Saturday, May 31, 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं

अच्छे दिन आने वाले हैं


कांग्रेस के जाने से या भाजपा के आने  से यदि अच्छे दिन आने वाले होते तो वो कभी के आ गए होते क्योंकि ये तो आते जाते रहते हैं। किन्तु ये ज़रूर है की कुछ लोगों के अच्छे दिन आ गए हैं और कुछ लोगों के अच्छे दिन चले गए हैं ।
हम तो पूरे देश के अच्छे दिन चाहते हैं ।
वो तब तक नहीं  आ सकते हैं जब हमारे देश के खेत और किसान आत्मनिर्भर नहीं  हो जाते है। खेती किसानी के आत्मनिर्भर होने का मतलब है जहर मुक्त हवा,रोटी और पानी चारों तरफ हरियाली ही हरियाली और खुश हाली ही खुश हाली।
कुछ साल कांग्रेस विकास करती है कुछ साल भाजपा विकास करती है दोनों कहते हैं 'अच्छे दिन आने वाले हैं '
किन्तु हम जहाँ के तहाँ रहते हैं। हाँ इतना जरूर है की इन लगों का विकास हो जाता है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है जो परंपरागत खेती किसानी से हजारों साल आत्म निर्भर रहा है। ये खेती किसानी पूरी तरह भारतीय संस्कृति पर आधारित रही है। किन्तु आज़ादी के बाद से ये खेती किसानी आयातित तेल से चलने वाली मशीनो ,रासायनिक उर्वरकों ,कीटनाशकों ,खरपतवार नाशको ,बड़े बांधो पर आधारित भारी सिचाई आदि अनेक आयातित तकनीकों के सहारे  से चल रही है जो तेल की  गुलाम हो गयी है। खेत दिन प्रतिदिन मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं किसान आत्महत्या कर रहे हैं या पलायन कर रहे हैं इस कारण बेरोजगारी चरम सीमा पर है।

आज की खेती हरित क्रांति के नाम से विख्यात है इसकी खासियत  यह है की इस से तेजी से हरियाली नस्ट हो रही है अनेक कुदरती वन , स्थाई चारागाह ,बाग़ बगीचे सब के सब अनाज की खेती को भेंट चढ़ गए हैं इसलिए साँस लेने की हवा और प्यास बुझाने का पानी भी   दूभर होगया है। रोटी में जहर घुलने लगा है।

भारतीय संस्कृति पर आधारित परम्परगत खेती किसानी कुदरती वनो ,चरागाहों और पशुपालन के समन्वय से होती थी बरसात नियमित होती थी बरसात का जल भूमि में समां जाता था देशी उथले कुए लबालब रहते थे। नदी नालों का पानी साल भर निर्मल बहता रहता था।

किन्तु जब से सरकारों को विकास का भूत चढ़ा है तब से हम लोगों का पर्यावरण रहने लायक नहीं रहा है। प्रदूषण चरम सीमा पर है ग्लोबल वार्मिंग ,मौसम परिवर्तन ,कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ मुसीबत बने हुए है।

 पिछले २७ सालों से भी अधिक समय से आत्म निर्भर ऋषि खेती का अभ्यास कर रहे हैं  एक और जहाँ हमारे खेत आत्म निर्भर हो गए हैं वहीँ हम भी इन खेतों के माध्यम से कुदरती खान ,पान और हवा के मामले में आत्म निर्भर हो गए है।  सरकारी अनुदान ,कर्ज और मुआवजे से पूरी तरह मुक्त हैं।
हम अब दावे के साथ कह सकते हैं की हमारे अच्छे दिन आ गए है।
               हमारी धरती माँ में ही अच्छे दिन लाने  की छमता है। उस की सेवा कर हम खुश रह सकते हैं।

राजू टाइटस

rajuktitus@gmail.com. मोबइल -09179738049 

Thursday, May 29, 2014

खेती किसानी की बदहाली के समाधान हेतु सुझाव

खेती किसानी की बदहाली के  समाधान हेतु सुझाव 

हने को तो हमारा देश कृषि प्रधान देश  कहलाता है जिसकी आधी से अधिक आबादी गांवों में रहती है किन्तु सबसे अधिक गरीबी और भुख मरी अब इसी आबादी को झेलना पड़  रहा है यह एक चिंता का विषय है। एक समय था जब हमारे अन्नदाता आत्मनिर्भर थे उनकी खेती किसानी टिकाऊ रहती थी हजारों साल हमने इस टिकाऊ खेती किसानी के सहारे खूब विकास का ढिढोरा पीटा किन्तु मात्र हरित क्रांति के कुछ सालों ने   खेती किसानी को चौपट  दिया है।  खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं और किसान पलायन कर रहे हैं। किसानो की आत्महत्या का दौर है की रुकने का नाम नही ले रहा है।

क्या इसमें हरित क्रांति का दोष है ?

जब हम अंग्रेजों के गुलाम थे हमने ' सत्य और अहिंसा '  के मूल सिद्धांतों के माध्यम से आज़ादी प्राप्त करने में सफलता हासिल की थी किन्तु विकास के लिए हमने  सिद्धांतों के विपरीत काम कर के  पुन : देश को आयातित तेल का गुलाम बना डाला और यह सब हमने पश्चिमी संस्कृति की नक़ल करके किया जिसका आधार' हिंसा ' है। जमीन की यांत्रिक जुताई ,कृषि रसायनो का उपयोग ,संकर और GM बीजों का उपयोग ,बड़े बांधों पर आधारित भारी सिंचाई आदि सब काम कुदरत की हिंसा पर आधारित हैं। असल  हमने विकास के नाम पर उस मुर्गी का पेट फाड़ डाला जो हमे हर रोज सोने का अंडा दे रही थी।

आज़ादी के तुरंत बाद जब गांधीजी नहीं रहे थे विनोबाजी जी ने सत्य और अहिंसा के आधार पर देश के टिकाऊ विकास के लिए ऋषि खेती माध्यम से देश के विकास का नारा बुलंद किया था जिसे उस समय की सरकार ने पूरी तरह नकार कर  आधुनिक वैज्ञानिक खेती "हरित क्रांति " को करवाने का काम किया जिसके दुष्परिणाम आज हम भुगत रहे हैं। उस समय से आज तक "हरित क्रांति " को विकास माना जा रहा है।  भ्रान्ति है।
कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की सरकार हो काम तो इन्हे आधुनिक खेती  वैज्ञानिकों  कहे अनुसार करना पड़ेगा।

खेती  डाक्टर आज खेती किसानी की बिगड़ती हालत लिए किसान  को ही दोष देते हैं वो कहते है की किसान मिट्टी की जाँच नहीं करवाते हैं उनकी सलाह के अनुसार काम नहीं करते है। इसलिए इस हालत के लिए वे ही जिम्मेवार हैं। असल में वैज्ञानिक लोग जो सलाह देते हैं वो सब पश्चिमी देशों की फ्लॉप तकनीकों के आधार पर हैं। जबकि हमारी खेती किसानी की संस्कृति हर हाल में उस से अच्छी और टिकाऊ है यही कारण था हम हजारों साल सुरक्षित रहे हैं।
ऋषि खेती की जग प्रसिद्ध किताब

ऋषि खेती एक  भारतीय संस्कृती पर आधारित खेती है जो पूरी तरह सत्य और अहिंसा  पर आधारित है जिसमे मशीनी जुताई ,जहरीले रसायनो , बिगाड़े गए बीजों , भारी सिंचाई, मानव निर्मित खाद  दवाओं का उपयोग वर्जित है। ये सब हिंसक उपाय हैं इनसे खेत और किसान दोनों मर रहे है।

क्या ? ऋषि खेती से खेती किसानी की हालत को सुधारा जा सकता है।

सच्चाई यह है की जो कुदरत बनाती है वह इंसान नहीं बना सकता है। जुताई नहीं करने से कुदरत खेती करने लगती है जैसा हम कुदरती वनो में  देखते हैं। ऋषि खेती भी इसी कुदरती सत्य पर आधारित  खेती है।  प्रकार वनो में कुदरती संतुलन कायम रहता है जहाँ शेर और हिरन, मेंढक और  सांप , उल्लू और चूहे रहते हैं। वैसे ही ऋषि खेती में अहिंसात्मक तरीके से फैसले  के कीड़े भी रहते है इनके बीच एक कुदरती संतुलन रहता है कोई भी
बीमारी का प्रकोप नहीं होता है। इसलिए हमारा सुझाव है की बिगड़ती खेती किसानी ऋषि खेती के बिना संभव नहीं है।



Tuesday, May 27, 2014

ऋषि खेती को बढ़ावा दिया जाये !

खेती किसानी को बचाने के लिए नयी सरकार को सुझाव 

ऋषि खेती को बढ़ावा दिया जाये !

मे खुशी है की इस बार देश में एक स्थाई सरकार का गठन हुआ है जो देश  की खेती और किसानी की हालत को सुधारने के लिए सब कुछ कर सकती है। हम पिछले २७ सालों से भी अधिक समय से "ऋषि खेती" का अभ्यास कर रहे हैं। यह खेती जुताई ,मानव निर्मित खाद और दवाइयों के बिना की जाती है।
ऋषि खेती के जनक माननीय मस्नोबू फुकुओका 

खेती एक पर्यावरणीय प्रक्रिया है यदि हम अपने पर्यावरण को मानवीय हस्तक्षेप से बचा लेते हैं तो कुदरत हम को वह सब कुछ दे देती है जिसकी हमे जरुरत है। भारतीय प्राचीन परम्परागत खेती किसानी पूरी तरह हमारे पर्यवरण पर निर्भर थी। भारी सिचाई ,रासायनिक उर्वरक ,कीटनाशक ,कम्पोस्ट आदि की कोई जरुरत नहीं रहती थी। पशुपालन और जंगलों का खेती के साथ अटूट सम्बन्ध था। खेतों की उर्वरकता और नमी को संरक्षित रखने  के लिए किसान खेतों में बदल बदल कर फैसले पैदा करते थे जिस से जंगल और खेत आपस में बदले जाते थे।  जिस से खेतों की नमी और उर्वरकता हमेशा एक सी बनी  रहती थी।
पेड़ों के साथ गेंहूँ की ऋषि खेती

किन्तु जब से आधुनिक वैज्ञानिक खेती का चलन शुरू हुआ है तब से खेतों में लगातार एक सी फसलें पैदा की  जा रही है। जुताई मशीनो से होती है ,कटाई एवं गहाई मशीनो से होती है . पशु बल और जंगलों का इसमें अब कोई उपयोग नहीं रहा है। इसलिए खेती अब आयातित तेल की गुलाम हो गयी है। भारी सिंचाई ,रासयनिक उर्वरकों ,जहरीली दवाइयों और मशीनो के बिना खेती की कल्पना भी नहीं की जाती है।

अनाज के खेतों में हरियाली को सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है नींदे,झाड़ियाँ और पेड़ खेतों से दूर रखे जाते है।
इस कारण अब बरसात अनियमित हो गयी है ,बरसात का पानी जमीन में नही सोखा जा कर वह तेजी से बहता है अपने साथ खेतों की जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है। इस कारण खेत कमजोर और होकर सूख गए हैं। उनमे अब घास भी पैदा नहीं होता है।

मिटटी की बीज गोलियां रसायनो और मशीनो की  जरुरत नहीं।
कमजोर और सूखे खेतों में खेती बहुत अधिक लागत वाली हो गयी है। थोड़ी भी फसल कम  हो जाती है किसान घाटे में चला जाता है। जो भी फसल खेतों से आ रही है वह कमजोर और जहरीली हो गयी है जिसको खाने से अनेक प्रकार की बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं। किसान खेती छोड़ छोड़ कर शहरों  की और पलायन करने लगे हैं। इस कारण बेरोजगारी की भारी  समस्या उत्पन्न हो गयी है। किसानो की समृद्धि का असर पूरे व्यवसाय पर पड़ता है  किसानो के घाटे  के कारण बाजार भी अब बैठने लगे हैं। मंडी का दौर चल पड़ा है।

बीज गोलियां बनाते बच्चे
हमने यह अनुभव किया है की खेती किसानी की सारी  समस्या जमीन की जुताई से जुडी है।  जुताई के लिए किसान पेड़ और हरियाली को नस्ट कर देते हैं जिस से बरसात कम या अनियमित हो जाती है। बरसात का पानी जमीन के भीतर नहीं समाता है वह तेजी से बह जाता है। पानी न तो आसमान से आता है न वह धरती के नीचे से आता है पानी तो हरियाली से मिलता है। अब जब हम हरियाली को नस्ट कर खेती करते हैं तो खेत सूख सूख कर कमजोर हो जाते है।
बीज गोलियों से बोनी करता किसान

ऋषि खेती हरियाली के साथ की जाने वाली खेती है इस में सिचाई रासयनिक उर्वरक ,दवाइयाँ ,कम्पोस्ट आदि की कोई जरुरत नहीं रहती है। खेती का खर्च ८० % कम हो जाता है ,उत्पादकता और गुणवत्ता सबसे अधिक रहती है। किसान को कोई घाटा नहीं होता है। जमीन की ताकत और नमी में लगातार इजाफा होता है। बरसात नियमित हो जाती है ,कार्बन का उतसर्जन  घट  जाता है बल्कि उसका शोषण बढ़ जाता हो जाता है। यह पूरी तरह पर्यावरणीय खेती है। इस खेती को करवाने में लागत  बढ़ती नहीं है वरन घट जाती है।  किसान खुश हाल और समाज में सर उठकर चलने वाला बन जाता है।
हमारा सरकार से अनुरोध है वह ऋषि खेती को बढ़ावा देकर खेती किसानी को खुश हाली का धंदा बनाये। २७ साल के ऋषि खेती के अपने अनुभवों के आधार पर  हमारा यही सुझाव है। 

The Awá: an historic victory

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The Awá: an historic victory
In 2012 we launched a global campaign to save a little-known tribe in the Amazon, one of the last nomadic hunter-gatherer tribes left in Brazil. With more than 30% of their forests destroyed by illegal logging, we asked you to help save the Earth's most threatened tribe.
You responded in your thousands, and, because of your emails, Awáicons and donations, the campaign made headlines around the world. Brazil's Minister of Justice was forced to act, sending in troops and federal agents to expel the loggers.
The operation has just been completed; all loggers and ranchers have been removed from the Awá indigenous territory. This is an incredible victory which would never have happened without your help.
Here is your story>Watch the film

The story is currently on the front page of the BBC website and will be featured in BBC2’s leading in-depth TV news programme, “Newsnight”. UK supporters can watch it tonight (Thursday 22 May) at 10.30pm (BST). The story will be broadcast on BBC Radio 4 on Saturday at 11.30am (BST). *

Saturday, May 24, 2014

`Zero tilling' method used for rice cultivation

`Zero tilling' method used for rice cultivation
Staff Correspondent
Expenditure can not only be brought down by 50 per cent but the yield will also be higher


COST EFFECTIVE: Farmers of Mangenakoppa village in Khanapur taluk of Belgaum district demonstrating the working of `zero till-ferti-seed drill' (attached to the tractor).
DHARWAD: A team of scientists from the University of Agricultural Sciences (UAS), Dharwad, with the cooperation of farmers of Mangenakoppa and other villages in Khanapur taluk of Belgaum district, have adopted the cost-effective "zero tilling method" for growing rice.
The method, said to have been evolved for the first time in the State, not only reduces the tilling but also the cost of cultivation of rice by 50 per cent and gives higher yield. It is based on the techniques developed by scientists from International Rice Research Institute, Philippines and Centre For International Research in Maize and Wheat (CIMMYT), Mexico. The programme has been implemented in coordination with the Rice-Wheat Consortium.
New technology
The method works on a new set of improved crop establishment and production technology rooted in the cardinal principles of resource conserving agriculture (RCA) that enables farmers to produce more at less cost.
The RCA comprises reduced or no-till and residue managements or co-culturing of rice with green manure crops.
"In the traditional system of agriculture that is practised in the region, farmers begin preparatory tilling immediately after harvesting the previous crop in May or June and continue them until sowing or transplanting. Since these activities involve labour and other costs, the cost of rice cultivation goes up and profit margin is reduced," said Y.R. Aladakatti of Agricultural Research Centre of UAS, who is coordinating with S.G. Patil, Professor and Head of the Department, Environmental Science, UAS, in implementing the project in the fields of 30 farmers.
Even after the establishment of the rice crop, farmers have to spend time and resources on weed management. Besides, tilling has a disadvantage of inducing excessive loss of fertile topsoil with runoff rainwater, according to agricultural scientists.
"In the new method, Sunhemp (for green manure) was seeded with rice. Then, a post-sowing pre-emergence herbicide was used within two days of planting for control of weeds. Sunhemp was allowed to grow for 30 days before knocking it down to provide surface cover against soil erosion, suppress weed growth, and fix atmospheric nitrogen," M.G. Hanumaratti, Rice Breeder, UAS, said.
New drill
The most important part of the new method, which has brought success in Gujarat and Punjab, is the "multi-crop zero till-ferti-seed drill". The drill allows farmers to place seeds at optimum depth (four cm). The other benefits include plant spacing (which can be adjusted) and saving in the seed quantity.
The UAS has bought six of these seed-cum-fertilizer drills fabricated in Haryana and given them for use to farmers in Khanapur taluk. Narayan Gowdar and Subhas Gowdar, in whose lands the UAS scientists are conducting the experiment, told a team of journalists, scientists and officials that visited their lands, that the new method is cost effective.
"Since this method requires a smaller quantity of seeds per acre and less tilling, we are able to save about Rs. 2,000 to Rs. 3,000, which is almost 50 per cent of the expenditure. And the yield will be higher," Mr. Narayan said.
Good response
Inspired by the success of the experiment, several farmers have agreed to adopt the new method to cultivate rice in their fields. UAS is thinking of encouraging the local entrepreneurs to manufacture the drill prototype, which will bring down the cost of the implement, now priced at Rs. 20,000, by Rs. 3,000 to Rs. 4,000.
The UAS scientists are working on using the "zero tillage" method on other crops.

Tuesday, May 20, 2014

हमारा पर्यावरण और ऋषि खेती

हमारा पर्यावरण और ऋषि खेती 

सुबबूल और बकरी पालन


रियाली की कमी के कारण दिन प्रतिदिन हमारा पर्यावरण नस्ट होता जा रहा है। जैसा की हम जानते हैं की हमे प्राण वायु हरियाली से मिलती है और जो हवा हम  छोड़ते हैं वह हरियाली के द्वारा सोख ली जाती है जो जैविक खाद में तब्दील हो जाती है।

एन्जिल बकरी के बच्चे को दुलारते हुए। 
  जब से हमारा देश आज़ाद हुआ है जितनी भी सरकारें हमारे देश में रही हैं सब विकास  की बात करती रही हैं जिसके  परिणाम स्वरूप  दिन प्रतिदिन हरियाली कम होती जा रही है।

हरे भरे वन ,स्थाई बाग़ बगीचे और चारागाह सब के सब  अनाज के खेतों में तब्दील होते जा रहे है जो गहरी जुताई और जहरीले रसायनो के कारण मरुस्थलों में तब्दील होते जा रहे हैं।

परम्परागत देशी खेती किसानी में  पशुपालन का बड़ा महत्व है किन्तु जब से अंगरेजी खेती का चलन शुरू हुआ है तबसे बेलों की जगह ट्रेक्टरों ने ले ली है और गायों  की जगह भैंसे पाली जाने लगी है।  जिन्हे अधिकतर अनाज और सूखा भूसा खिलाया जाता है। भेंसों के बच्चे मार दिए जाते हैं दूध इंजेक्शन के बल पर निकाला जाता है। यह  इंजेक्शन  जहाँ पशु को बीमार करता है वही. यह दूध के माध्यम से हमे भी बीमार करता है। इन पशुओं को अधिक से अधिक दूध देने के लिए अनेक प्रकार की रासयनिक दवाइयाँ दी जाती है।
सुबबूल के पेड़ों के साथ गेंहूँ की खेती 

जो अनाज दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है वह भी अनेक जहरीली दवाओं के बल पर  पैदा किया  जाने लगा है जिस से जो दूध हमारे घरों में आ रहा है वह इस्तमाल के लायक नहीं रहा है यह जहरीला हो गया है। जिसके सेवन से हर दसवे घर में कैंसर दस्तक दे रहा है।

हम चार पांच दशकों से खेती के साथ साथ पशु पालन करते आ रहे हैं  देशी गाय और भेंस पालते थे फिर हमने जर्सी गायें पालीं फिर पुन : भेंस पाल कर देखा किन्तु हरे चारे की  समस्या के कारण हम फेल होते गए। हरे चारे की समस्या से निपटने के लिए हमने सुबबूल का प्लांटेशन करीब १२ एकड़ में कर डाला जिस से हमे  साल भर हरा चारा मिलने लगा और हमे काफी हद तक सन्तुस्टी रही। किन्तु अतिरिक्त जहरीले अनाज और भूसे से हमे पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली इसलिए जो दूध हमे मिल रहा था वह पूरी तरह कुदरती नहीं था और हमारे शरीर पर विपरीत असर डाल रहा था।

ऋषि खेती एक जहर मुक्त खेती करने का अभियान है कुदरती आहार बाजार में नहीं मिलता है मिलता है इसे हमे खुद ही पैदा करने पडेगा इस लिए हमने इस अभियान में नयी कड़ी जोड़ते हुए बकरी पालन का काम शुरू कर दिया  हमारे बेटे मधु के सहयोग से शुरू किया गया है। मधु जो स्वं सामजिक कार्यों  के जानकार है उन्होंने सामजिक शास्त्र में स्नाकोत्तर डिग्री हासिल की है।  कोई भी समाज सेवा का काम जब तक सफल नहीं होता जब तक वह स्वं से शुरू नहीं होता है।

सुबबूल एक दलहन जाती का पेड़ है वह अपनी छाया के छेत्र में लगातार नत्रजन पैदा करता रहता है वह नत्रजन की खान है। इन पेड़ों से मिलने वाली नत्रजन का उपयोग हम अनाजों की फसल में लेते हैं जिनसे हम गैर कुदरती नत्रजन के मुकाबले कहीं अधिक अनाज पैदा कर लेते हैं। इन पेड़ों की पत्तियों में प्रोटीन की जबरदस्त मात्रा है और यह बकरियों को बहुत पसंद है इन को खाकर वे साल भर तंदरुस्त रहती हैं उनसे मिलने वाला दूध पूरी तरह कुदरती ,स्वादिस्ट और गुण वाला रहता है।

बकरी पालन एक बहुत ही सरल काम है जिसे बच्चे ,बूढ़े और महिलाएं आसानी से कर लेते है  उन्हें एक सीमित जमीन के टुकड़े में आसानी से सुबबूल के साथ पाला जा सकता है। सुबबूल की लकड़ियाँ ईंधन के रूप में बिक जाती हैं जिनसे एक ओर हमारे घर का चूल्हा जलता है वहीं अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती है।

सुबबूल का पेड़ बहुत ही तेजी से बढ़ने वाला पेड़ है।  यह हरियाली पैदा करने के लिए बहुत ही उत्तम है इसका बीज जमीन पर गिरता है सुरक्षित रहता है बरसात आने पर उग कर पेड़ बन जाता है। यह एक ओर  जहाँ बादलों को आकर्षित कर बरसात करवाने में सहायक है वही ये बरसात के जल को सोख कर भूमिगत जल का स्तर लगातार बढ़ाता रहता है।  इसकी पत्तिया प्राण वायु देने और दूषित वायु को सोखने में बहुत सक्षम है।
इस पेड़ से जैविक खाद इतनी बन जाती है की किसी भी फसल के लिए खाद की जरुरत नहीं रहती है।  बकरियों के पालने  से इन पेड़ों की बढ़वार पर कोई असर नहीं रहता है वरन वे तेजी से पनपते है।
सुबबूल का जंगल 

सुबबूल के पेड़ों के साथ अनाज ,सब्जी ,फलों और बकरी पालन की ऋषि खेती एक पर्यावरणीय कार्य है जिस से ग्लोबल वार्मिंग,क्लाईमेट चेंज जैसी समस्या का समाधान संभव है भूमिगत जल का संवर्धन किया जा सकता है।   पेड़ विहीन आधुनिक वैज्ञानिक खेती पर्यावरण के लिए प्रतिकूल काम है जिस से पर्यावरण प्रदूषण फेल रहा है कैंसर जैसी बीमारियां जन्म ले रही है सूखे की समस्या बढ़ती जा रही है। ये विकास नहीं विनाश है।






Monday, May 19, 2014

ऋषि -रोटी

ऋषि -रोटी 

 कुदरती आहार 

भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है। खेती किसानी और पशु पालन इस की  रीड की हड्डी है। भारतीय प्राचीन खेती किसानी हमारे पर्यावरण के अनुसार संचालित होती रही है इसलिए वह हजारों सालो से टिकी रही किन्तु आज़ादी के बाद के मात्र कुछ बरसों में इस पारम्परिक खेती किसानी को आधुनिक खेती ने मिटा कर रख दिया है।  पारम्परिक देशी खेती किसानी पशु पालन और जंगलों के समन्वय से चलती थी हल्की जुताई ,हरी खाद ,कुदरती जल संरक्षण के कारण ये खेती हजारों साल जीवित रही।
फलदार पेड़ों के साथ ऋषि मूंग की  फसल 

आधुनिक वैज्ञानिक खेती भारी सिंचाई ,रासयनिक उर्वरकों और भारी  मशीनो पर आश्रित है जो पूरी तरह आयातित तेल की गुलाम हो गयी है।  इसलिए आज सबसे बड़ा प्रश्न रोटी का बन गया है। पारम्परिक खेती किसानी में किसान देशी  बीजों का ,मिट्टी का और नमी का संरक्षण करते थे। जुताई को वे हानिकर एवं गेरकुदरती उपाय मानते थे। इसलिए बिना जुताई ,कम से कम जुताई का उपयोग करते थे। वे जुताई के कारण कमजोर होती जमीन को पड़ती कर दिया  करते थे जिस से वह अपने आप ताकतवर हो जाती थी। इस प्रकार वे पलट पलट कर जमीन को उपजाऊ और पानीदार बनाकर हजारों साल सुरक्षित रहे।
ऋषि गेंहूँ की फसल 

आधुनिक वैज्ञानिक खेती का आधार गहरी जुताई ,शंकर नस्ल के बीज ,भारी  सिंचाई और  खाद और मशीने है। गहरी जुताई से तेजी से खेत की ताकत नस्ट हो जाती है वह सूख जाती है.रसायनो के उपयोग से मिट्टी ,पानी ,अनाज सब जहरीला हो जाता है इस कारण हमारी रोटी भी जहरीली हो जाती है।

पाम्परिक खेती  किसानी में पड़ती करने से पशुओं और  हरियाली का भी संरक्षण हो जाता था किन्तु वैज्ञानिक खेती में हरियाली को दुश्मन माना जाता है। कोई भी किसान अपने खेतों  में बड़े पेड़ नहीं रखता है इसलिए खेत मरुस्थल में तब्दील हो गए है उनमे भारी  सिचाई रासयनिक उर्वरकों के बिना खेती असंभव हो गयी है। सबसे बड़ी समस्या पानी की हो गयी है। हमने आसमान और भूमिगत जल के सम्बन्ध को तोड़ दिया है इस कारण सूखे की गंभीर समस्या उत्पन्न हो हो गयी हैअसिंचित इलाकों में  खेती अब ना  मुमकिन होती जा रही है।
सुबबूल चारे और ईंधन के पेड़ 

ऋषि खेती एक पर्यावरणीय खेती है जो बिना जुताई ,बिना रसायनो और बिना मशीनो के हो जाती है इस से मिलने वाली रोटी बेहद स्वादिस्ट और गुणकारी रहती है। जहाँ वैज्ञानिक खेती से मिलने वाली रोटी जहरीली होती है कैंसर जैसे भयानक रोगों को  पैदा करती है  वहीं ऋषि  रोटी से कैंसर भी ठीक हो जाता है।

ऋषि खेती केवल रोटी पैदा नहीं करती है ये हरियाली को भी पैदा करती है जिस से हमे  हमे हवा और पानी दोनों मिलते है। ऋषि खेती  सत्य और अहिंसा पर आधारित खेती है इसके किसान समाज में सम्मान की दृस्टी से देखे जाते हैं।

ऋषि खेती करना बहुत आसान है इसे महिलाएं और बच्चे भी आसानी से कर लेते हैं।  इस खेती को करने में सामन्य  ६०% खर्च कम लगता है वही ८०% मेहनत भी काम हो जाती है। ऋषि खेती करने के लिए बड़े पेड़ों
और झाड़ियों आदि को काटा नहीं जाता है वरन उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है।  इसी प्रकार  वनस्पतियाँ अपने आप उगती  हैं उन्हें भी संरक्षित किया जाता है। इस से खेतों में अनेक किस्म के जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े पनप जाते हैं जो खेत को उर्वरक ,पानीदार और पोरस बना देते हैं।  इस आवरण में हम धीरे २ अपने काम के पेड़ ,झाड़ियाँ ,अनाज और सब्जियों को उगने लगते हैं जिस से  ये हमे कुदरती आहार ,चारा ,ईंधन आदि आसानी से मिल जाता है। बीजों को सीधा फेंकर उगाया जाता है जैसा जंगलों में होता है।



Friday, May 16, 2014

नयी सरकार और ऋषि -खेती


नयी सरकार और ऋषि -खेती 


भाजपा + को भारी मतों से विजय हासिल हुई है जिस के लिए हम सभी लोगों को बधाई  देते हैं। ये विजय असल में कांग्रेस विरोधी लहर को दर्शाती है। कांग्रेस देश में पिछले अनेक सालों से राज कर रही थी उसे भी अनेक बार इसी प्रकार प्रचंड बहुमत मिला किन्तु अफ़सोस की बात है विकास के नाम पर विनाश ही हाथ लगा है। यदि ये सरकार भी कांग्रेस की तरह विकास करती रही तो एक दिन इसका भी यही हर्ष होगा। भारत एक कुदरती संसाधनो  से संपन्न देश है। इसका विकास कुदरती संसाधनो की समृधी  से ही संभव है। सीमेंट,कंक्रीट, आयातित पेट्रोल, कोयले के आधार पर किया जा रहा विकास टिकाऊ नहीं है। इस से हमारे कुदरती संसाधन जो हजारों साल से हमे संपन्न रखे हैं का विनाश हो रहा है। हमे कुछ नहीं चाहिए  हम दो जून की कुदरती रोटी के लिए तरस रहे हैं जो हमे नसीब नहीं हो रही है। रोटी हमे जब मिल सकती जब हम हमारे कुदरती संसाधनो का शोषण बंद कर उन्हें विकसित  करें। ऐसा कुदरती खेती के बिना संभव नहीं है। मौजूदा खेती एक और जहाँ हमारे कुदरती संसाधनो को नस्ट कर रही है वहीं हमारे खान पान और हवा में जहर घोल रही है। इसे अविलम्ब बंद कराने की जरुरत है। जरुरत से ज्यादह जमीन की जुताई ,रसायनो का उपयोग इस के लिए जवाब देह है। खेती के वैज्ञानिक और सरकारें इसके लिए दोषी है। यही कारण है की बिना युद्ध  के हमारे किसान और जवान बे मौत मर रहे हैं। जंगलो पर आश्रित हमारा जनमानस पलायन के लिए मजबूर हो गया है ,पढ़ा लिखा और बहुत अधिक पढ़ालिखा युवा बेरोजगार हो रहा है ,मंदी  बढ़ रही है व्यापार घट रहा है। हमारे कुदरती संसाधनो के शोषण से तेल या बिजली को हम विकास नहीं मानते क्योंकि ये संसाधन सीमित है और तेजी से कम हो रहे हैं।

हम  ऐसा टिकाऊ विकास चाहते हैं जिस से हमारे कुदरती संसाधनो का शोषण रुके  ,हरियाली बढे ,मौसम सही रहे ,हमे कुदरती हवा और खान पान नसीब हो क्या नयी सरकार हमे ये  दे सकती सकती है ? 

दिल्ली में बढ़ा है आम आदमी पार्टी का समर्थन

दिल्ली में बढ़ा है आम आदमी पार्टी का समर्थन

16 May 2014, 1644 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम  
arvind
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नई दिल्ली

भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली में सातों सीट जीत ली हैं। इन सभी सातों सीटों पर आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर रही है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि दिल्ली की जनता के बीच आम आदमी पार्टी का समर्थन कम हुआ है। इसके उलट, आम आदमी पार्टी के वोटर बढ़े हैं।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 30 फीसदी लोगों ने वोट दिया था, जो अब बढ़कर 33 फीसदी हो गया है। सातों सीटों पर उनके उम्मीदवारों ने दूसरे नंबर पर वोट हासिल किए हैं। यानी बीजेपी जीत के बावजूद आम आदमी पार्टी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकी है। उसका वोट पर्सेंटेज 33 से बढ़कर 46 हो गया है, लेकिन यह सारा शिफ्ट कांग्रेस से ही आया है।

कांग्रेस का वोट पर्सेंटेज दिल्ली में विधानसभा चुनाव से अब तक 11 फीसदी घट गया है। विधानसभा चुनाव में उसे 26 फीसदी वोट मिले थे जो अबकी बार 15 फीसदी रह गए हैं। यानी हार के बावजूद आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता घटने के बजाय बढ़ी ही है।
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Sunday, May 4, 2014

नरवाई क्रांति : सूखे की समस्या का समाधान

नरवाई क्रांति : सूखे की समस्या का समाधान

बिना -जुताई की खेती 

पानी न तो आसमान से आता है ना तो वह धरती के नीचे से आता है पानी तो हरीयाली से आता है हरीयाली है तो पानी है। -फुकुओका जापान 

राजू टाइटस 

(बिना-जुताई की खेती का  २७ सालों का अनुभव )

मौसम वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है इस साल सामान्य से कम वर्षा होने की सम्भावना है इस कारण अनेक स्थानों पर सूखा पड़ेगा किन्तु भारत में एसे अनेक स्थान है जहां कई सालों से पानी गिरा ही नहीं है क़ई  स्थानो पर सालोँ से सामान्य से कम बारिश हो रही है। सूखे की समस्या आब धीरे२  पूरे भारत मे फैलती जा रही है। जहाँ सामान्य वारिश हो रहीं है वहां भी सूखे की समस्या है।  जहाँ सामान्य से अधिक बारिश होती है वहां भी किसान सूखे के काऱण होने वालेसूखते खेत नुक्सान की बात करते हैं।
ऐसा खेतों मे पर्याप्त नमी नही रहने के कारण होता है। खेतों में जल धारण शक्ति और  जल गृहण शक्त्ति का ना होना  सूखते हुए खेतों की निशानी है। हमारे यहाँ आज भी ऋषि पंचमी के पर्व पर कांस घास की पूजा होती है। कांस घास सूखते हुए खेतोँ की निशानी है। भारतीय प्राचीन खेती किसानी मे जब लोग बिन सिँचाई करे खेती करते थे  और वे जब अपने खेतों मे कांस घास को बढता देखते थे जान ज़ाते थे कि अब खेत सूखने लगे हैं। इसलिए वे खेतों को पड़ती कर दिया कर देते थे। ऋषि पंचमी के पर्व में बिना जुताई के अनाजों को खाने की सलाह दी जाती है इस से यह पता चलता  है कि सूखते खेतोँ मे और जमींन क़ी जुताई मे सम्बन्धमें है।

खेतों की जुताई करने से खेतोँ का बारिक कर बरसात के पानी के साथ मिलकर कीचड मे तब्दिल हो जाता है इस  काऱण पानी  जमीन मे नहीं समाता है वह तेज़ी से बह जाता है अपने साथ  की खाद को भी बहा कर ले जाता  है, खेतों में नमी की कमी हो जाती है और सूखा पड़ता है। अमेरिका के अनेक स्थानो मे जहॉं भयंकर सूखा है वहां अब बिना जुताई की खेती करने  कारण सूखे क़ी समस्या क अन्त हो गया है।

होशंगाबाद के तवा कमांड के छेत्र में किसान अब बिना जुताई करे सीधे सोयाबीन को बौने लगे हैं वे हार्वेस्टर से काटें गये खेतोँ मे नरवाई को जलाएं बगेर उसमेँ सीधे सोयाबीन की बुआई जीरो टिलेज सीड ड्रिल से कर देते है इस से एक ओर सोयाबीन की बंपर फसल मिलती है वहीं बरसात का पानी खेतों मे समां जाता है और  खरपतवारों का भी नियंत्रण हो जाता है फसल मे कोई बीमारी भीं नही लगती है।

इसी प्रकार अनेक किसान अब धान को काट्ने  बाद बिना जुताई करे गेंहूँ को भी बौने लगे है  इस से खेती का खर्च  कम हो जाता है वहीं खेत पानीदार और उर्वरक हो जाते हैं।