Friday, February 28, 2014

किसानो की आत्म हत्या रोकें ऋषि-खेती अपनाएं!



मरुस्थल में तब्दील होते मप. के खेत 

ऋषि-खेती से पुन: जीवित करें !

जुताई नहीं। खाद नहीं। दवाई नहीं। निंदाई नहीं। 

 अभी ये खबर मप. के जन जन तक पहुँच ही नहीं पायी है कि मप. को भारत सरकार ने माननीय रास्ट्रपतिजी के हाथों किसान कर्मण पुरस्कार दिया है और किसानो की आत्म हत्या का दौर शुरू हो गया है. किसान कर्मण पुरस्कार मप. को अनाज के उत्पादन को बढ़ाने के लिए दिया गया है और किसान इस लिए आत्म हत्या कर रहे हैं कि दो मौसमो से वे अनाज का दाना उठाने में असफल रहे हैं.

ये कहानी है मप. में चल रही आधुनिक वैज्ञानिक खेती की है जिस की शुरुवाद कांग्रेस सरकार ने की थी और जिसे भाजपा सरकार आगे बढ़ा रही है. बरसात के मौसम में ये कहा जा रहा था कि बहुत अधिक बरसात होने के कारण फसलें बैठ गयीं और अब कहा जा रहा है कि बे मौसम बरसात होने और ओले पड़ने से फसलें खराब हो रही हैं इस लिए किसान आत्म हत्या करने लगे हैं.

किन्तु हकीकत कुछ और ही है असल में कुल मिलाकर जमीन की गहरी जुताई और रसायनो के बल पर की जाने वाली खेती से खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं. खेतों की उर्वराशक्ति और जलधारण शक्ती ख़तम हो गयी है. इस लिए मरू खेतों में जरा सा भी मौसम का उतार चढ़ाव आता है फसलें बैठ जाती हैं. इस खेती में जुताई ,खाद ,दवाइयों और सिंचाई की लागत  इतनी अधिक रहती है कि थोड़ी भी फसल में कमी आयी कि किसान घाटे में चला जाता है. वह आत्म हत्या पर उतारू हो जाता है या खेती छोड़कर शहरों में भटकने लगता है.

हम पिछले २७ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती को ऋषि खेती के नाम से कर रहे हैं. इस खेती में जमीन की जुताई ,खाद और दवाओं की कोई जरुरत नहीं रहती है. इस खेती से खेत उपजाऊ और पानीदार बन जाते है उनमे बीमारियों , मौसम परिवर्तन, खरपतवारों की समस्या का कोई प्रभाव नहीं रहता है.

पिछले साल हमारे खेतों में भी भयंकर बाढ़ का प्रकोप रहा और इस साल ठण्ड में तेज पानी और ओलों का भी प्रभाव रहने के बावजूद हम सुरक्षित हैं.इस का मूल कारण लागत ,श्रम ,और सिचाई में 60 से 80 प्रतिशत की कमी है.

अमेरिका,ब्राज़ील,कनाडा आस्ट्रेलया ,और गंगा के कछारी इलाकों में अनेक जगह अब बिना जुताई की खेती होने लगी है बिना जुताई की खेती में एक और जहां ६० से ८० % खेती खर्च कम आता है वहीँ खेत ताकतवर और पानीदार हो जाते हैं प्रतिकूल मौसम से फसलों के खराब हो जाने पर भी किसान की हिम्मत नहीं टूटती है वह दो बारा मजबूती से खड़ा हो जाता है.

राजू टाइटस
ऋषि-खेती किसान
होशंगाबाद। 461001,rajuktitus@gmail.com. 9179738049.






ऋषि-खेती कैसे करें ?

ऋषि-खेती कैसे करें ?


ऋषि-खेती जुताई,खाद ,दवाइयों और निंदाई के बिना की जाने वाली खेती है. 


स खेती में जमीन में अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों जिन्हे सामान्य खेती में खरपतवार या नींदा कहा जाता है का बहुत महत्व रहता है. जैसे गाजर घांस, सामान्य घास आदी. जब हम जमीन की जुताई बंद कर देते हैं तब हमारे खेत इन वनस्पतियों से ढँक जाते हैं हम इन वनस्पतियों को भूमिधकाव की फसल कहते हैं.
धान की पुआल से झांकती गेंहूं की फसल  

भूमिधकाव की फसल के नीचे असंख्य जीव-जंतु ,कीड़े -मकोड़े।केंचुए आदी कार्य करने लगते हैं जिनसे जमीन छिद्रित हो जाती है उस में उर्वरकता और जल ग्रहण करने की शक्ती आ जाती है खेत पानीदार हो जाते हैं. यदी किसी कारण से खेतों में भूमिधकाव नहीं होता है तो हमे भूमिधकाव की फसलों के बीजों को छिड़ककर भूमिधकाव बनाने की जरुरत रहती है.

गेंहूं की नरवाई से झांकती धान की फसल 
गेंहूं की कुदरती फसल 
भूमिधकाव में मूल फसलों के बीजों को सीधा छिड़क दिया जाता है जब ये अंकुरित होने लगते हैं भूमिधकाव की फसल को जहां का तहां सुला देने से या काट कर वहीं बिछा देने से मूल फसल उगकर ऊपर आ जाती है.घास जाती के भूमिधकाव में गैर घास जाती की फसल अच्छी जमती है दोनों में मित्रता रहती है. गैर घास जाती के भूमिधकाव में घास जाती की फसलें अच्छी जमती हैं. उदाहरण के लिए सामान्य घास में मूंग,सोयाबीन आदी और गाजर घास में गेंहूं चावल आदि की फसल अच्छी होती हैं.
चावल की कुदरती फसल 

इस खेती में तमाम खेती के अवशेषों को जहाँ का तहां वापस लोटा दिया जाता है जिस से यह खरपतवारों का नियंत्रण ,जैव-विवधताओं का संरक्षण ,नमी संरक्षण ,फसलों की बीमारियों की रोक थाम आदी में सहयोग करते हुए साद कर आगामी फसल के लिए उत्तम जैविक खाद बना देता है.

राजू टाइटस
ऋषि-खेती किसान
होशंगाबाद
461001. rajuktitus@gmail.com. mob-9179738049


Thursday, February 27, 2014

कुदरती जल को तरसता गुजरात

नर्मदा बचायो आंदोलन 

ऋषि-खेती के सन्दर्भ में 

ज कल  टीवी में रोज गुजरात के माननीय मुख्य मंत्रीजी गुजरात के विकास के गुणगान करते नहीं थकते हैं. वो कहते हैं कि हमने कंपनियों की मदद से गुजरात को "स्वर्ग " बना दिया है.

विगत दिनों हमारे यहाँ गुजरात अहमदाबाद के करीब शहर महसाना से डॉ पटेजी पधारे वे  कई दिनों से " ऋषि-खेती " की जानकारी फोन और इंटरनेट के माध्यम से ले रहे थे. पटेलजी बहुत ही सादगी पसंद ईमानदार डॉ हैं. अपनी आजीविका के लिए वे किसी भी प्रकार के गलत काम नहीं करते हैं. ईमानदारी के खातिर उन्होंने सरकारी नोकरी छोड़ कर निजी स्तर पर पेथोलोजी का काम किया जिसे अब बंद कर ऋषि खेती करना चाहते हैं। 
उन्होंने बताया कि पहले वे अपने खेतों में आधुनिक वैज्ञानिक खेती करते थे किन्तु खेती होने वाले घाटे और प्रदुषण के कारण वे अब जैविक खेती करने लगे हैं. जैविक खेती में भी लागत  और श्रम अधिक रहता है. लाभ बहुत कम मिलता है. 

इसी सन्दर्भ में जब उन्होंने नेट पर सर्च किया  तो उन्हें ऋषि-खेती की जानकारी मिली  उन्हें फ़ोटो और लेखों से उतना विश्वाश नहीं हुआ तो इसे देखने के लिए स्वम पधारे 62 वर्षीय पटेलजी कुदरती खान पान के सहारे अपने को स्वस्थ रखे हैं. इसी लिए अब कुदरती खेती की और मुड़े हैं.

कुदरती जल संग्रह समझने आस्ट्रेलया से मेहमान पधारे 


हमारे कुदरती खेतों को देख कर वे बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने हमारे मार्ग दर्शन में खेती को करने का पूरा मन बना लिया है.

 इसी सन्दर्भ में मेने उनसे मोदीजी के बारे में पुछा तो उन्होंने बताया कि ये सही है कि गुजरात में कम्पनी  विकास बहुत हुआ है पर पानी हमे नर्मदा से ही मिल रहा है. यदी ये पानी नहीं मिले तो गुजरात प्यासा मर जायेगा। 

हमने पुछा कि "आप के यहाँ बरसात कितनी होती है तो उन्होंने बताया कि जितनी बरसात यहाँ होती है उतनी ही बरसात हमारे यहाँ होती है " फिर मेने पुछा कि फिर ऐसा क्या है?  की आप के यहाँ पानी नहीं है उन्होंने बताया कि एक हजार फीट नीचे पानी मिलता है वह भी इतना दूषित है कि उसे सीधे पिया नहीं जा सकता है."

हमने पूछा कि बाँध का पानी तो मप. के जंगलों की देन है, जो ख़तम हो रहे हैं फिर पानी कहाँ से आयेगा तो उन्होंने कहा कि हमे ऋषि खेती करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है. ये समस्या केवल गुजरात की नहीं है ये समस्या सभी प्रदेशों की है. जमीन की हरयाली नस्ट कर जुताई कर खेती करने के कारण पानी कि समस्या है.

पानी आसमान की देन नहीं है ये धरती की देन है. यदी हमे अपने खेतों और प्रदेशों  को स्वर्ग बनाना है तो हमें कंपनियों की नहीं धरती माँ की सेवा करने की जरुरत है. जिसका ऋषि-खेती एक मात्र उपाय है. जिसमे पैसा लगता नहीं है वरन मिलता है.

राजू टाइटस 
ऋषि-खेती किसान 
होशंगाबाद मप 

श्री मोहित चतुर्वेदीजी की कहानी दैनिक भास्कार

ऋषि-खेती  की कहानी दैनिकभास्कर ऑनलाइन 
द्वारा श्री मोहित चतुर्वेदी 



Monday, February 24, 2014

हरियाली है जहाँ खुशहाली है वहाँ



कुछ मत करो और खुश रहो


भारत खेती किसानी वाला देश है. यहाँ की खेती किसानी अधिकतर यहाँ के मौसम और पर्यावरण पर निर्भर है. प्राचीन काल से हमारे किसान खुद के जीवन यापन के लिए हरियाली को बचाते रहे हैं. किन्तु जब से ओधौगिक रासायनिक खेती का चलन हुआ है तब से हरियाली बचाना बंद हो गया है. हर छोटे से छोटे हरियाली से ढके भूखंड को नस्ट कर उन्हें अनाज के खेतों में परिवर्तित कर दिया जाता है. जो कुछ सालों में मरुस्थल में तब्दील हो जाता है.
फुकुओजी का' डू नथिंग' फार्म जापान  

आदिवासी किसान भी जब किसी हरियाली के भूखंड को खेत बनाते थे उसमे तीन साल तक ही खेती करते थे बाद में उसे पड़ती छोड़ देते थे जिस से वह भूखंड फिर से हरियाली में बदल जाया करता था. प्राचीन देशी परंपरागत खेती किसानी में भी जब किसान देखते थे खेत उतरने लगे वे खेतों में कुछ नहीं करने की विधि से खेतों को पुन: ताकतवर होने के लिए छोड़ देते थे.

किन्तु जबसे मशीनो और रसायनो से होने वाली खेती का चलन शुरू हुआ है तबसे तेजी से हरियाली नस्ट हो रही है हर कोई अनाज की खेती के लिए हरे भरे भूखंडों को खेत बना देता है जो कुछ साल बाद मरुस्थलों में तब्दील हो जाते हैं. असल में खेती करने के लिए की जाने वाली जमीन की जुताई खेती में सबसे हानिकर उपाय है. जुताई करने के लिए किसान पेड़ों को नस्ट करते हैं जिस से मशीनो को चलने में कोई दिक्कत नहीं आये और छाया हटे जिस से अधिक से अधिक उत्पादन मिल सके ऐसा करने से जमीन की आधी ताकत पहली बार की जुताई से नस्ट हो जाती है धरती और आकाश का सम्बन्ध टूट जाता है.

जुताई नहीं करने से धरती में रहने वाली  तमाम वनस्पतियां,कीड़े मकोड़े ,जीवजंतु और सूक्ष्म -जीवाणु आदी सुरक्षित रहते हैं वे जमीन को उपजाऊ बना देते हैं. जमीने ताकतवर तथा पानीदार हो जाती हैं जिसमे अपने आप हरियाली छा जाती है.

खेती करने के गलत तरीकों से पनपे मरुस्थलों को ठीक करने के लिए अब बिना जुताई कुदरती खेती एक कारगर उपाय सिद्ध हुआ है. इस खेती का आविष्कार जापान के जेन माने कृषी वैज्ञानिक स्व मासानोबू फुकुओकाजी ने किया है जिसे हम पिछले २७ सालो से कर रहे हैं तथा इसके प्रचार प्रसार में कार्यरत हैं.

जुताई नहीं करने से खेतों की जैविक खाद का छरण नहीं होता है बरसात का पानी जमीन में समां जाता है.
खेती करने के लिए कम्पोस्ट और रासायनिक खाद ग़ैर  जरूरी हो जाती है. ताकतवर खेतों में ताकतवर फसल पैदा होती है इस लिए बीमारियों की रोकथाम के लिए किसी भी प्रकार की दवाई की जरुरत नहीं होती है.

हरियाली तेजी से पनपती है बिना कुछ किए मरुस्थल उपजाऊ भूमि में बदल जाते हैं.

शालिनी एवं राजू टाइटस
कुदरती खेती के किसान
होशंगाबाद।
461001 rajuktitus@gmail.com. 9179738049


जिओ और जीनो दो

रासायनिक उर्वरक ,जैविक खाद ,कम्पोस्ट ,बायो फ़र्टिलाइज़र ,टानिक, गोबर, गौमूत्र से बनाये अमृत मिट्टी पानी आदि का भ्रम!

कुदरती खेती का परिचय 

टाइटस कुदरती फार्म में फलदार पेड़ों के साथ गेंहूं की फसल 
मारे कुदरती खेतों पर निगाह डालिये इन खेतों को यहाँ वहाँ ऊंची नीचे जगहों ,पेड़ों के नीचे और आस पास पनप रही यह है कुदरती गेंहूं की फसल है.जो खरपतवार की तरह खरपतवारों के साथ कुदरती तरीके से पनप रही है.
 यहाँ पिछले २७ सालो से जमीन को बखरा /जोता नहीं गया है ,ना  ही इसमें किसी भी प्रकार के मानव निर्मित जैविक खाद ,रासायनिक उर्वरक ,कम्पोस्ट ,बायो टानिक /फ़र्टिलाइज़र, गोबर /गौ मूत्र से बनाई मिट्टी या पानी को डाला गया है. फसलों में लगने वाली बीमारियों और दवाईयों का तथा  कीड़ों और खरपतवारों को मारने का यहाँ कोई सोच नहीं है.

इन  खेतों को हम हर सम्भव हरियाली के भूमि ढकाव से ढांक कर रखने की कोशिश करते है तथा फसलों के तमाम अवशेषों को  जैसे पुआल ,नरवाई ,पत्तियों ,बारीक टहनियों आदि जहाँ का तहां वापस डाल देते हैं.
इस ढकाव के नीचे अंसख्य जीव-जंतु ,कीड़े-मकोड़े जैसे केंचुए,चीटे ,चीटियां ,दीमक ,चूहे, मेंढक ,छिपकलियां आदि रहने लगते हैं. जिस से  फसलोत्पादन के लिए भरपूर जैविक खाद बन जाती है. जिस से जमीन लगातार ताकतवर और पानीदार बनी रहती है. ताकतवर जमीन में ताकतवर फसलें पैदा होती हैं, बीमारियां नहीं लगतीं है. ये हरियाली का ढकाव साथ में लगे फलदार पेड़ों का भी सहायक रहता है जिस के कारण फलों में कुदरती स्वाद ,जायके के अलावा उत्पादन भी बढ़ते क्रम में रहता है.

आजकल अधिकतर लोग ये समझते हैं कि रसायनो के बदले गैर रासानिक खाद ,दवाओं के उपयोग से फसलें जैविक या कुदरती हो जाती हैं ये भ्रांती है. असल में जमीन की जुताई फसलोत्पादन के लिए सबसे हानिकर उपाय है. जब खेतों को जोता जाता है खेतों की तमाम  वानस्पतिक एवं जैव विविधताएं मर जाती हैं ,जैविक खाद  पानी के साथ बह जाती है. बरसात का पानी जमीन में नहीं जाने के कारण खेत कमजोर हो जाते हैं उनका पानी सूख जाता है. इस लिए फसलोत्पादन के लिए मानव निर्मित खाद और दवाएं जरूरी लगने लगती हैं.
सीड बॉल बनाने  की कार्यशाला 


फसलोत्पादन के लिए जमीन की जुताई ,खादों और दवाओं का उपयोग हर हाल अजैविक और गैर कुदरती होता है. इनके उपयोग से जमीन कि खोयी ताकत वापस नहीं आती है कमजोर खेतों में कमजोर फसलें ही पैदा होती हैं.

राजू टाइटस
कुदरती खेती के किसान
होशंगाबाद। मप.
461001-rajuktitus@gmail.com.-9179738049.

Sunday, February 23, 2014

अन्नाजी का भ्रस्टाचार उन्मूलन आंदोलन

अन्नाजी और केजरीवालजी 

अन्नाजी ,आमआदमी पार्टी और ममताजी 

भारतीय सामाजिक आंदोलनो की श्रंखला में अन्नाजी  का अहिंसात्मक भ्रस्टाचार उन्मूलन का आंदोलन जो दिल्ली में आयोजित किया गया था ने एक ऐतहासिक छाप छोड़ी है. इसी आंदोलन को केजरीवालजी ने आमआदमी पार्टी बना कर राजनेतिक आंदोलन में तब्दील कर दिया है. दोनों आंदोलन की राह  एक है किन्तु दोनों अलग हो जाने से बेचैन  हैं. अन्नाजी का कहना  है कि मै  कभी राजनीती से नहीं जुड़ा मै  उसे कीचड मानता हूँ।  दलगत पार्टियां पैसे से सत्ता हासिल करती हैं फिर सत्ता से पैसा कमाती हैं. जबकि केजरीवालजी का कहना है कि राजनीती कीचड जरुर बन गयी है किन्तु यदी इस में घुसा ना जाये इस कीचड को साफ़ नहीं किया जा सकता है.
इस कारण आज अन्नाजी और केजरीवालजी भ्रस्टाचार उन्मूलन के आंदोलन में अलग अलग हो  गए हैं और करीब आने के लिए बेहद बेचेन हैं.अन्नाजी चाहते हैं केजरीवाल  और उनके सभी साथी राजनीति को छोड़कर फिर से अन्ना टीम में शामिल हो जाएँ और केजरीवालजी चाहते हैं कि अन्नाजी  साथ मिलकर "आमआदमी " पार्टी को समर्थन करने लगें तो हम मिलकर इस आंदोलन को पहले से और अधिक तेजी प्रदान कर सकते हैं. दोनों अपनी जगह सही हैं.

किन्तु इस से आम अन्नाजी और केजरीवालजी के समर्थक जो ईमानदारी और सच्चाई में विश्वाश रखते हैं और उन के साथ जुड़े हैं बेहद असमंजस की स्थिति में हैं. एक ओर  आम जनता की रोजमर्रा की आवशकताओं के लिए उन्हें प्रशाषन से जूझना पड़ता हैं वहीं भ्रस्टाचार के कारण उनका जीना दूभर हो रहा है. दूसरा राजनेताओं पर कोई अंकुश नहीं रहने से वे खुल कर दोनों हाथों से लूटते हैं. जबकी लोकतंत्र में राजनीती समाज सेवा का ही नाम है. केजरीवालजी का कहना है कि आप बाहर से कितना आंदोलन करें भ्रस्टाचारियों पर कोई असर नहीं पड़ता है. इस लिए गंदी राजनीति को साफ़ करने के लिए उसमे घुस कर ही काम करने की जरुरत है और वे इस ओर मुड़ गए हैं और पलटकर देखना नहीं चाहते हैं. अन्नाजी बेचारे केजरीवालजी के बिना असहाय महसूस करने लगे है. किन्तु अब वे ममता जी के लिए काम करने का मन बना रहे हैं.
ममताजी 

ये संकेत है कि अन्नाजी केजरीवालजी की बात से कुछ हद तक सहमत हो गए हैं. अब वे ममताजी के लिए काम करें या आमआदमी पार्टी के लिए काम, काम तो अहिंसातमक भ्रस्टाचार उन्मूलन के लिए होगा जिसका फायदा आमआदमी को मिलेगा जो आंदोलन का लक्ष्य है.

किन्तु इस आंदोलन में किरण बेदीजी अन्नाजी से अलग हो जाएंगीं क्यों कि उन्होंने मोदीजी को समर्थन करने का मन बना लिया है.

अन्नाजी मोदीजी की नीतियों से खुश नहीं हैं उनका कहना है कि देश का विकास स्थाई ग्रामीण विकास के बिना असम्भव है. स्थाई ग्रामीण विकास की नीव स्थाई खेती किसानी पर टिकी है जब तक खेत और किसान का विकास नहीं होता देश का विकास भी नहीं हो सकता है.

दूसरी तरफ केजरीवालजी का कहना है कि भाजपा हो या कांग्रेस दोनों बहुरास्ट्रीय कम्पनियों के गुलाम हो गए हैं ये कम्पनियाँ इन दोनों को चंदे के रूप में खूब काला  धन मुहैया करती हैं बाद में जो भी जीत जाये उनसे अपने धंदे में खुल कर फायदा लेती हैं इसलिए जब तक इस में रोक नहीं लगती देश का विकास नहीं हो सकता है जो भी विकास होगा वह केवल और केवल कम्पनियों का ही होगा।

विकास की ये दो अवधारणाएं हैं एक अन्नाजी की है दूसरी केजरीवालजी की है. किन्तु आमआदमी के लिए सबसे पहला सवाल रोटी ,कपडे और मकान का है. वह चाहे किसान हो ,मज़दूर हो या स्टूडेंट हो समस्या यहीं आकर रुक जाती है हम अपनी तुरंत की समस्याओं के समाधान को राजनीती में तलाशते हैं और राजनेता लोग समस्याओं को हल करने के बहाने हमे बेफकूफ बना कर वोट ले जाते हैं.

सब ये कहते हैं यदी आमआदमी जाग  जायेगा तो सब ठीक  का हो जायेगा पर आमआदमी जागते हुए भी इतना भ्रमित है कि उसे नहीं पता कि वह किसका समर्थन करे. अन्नाजी का करे कि केजरीवालजी करे या मोदीजी या कांग्रेस का करे या ममताजी का करे या नोटा का करे.

अब हम आमआदमियों  को फैसला करने का मौका मिला है इस लिए हमे सोच समझ कर फैसला करना पड़ेगा कि हम भ्रस्टाचार का साथ दें या ईमानदारी का साथ दें. ये लड़ाई असल में भारत और इंडिया के बीच हो गयी है, ये  लड़ाई हमारे पर्यावरण और विकास के बीच आन खड़ी हो गयी है, ये लड़ाई सत्य और असत्य के बीच और हिंसा और अहिंसा के बीच हो रही है,ये लड़ाई गुलामी और आज़ादी  में बदल गयी है.

हमे आज गांधीजी का अहिंसातमक आज़ादी का आंदोलन याद आ रहा है आज़ादी के बाद जब देश के स्थाई विकास का प्रश्न आया था तब भी विकास की लड़ाई इसी प्रकार दो धड़ों में बंट गयी थी. एक धड़ा औधौगिक विकास की बात कर रहा था तो दूसरा पर्यावरणीय विकास चाहता था. जीत ओधौगिक विकास की हुई. केजरीवालजी का कहना सही है चाहे मोदीजी आये या राहुलजी आयें हालत में कोई सुधार नहीं होगा यही अन्नाजी का भी कहना है. किन्तु ममताजी का कहना है कि वे अन्नाजी के बताये  मार्ग पर चलेंगी अच्छा संकेत है. केजरीवालजी भी अन्नाजी के बताये मार्ग पर आ सकते हैं जिसमे बिना भ्रस्टाचार मुक्त विकास हो,जहाँ पर्यावरण के आधार पर विकास हो ,जहाँ इंडिया भारत एक घाट पर पानी पियें।
ऋषि खेती के लिए भूदान आंदोलन 


आज़ादी के बाद जब गांधीजी नहीं रहे थे तब उनके परमशिष्य विनोबाजी ने देश के स्थाई विकास के लिए सर्वोदय  आंदोलन चलाया था यह आंदोलन ऋषि खेती पर केंद्रित था किन्तु उन दिनों के योजनाकारों ने इसे अस्वीकार कर दिया था जिसका परिणाम आज हम भुगत रहे हैं यदी आज इस योजना को लागु कर दिया जाये तो बिना खर्च देश भ्रस्ट गुलामी से आज़ाद हो सकता है.
 हम पिछले २७ सालों ऋषि खेती को करते  हुए  सुकून की नींद सो रहे हैं.
आज समय आ गया है कि हमे जहरीली रोटी ,पानी और हवा चाहिए या कुदरती खान,पान के साथ सुकून की  नींद चाहिए। ये चुनाव निर्णायक सिद्ध होने वाला है क्योंकी इसमें अब केजरीवाल अकेले नहीं है गांधीवादी अन्नाजी भी इसमें शामिल हो गए हैं.



Saturday, February 22, 2014

"आमआदमी पार्टी की नेता मेधा पाटकर जी को सलाम "



जल जंगल जमीन बचाने का संकल्प 


हम मेधा पाटकर जी के 'आमआदमी पार्टी ' में शामिल होने और लोकसभा चुनाव में चुनाव लड़ने के निर्णय का दिल से स्वागत करते हैं. मेधाजी ने हमारे पर्यावरण और हम लोगों को बचाने के लिए "नर्बदा बचाओ आंदोलन " के जरिये समाज सेवा में इतिहास बनाया है.
नर्बदा बचाओ आंदोलन से आमआदमी पार्टी में मेधाजी 


आज शहरों में रहने वाले अनेक लोग इस बात से बहुत खुश हैं कि उन्हें 24 घंटे बिजली मिल रही है. वे दिन रात इस बिजली का उपयोग अब टीवी,कम्पुटर ,AC में कर अपने को विकास शील महसूस कर रहे हैं. किन्तु वे भूल जाते हैं कि जो रोटी वो खा रहे है वह जहरीली हो गयी है जो पानी वह पी रहे हैं वह जहरीला है जो सांस वो ले रहे हैं वह जहरीली हो गयी है. जिसके कारण केंसर जेसी बीमारियां तेजी से पनप रही है.

नर्बदा नदी पर बने सरदार सरोवर बाँध से नर्बदा नदी एक एक गंदे पानी का तालाब बन कर रह गयी है. जिसके एक तरफ सूखा और दूसरी तरफ बाढ़ की समस्या स्थाई हो गयी है. डूब में हजारों किसान की जमीन और घर चले गए हैं वे अपनी आजीविका के लिए दर दर भटक रहे हैं. बाँध खेती किसानी के लिए बनाया गया और पानी उधोगों को दे दिया खेत प्यासे रह गए. क्या यही विकास है ?

गुजरात आज ज़िंदा है तो वह नर्मदा के पानी पर जिन्दा है विकास के नाम पर वहाँ केवल हरियाली का दोहन हुआ है इस कारण वहाँ पीने का पानी नहीं है. किसी भी प्रदेश का विकास चमचमाती सड़कों ,फ्लाईओवर ,हवाई में उड़ाने भरते मुख्यमंत्रीजी से नहीं आँका जा सकता असल विकास को नापना है तो वहाँ के भूजल के स्तर और पनपती हरियाली से आँका जाना चाहिए। इसी प्रकार मप का किसान कर्मण अवार्ड इस लिए नहीं है कि वहाँ खूब खेती किसानी का विकास हुआ है वरन वहाँ ये अवार्ड कुदरती खेती किसानी के  मरने के लिए है.

प्राचीन खेती किसानी में जल ,जंगल, जमीन और जानवरों का संरक्षण किया जाता था. जिस से कुदरती खान ,पान मिलता था लोग कुदरती वातावरण में निरोगी लम्बी उम्र जीते थे. खेती किसानी आत्म  निर्भर थी.


आज की बाँध आधारित खेती पूरी तरह आयातित तेल की गुलाम हो गयी है. गहरी जुताई और जहरीले रसायनो के कारण खेत बंजर होते जा रहे हैं. पंजाब, मप ,गुजरात ,हरियाणा आदि जिन्हे खेती किसानी में विकसित प्रदेश कहा जाता है. यहाँ ७०% लोगों के खून में कमी आ गयी है अनेक लोगों के खून में जहर के अंश पाये जा रहे हैं केंसर की बीमारी आम हो गयी है. क्या यही विकास है ?


हम पिछले 27 सालो से जुताई और जहरीले रसायनो के बिना ,मशीनो का उपयोग किए बिना विश्व की सर्वोत्तम उत्पादकता और गुणवत्ता वाली कुदरती खेती करते हैं जिनसे कुदरती खान पान मिलता है जिस से केंसर भी ठीक हो जाता है.  जल,जंगल,जमीन और जानवरों के संवर्धन हो रहा है. खेती किसानी का 80 % खर्च कम हो गया है, कुदरती खान पान भरपूर उपलब्ध है,खेती लाभ कर हो गयी है ,खेत ताकतवर और पानीदार हो गए हैं. यह खेती केवल फसलोत्पादन का साधन मात्र नहीं है ये अच्छे इन्सान बनने  का जरिया है.

मेधाजी के राजनीती में आने से देश को भ्रस्ट  राजनीती से छुटकारा मिलेगा हम इस से बहुत उत्साहित हैं.

राजू टाइटस
कुदरती खेती के किसान
होशंगाबाद 

Planet Local: Bhaskar Save, the Gandhi of Natural Farming





Planet Local: Bhaskar Save, the Gandhi of Natural Farming


We are pleased to introduce our new Planet Local series, showcasing localization initiatives around the world. This blog is the first of three by authors from India to celebrate the occasion of our upcoming Economics of Happiness conference in Bangalore, March 15.
Bhaskar-SaveBy Bharat Mansata, excerpted by Alex Jensen
On the 27th January, 2014, Bhaskar Save, aka Save-guruji – the acclaimed “Gandhi of Natural Farming” – turned 92 years old. He has inspired and mentored three generations of organic farmers. Masanobu Fukuoka, the legendary Japanese natural farmer, visited his farm in 1997, and described it as “the best in the world, even better than my own farm!” It is a veritable food forest and a net supplier of water, energy and fertility to the localeco-system, rather than a net consumer.
Save’s way of farming and teachings are rooted in his deep understanding of the symbiotic relationships in nature, which he is ever happy to share freely (and still very enthusiastically!) with anyone interested. In 2010, the International Federation of Organic Agriculture Movements (IFOAM) – the world-wide umbrella body of organic farmers and movements – honoured Save with the ‘One World Award for Lifetime Achievement’. Its jury declared, “He is one of the most outstanding personalities in the organic world.”
Bhaskar Save’s 14 acre orchard-farm, Kalpavruksha, is located on the Coastal Highway near village Dehri, District Valsad, in southernmost coastal Gujarat, a few km north of the Maharashtra-Gujarat border. About 10 acres are under a mixed natural orchard of mainly coconut and chikoo (sapota) with fewer numbers of other species. About 2 acres are under seasonal field crops cultivated organically in traditional rotation. Another 2 acres is for a nursery for raising coconut saplings that are in great demand. The farm yield – in all aspects of total quantity, nutritional quality, taste, biological diversity, ecological sustainability, water conservation, energy efficiency, and economic profitability – is superior to any farm using chemicals, while costs (mainly labour for harvesting) are minimal, and external inputs almost
zero.
Natural farming and its fruit
Natural farming is holistic and bio-diverse organic farming in harmony with nature. It is low-intervention, ecological, sustainable and economically rewarding. In its purest advanced form, it is a ‘do-nothing’ way of farming, where nature does everything, or almost everything, and little needs to be done by the farmer. This can best be achieved in a progressive manner with tree crops. As Bhaskar Save explains, “When a tree sapling planted by a farmer is still young and tender, it needs some attention. But as it matures, it can look after itself, and then it looks after the farmer.”
With annual or seasonal field crops, more continuing attention and work by the farmer are needed, but even here, the work and input needed progressively diminishes as the soil regains its health and symbiotic biodiversity is re-integrated.
“Who planted the great, ancient forests? Who tilled the land? Who provided seed, manure, irrigation, or protection from pests?” asks Bhaskar Save. “In our forests, untended by man, the (human)food trees – like ber (jujube), jambul (jambolan), amba (mango), umbar (wild fig), mahua (butter tree), imli (tamarind), raini (‘jungle sapota’) – yield so abundantly in their season, that the branches sag with the weight of the fruit. The annual fruit yield per tree is commonly over a tonne, year after year, carried away by forest dwellers, including man. But the earth around each tree remains whole and undiminished. There is no gaping hole in the ground! If anything, the soil is richer. From where do the trees – including those on rocky mountains – get their water, their nitrogen, phosphorous, potash? Though stationary, Nature provides their needs right where they stand. But arrogant modern technology, with its blinkered, meddling itch, is blind to this.
Self-reliance and non-violent farming
“Gandhi believed in gram swaraj (or village self-governance),” says Save. “Central to his vision was complete self-reliance at the village level in all the basics needed for a healthy life. He had confidence in the strength of organic farming in this country… but we have strayed far from this path. Vinoba Bhave too pointed out that industries merely transform ‘raw materials’ sourced from Nature. They cannot create anew. Only Nature is truly creative and self-regenerating – through synergy with the fresh daily inflow of the sun’s energy.
“…modern technology, wedded to commerce – rather than compassion – has proved disastrous at all levels. We have despoiled and polluted the soil, water and air. We have wiped out most of our forests and killed its creatures. And relentlessly, modern farmers spray deadly poisons on their fields, massacring Nature’s jeev srushti, or micro-organisms and insects – the unpretentious, but tireless little fertility workers that maintain the vital, ventilated quality of the soil, recycling all life-ebbed biomass into nourishment for plants. The noxious chemicals also inevitably poison the water, and Nature’s prani srushti or animal kingdom, including humans.
“…Trying to increase Nature’s ‘productivity,’ is the fundamental blunder that highlights the arrogant ignorance of agricultural scientists. Nature, unspoiled by man, is already most abundant in her yield. When a grain of rice can reproduce a thousand-fold within months, where is the need to increase its productivity! What is required at most is to help ensure the necessary natural conditions for optimal, wholesome yield.
“In all the years a student spends for an M.Sc. or Ph.D. in agriculture, the only goal is short-term – and narrowly perceived – economic (rather than nutritional) ‘productivity’. For this, the farmer is urged to buy and do a hundred things, greatly increasing his costs. But not a thought is spared to what a farmer must never do so that the land remains unharmed for future generations and other creatures.”
Bhaskar Save’s plea for India’s agro-ecological resurgence
On 29th July, 2006, Bhaskar Save addressed a detailed 8 page Open Letter (along with six annexures) to M.S. Swaminathan, then chairman of the National Commission on Farmers. This was at a time of an unrelenting wave of farmer suicides in various parts of India, particularly Vidarbha and Andhra Pradesh, but also Punjab, the frontline state of India’s ‘green revolution’, now turned black.
Bhaskar Save’s Open Letter – widely circulated and translated all over the world – presented a devastating critique of the government’s agricultural policies favouring chemical farming, while making an eloquent plea for urgent and fundamental reorientation. Save states, “I say with conviction that only by mixed organic farming in harmony with Nature, can India sustainably provide abundant wholesome food and meet every basic need of all – to live in health, dignity and peace.”
Swaminathan wrote back to Save, “I have long admired your work and am grateful to you for the detailed suggestions… valuable comments and recommendations. We shall take them into consideration in our final report.”
A further independent Open Letter from Bhaskar Save, dated 1st November, 2006, was sent to the Prime Minister. Save asks in his letter, “In this vast nation, does any government agricultural department or university have a single farm run on modern methods, which is a net supplier of water, energy and fertility to the local eco-system, rather than a net consumer? But where there is undisturbed synergy of Nature, this is a reality! By all criteria of ecological audit, my farm has only a positive contribution to the health of the environment. Economically too, I get a manifold higher income than ‘modern’ farmers.”
The success demonstrated by Bhaskar Save in decreasing and eliminating external fertility inputs while achieving high productivity, is thus a model for promoting food security; and his method of tree-cropping – integrating short lifespan, medium lifespan and long lifespan species – has been hailed as potentially revolutionary for wasteland regeneration, while also offering sustainable and rewarding livelihoods to large numbers of people.

FarmNatural abundance at Kalpavruksha
About twenty steps inside the gate of Bhaskar Save’s farm is a sign that says: “Co-operation is the fundamental Law of Nature.” – A simple and concise introduction to the philosophy and practice of natural farming! Further inside the farm are numerous other signs that attract attention with brief, thought-provoking sutras or aphorisms. These pithy sayings contain all the distilled wisdom on nature, farming, health, culture and spirituality, Bhaskarbhai has gathered over the years, apart from his extraordinary harvest of food!
If you ask this farmer where he learnt his way of natural farming, he might tell you – quite humbly — “my university is my farm.” His farm has now become a sacred university for many, as every Saturday (Visitors’ Day) brings numerous people. These have included farmers from all over India, as also agricultural scientists, students, senior government officials, city folk, and occasional travellers from distant lands, who have read or heard of Bhaskar Save’s work.
Kalpavruksha compels attention for its high yield easily out-performs any modern farm using chemicals. This is readily visible at all times. The number of coconuts per tree is perhaps the highest in the country. A few of the palms yield over 400 coconuts each year, while the average is closer to 350. The crop of chikoo (sapota) – largely planted more than forty-five years ago – is similarly abundant, providing about 300 kg of delicious fruit per tree each year.
Also growing in the orchard are numerous bananas, papayas, areca-nuts, and a few trees of date-palm, drumstick, mango, jackfruit, toddy palm, custard apple, jambul, guava, pomegranate, lime, pomelo, mahua, tamarind, neem, audumber; apart from some bamboo and various under-storey shrubs like kadipatta (curry leaves), crotons, tulsi; and vines like pepper, betel leaf, passion-fruit, etc.
Nawabi Kolam, a tall, delicious and high-yielding native variety of rice, several kinds of pulses, winter wheat and some vegetables and tubers too are grown in seasonal rotation on about two acres of land. These provide enough for this self-sustained farmer’s immediate family and occasional guests. In most years, there is some surplus of rice, which is gifted to relatives or friends, who appreciate its superior flavour and quality.
Small, diverse, ecological farms produce not only more, but much better, food
Excluding the two acres under coconut nursery, and another two acres of paddy field, the remaining ten acres of orchard have consistently yielded an average food yield of over 15,000 kg per acre per annum! (This has declined in the past 15-20 years following pollution from progressive industrialization of the area.) In nutritional value, this is many times superior to an equivalent weight of food grown with the intensive use of toxic chemicals, as in Punjab, Haryana and many other parts of India.

Consequently, pleads Bhaskar Save — if we truly seek to regain ecological harmony, the very first principle we must learn to follow is, “Live and let live.”

“The variety of plants in nature is amazing, and there is no end to learning in the university of the natural farm or forest,” says Bhaskar Save.
Fundamental principles of natural farming
“The four fundamental principles of natural farming are quite simple!” declares Bhaskar Save. “The first is, “all living creatures have an equal right to live.” To respect such right, farming must be non-violent. The second principle recognizes that “everything in Nature is useful and serves a purpose in the web of life.”
“The third principle is: farming is a dharma, a sacred path of serving Nature and fellow creatures; it must not degenerate into a pure dhandha or money-oriented business. Short-sighted greed to earn more – ignoring Nature’s laws – is the root of the ever-mounting problems we face.
“Fourth is the principle of perennial fertility regeneration. It observes that we humans have a right to only the fruits and seeds of the crops we grow. These constitute 5% to 15% of the plants’ biomass yield. The balance 85% to 95% of the biomass, the crop residue, must go back to the soil to renew its fertility, either directly as mulch, or as the manure of farm animals. If this is religiously followed, nothing is needed from outside; the fertility of the land will not decline.”
Bharat Mansata is an author, editor, activist, and co-founder of Earthcare Books (Kolkata) and has been involved in environmental and sustainability issues for over two decades. He most recently authored The Great Agricultural Challenge and Organic RevolutionAlex Jensen is Project Coordinator at the International Society for Ecology and Culture (ISEC)

Friday, February 21, 2014

हमारी रोटी हुई गुलाम


आज़ादी की दूसरी लड़ाई 

हमारी रोटी हुई गुलाम 

सन्दर्भ : कुदरती खेती 

पहली आज़ादी की लड़ाई "ईस्टइंडिआ कंपनी" के खिलाफ लड़ी गयी थी अब दूसरी आज़ादी की लड़ाई मल्टीनेशनल कंपनियों के खिलाफ लड़ी जा रही है.

असली भारत गांवों में बसता है. गांव खेती किसानी पर निर्भर हैं. प्राचीन भारतीय खेती किसानी हमारे पर्यावरण पर आश्रित आत्म निर्भर थी.किन्तु आजकल की खेती आयातित तेल की गुलाम हो गयी है जिसकी डोर मल्टीनेशनल कंपनियों के हाथ में है. ये मल्टीनेशनल कम्पनियाँ देशी और विदेशी कंपनियों की साथ गांठ से चल रही हैं जिन्हे पूरी तरह हमारी सरकारों ने छूट दे रखी है. ये सरकारें इन कम्पनियों को बहुत ही रियायती दर पर जमीने और सुविधाएँ उपलब्ध कराती हैं. जिसके कारण ये कम्पनियाँ बेशुमार धन कमा रही हैं.

यह बहुत बड़ा भ्रस्टाचार है.

 प्राचीन भारतीय खेती किसानी पूरी तरह  तरह मौसम पर निर्भर रहती थी. मौसम हरियाली पर निर्भर रहता था. किसान भरपूर फसलों को अपनी आवश्यकता  के अनुसार पैदा करता था जिसे वह अपने गांव वासियों के साथ मिल बांटकर कर उपयोग करता था गांव वासी लोग अनेक दुसरे कामों में हाथ बटाते थे.

आजकाल की खेती मशीनो और रसायनो से होती है. मशीने तेल से चलती हैं रसायन गैस से बनते हैं. इन दोनों पदार्थों के बिना आजकल हमारी रोटी ना तो पैदा होती है ना ही पकती है. असल में हमारी रोटी पेट्रोल की गुलाम हो गयी है. यह पेट्रोल लुप्त प्राय: है इसके उपयोग से भयानक प्रदुषण फेल रहा है.

कुदरती फसलों के बीज 
हम पिछले 27 सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं जिसमे मशीने और रसायनो की कोई जरुरत नहीं है. उत्पादकता और गुणवत्ता ओधोगिक खेती से बहुत अधिक है. इस खेती का आविष्कार जापान के कृषि वैज्ञानिक श्री मास्नोबू फुकुओकाजी ने किआ था जिनके फार्म पर यह खेती आज भी ८० साल के बाद सफलता पूर्वक चल रही है.

आजकल चुनाव विकास के नाम पर लड़ा जाता है जबकी ये विकास नहीं विनाश है जिस से हमारी रोटी गुलाम हो गयी है.कल यदी हमे पेट्रोल नहीं मिला तो हम भूखे मर जायेंगे।

Tuesday, February 18, 2014

Farm like the rishis!


Unstarred  AmitaTue, Sep 3, 2013 at 11:15 PM

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Amita 

<amita@indiawaterportal.org>
Tue, Feb 18, 2014 at 8:50 PM
To: Raju Titus <rajuktitus@gmail.com>
Dear Raju ji,
Hope you and Shalini ji are well. Please see here the link to the article based on your work - http://www.indiawaterportal.org/articles/titus-natural-farming-hoshangabad
Many thanks for giving me the time to visit your farm.
Regards

Amita
9350276876



On Wed, Sep 4, 2013 at 11:45 AM, Amita <amita@indiawaterportal.org> wrote:
Dear Sir,
I work with the content team at the India Water Portal (IWP). IWP is both a source of information to researchers and a place for users to exchange experiences, showcase their work, and invite feedback. 
I wish to cover your work on natural farming as an article and would like to visit you farm at Hoshangabad in this regard. If that is okay, please let me know so I can come down some time this month. 
Regards
Amita Bhaduri


--
India Water Portal Team (New Delhi)
Follow us @ http://twitter.com/indiawaterhttps://www.facebook.com/IndiaWaterPortal &
Post your content: http://www.indiawaterportal.org/upload
Subscribe to our newsletter: http://eepurl.com/e-WkA

भ्रस्टाचार मुक्त भारत का निर्माण

खेती में चल रहा भ्रस्टाचार सर्वोपरी है। 

जमीन की जुताई (टिलिंग ) से मरुस्थल पनप रहे हैं। 
जुताई नहीं ,खाद नहीं ,दवाई नहीं फुकुओकाजी  कुदरती खेती के किसान
कुदरती गेंहूं की फसल दिखाते हुए पैदावार चार टन प्रति एकड़ 

भारतीय प्राचीन परंपरागत खेती किसानी में जब जुताई के कारण खेत सूखने लगते थे वे उसको पड़ती कर दिया करते थे. आज भी ऋषि पंचमी के पर्व में बिनाजुताई के सेवन को पवित्र माना जाता है और सूखते खेतों कि निशानी कांस घांस की पूजा की जाती है. कमजोर सूखते खेतों को पड़ती छोड़ देने से कुदरत उनको पुन : पानीदार और ताकतवर बना देती है. किन्तु जबसे व्यवसायिक औद्धोगिक खेती का चलन शुरू हुआ है खेतों की जुताई भारी मशीनो से बार बार की जाती है जिस से खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं.

जब फसलोत्पादन के लिए खेतों को बखरा या जोता जाता है उनकी बारीक बखरी मिट्टी तमाम बरसात के पानी को जमीन के अंदर ले जाने वाले मुहानों जेसे केंचुओं,चीटियों,चूहों,आदि के घरों को बंद कर देती है यह मिट्टी बरसात के पानी से मिलकर कीचड में तब्दील हो जाती है जिस के कारण पानी तेजी से बहता है साथ में खेतों की उपजाऊ मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है जिस से खेत मरुस्थल में तब्दील हो जाते हैं.

जापान के विश्वविख्यात कुदरती खेती के किसान और जाने माने कृषि वैज्ञानिक स्व मस्नोबू फुकुओकाजी ने उनके खेतों में ६० सालों से अधिक समय तक  कुदरती खेती को कर के दुनिया को बता दिया कि खेती चल रही जमीन की जुताई ,रसायनो ,कम्पोस्ट ,कीट नाशकों ,खरपतवार नाशकों , समतलीकरण ,जी.एम. बीजों ,भारी मशीनो ,भारी सिंचायी ,जैव टॉनिकों ,अमृत मिट्टी पानी आदि सब गेर जरूरी हैं. इनका उपयोग भ्रस्टाचार के आलावा कुछ नहीं है। 

1985 में जब हमने पहली मर्तबा फुकुओकाजी की जग प्रसिद्ध किताब " The One Straw Revolution" को पढ़ा तो पहली मरतबा हमे विश्वाश नहीं हुआ हमने उसे नकारते हुए वैज्ञानिक खेती में और जोर लगाया और उलटे मुंह आ गिरे। जबसे हमने अपने खेतों में जुताई, खाद ,दवाइयों का उपयोग बिलकुल बंद कर दिया है 27 सालों से हम इस खेती को सफलता पूर्वक कर रहे है. जिसे हम ऋषि खेती के नाम से पुकारते हैं.
बिना जुताई की कुदरती खेती का परिचय लेखक मासानोबू फुकुओका जापान 


ऐसा नहीं है कि खेती के विशेषज्ञों को इस बात की जानकारी नहीं है किन्तु खेती की मशीनो ,उर्वरकों ,दवाइयों को बनाने वाली कंपनियों को लाभ पहुचाने के खातिर कुदरती खेती को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है. इन दिनों अमेरिका में " No -Till Farming " बड़े पैमाने पर की जाने लगी है. इस खेती को वहाँ की किसान यूनियन और सरकार मौसम परिवर्तन  और  ग्लोबल वार्मिंग को थामने के उदेश्य से बढ़ावा दे रही है बिना जुताई के किसानो को अनुदान दिया जाता है. इस से किसानो को बहुत  लाभ मिलता है खेती की लागत कम हो जाती है जमीने ताकतवर और पानीदार होती जा रही हैं, कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और उत्पादकता में बढ़ोतरी हो रही है ,किसानो के बच्चे खेती करने लगे हैं ,सूखा और बाढ़ नियंत्रित हुआ है.

हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है खेती को आत्म निर्भर बनाये हम देश के विकास की कल्पना नहीं कर सकते हैं. आज़ादी के बाद से किसी भी सरकार ने खेती को आत्म निर्भर बनाने के लिए कुछ नहीं किया ऐसा भ्रस्टाचार के चलते नहीं हो सका है. अब देश में भ्रस्टाचार मुक्त भारत निर्माण की बात की जाने लगी है हम इस का स्वागत करते हैं तथा अनुरोध करते हैं कि इस मुहीम को बिना जुताई की कुदरती खेती से शुरू कर तमाम गैरजरूरी खेती की मशीनो और जहरीले रसायनो पर रोक लगाई जाये।

राजू टाइटस
कुदरती खेती के किसान
होशंगाबाद। म. प्र. 461001
rajuktits@gmail.com. mobile 9179738049 

Sunday, February 16, 2014

जहरीली खेती

जहरीली खेती

भ्रस्टाचार मुक्त खेती अपनाएं 

भोपाल गेस काण्ड 
भोपाल गेस कांड को कौन नहीं जनता हजारों लोगों की मौत कई हजार घायल अनेक अपंग आजतक वहाँ की हवा,पानी ,मिट्टी में जहर बसा है. आज भी नवजात बच्चों की मौत हो रही है अनेक बच्चे अपंग पैदा हो रहे हैं ,
केंसर की बीमारी आम हो गयी है. जहरीला कचरा अभी तक पड़ा है जिसका निस्तार नहीं हो पाया है. ऐसा हुआ उस जहरीली दवाई से जिसे खेतों में फसलों की इल्ली को मारने  के लिए बनाया जा रहा
था.

इस के बावज़ूद आजतक इस दवाई को बंद नहीं किया है जिसे बहुत बड़े पैमाने पर खेतों में डाला जा रहा है जिस के कारण जहर अब हम खेतों से फसलों से होता हुआ हमारे खून में मिलने लगा है. रोटी का हर कोर जहरीला हो गया है. खेतों का ये जहर भूमिगत जल में मिलकर एक और जहाँ पीने के पानी को जहरीला बना रहा है वहीं नदियों ,तालाब ,कुओं से होता हुआ समुन्द्र को भी जहरीला बना रहा है.

असल में जहरीली के पीछे भ्रटाचार है सरकारें ट्रेकटर ,हार्वेस्टर ,जी एम् बीज ,जहरीले रसायनो आदि की कम्पनियों को लाभ पहुँचाने के उद्शेय से गहरी जुताई को बढ़ावा दे रही है. जुताई करने से खेत कमजोर  हो जाते हैं उनमे रासायनिक उर्वरक,और कीट नाशक जो गेर जरूरी है डलवाये जाते है. इस  कारण
ये खेती दिन प्रतिदन जहरीली होती जा रही है.

बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना दवाई का कुदरती गेंहूं
२० क्विंटल /एकड़ 

हम पिछले २७ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं. हम जुताई ,रसायन ,खाद ,दवाइयों का उपयोग नहीं करते हैं असल में ये सब गैर जरूरी हैं. बिना जुताई की कुदरती खेती की उत्पादकता और गुणवत्ता सबसे अधिक है. इस खेती को करने से  जमीन की जैवविवधतायों की हिंसा नहीं होती है. खेती खर्च में ८०% की कमी रहती है. सबसे बड़ा फायदा इस खेती से पानी का होता है जुताई करने से बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है वह बह जाता है साथ में खेतों की जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है. जबकी बिना जुताई से बरसात का पानी बहता नहीं है वह पूरा जमीन में समा जाता है.


इसी लिए हमारा मानना है कि सरकारों के अनेक मंत्री भ्रस्टाचार में लिप्त हैं वे कुदरती खेती को बढ़ावा देने की अपेक्षा जहरीली खेती को बढ़ावा दे रहे हैं इस पर रोक लगाने के लिए ईमानदार सरकार को चुनने की जरुरत है.


राजू टाइटस
ऋषि खेती
टाइटस नेचरल फार्म

होशंगाबाद
9179738049 rajuktitus@gmail.com.

Saturday, February 15, 2014

भ्रस्ट खेती बंद करें


भ्रस्ट खेती बंद करें 

कुदरती खेती अपनाएं 

ब हम खेती करने के लिए जमीन की जुताई करते हैं तो जमीन से जुडी तमाम जैव विवधताएं मर जाती हैं यह सबसे बड़ी हिंसा है यह सबसे बड़ा भ्रस्टाचार है. जैसा कि हम सब जानते हैं कि जहाँ हरियाली होती है वहीं खुशहाली रहती है. हरियाली हमे साँस लेने के लिए प्राण वायू देती है तथा जहरीली वायू को को सोखकर उसे जैविक खाद में परिवर्तित कर देती है.

फुकुओकाजी अपने कुदरती खेतों में 

प्राचीन देशी खेती की पद्धती में किसान खेती करने के लिए जमीन की जुताई नहीं या कम से कम करते थे इसके अलावा जब किसान देखते थे कि जमीन की जुताई से खेत कमजोर होने लगे वे जुताई को बंद कर देते थे   जिस से खेत पुन: ताकतवर हो जाते थे. ऋषि पंचमी का पर्व आज भी हमे इसकी याद दिलाता है इस पर्व में बिना जुताई के अनाजों का सेवन किया जाता है और कांस घास की पूजा की जाती है. कांस घास जुताई से बनते रेगिस्थान की निशानी है. पुराने ज़माने जब किसान अपने खेतों में कांस को फूलता देखते थे तो वो जुताई बंद कर देते थे. कांस घास भूमिगत जल के गिरते स्तर की निशानी है.

जुताई करने से खेतों  की बारीक मिट्टी पानी के साथ मिल कर कीचड में तब्दील हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन में भीतर नहीं जाने देती है. इस कारण साल दर साल भूमिगत जल का स्तर गिरता जाता है.
कुदरती चावल की फसल 
दूसरा जुताई करने से केंचुओं ,चीटी ,चूहों आदि के घर ,तथा दरारें सब पुर जातीं हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में अंदर जाना बंद हो जाता है. वह तेजी से बहता है इस कारण खेत की जैविक खाद भी बह जाती है खेत सूखकर कमजोर हो जाते हैं.

बिना -जुताई की खेती से एक और जहाँ खेत पुन: ताकतवर और पानीदार हो जाते हैं वही खेतों की तमाम जैव और  वानस्पतिक विविधताएं वापस आ जाती हैं.बिना जुताई की फसलें बम्पर और कुदरती गुणो से भरपूर उतरती हैं. खेत हरियाली से भर जातें हैं. भूजल ऊपर आ जाता है.

हमारे देश में बिना जुताई की खेती प्राचीन काल से होती आयी है जिसे जापान के मास्नोबू फुकुओका ने ६० सालों से भी अधिक समय तक करके दुनिया को  दिखला दिया कि जुताई आधारित रासायनिक खेती सत्य और अहिंसा से परे देश के विनाष का कारण है. यह सबसे बड़ा भ्रस्टाचार है.
Raju Titus
Natural farmer
Hoshangabad
rajuktitus@gmail.com. mobile-09179738049.