे खेत पूरे हरे भरे घने
पेड़ों से भर गये हैं। ये खेत नहीं रहे वरन वर्षा वन बन गये हैं।इससे हमे
वह सब मिल रहा है जो जरुरी है।जैसे कुदरति हवा ,जल ,ईंधन ,आहार और आराम।
आज की दुनिया मे हम भारी कुदरति कमि मे जीवन यापन कर रहे हैं। सूखा और
बाढ़ आम हो गया है। केंसर जैसी अनेक लाइलाज बीमारियां बढ़ती जा रहीे हैं।
धरती पर बढ़ती गर्मी और मौसम की बेरुखी से पूरी दुनिया परेशान है। गरीबी ,
बेरोजगारी मुसीबत बन गये हैं। भारत मे हजारेंा किसान आत्म हत्या करने लगे हैं
लोग खेती किसानी को छोड़ भाग रहे हैं। इन सब समस्याओं के पीछे खेती
मे हो रही जमीन की जुताई का प्राथमिक दोष है। जुताई के कारण हरे भरे
वन ,चारागाह ,बाग बगीचे सब अनाज के खेतों मे तब्दील हो रहे हैं ,तथा खेत
मरुस्थल मे तब्दील हो रहे हैं। हरियाली गायब होती जा रही है। गरीबों को
जलाने का ईधन और पीने का पानी नसीब नहीं हो रहा है।
ऐसे मे बिना जुताई की कुदरति खेती के अलावा हमारे पास और कोई उपाय नहीे
है। अमेरिका मे अब बिना जुताई की कनज़र्वेटिव खेती और बिना जुताई की
आरगेनिकखेती जड़ जमाने लगी है। 37 प्रतिशत से अधिक किसान इस खेती को
करके खेती किसानी के व्यवसाय को बचाने मे अच्छा योगदान कर रहे हैं। यह सब
फुकुओका की देन है। हमारे देश मे पशुपालन आधारित खेती हजारों साल
स्थाई रही किन्तु जुताई के अनावश्यक कार्य के कारण बेलों की जगह ट्रेक्टरों
ने ले ली इस कारण पालतू पशु और चारा लुप्त हो रहे हैं। किसान गेहूं की
नरवाई और कीमती धान के पुआल को जला देते हैं। आधुनिक बिना जुताई
की खेती पिछली फसल से बची खड़ी नरवाई मे सीधे बिना जुताई की सीड ड्रिल
का उपयोग कर की जाती है। बिना जुताई की आरगेनिक खेतीकरने के लिये किसान
खड़ी नरवाई या हरे मल्च को रोलर ड्रम की सहायता से मोड़ देते हैं।फिर
उसमे बिना जुताई की सीड ड्रिल से बुआई कर देते हैं। ऐसा करने से जहां 80
प्रतिशत खर्च मे कमि आती है वहीं उत्पादन और गुणवत्ता मे भी लाभ होता
है। आजकल बिना जुताई की खेती करने वाले किसानों को कार्बन के्रडिट के
माध्यम से अनुदान भी मुहैया कराया जाने लगा है।
फुकुओका जी से हमारी आखिरी मुलाकात सन 1999 मंे सेवाग्राम मे हुई थी
वे वहां वे अपने सहयोगियों की सहायता से सीड बालबनाकर बताते हुए अपनी बात
कहते जा रहे थे उन्होने बताया कि तनज़ानिया के रेगिस्तानों को हरा भरा
बनाने मे ये मिटटी की गोलियां बहुत उपयोगी सिघ्द हुईं हैं। आज यदि गांध्
ाी जी होते तो वे जरुर चरखे के साथ मिटटी की बीज गोलियों से खेती करते। एक
ई-ेमंेल से पता चला है कि उनके अतिंम संस्कार के समय उनके पोते ने कहा कि
उनके दादा ने लोगो के मनो मे सीड बालबोने का काम कर दिया है बस उनके
अंकुरित होने का इन्तजार है।
दुनिया भर मे आज हो रही हिसां के पीछे हमारी सभ्यताआंे का बहुत बड़ा हाथ
है फुुकुओका जी का कहना है कि शांति का मार्ग ’’हरियाली ’’ के पास है। वे
कुदरत को ही भगवान मानते थे। वे अकर्म’ (डू नथिंग) के अनुयाई थे।
शालिनी एवं राजू टाईटस
बिना जुताई की कुदरति खेती के किसान
ग्राम-खोजनपुर  ,होशंगाबाद ,म.प्र. 461001

Wednesday, August 15, 2012

Columnists Oped Get to the root of eco-friendly farming
14 Aug 2012

Get to the root of eco-friendly farming

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Author:  pioneer
Natural farming is a way of life. It is an idea that can wipe out hunger as well as give life to other living beings and organisms. It provides pure air and water, creating equilibrium in the environment, writes Baba Mayaram
 Aamir Khan, on his show, Satyamev Jayate, spoke  recently about the harmful effects of pesticides and requested the Union and the State Governments to adopt organic farming method. Waking up to the cries of farmers, Aamir has put forward a solution which surely will bring back life to our agricultural fields. Providing testimony to Aamir’s claim is a farm in Madhya Pradesh that proudly flaunts its fertile expanse of 12 acres and the unique method that can help overcome the suicidal trend among the farmers of the state, perhaps of the country. The sole but strong characteristic of the Titus Farm that differentiates it from the rest is the use of natural methods to grow, and to let grow.
Three kilometres from Hoshangabad, Madhya Pradesh, on the road to Bhopal, lies the Titus Farm, where for the last 25 years an unique experiment of natural farming is being done here by a local farmer, Raju Titus, who abandoned traditional plough-based and chemical methods of farming in his farms. He favours farming without tillage, known as ‘No-Till’ farming. By doing so, Raju attracted the attention of people who come from across the country to see the experiments he has done with natural farming.
In November last year, three farmers committed suicide in Hoshangabad. Perturbed by the suicides, Raju feels that the days of chemical farming are over. Excessive use of chemical fertilisers, insecticides and unnecessary tillage of the land leave soil susceptible to erosion and lead to agricultural runoff. Irrigation facilities offered by Tawa Dam created some hope initially, but now the dream has become a nightmare. This year, the crop of soybean in Hoshangabad was completely destroyed, producing only two quintals of soybean per acre. In such situations, alternative farming is what we need to think of. Farmers disappointed with all the ‘revolutionary’ methods of cultivating crops are attracted towards this promising idea of natural farming.
One part of his farm, where wheat has already been sown, is covered with green ground cover made of weeds. Here, Raju has covered the field with paddy straw along with gajar ghaas (carrot grass). Once the sunlight reaches the seeds, filtered by the green ground cover, the young wheat saplings will grow out, celebrating life.
Proud of his experiments, Raju says, “Covering the fields with weeds and grass gives birth to microbes, earthworms and insects which bore holes in the soil and make it softer and porous. It collectively increases the fertility of the soil, resulting in a good harvest.”
Natural farming increases the fertility of the soil, whereas in chemical farming, it is on a constant decline, till there comes a point when the soil is rendered completely infertile. The organic fertiliser, the carbon, formed inside the soil is lost in the air after tillage as the soil’s organic matter is broken down more rapidly. This increases the carbon dioxide level in the atmosphere, thus contributing to the global warming. A no-tillage technique gives hope for a solution to a worrying global problem.
Raju Titus has 13.5 acres of land, of which 12 acres are used for farming. On 11 of this 12 acre farm, there is a dense forest of subbool (Australian agesia) which is a type of fodder for the animals and a good source of wood. Only one acre is used for agricultural purposes, that too without following the popular practices.
Raju’s farming is dictated by his requirement, not by what the market requires. He explains, “One acre of land is sufficient for our need. We get food grains, fruits, milk and vegetables from it, which is sufficient for the need of our family. We sow wheat in winter, corn and green gram in summer and paddy in rain.”
The steps he is following for the last 25 years are of the famous Japanese agricultural scientist Masanobu Fukuoka, who practiced natural farming for years and wrote the book, One Straw Revolution.
Typically considered to be the enemy of crops, weeds are the backbone of natural farming. Raju has developed a friendly relationship with the weeds as they create the green zones in the field. When asked if these plants harm the crops, Raju replies, “Not at all,” adding, “The roots of these plants and trees go deep thus strengthening the soil. The crops grow well under the shades of trees and plants. It also depends on how fertile your land is. Since our lands are fertile, the shade of trees doesn’t adversely affect the crops.”
It is natural to believe that no-till farming is tough. People who hear of the methods adopted as a part of this natural farming usually tend to disbelieve. But seeing Raju’s farm, the sceptics come away thoroughly convinced.
Natural farming is a way of life. It is an idea that can wipe out hunger as well as give life to other living beings and organisms. It provides pure air and water, creating equilibrium in the environment. It is called ‘Rishi farming’, named after the natural lifestyle of the rishis whose intake comprised roots, fruits and milk. They grew high productivity food grains on a very small patch of land. And natural farming showed the way.

Monday, July 23, 2012

No-till farming answer to the global hunger

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The Times of India
Bhopal
The Times of India
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No-till farming answer to the global hunger


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HOSHANGABAD: Aamir Khan, recently on his show " Satyamev Jayate" spoke about the harmful effects of pesticides and requested the Central and the state governments to adopt organic farming method. Waking up to the cries of farmers, Aamir has put forward a solution, which surely will bring back life to our agricultural fields.
Providing testimony to Aamir's claim is a farm in Madhya Pradesh that proudly flaunts its fertile expanse of 12 acres and the unique method that can help overcome the suicidal trend among the farmers of the state, perhaps of the country. The sole but strong characteristic of the Titus Farm that differentiates it from the rest is the use of natural methods to grow, to let grow.
Three kilometres from Hoshangabad, Madhya Pradesh, on the road to Bhopal, lies the Titus Farm where for the last twenty five years, a unique experiment of natural farming is being done here by a local farmer, Raju Titus, who abandoned traditional plough-based and chemical methods of farming in his farms. He favours farming without tillage, known as "No-Till" farming. By doing so, Raju attracted the attention of people who come from across the country to see the experiments he has done with natural farming.
In November last year, three farmers committed suicide in Hoshangabad. Perturbed by the suicides, Raju feels that days of chemical farming are over. Excess use of chemical fertilizers, insecticides and unnecessary tillage of the land leaves soil susceptible to erosion and leads to agricultural runoff.
Irrigation by Tawa Dam created hope initially, but now, the dream has been transformed into a nightmare. This year, the crop of Soybean in Hoshangabad was completely destroyed, producing only two quintal of soybean per acre. In such situations, alternative farming is what we need to think of. Farmers disappointed with all the "revolutionary" methods of cultivating crops are attracted towards this promising idea of natural farming.
One part of his farm, where wheat has already been sown, is covered with Green Ground Cover made of weeds. Here, Raju has covered the field with paddy straw along with Gajar Ghass (Carrot Grass). Once the sunlight reaches the seeds, filtered by the green ground cover, the young wheat saplings will grow out, celebrating life.
Proud of his experiments, Raju shares, "Covering the fields with weeds and grass gives birth to microbes, earthworms and insects which bore holes in the soil and make it softer and porous. It collectively increases the fertility of the soil, resulting in a good harvest."
Natural farming increases the fertility of the soil, whereas in chemical farming, it is on a constant decline, till there comes a point when the soil is rendered completely infertile. The organic fertilizer, the carbon, formed inside the soil is lost in the air after tillage as the soil's organic matter is broken down more rapidly. This increases the carbon dioxide level in the atmosphere, thus contributing to the global warming. A no-tillage technique gives hope for a solution to a worrying global problem.
Raju Titus has 13.5 acres of land, of which twelve acres are used for farming. On eleven of this 12-acre farm, there is a dense forest of Subbool (Australian Agesia) which is a type of fodder for the animals and a good source of wood. Only one acre is used for agricultural purposes, that too without following the popular practices.
Raju's farming is dictated by his requirement, not by what the market requires. He explains, "One acre of land is sufficient for our need. We get foodgrains, fruits, milk and vegetables from it, which is sufficient for the need of our family. We sow wheat in winter, corn and green gram in summer and paddy in rain."
The steps he is following for the last twenty-five years are of a famous Japanese agricultural scientist Masanobu Fukuoka, who practiced natural farming for years and wrote a book 'One Straw Revolution'. This natural agricultural practice is also believed to be popular in the United States of America.
Typically considered to be the enemy of the crops, weeds are the backbone of natural farming. Raju has developed a friendly relationship with the weeds as they create the green zones in the field. When asked if these plants harm the crops, Raju replies, "Not at all," adding, "The roots of these plants and trees go deep thus strengthening the soil. The crops grow well under the shades of trees and plants. It also depends on how fertile your land is. Since our lands are fertile, the shade of trees doesn't adversely affect the crops."
It is natural to believe that no-till farming is tough. People who hear of the methods adopted as a part of this natural farming usually tend to disbelieve. But seeing Raju's farm, the sceptics come away convinced.
Natural farming is a way of life. It is an idea that can wipe out hunger as well as give life to other living beings and organisms. It provides pure air and water, creating equilibrium in the environment. It is called Rishi farming, named after the natural lifestyle of the Rishis whose intake comprised roots, fruits and milk. They grew high productivity food grains on a very small patch of land. They only sowed as much as they required, and no more. And natural farming showed the way.
The Charkha Development Communication Network feels that perhaps the answers to global hunger lie in this earthy solution. By Baba Mayaram (ANI)