Monday, March 28, 2016

पेड़ों के साथ कुदरती खेती कर अपना करियर बनाए !

पेड़ों के साथ कुदरती खेती कर अपना करियर बनाए !

ज कल पढ़े लिखे युवक और युवतियों के रोजगार की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गयी। अधिकतर हमारे ये युवा साथी महानगरों की चका चौंध में गुम हो रहे हैं। उन्हें अपनी आजीविका के लिए नौकरियां नहीं मिल रही है।  महानगरों में खुद का रोजगार करने के लिए भी कॉम्पिटीशन बहुत अधिक बढ़ गया है। 
महुए के फूलों से  गुड और बीजों से तेल  मिलता है। 

दूसरी ओर परम्परागत खेती किसानी में घाटे के कारण अनेक किसान खेती छोड़ रहे है गांव और देहात में विपरीत हालत पैदा  हो गए हैं काम के लिए लोग नहीं मिल रहे हैं।  अनेक खेत खाली पड़े हैं। पेड़ों को काटकर खेतों को मशीनों से खोद कर की जाने वाली खेती के कारण उपजाऊ खेत अब मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं। इस कारण गाँव और खेत खाली होने लगे हैं। 

एक और जहाँ आधुनिक वैज्ञानिक खेती फेल हो रही है तो दूसरी और कुदरती खेती करने की चाह बढ़ रही है।  लोगों को कुदरती उत्पादों की कमी खल रही है। कुदरती अनाज ,दालों ,फल ,दूध ,मुर्गी अंडे मांस की मांग बढ़ रही है।  सबसे अधिक मांग अब जलाऊ लकड़ी की हो रही है। इस कारण अब एक नया मार्ग हमारे पढ़े लिखे नवजवानों के लिए खुल रहा है।  

सुबबूल से उत्तम चारा ,जलाऊ लकड़ी और नत्रजन
आदि बहुत फायदे हैं। 
 अब इंजीनियर ,डाक़्टर, एम बी ए के रास्ते बंद  होने लगे हैं। इसका मूल कारण टिकाऊ पर्यवर्णीय कंपनियों का नहीं होना है। लोग करोड़ों हाथ में लेकर कर कुछ नहीं कर पा रहे हैं। अब सारा खेल इसकी टोपी उसके सर बैठाने का चल रहा है।  किसी को अपने नीचे से धरती के खिसकने का अहसास नहीं है।  इन परिस्थितियों का असर हमारे पढ़े लिखे  नवजवानों पर पड़ रहा है।  जो जितना अधिक पढ़ा है वह उतना अधिक अपने भविष्य के खातिर चिंता में है।  लोग विदेशों से और महानगरों से लौट  कर अपने गाँव की ओर आ रहे हैं। जो कुदरती खेती करने लगे हैं।  

मोरिंगा जिसे मुनगा भी कहा जाता है जिस की फलियां ,पत्तियां
 ,फूल सभी दवाई हैं। 
हम पिछले तीस साल से अपने पारिवारिक खेतों में कुदरती खेती कर रहे है। इसलिए हजारों ऐसे लोगों है जो इन इन तीस सालो में हमारे यहां आये हैं और आ रहे हैं।  वो यह जानना चाहते हैं की कुदरती खेती कैसे की जाती है। वो सभी लोग लोग  चूंकि पढ़े लिखे और समझदार हैं इसलिए उनके प्रश्न भी बहुत सार्थक रहते हैं इसलिए हमे उनको सन्तुस्ट करना पड़ता है। इसमें रॉकेट साइंस जैसी धुप्पल बाजी नहीं है। 

अधिकतर लोग हमसे पूछते हैं की जुताई के बिना कैसे खेती संभव है तब हम उन्हें कहते हैं की जरा  अपने आस पास के जंगलों को देखिए जहां सब कुछ अच्छा हो रहा है वह कैसे हो रहा है ? कुदरती खेती एक जंगली खेती है। 
जंगल में महुए के पेड़ को कोई बोता नहीं है ,न ही उसमे कोई खाद डालता है ना ही उसमे कोई पानी सींचता है फिर भी वह जितना देता है शायद ही खेतों में लगने वाला कोई पेड़ देता हो। ऐसे असंख्य कुदरती पेड़ हैं जिन्हे लगाकर हम अपनी आजीविका आत्मनिर्भता के साथ पूरी कर सकते हैं। 

बिना जुताई पेड़ों वाली खेती में एक और जहां लागत  बहुत कम है वहीं महनत  भी नहीं के बराबर है।  इन जंगली अर्ध जंगली पेड़ों के साथ के  हम आसानी से अनाज ,सब्जियों की खेती भी कर सकते  हैं ,जंगली मुर्गियां और बकरियों को पाल कर हम अपनी आमदनी को भी बढ़ा सकते हैं।  ये पेड़ जमीन को बहुत नीचे गहराई तक अपनी जड़ों के जाल के माध्यम से ताकतवर और पानीदार बना देते है। 

कुदरती पेड़ों की खेती करने से हम आसानी से अपनी जमीन में जल का प्रबंधन कर लेते है जिस से मौसम परिवर्तन और गर्माती धरती पर रोक लग जाती है।  जंगली खेती करके हमारे पढ़े लिखे नवजवान न केवल समाज में सम्मान पाते  हैं वरन आर्थिक लाभ भी अर्जित कर लेते है जो कल तक बेरोजगार थे वो अनेक लोगों को रोजगार उपलब्ध करा  रहे हैं। 







Thursday, March 24, 2016

नरवाई जलाना महापाप है।

नरवाई जलाना महापाप है। 

गेंहूं की नरवाई से करें बिना जुताई ,बिना खाद और दवाई की खेती। 

गेंहूं की नरवाई से ऊगते धान के पौधे सीधे बीज फेंके गये हैं। 
रवाई असली जैविक खाद है। नरवाई में फसलों के उत्पादन के सभी पोषक तत्व मौजूद  होते हैं। नरवाई को जहाँ का तहां वापस खेतों में डाल देने से इसमें असंख्य जीव जंतु सुरक्षित हो जाते हैं जो पोषक तत्वों और नमी को बढ़ा देते हैं। नरवाई के कवर  में फसलों में लगने वाले कीड़ों के दुश्मन रहते हैं जो कीड़े लगने नहीं देते हैं।

नरवाई को जला देने से और खेतों को बखर देने से एक और जहाँ नरवाई से मिलने लाभ नहीं मिलता है वहीं खेतों की जैविक खाद गैस बन कर उड़ जाती है। पोषक तत्वों की कमी और बीमारी के कीड़ों के दुश्मनो के नहीं रहने के कारण फसलों में बीमारी उत्पान हो जाती है।  नरवाई का  कवर  जमीन पर सीधे पड़ने वाली  धूप  को रोक लेता  है जिस से खरपतवारो  का भी नियंत्रण हो जाता है।
गेहूं की नरवाई में लगाई गयी आग। 

खेतों में जुताई  नहीं करने और नरवाई को वापस जहाँ का तहां डाल  देने भर से खेतों में बंपर फसल मिलती है।
हमारी सलाह है की फसलों को बोने  के लिए नरवाई के कवर  में अगली फसलों के बीजों को सीधे फेंक भी देने से खेती का कार्य पूरा हो जाता है।  लागत और श्रम की भारी बचत हो जाती है।  हमारी खेती लाभप्रद हो जाती है। उत्पादन बंपर मिलता है।

बिना जुताई करें और नरवाई से खेत को ढांक कर खेती करने से एक और जहाँ हमे बंपर उत्पादन मिलता है वहीं खेत सूखते नहीं है।  बरसात का पूरा पानी जमीन के द्वारा सोख लिया जाता है।  भूमिगत जल लगातार बढ़ता जाता है। 

Monday, March 21, 2016

नरवाई क्रांति

नरवाई क्रांति

नरवाई आज भले किसानो को बेकार लगे किन्तु इस से उत्पन्न क्रांति असली है। 
ब से मशीनो से की जाने वाली गहरी जुताई और जहरीले रसायनो से खेती की जाने लगी है तब से खेतों में हरियाली का नामोनिशान नहीं है। अनेकों कुदरती वन ,बाग़ बगीचे और स्थाई चरोखर इसके भेंट चढ़ गए हैं।

देशी खेती किसानी में खेती पशुपालन और पेड़ों के समन्वय से की जाती थी।  हर किसान अपने यहां पशुधन रखता था बैलों का उपयोग कृषि कार्यों में होता था गायों से दूध मिलता था गोबर गोंजन  आदि खाद के रूप में इस्तमाल होता था।  पशुओं के लिए चरोखर और जंगल खेतों की तरह संभाले जाते थे।  जिस से हमारा पर्यावरण संतुलित रहता था। मौसम में कोई परिवर्तन नहीं होता था।

देशी खेती में फसलो से मिलने वाले अवशेषों जैसे नरवाई ,पुआल आदि को बहुत कीमती माना जाता था इसे किसान पशुओं के चारे के लिए सम्हाल कर रखता था। किन्तु अब सब किसान कृषि कार्यों के लिए मशीनो का इस्तमाल करने लगे हैं ,खाद के  लिए रसायनो  का इस्तमाल  होने लगा है। दूध पैकेट में मिलने लगा है गायों की कोई जरूरत नहीं रह गयी है।   फसल की कटाई  भी मशीनो से होती है  अनाज सीधे खेतों से मंडी चला जाता है।
इसलिए नरवाई और पुआल आदि को खेतों में ही जला  दिया जाता है।
पुआल को जलाते किसान 

कृषि अवशेषों को जला देने से खेत को बहुत नुक्सान होता है। हमारे खेत असंख्य जीव जंतु ,कीड़े मकोड़ों का घर होते हैं।  यह जैव विविधतायें खेत की उर्वराशक्ति और जल ग्रहण की शक्ति में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इन जैव विवधताओं के जीवन चक्र से फसलों के लिए आवशयक पोषक तत्व मिलते हैं इनके मर जाने से विपरीत परिणाम मिलते हैं।

मसानोबू फुकुओका एक जग प्रसिद्ध सूक्ष्मजीवनु वैज्ञानिक रहे हैं।  उन्होंने अनेक साल जापान सरकार के कृषि विभाग में शोध का कार्य किया था। उन्होंने अपने शोध से यह पाया की फसलोत्पादन के लिए की जा ही जमीन की जुताई ,रसायनो का उपयोग और नरवाई आदि को जलाने से बहुत बड़ी हिंसा होती है। इसलिए उन्होंने आधुनिक वैज्ञानिक खेती के बदले अहिंसा पर आधारित खेती की खोज की जिसमे सबसे बड़ा  काम जैविविधताओं को बचाना है।
नरवाई क्रांति गेंहूँ की फसल दिखाते फुकूओकाजी 

उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ कर अपने खेतों में ऐसी  खेती का आविष्कार कर डाला जिसमे जमीन की जुताई ,खादों का उपयोग ,कीटनाशकों और नींदा नाशको का उपयोग नहीं है। इसमें मशीनो और सिंचाई का भी उपयोग यही है।  इस खेती को वे नरवाई (स्ट्रॉ )क्रांति कहते है।

इस खेती में वे फसलों को काटने और गहयी के उपरांत सभी नरवाई आदि को जहाँ का तहाँ वापस खेतों में फैला देते हैं।  ऐसा करने से खेतों में एक सूखा ढकाव बन जाता है। इस ढकाव में असंख्य कीड़े मकोड़े ,सूख्स्म जीवाणु ,केंचुए आदि काम करने लगते है जो जमीन को बहुत गहराई तक पोला  बना देते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन के भीतर चला जाता है। इन जैव-विवधताओं के जीवन चक्र से पोषक तत्वों की आपूर्ति हो जाती है ,खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है ,इस ढकाव में रहने वाले अनेक मेंढक ,छिपकली आदि फसलों पर आने वाले कीड़ों को खा लेते हैं।

 नरवाई और पुआल आदि का ढकाव सब से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता  है।  जमीन धूप ,तेज बरसात और आंधी  से भी बची रहती है। इस नरवाई क्रांति ने एक और जहाँ आधुनिक वैज्ञानिक खेती को धता बता दिया वहीँ परम्परगत पशुबल से की जाने वाली को  भी बेकार सिद्ध कर दिया है।
गेंहूँकी नरवाई से झांकते धान के पौधे 

होशंगाबाद का तवा  कमांड का छेत्र मिनी पंजाब कहलाता है।  पंजाब और  तवा के छेत्र में नरवाई और पुआल को जलाना जरूरी समझा जाता है।  एक और जहाँ यह छेत्र हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए  जरूरी हैं वहीं  अब ये मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं।  सारे किसान कर्ज के  बोझ में दब  गए हैं।  इस छेत्र के किसानो को मुआवजा  देते २ अब सरकार भी कर्जदार हो गई है।  हर एक निवासी पर हजारों रु का कर्ज चढ़  गया है।

पर्यावरण दूषित हो रहा है रोटी में जहर घुलने लगा है। पंजाब की तरह हर चौथे घर में कैंसर का खतरा उत्पन्न हो गया है ,हर किसी के खून में रासायनिक जहर सीमा पार कर रहा है। दूध पिलाने वाली माताओं के दूध में जहर घुल रहा है।

किन्तु आज भी यदि आमआदमी ,सरकार ,कृषि वैज्ञानिक और किसान नरवाई क्रांति का उपयोग करने लगे तो स्थिति पलट सकती  है।  हम पिछले तीस सालों  से नरवाई क्रांति का लाभ उठा कर खेती कर रहे हैं और इसका नि :शुल्क प्रशिक्षण भी दे रहे हैं।









Saturday, March 19, 2016

हमारे पर्यावरण की हत्या !

हमारे पर्यावरण की हत्या !

यमुनाजी और श्री श्री जी का कार्यक्रम 

मारा देश हमारे पर्यावरण के बहुत ही गंभीर खतरे से जूझ रहा है।  अनेक प्रदेश पीने के पानी के लिए दूसरे प्रदेशों की मेहरबानी पर जिन्दा है जिसमे दिल्ली और गुजरात किसी से छुपा नहीं है। दिल्ली में जहां एक और "आमआदमी पार्टी "की सरकार है तो केंद्र में " मोदीजी " की सरकार है।  दोनों सरकार दिल्ली में अपना अपना भाग्य आजमा रही हैं। दोनों को दिल्ली में एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना है जिसमे पर्यावरण की गंभीर समस्या का समाधान हो सके। जिसमे यमुनाजी का विशेष महत्व  है।

कार्यक्रम के उपरांत यमुनाजी के हाल 


 यमुना जी बचेंगी तो ही दिल्ली बचेगी और बचेगा। तभी देश की अन्य नदियां बचेंगी ,तभी हरियाली बचेगी ,तभी हमे साँस लेने के लिए हवा मिलेगी ,तभी हमे पीने के लिए पानी और खाना मिलेगा। किन्तु बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है की ये सरकारे हमारे पर्यावरण के प्रति बिलकुल संवेदनशील नहीं है इसलिए वहां "विश्व संस्कृतिक  कार्यक्रम " के बहाने यमुनाजी के पर्यावरण की हत्या करदी गयी और सब देखते रह गए। एक मामूली सा ५ करोड़ का हर्जाना लगाकर देश के सबसे बड़े हरित कोर्ट ने हाथ खड़े कर दिए हैं।

इस से साफ़ पता चलता है की सभी सरकार विकास के नाम पर विनाश करने में लगी है। दिल्ली में जहाँ सब बड़े कोर्ट हैं जहाँ माननीय राष्ट्रपति जी भी रहते हैं देश की लोकसभा और राज्य सभा है सारे  मीडिया यहां पर हैं फिर भी हम यमुनाजी जो हमारी पवित्र माँ है को नहीं बचा पा रहे हैं।

हम एक छोटी सी अदनी सी गैर सरकारी संस्था जिसका नाम "यमुना जिए अभियान "है को सलाम करते हैं जिसने यमुनाजी के पर्यावरण की हो रही हत्या पर आवाज उठाकर  पूरी दुनिया को दिखा दिया की हम अपने बच्चों के भविष्य के लिए अपने  पर्यावरण के लिए कितने जागरूक है।

यमुनाजी का यह भू भाग पर्यावरण के दृश्टिकोण से बहुत संवेदनशील है जिस पर किसी भी प्रकार के स्थाई या अस्थायी निर्माण करने की अनुमति नहीं है फिर अनुमति क्यों दी गयी यह गंभीर प्रश्न है। दूसरा जब ये सरकार ढोल पीट पीट कर अपने को किसान हितेषी बताती हैं तो क्यों फिर क्यों  फसलों को बुलडोज़र से नस्ट किया गया है ?

ऐसा नहीं है की हम विकास नहीं चाहते है ऐसा भी नहीं है की हम विश्व संस्कृतिक कार्यक्रमों के विरोधी हैं हमे श्री श्री जी से कोई शिकायत नहीं हमे शिकायत उस व्यवस्था से है जिनके हाथों में में हमारे बच्चों के पर्यावरण को ठीक रखने की जिम्मेवारी है।







Sunday, March 6, 2016

बिना-जुताई की संरक्षित खेती



बिना-जुताई की संरक्षित खेती 

 जीरो टिलेज सीड ड्रिल का उपयोग 

जैसा की हम जानते हैं कि जमीन की जुताई करने से बरसात का पानी जमीन में नहीं सोखा जाता है वह तेजी से बह जाता है साथ में खेत की बखरी मिटटी जो असल में जैविक खाद होती है को भी बहा कर ले जाता है।  इस प्रकार खेत सूख जाते है और उनकी उर्वरा शक्ति भी नस्ट हो जाती है।
 धान के बाद गेंहूँ की बुआई 

एक बार की जुताई से इस प्रकार आधी  उर्वरकता और आधी नमी खतम हो जाती है और बहुत अधिक जानलेवा खरपतवार खेतों में पैदा होने लगती है। नमी और उर्वरकता की कमी के कारण फसलों में बहुत रोग लग जाते है दवाइयों का अतिरिक्त खर्च पड़ने से खेती घाटे का सौदा बन जाती है।

इस प्रकार घाटे की खेती करने से किसान ही नहीं सरकार पर भी बहुत बोझ पड़  रहा है।  इसलिए आज कल बिना जुताई की खेती जोर पकड़ रही है।  इसमें किसान एक फसल को काटने के बाद दूसरी फसल को बोने के लिए बिना जुताई की बोने  की मशीन का उपयोग करता है।

उपरोक्त चित्र में किसान धान की खेती के उपरांत रबी की बुआई कर रहे हैं। इस से अनेक फायदे होते हैं।  पहला फायदा खेती खर्च में कमी का है।  जुताई और सिंचाई में कमी आने से करीब ७० प्रतिशत की बचत हो जाती है। दूसरा फायदा नत्रजन का संरक्षण है। जुताई  करने के कारण खेतों की जैविक खाद न तो बहती है ना ही वह गैस बन उड़ती है।  इस कारण बड़ी मात्र में खाद की बचत हो जाती है।

गेंहूँ की बुआई के बाद धान की पुआल की मल्चिंग  
अनेक किसान इस प्रकार बुआई  करने के बाद पुआल को भी खेतों में जहाँ का तहाँ आड़ा तिरछा वापस में खेतो में फेंक देते हैं।  इस के कारण एक तो यह सड़ कर उत्तम जैविक खाद में बदल जाता है वही यह खरपतवारों का नियंत्रण कर लेता है। इस ढकाव के कारण इसके नीचे असंख्य कीड़े मकोड़े काम करते हैं जैसे केंचुए जो  जमीन को बहुत गहराई तक बखर देते हैं जो कोई मशीन नहीं कर सकती है।  धुप के कारण नमी उड़ती नहीं है सूखे की स्थिति में भी उत्तम फसल उतरती है।  अनेक बीमारी के कीड़ों के दुश्मन इस ढकाव की छाया  के नीचे रहने लगते है।  जो फसलों में बीमारी नहीं लगने देते हैं। जैसे छिपकली और मेंढक ,इल्लियों को खा जाती है।

हम धान के बाद होने वाली गेंहूँ की खेती में गेंहूँ के साथ दाल की फसल भी लगाते है। क्योकि गेंहूँ और चावल नत्रजन खाने वाले हैं और दाल नत्रजन देने वाली है दोनों की दोस्ती बहुत जमती है।  इस खेती में अतिरिक्त रासायनिक और किसी भी प्रकार  गोबर और गो मूत्र की खाद की जरूरत नहीं पड़ती है।



बिना जुताई की जैविक खेती

बिना जुताई की जैविक खेती

जुताई ,खाद ,दवाई के बिना की जाने वाली असिंचित यांत्रिक खेती 


पिछले दो दशकों से अमेरिका में बिना जुताई करे खेती करने की तकनीक  ने बहुत प्रसिद्धी पाई है।  बिना जुताई की खेती कर किसान भूमि छरण और जल के छरण को रोकने में सफल हुए हैं।  इस तकनीक से किसानो के पैसे और समय में भी बहुत बचत देखी गयी है। 
बिना जुताई की जैविक खेती की किताब 


हलाकि इस खेती  से एक और जहाँ किसान  खुश हैं वहीँ उन्हें  खरपतवारों से  लड़ने के लिए जहरीले रासायनिक खरपतवार नाशकों को उपयोग में लाना पड़ रहा है जिसके कारण उनके उत्पाद 'जैविक ' श्रेणी नहीं आते हैं।   
इसलिए बिना जुताई की संरक्षित खेती करने वाले किसानो के समक्ष  सवाल खड़ा हो गया है वे कैसे अपने उत्पादों को  जैविक की श्रेणी  लाएं जिस से उन्हें जैविक बाजार स्वीकार कर ले।


बिना जुताई की जैविक खेती की मशीन 
' बिना जुताई की जैविक खेती' के  पास इस प्रश्न का जवाब है। यह  पूरी तरह जमीन की जैव- विविधताओं को बचाते हुए खेती करने का तरीका है। इसमें भूमि ढकाव की फसलों को जमीन पर मशीनो के द्वारा सुला दिया जाता है  जिस से जुताई किए बगैर और खरपतवार नाशको का उपयोग किए बगैर बंपर फसले ली जाती हैं। 


गेंहूँ की नरवाई में सोयाबीन की बिना जुताई
की खेती 
अमेरिका की रोडल्स संस्था ने इस  विधि को तैयार किया  है जिसमे बिना जुताई और बिना रासयनिक जहरों से खरपतवारों को मारे  बिना मशीनो का उपयोग करते हुए बंपर फसले ली जा सकती है। इस विधि में पहले जमीन को हरी खाद की  फसलों से   ढँका जाता है। जिस से जमीन उर्वरक और पानीदार हो जाती है। जिसके कारण जुताई ,खाद और दवाइयों के आलावा सिंचाई भी गैर जरूरी हो जाती है। इस कारण फसले शत प्रतिशत आर्गेनिक जाती है। 

इसके लिए छोटे ट्रेक्टरों के आगे एक रोलर लगता है लगता है जो कवर क्रॉप्स को जमीन पर सुला देता है तथा ट्रेक्टर के पीछे 
बिना जुताई की बोने की मशीन से बोनी कर दी जाती है। इसमें एक बार मशीन को घुमाने से साल भर की खेती का काम पूरा हो जाता है। 
पानी रे पानी 


यह साल भारत  का सबसे भीषण सूखे का साल है।

Saturday, March 5, 2016

घरों से निकलने वाला कचरा कीमती है उसे बर्बाद नहीं करें !

 घरों से निकलने वाला कचरा कीमती है उसे बर्बाद नहीं करें 

आम के आम गुठली के दाम 


जकल शहरों में दिन प्रति दिन घरों से निकलने वाला कचरा मुसीबत बनते जा रहा है। जिसके कारण नगर पालिका और उसके कर्मचारियों की नाक मे दम हो रही है। यह कचरा सामान्यत: दो प्रकार का रहता है 'सूखा और गीला '


कचरा मुसीबत बन जाता है। 
सूखे कचरे में अधिकतर आजकल प्लास्टिक ,कांच और लोहा आदि है तथा गीले कचरे में अधिकतर सड़ने वाला कचरा है। सूखे कचरे का प्रबंधन करने में प्लास्टिक सबसे बड़ी समस्या है। हालांकि  अधिकतर प्लास्टिक को दुबारा काम में लाया जाता है किन्तु इसे मुकाम तक ले जाना बहुत बड़ी समस्या है। इसी प्रकार गीले कचरे का प्रबंधन भी बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि इस से जैविक खाद बन जाती है तथा यह भी बायो गैस प्लांट में काम में लाया जा सकता है।

हम अपने घर के दोनों गीले और सूखे कचरों का  स्वयं प्रबंधन करते हैं। सूखे कचरे जिसमे कागज, प्लास्टिक आदि रहते हैं को हम अलग करके घर के लकड़ी के चूल्हे को जलाने के लिए काम लाते हैं।  गीले कचरे को हम सीधे जमीन पर जहाँ हम अपनी सब्जियां उगाते हैं वहां डाल देते हैं जो सड़  कर जैविक खाद में तब्दील हो जाता है।

घर की टॉयलेट , बाथ रूम और किचिन का पानी बायो गैस प्लांट से होकर गुजरता है जिसके कारण कोई भी गंदगी घर से बाहर नहीं जाती है।

हमारा यह मानना है की शहर के हर घर को  निकलने वाले कचरे का स्वम्  प्रबंधन खुद करना चाहिए। हर घर में कचरों को इकठा करने के लिए सूखे और गीले कचरे के  अलग २ बैग होने चाहिए।  गीले सड़ने वाले कचरों को गमलों में डाल देना चाहिए जब गमले भर जाते हैं उन्हें सूखी पुआल ,नरवाई ,पत्तियों आदि से ढांक कर उसके ऊपेर थोड़ी सी मिटटी डाल कर उसमे सब्जियां जैसे भटा  ,टमाटर आदि को लगाना चाहिए। जैसे जैसे पानी लगता है कचरा सड़ने लगता है जो नीचे तक बैठ जाता है खाली  जगह में पुन कचरे को डालते हुए इस प्रक्रिया को दोहरने से कचरा बढ़िया सब्जी पैदा करने की मिटटी में तब्दील हो जाता है।

सूखे कचरे को अलग अलग करके कबाड़े वालों को बेच देना चाहिए।  कबाड़े वाले कागज ,प्लास्टिक ,लोहा ,कांच सब खरीद लेते हैं। इस प्रकार कचरा पैसे देने का साधन बन जाता है। अन्यथा यह नगरपालिका के लिए मुसीबत बन जाता है।

जब कचरा लावारिश पड़ा रहता है वहां उसको खाने अनेक जानवर कुत्ते ,सूअर ,गाय आदि आ जाते हैं।  अनेक जानवर मर जाते है और बीमारियां फैलाते हैं।

बायो गैस प्लांट लगाना 

गीले कचरे को सीधे बायो गैस बनाने वाले सयंत्र  में डाल  कर हम  कचरे से उत्तम खाना पकाने वाली गैस बना सकते हैं यह काम सामूहिक करने से अधिक फायदेमंद रहता है। बायोगैस सयंत्र  से जैविक खाद और गैस का उत्पादन होता है। जिस से कचरा मुनाफे का साधन बन जाता है।



गीले कचरे से गैस और खाद बनाने का सयंत्र 
इस प्लांट में एक तरफ से गीले कचरे को पानी के साथ डाला जाता है जिसमे यह सड़  जाता है जो दुसरे तरफ से खाद बन कर निकल जाता है। इस सड़न  क्रिया से गैस बनती है है जो सीधे गैस के चूल्हे में जलती है। जिस से खाना पकाने से लेकर बिजली पैदा करने तक का काम किया जा सकता है।  हर मोहल्ले में हम इस प्रकार गैस प्लांट बना सकते हैं इसको बनाने में सरकार भी सहायता करती है। इस प्लांट से निकलने वाली खाद पूरी तरह  बॉस रहित रहती है जिसमे मक्खी और मच्छर नहीं पनपते हैं।

बायोगैस का चूल्हा 

बायो गैस की खाद