Saturday, May 30, 2015

One Straw Revolution - by Masanobu Fukuoka(एक तिनके से आई क्रांति )






एक तिनके से  आई क्रांति

लेखक: मासानोबू फुकूओका

हिंदी अनुवाद: हेमचंद्र पहारे

प्रस्तावना
दक्षिण जापान के शीकोकू द्वीप के एक छोटे से गांव में मासानोबू फुकूओका प्राकृतिक खेती की एक ऐसी नई विध् विकसित  करने में लगे हैं जो आधुनिक  कृषि की नुकसान वाली गति को रोकने में सहायक सिद्ध  हो सकती है। इस कुदरती खेती के लिए न तो मशीनों की जरूरत होती है न ही रासायनिक उर्वरकों की, तथा उसमें निंदाई-गुड़ाई भी बहुत कम करनी पड़ती है। श्री फुकुओका न तो खेत में जुताई करते हैं और न ही तैयार किए हुए वानस्पतिक खाद का प्रयोग करते हैं। इसी तरह धान  के खेतों में वे फसल उगने के सारे समय, उस तरह पानी भरकर  भी नहीं रखते जैसा कि पूरब और सारी दुनिया के किसान सदियों से करते चले आ रहे हैं। पिछले पच्चीस बरसों से उन्होंने अपने खेतों में हल नहीं चलाया है। इसके बावजूद उनके खेतों में पैदावार जापान के सर्वाधिक  उत्पादक खेतों से अधिक  होती है। उनके खेती में श्रम भी अन्य विधियों  की अपेक्षा कम लगता है, चूंकि इस तरीके में कोयला, तेल, आदि का उपयोग नहीं होता, वह किसी भी तरह का प्रदूषण नहीं फैलाता है
जब मैंने पहली बार श्री पफुकूओका की चर्चा सुनी तो मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ। यह भला संभव ही कैसे हो सकता है कि आप बिना जुते हुए खेतों पर सिर्फ  बीज बिखेर कर साल-दर-साल चावल व अन्य अनाजों की अधिक  पैदावार देने वाली फसलें उगाते चले जाएं? निश्चय ही उनके तरीके में कुछ और खास चीज होगी।
कई बरसों से मैं अपने कुछ मित्रों के साथ क्योतो के उत्तर में पर्वतीय इलाके के एक फार्म पर काम कर रह रहा था। हम लोग चावल, राई, जौ, सोयाबीन व विभिन्न बागानी सब्जियों की खेती परम्परागत जापानी विधियों  से कर रहे थे। हमारे फार्म पर आनेवाले लोग अक्सर श्री फुकूओका के काम के बारे में बात करते थे। उनमें से कोई भी उनके खेतों पर इतने ज्यादा समय तक नहीं रहा था। कोई भी उनकी तकनीक के बारे में विस्तार से नहीं जानता था। लेकिन इससे मेरी जिज्ञासा और ज्यादा बढ़ती गयी।
जब भी मुझे काम से कुछ दिनों की छृट्टी मिलती तो मैं देश के अन्य भागों की यात्रा पर निकल जाता और वहां खेतों और सामुदायिक फार्मों पर कुछ दिनों ठहर कर कुछ समय के लिए मजदूर के तौर पर काम करता था। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान मैं श्री पफुकूओका के फार्म पर, उनके काम को खुद अपनी आंखों से देखने, कुछ सीखने की नीयत से जा पहुंचा।
यह तो मैं निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि मैंने उनके कैसा होने की कल्पना रखी थी, लेकिन--इस महान शिक्षक के बारे में इतना कुछ सुन रखने के बाद भी जब मैंने उन्हें एक आम जापानी खेत मजदूर की तरह के जूते ओर कामकाजी लिबास पहने देखा तो मुझे ताज्जुब ही हुआ। वैसे उनकी सफेद , क्षीण दाढ़ी और आत्मविश्वासपूर्ण तथा चौकन्ने  हावभाव उनके एक बेहद असाधरण व्यक्तित्व होने का अहसास करवा रहे थे।
उस पहली यात्रा के समय ही मैं श्री पफुकुओका के फार्म पर कई महीने टिका और उनके खेतों तथा नींबू-नारंगी के बागों में काम करता रहा। वहां मिट्टी की कुटियों में शाम को अन्य छात्रा खेत कामगारों के साथ होने वाली चर्चाओं से, धीरे धीरे  मेेरे सामने श्री फुकूओका की विधियां  उनके पीछे निहित दर्शन स्पष्ट होता चला गया।
श्री फुकूओका का फल बाग़  मात्सुयामा खाड़ी की तरह उठी हुई पहाड़ी ढलानों पर स्थित है। यही है वह पर्वत, जहां उनके शिष्य रहते और काम करते हैं। उनमें से अध्किांश मेरी ही तरह पीठ पर अपना बिस्तर-पोटली लादे, वहां वास्तव में क्या हो सकता है, यह जाने बगैर पहुंचे  थे। कुछ दिन या सप्ताह वहां रहने के बाद ये छात्र  पहाड़ी से नीचे उतर कहीं गायब हो जाते हैं। लेकिन आमतौर से ऐसे तीन-चार शिष्यों का एक केंद्रीय दल भी होता है जो वहां एक वर्ष से रह रहा होता है। पिछले बरसों में कई लोग, औरतें और कई मर्द दोनों, वहां ठहरने और काम करने के लिए आए।
फार्म पर कोई आधुनिक  सुविधएं नहीं हैं। पीने का पानी पास के झरने से बाल्टियों के द्वारा लाया जाता है और खाना चूल्हों पर लकड़ी जलाकर पकाया जाता है। रात में रोशनी मोमबत्तियों या केरोसीन की लालटेनों से की जाती है। पहाड़ी या जंगली जड़ी-बूटियों तथा सब्जियां बहुतायत से उगती हैं। झरनों से मछलियां, सीप आदि प्राप्त हो जाते हैं, तथा कुछ मील की दूरी पर स्थित समुद्र से सागर वनस्पतियां भी।
काम, मौसम और फसलों  के हिसाब से बदलता रहता है। काम का दिन सुबह आठ बजे शुरू होता है तथा बीच में एक घंटे खाने की छुट्टी ;गर्मियों में यह दो-तीन घंटे तक खिंच जाती हैद्ध के बाद छात्रा कामगार दिन ढले ही वापस लौटते हैं। खेती से सम्बंधित  काम के अलावा मटकों में पानी भरना, लकड़ी चीरना, खाना पकाने, नहाने का पानी गर्म करने, बकरियों की देखभाल करने, मध् मक्खियों  के घरों की साजसंवार करने, नये झोपड़ों का निर्माण तथा पुरानों की मरम्मत करने तथा सोयाबीन का ‘सत्तू’ और दही बनाने जैसे दीगर काम भी होते हैं।
श्री फुकूओका फार्म पर रहनेवाली पूरी बिरादरी के रहने का खर्च के लिए हर महीने 10,000 येन ;लगभग 7,000 रफपयेद्ध देते हैं। जिनमें से अध्किांश सोया-साॅस, वनस्पति तेल तथा ऐसी अन्य वस्तुएं खरीदने पर खर्च होते हैं, जिन्हें छोटे पैमाने पर पैदा करना व्यावहारिक नहीं होता। बाकी जरूरतों के लिए छात्रों को पूरी तरह उनके द्वारा ही उगायी गई फसलों, इलाके के संसाध्नों और अपनी खुद की हिकमत पर निर्भर रहना पड़ता है। श्री पफुकूओका जानबूझ कर अपने छात्रों को इस अधर््-प्रागैतिहासिक ढंग से रहने पर मजबूर करते हैं ;वे खुद भी कई बरसों से इसी तरह रह रहे हैंद्ध क्योंकि उनका विश्वास है कि यह जीवनशैली उनमें वह संवेदनशीलता पैदा करती है जो उनकी प्राकृतिक विध्यिों के जरिए खेती करने के लिए जरूरी है।




Friday, May 29, 2015

हरित क्रांति ने किया बंटाढार !

हरित क्रांति ने किया बंटाढार  !

सुने आमआदमी पार्टी की जुबानी 

मेरिका से चल कर भारत में आने वाली गहरी जुताई ,रासायनिक उर्वरकों ,भारी सिंचाई , आयातित तेल से चलने वाली मशीनो पर आधारित विज्ञानी खेती जिसे हम हरित क्रांति के नाम से जानते है।  के कारण ही आज देश में हर रोज कम से कम दो किसान आत्म हत्या कर रहे हैं। उपजाऊ खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं।  करोड़ों लोग भूख से दम  तोड़ रहे हैं। ५०% से अधिक लोग कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। लाखों किसान खेती छोड़ कर शहरों में रोजगार की तलाश में दर दर भटक रहे हैं।

हमारे पर्यावरण को हरित क्रांति ने जितना बिगाड़ा है उतना और किसी ने नहीं बिगाड़ा है। मौसम परिवर्तन ,सूखा ,बाढ़ ,भूकम्प ,ज्वार भाटे इस कारण से हैं।  बेरोजगारी  ,गरीबी और महा मरियों का बोल बाला है।   एक जमाना था की खा जाता था की खेती देखना हो तो पंजाब की देखो।

असल में हमे वैज्ञानिक ,नेता और व्यापारी गण मिल कर लूट रहे हैं। इसलिए कोई सच्चाई बखान नहीं करता है किन्तु लोगों को समझ में आ जाना चाहये की की दिल्ली में आमआदमी पार्टी आ गयी है जो एक ईमानदार सरकार है।  उसके सांसद भगवंत मान जी की जुबानी से सुने की क्या हाल है पंजाब के --

Thursday, May 28, 2015

वैज्ञानिक खेती फेल है !

वैज्ञानिक खेती फेल है !

GM और यूरिया की बढ़ती मांग से पता चलता है की अब कृषि वैज्ञानिको के  पास कोई समाधान नहीं बचा है। 


र रोज किसानो की आत्म हत्या और खेती में हो रहे घाटे से परेशान किसानो की समस्या को सुलझाने में हमारी सरकारें पूरी तरह बेकार सिद्ध हो रही हैं।  इसलिए वे अब ओधोगिक विकास का सहारा लेने की कोशिश कर रही हैं। जबकि हम सब यह जानते हैं की भूखे  पेट भजन नहीं हो सकता है।

खेती किसानी केवल रोटी नहीं है उस से हमारा पूरा पर्यावरण जुड़ा है ,कुदरती हवा और बरसात का इस से सीधा सम्बन्ध है।  किन्तु हमने जंगलों को काट ,खेत बनाकर उन्हें रेगिस्तान में तब्दील कर लिया है इसलिए मौसम परिवर्तन की बड़ी समस्या खड़ी हो गयी है। भूकम्प,सूखा ,बाढ़ आदि मुसीबत बन गए है , इन समस्याओं से निपटने का अब वैज्ञानिको को कोई रास्ता नहीं दिख रहा है।

वैज्ञानिक खेती का चलन अमेरिका से शुरू हुआ है। इस कारण खुद अमेरिका बड़े रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। वहां अब बिना जुताई की खेती जड़ जमा रही है जिसमे जैविक और अजैविक खेती तेजी से चलन में आने लगी हैं।

हमने इस समस्या को करीब तीन दशक पहले ही भांप लिया था तब से हमने कुदरती खेती का अभ्यास  शुरू कर दिया था।  इस से पहले हम वैज्ञानिक खेती अमल में ला रहे थे। ट्रेक्टरों से जुताई करते थे ,खाद के लिए रसायनो का उपयोग करते थे जिस से हमारे खेत भी रेगिस्तान में तब्दील हो गए थे।
फुकूओकाजी अपने फार्म में 

भला हो जापान के कृषि वैज्ञानिक और कुदरती किसान स्व श्री मस्नोबू फुकूओकाजी  जी का जिन्होंने अपने अनुभवों की किताब "एक तिनका क्रांति " से दुनिया को बहुत पहले ही बता दिया था की जो भी वैज्ञानिक खेती के जंजाल में फसेंगा  वह मिट जायेगा।

आज हमारे खेत हरियाली से भर गए हैं जिसमे भरपूर पानी है और भरपूर फसलें पैदा हो रही हैं। मौसम परिवर्तन का हमारी  खेती पर कोई असर नहीं हो रहा है। हमे किसी भी सरकारी कर्जे ,अनुदान और मुआवजे की जरूरत नहीं रहती है।

Wednesday, May 27, 2015

खेती में यूरिया का प्रयोग मूर्खता पूर्ण कार्य है।

यूरिया के कारण  बढ़ रहा है कुपोषण !

खेती में यूरिया का प्रयोग मूर्खता पूर्ण कार्य है। 

मारे देश में दिन प्रति दिन कुपोषण बढ़ता जा रहा है जो अब तक अनुमानि ५०% से भी अधिक बढ़ गया है।  जब हमारे शरीर को उसकी जरूरत के मुताबिक खाना नहीं मिलता है तो शरीर कमजोर होने लगता है जिसे हम कुपोषण कहते हैं। कुपोषण अनेक बाहरी बीमारियों को आमंत्रित करता है। बच्चो  में जब कुपोषण रहता है तो बच्चों का दिमाग और शरीर दोनों कमजोर हो जाता है। उसी प्रकार जब महिलाओं में कुपोषण रहता है उनमे खून की कमी आ जाती है जिस से उन पर  और उनके बच्चों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे अपंग  पैदा होने लगते हैं ,उनकी बहुत कम आयु में मृत्यु हो जाती है।
खेतों में यूरिया छिड़कते  किसान 

कुपोषण का मूल कारण खान पान में कुदरती गुणों की कमी है।  एक बहुत पुरानी कहावत है की जैसा खायें अन्न वैसा होय मन, यानि यदि अन्न कुदरती है तो मन यानि शरीर भी कुदरती रहता है।  कुदरती यानी स्वस्थ किन्तु जब हमे कुदरती खाना नहीं मिलता है  तो हमारा शरीर  कुपोषण का शिकार हो जाता है। 

जैसा की हम जानते है की पहले हमारा खाना कुदरती वनो से आता था इसलिए वह कुदरती रहता था जो अब खेतों में उगाया जाने लगा है।अधिकतर खेतों में खाना उगाने के लिए कुदरती वनो को मिटा दिया जाता है खेतों को खूब खोदा और जोता जाता है जिस से खेतों की कुदरती खाद बह जाती है जिसकी आपूर्ति  गैर कुदरती पेट्रोल से बनी खाद डाली जाती है जिस से हम यूरिया कहते हैं। 

यूरिया एक जहरीला रसायन है यदि इसे सीधा खा लिया जाता है खाने वाला मर जाता है किन्तु जब इसे खेतों में डाला जाता है तो यह खाद का काम करता है। किन्तु इस कृत्रिम जहरीली खाद को खेत पसंद नहीं करते हैं इस कारण वे बीमार हो जाते है।  इसलिए बीमार खेतों में बीमार फसलें पैदा होने लगती है जिस से कुपोषण जैसी महामारी फेल रही है। यह  इस प्रकार है जैसे बीमार को  ग्लूकोज़  चढ़ा दिया जाता है। जो एक कृत्रिम तुरंत ऊर्जा तो दे देता है किन्तु इस से शरीर को कोई पोषण नहीं मिलता है। 

कैसे रोकें कुदरती यूरिया का छरण ?

यदि हम अपने आस पास के कुदरती बिना जुताई वाले छेत्रों को देखें तो हम पाएंगे की वहां सभी कुदरती वनस्पतियां स्वस्थ बिना यूरिया की कमी के पनप रही हैं।  किन्तु जुताई वाले खेतों में भारी  यूरिया की कमी नजर आती है।


  यूरिया की कमी के  कारण फसलें  पीली पड़  जाती हैं। असल में जब हम खेतों की जुताई करते हैं तो बरसात का पानी बखरी बारीक मिट्टी के कारण जमीन में नहीं जाता है वह बहता है अपने साथ कुदरती  खाद को भी बहा  कर ले जाता है।  इसलिए खेतों में यूरिया की कमी हो जाती है।  इस कारण जुताई वाले खेतों की फसल पीली और बिना जुताई वाले छेत्रों की वनस्पतियां  हरी दिखाई देती है। यूरिया के छरण को रोकने के लिए जुताई को रोक भर देने से खेत कुदरती यूरिया से भर जाते हैं। कुदरत में जितनी भी दलहन जाती की वनस्पतियां हैं वे सभी जमीन में कुदरती यूरिया बनाने का काम करती है। जुताई  नहीं करने से ये अपने आप पनप जाती हैं और खेतों की यूरिया की मांग को खतम कर देती हैं। 


  भारतीय पम्परागत बिना जुताई की खेती में दलहन जाती की फसलों को बोने  से खेतों को कुदरती यूरिया प्रदान किया जाता रहा है जो बिलकुल हानिकारक नहीं है। किन्तु मात्र "हरित क्रांति " के कुछ वर्षों ने  रासायनिक यूरिया का चलन शुरू किया है तबसे खेत निरंतर कुपोषित होते  जा रहे हैं। 

हम  सालों से अपने खेतों में बिना जुताई की कुदरती खेती  कर रहे हैं हम दलहन जाती के पेड़ों के साथ अनाज की खेती  करते हैं हमने पाया  है की एक दलहन जाती का पेड़ अपनी छाया के छेत्र में लगातार यूरिया प्रदान करने का काम करता है। 

इसलिए हम दावे के साथ कह  सकते हैं फसलोत्पादन के लिए पेट्रोल से बनी  यूरिया खाद का उपयोग  मूर्खता भरा काम है। 


Monday, May 18, 2015

High-Yielding Soybeans (बिना जुताई )



सोयाबीन एक दलहन जाती की फसल है जो खेतों में अगली फसल के लिए भरपूर नत्रजन (यूरिया )जमा कर देती है. बिना जुताई की सोयाबीन की खेती के बाद आसानी से गेंहूँ की खेती बिना रासायनिक खाद  जा सकती है।  इस फिल्म में यह बताया गया है की यदि सोयाबीन बिना जुताई के बाई जाती है तो उत्पादन २० -६० क्विंटल प्रति एकड़ लिए जा सकता है।  तथा इस से अगली गेंहूँ की फसल में १० ००० रु प्रति एकड़ का गेंहूँ का खर्च भी बचाया जा सकता है। 

Cover Crops and Soybeans -Two consecutive year's cover crops show impres...

Yield Prospects for Soybean Crop

Thursday, May 14, 2015