Wednesday, February 24, 2016

बिना जुताई खेती से बढ़ाएं भूमिगत जल स्तर।

गहराता जल संकट दोष खेती में की जा रही जुताई का है।  

बिना जुताई खेती से बढ़ाएं भूमिगत जल स्तर। 

मारा ऋषि खेती फार्म होशंगाबाद की जीवन दायनी माँ नर्मदा नदी के तट पर बसा है। जिसमे पानी की कोई कमी नहीं है। हमारे फार्म में उथले देशी कुए हैं जो 40 फ़ीट तक ही गहरे हैं जो साल भर पानी से लंबा लब रहते हैं। एक और जहाँ हमारे आस पास के खेतों के कुए भरी बरसात में दम  तोड़ देते हैं वहीं  हमारे कुए भरी गर्मी में भी भरे रहते हैं। 
बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना दवाई  धान का पौधा 

किन्तु ऐसी स्थिती तब नहीं थी जब हम आधुनिक वैज्ञानिक खेती को अमल में लाते थे जिसमे गहरी जुताई और कृषि रसायनो जरूरी रहता है।  हरयाली को दुश्मन मान कर मार दिया जाता है। यह परिस्थिति  तब बनी जब हमने बिना जुताई की कुदरती खेती को अमल में लाना शुरू किया। 

इस बात से यह सिद्ध हो जाता है की
 " जमीन में जल के  संचयन के लिए हरियाली आधार है और जमीन की जुताई  हरियाली का दुश्मन है। "
 असल में जब भी हम जमीन की जुताई करते हैं जुती हुई बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिल कर  कीचड़ में तब्दील हो जाती है जो  बरसाती के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है इसलिए पानी तेजी से बह जाता है साथ में अपने साथ जुती  हुई बारीक उपजाऊ जैविक खाद को भी बहा  कर ले जाता है जिस से भूमिगत जल का स्तर लगातार घटता जाता है और खेत कमजोर  होते जाते हैं।  

ऋषि खेती करने के लिए जमीन की जुताई को नहीं किया जाता है जिस से जमीन अपने आप हरियाली से ढक जाती है। ये हरियाली पानी की जननी है जिसे हम खरपतवार कहते हैं।  असल में खरपतवार कुदरती भूमि ढकाव का प्रबंध है जिसे बचाने से जमीन की जैव-विविधता बच जाती है जैसे केंचुए , चीटी, चूहे आदि जो जमीन को बहुत अंदर तक पोला बना देते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में समा  जाता है। 
जब से हमने जुताई को बंद किया तबसे कभी हमने बरसात के पानी को खेतों से बह  कर बाहर निकलते नहीं देखा है  वह पूरा का पूरा जमीन में समा जाता है। 

जुताई नहीं करने से खेत वर्षा वनो के माफिक काम करने लगते हैं जो एक ओर  बरसात को आकर्षित करते हैं वहीं बरसात के जल को जमीन में संचयित करते हैं। जिस से सूखे का समाधान हो जाता है। 
जमीन की जुताई खेती में हजारों सालों से बहुत पवित्र  काम माना जाता रहा है इसलिए किसान इसे करते हैं और कृषि वैज्ञानिक भी जानते हुए  इसका विरोध नहीं कर पाते है। किन्तु आजकल बिना जुताई की खेती की अनेक विधियां अमल में लाई जाने लगी है। इसका मूल उदेश्य खेतों की जैविक खाद और बरसात के जल का संचयन है। 
असल में किसान खरपतवारों और छाया के डर के बार बार जुताई करते रहते हैं जबकि ये खरपरवारे जमीन में जैविक खाद और जल के स्रोत हैं।
 एक बार की जमीन की जुताई से जमीन की आधी  जैविक खाद पानी के साथ बह जाती है इस प्रकार हर बार करीब १०-१५ टन /एकड़ जैविक खाद का नुक्सान हो जाता है। जिसकी कीमत लाखों /करोड़ों में है।
सूखे का मूल का कारण खेतों में की जा रही जुताई है जो अनावश्यक है। इसके कारण ही जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग समस्या बन रही है।  बार बार बाढ़  आने का भी यही कारण है।

अब जब यह दिखाई देने लगा है की खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं और खेती किसानी घटे का सौदा बनती जा रही है तो जैविक खेती की बात हो रही है किन्तु जुताई के चलते जिसमे टनो जैविक खाद बह  जाती है का कोई औचित्य नहीं है।

तवा कमांड का कृषि छेत्र जो मिनी पंजाब कहलाता है में तवा  बाँध बनने से पहले बहुत उपजाऊ और पानीदार था। यहां एक साथ असिंचित 7 से लेकर 11  फसलें लगाई जाती थीं।  भूमिगत जल का स्तर इतना ऊपर था की देशी उथले कुए बरसात में ओवर हो जाते थे। अनेक बाग़ बगीचे ,स्थाई चारागाहों तालाबों बावड़ियों के कारण यह छेत्र  बहुत सम्पन्न था जिसे आधुनिक यांत्रिक रासायनिक खेती ने देखते देखते मरुस्थल बना दिया है। 11 -१२ अनाजों के बदले अब केवल गेंहूँ की फसल रह गयी है वह भी लुप्त होती जा रही है।  सोयाबीन आया और चला गया ,धान अभी अपना पैर जमा नहीं पायी है की किसानो के दिल से उत्तर गयी है।

तवा कमांड की पूरी खेती कर्जे में फंस गयी है बाँध का पानी ,सरकारी कर्ज और आयातित तेल के बिना खेती अब हो नहीं सकती है। यह सब जानते हैं इसलिए जैविक की बात होने लगी है कुदरती खेती का नाम भर लेने वालों को अवार्ड मिलने लगे हैं।

बरसों से भूमिगत जल का स्तर घटते जा रहा है।  यह मरुस्थल की निशानी है वो दिन दूर नहीं जब यह छेत्र भी बुंदेलखंड न बन जाये। ऋषि खेती एक बिना जुताई बिना खाद  बिना दवाई और बिना मशीन से की जाने वाली खेती है जो पेड़ों के साथ की जाती है।  जो मरुस्थलों को उपजाऊ और पानीदार बना देती है।

Friday, February 19, 2016

सॉइल हेल्थ कार्ड : एक महत्वपूर्ण योजना

सोइल हेल्थ : एक महत्वपूर्ण योजना 

 ऋषि खेती तकनीक से जाँचे अपनी साइल 

विगत दिनों माननीय प्रधानमंत्रीजी ने सीहोर में किसानो को सम्बोन्धित करते  हुए "सॉइल हेल्थ कार्ड योजना " के बारे में बताते हुए कहा कि धरती माता  और हमारे शरीर में कोई फर्क नहीं है।  जब हम बीमार होते हैं तो हमे डॉ के पास जाना पड़ता है ,जिसमे डॉ हमारे शरीर की जांच करवाने के लिए अनेक परिक्षण करवाता है जैसे ब्लड टेस्ट ,पेशाब की जांच आदि इस जांच से डॉ को पता चल जाता है की शरीर में कौन सी बीमारी है। इस जांच के आधार पर ही डॉ हमारे शरीर का इलाज करता है।


हम पिछले करीब ३० सालों से कुदरती खेती कर रहे हैं।  हम माननीय प्रधान मंत्रीजी के इस कथन से पूरा इत्तफाक रखते हैं। हमारा भी यही मानना  है की हमारी धरती माँ  हमारे शरीर के माफिक जीवित है। इसलिए जब हम खेतों में हल चलाते हैं तो उसे ठीक वैसी ही तकलीफ होती है जैसी हमारे शरीर को टोन्चने पर होती है। इसी प्रकार  जब हमारे शरीर में कोई रासायनिक  जहर चला जाता है तो हम बीमार हो जाते हैं यदि जहर की मात्रा  अधिक रहती है तो हम मर सकते  हैं।  ठीक ऐसा हमारी धरती माँ के साथ भी होता है।

हमारे देश का स्वास्थ हमारे खेतों की सोइल के स्वास्थ  पर निर्भर है। किन्तु बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़  रहा है कि इस योजना को अभी तक न तो हमारी सरकारों ,योजनाकारों ,कृषि वैज्ञानिकों को भी समझ में  नहीं आ रहा है। वैज्ञानिक लोग सोइल  की जांच कर केवल यही बताते  हैं की उनको कौन से रासायनिक तत्वों की जरूरत है,उन्हें कौन सी खाद खरीद कर अपने खेतों में डालने की जरूरत है।
जब हम बीमार होते हैं तो हमारे शरीर की जांच  कर हमे  दवाइयाँ लिख देते हैं जिन्हे हमे खरीदना जरूरी  हो जाता है।  इसी प्रकार जब कोई वैज्ञानिक हमे सोइल कर जांच कर रिपोर्ट देता है तो हम उस के अनुसार भाग दौड़  कर व सब खरीद लाते  हैं जो हमे बताया  गया है।

असल में यह एक बहुत बड़ा गोरख धंदा है एक और जहाँ जांच के हमे बहुत अधिक दाम चुकाने पड़ते हैं वहीं  हमे  दवाइयों के भी बहुत अधिक पैसे चुकाने पड़ते हैं। जिसका लाभ जाँच और दवाइयों  से जुडी कम्पनियों  को मिलता है।

ठीक ऐसा किसानो के साथ भी हो रहा है। हमारी सोइल असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं का समूह है। जब हम मिटटी के एक छोटे कण को सूक्ष्म दर्शी यंत्र में देखते हैं तो हमे अपनी सोइल में असंख्य सूख्स्म  जीवाणुओं के आलावा कुछ भी नजर नहीं आता है। सभी साइल के कण इन सूक्ष्म जीवाणुओं ,जड़ों आदि से एक दुसरे से जुड़े रहते हैं। जिसे हम ह्यूमस कहते हैं।

हमारे विज्ञान ने अभी तक एक सूख्स्म सोइल कण में क्या है को नहीं जान पाया है इसलिए वह यह नहीं बता सकता है साइल में क्या कमी है ?
 माननीय प्रधान मंत्रीजी ने  अपने भाषण में जैविक खेती को अमल में लाने की बात कही है इसका मतलब यह है रासायनिक खेती के दिन अब लद गए हैं। अब जैविक खेती की बात चल पड़ी है।  इसलिए हमे अपनी साइल की जैविकता की जांच खुद करने की जरूरत है। इसमें ऋषि खेती की जांच तकनीक बहुत कारगर सिद्ध हुई है।
इस तकनीक में दो प्रकार की सोइल को एक साथ पानी डालते है जिस मिटटी की हेल्थ अच्छी रहती है वह मिटटी में बिखरती नहीं है किन्तु जिस सोइल की तबियत ख़राब रहती है वह बिखर जाती है। दूसरा हम दो प्रकार की साइल एक स्वस्थ और दूसरी बीमार सोइल के ऊपर कृत्रिम पानी की बरसात करवाते है। स्वस्थ साइल पूरे पानी को सोख लेती है जबकि बीमार साइल पानी को नहीं सोख पाती है उसमे से पानी साइल दोनों बह जाते हैं।
इन दोनों विधियों को इंटरनेट की सहायता से यू ट्यूूब पर देखा जा सकता है। इसको खोजने के लिए YouTube  Titus Natural Farm : Raju Titus. Tilled and No Tilled soil. और  YouTube Tilling is a big loss to nature : Madhu Titus
पर देखा जा सकता है।
माननीय प्रधान मंत्रीजी ने अपने भाषण में जल प्रबंधन के बारे में बोलते हुए बताया  है की हमे बरसात के पानी को अपने खेतों में ही सहेजने की जरूरत है जिस से हम बूँद बूँद पानी से अधिक से अधिक फैसले पैदा कर सकें इसके लिए बिना जुताई की सभी खेती की तकनीकी वरदान हैं।

हमने विगत ३० सालो से पानी को खेत के बाहर बह कर निकलते नहीं देखा है इसके कारण हमारे देशी उथले भरी गर्मी में लबालब रहते हैं जबकि हमारे पड़ोसियों के कुए भरी बरसात  में भी ख़ाली रहने लगे है। जुताई नहीं करने से सोइल हेल्थ अपने आप ठीक हो जाती है। उसमे असंख्य जीव-जंतु ,कीड़े मकोड़े ,केंचुए आदि काम करते हैं। जो उन सभी आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ती कर देते हैं जो फसलों के लिए जरूरी रहते है। तमाम खरपतवारें और कृषि अवशेषों जैसे पुआल,नरवाई आदि को जहाँ का तहाँ वापस डाल  भर देने से फसलों की खाद की आपूर्ति हो जाती है। इसलिए किसानो को हमारी  सलाह है की वे जुताई बंद कर तमाम कृषि अवशेषों को वापस खेतों में डाल  कर मानव निर्मित रासायनिक ,जैविक खाद ,बायो फ़र्टिलाइज़र ,गोबर गो मूत्र से बनी खाद के गोरख धंदे से अपने को बचा सकते हैं। जो कुदरत बनाती है वह इंसान नहीं बना सकता है।



Saturday, February 13, 2016

सीड बॉल बनाये और सब भूल जाएँ !

कुदरती जैव विविधता युक्त मिटटी से बनी  बीज गोलियां 

सीड बॉल बनाये और सब भूल जाएँ !

ब किसान फसलो के उत्पादन के लिए जमीन की जुताई करता है तो एक बार में उसकी जमीन की आधी जैविक खाद बह जाती है। ऐसा हर बार जुताई करने से होता है। असल में मिट्टी असंख्य आँखों से नहीं दिखाई देने वाले सूक्ष्म जीवाणुओ का समूह है जो ह्यूमस कहलाता है. यह जैवविविधता असली जैविक खाद कहलाती है। जुताई करने से यह जैविकता मर जाती है जिस से खेत में कीचड़ बन जाती है। यह कीचड़ बरसात के पानी को जमीन में अंदर नहीं जाने देती है जिस से पानी तेजी से बहता है अपने साथ इस जैविकता को भी बहा कर ले जाता है। इस प्रकार हर बार जुताई करने से यह नुक्सान लगातार होता है।
यदि हम इस जैविक खाद को बचा लेते हैं तो इस से दो फायदे एक साथ होते हैं पहला बरसात का पानी बहता नहीं है वह इस जैविकता के द्वारा बनाई नालियों के द्वारा जमीन में सोख लिया जाता है। दूसरा जैविक खाद बहने से रुक जाती है। जो अपने आप तेजी से पनपती है जो फसलो के लिए जरूरी है इसलिए मानव निर्मित किसी भी प्रकार की खाद की जरूरत नहीं रहती है।
इस चित्र में हम खेतों से बह कर बाहर जाने वाली चिकनी मिटटी से बनी गोलियां दिखा रहे हैं इस मिट्टी को क्ले कहते हैं ,यह वह मिटटी है जिस से मिटटी के बर्तन बनते हैं। जो आस पास नदियों ,नालो ,पोखरों ,तालाबों में जमा हो जाती है। मिटटी असंख्य सूख्स्म जीवाणुओ का समूह है इसको खेतों में डालने से ये जीवाणु तेजी से कमजोर मिटटी को उपजाऊ बना देते हैं। इन गोलियों में हम फसलों के बीज रख देते हैं जो जीवाणुओं से बनी ताकतवर मिटटी में पनपते हुए निरोग फसलें देते हैं। जुताई नहीं करने के कारण यह जैविकता तेजी से पनपती रहती है जिसका कोई भी मानव निर्मित खाद मुकाबला नहीं कर सकती है।
इसलिए हमारा यह मानना है की पहले हम जुताई कर अपने खेतों की कीमती जैविक खाद को बहा दें फिर गोबर ,रसायनो आदि की मृत प्राय : खाद बना कर डाल अपनी पीठ थपथपाएं इस से बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है ?
असल में जुताई आधारित रासायनिक खेती ,जैविक खेती और जीरो बजट खेती इस मूर्खता का नमूना है।
इसलिए हम कहते हैं की जो कुदरत बनाती है वह इंसान नहीं बना सकता हैं।

आज जो सूखा पड़  रहा है उसका कारण गैर कुदरती खेती है कुदरती खेती कर हम सूखे पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। बिना जुताई की खेती करने के लिए सीड बाल बना कर फेंकने के आलावा कुछ करने की  जरूरत है।

सीड बॉल बनाने के लिए क्ले मिट्टी मे बीजों को मिलाकर अाटे  की तरह गूथ कर करीब अाधा इंच व्यास की गोलिया बना  ली जाती हैं।  सुखाकर रखलिया जाता है।  जीबी बरसात हो जाए गोलियों को करीब एक वर्ग मीटर मे १० गोलियों के हिसाब से बिना जुताई करे डाल दिया जाता है। 

नर्मदा जयंती

नर्मदा जयंती 

जो नाले नर्मदा नदी में गिरते हैं उनकी भी उतनी कदर होनी चाहिए जितनी नर्मदाजी की होती है। 


होशंगाबाद में विगत अनेक सालो से नर्मदा नदी की जयंती मनाई जाती है। यह नदी न केवल मध्यप्रदेश में वरन पूरे भारत में अपने विशाल स्वरूप से एक पवित्र नदी के रूप में पूजी जाती है। हर साल अनेक श्रद्धालु इस नदी में नहाने के लिए यहां आते हैं और इसके जल को पवित्र मान कर अपने साथ ले जाते हैं। 

लोगों का विश्वास  है की इस नदी में नहाने से और इसके जल का सेवन करने से हमारे पाप धुल  जाते हैं और प्रभु कृपा हम पर बनी रहती है।
narmada maha aarti at sethani ghat hoshangabad
नर्मदा घाट पर नर्मदा जयंती के उपलक्ष्य में हो रही पूजा। 

हमारे देश में नदियों ,पहाड़ों ,वृक्षों ,पशुओं आदि की पूजा किसी धर्म ,जाती के आधार पर नहीं वरन हमारे पर्यावरण  के संरक्षण के उदेश्य से ऋषि मुनियों के ज़माने से होती आ रही है। कारण ये कुदरती संसाधन अभी तक बचे हैं।

किन्तु विगत कुछ वर्षों से हमने कुदरती इन देवीदेवताओं के बदले विकास रुपी राक्षश की पूजा करनी शुरू कर दी है।  जिसमे बिजली ,सड़क ,पेट्रोलियम उत्पाद और रासायनिक खाद प्रमुख हैं इसलिए हमारे कुदरती संसाधन अब नस्ट होते जा रहे हैं।

नर्मदा नदी में जल उसके किनारे के छेत्रों की जमीनों से भूमिगत झरनो के माध्यम  से आता है यह जल बरसात में जमीनो के द्वारा सोख लिया जाता है जो साल भर नदी को उपलब्ध होता रहता है। किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक खेती के कारण अब यह जल जमीनो में नहीं सोखा जाता है इसलिए नदी में जल की भारी  कमी हो रही है और खेती में जहरीले रसायनो के उपयोग के कारण यह जल बहुत दूषित हो रहा है।

दूसरी समस्या यह है की इस जल का बड़े पैमाने पर नगरों में मशीनो के द्वारा उपयोग किया जाने लगा है जिस
से  दूषित जल भी बड़े पैमाने पर नदियों में मिलने लगा है।  इन नालों में लोग अनेक प्रकार की बेकार की  वस्तुएं मरे जानवर आदि डालने लगे हैं जैसे प्लास्टिक ,मरे जानवर  ,अस्पतालों और शादी से निकलने वाली डिस्पोजल आदि जिनके कारण प्रदूषण चरम  सीमा पर है।  जब कभी इन नालों में बरसात के कारण बाढ़  आती है यह तमाम गंदगी इन नालों के आसपास जमा हो जाती है जो भारी  गंदगी का कारण बन रही है।

ऐसा ही एक नाला हमारे ऋषि खेतों से होकर गुजरता है।  हमारी ऋषि खेती जगप्रसिद्ध है यह होशंगाबाद में अनेक दर्शनीय स्थानो के समान है जिसे देखने अनेक पर्यावरण प्रेमी ,किसान ,स्व. सेवी सस्थाओं के लोग देश विदेश से देखने आते हैं। वो इस नाले की गंदगी को देख कर बहुत दुखी होते हैं।  दुःख केवल ऋषि खेती से निकलने का दुःख नहीं है यह दुःख हमारी सभ्यता को देख कर होता है की एक और तो हम माँ नर्मदा की पूजा करते हैं और दूसरी और उसे इस प्रकार गन्दा कर रहे हैं।
हम इस नाले की सफाई अपने स्तर पर लगातार करते रहते हैं किन्तु यह नाला बहुत दूर से आता है जैसे जैसे अब नगर  बढ़ रहा है यह गंदगी भी तेजी से बढ़ रही है।

हमारा यह मानना है की हम  नर्मदाजी को केवल घाटों पर ही पूजयनीय मानते हैं जबकि ये नाले आजकल नर्मदाजी  में पानी सप्लाई करने वाले बन गए हैं ,यदि इन नालो को रोक दिया जाये जो असंभव है नदी सूख जाएगी।   जब से मौसम में तब्दीली आना शुरू हुआ है बरसात कम होने लगी है समस्या और जटिल हो गयी है। इस लिए हमे इन नालों को भी पवित्र मान कर इनकी पूजा करने की जरूरत है क्योंकि ये नाले नदी को असली जल प्रदाय करने लगे हैं।

इसके जरूरी है की नर्मदाजी की आस्था के सोच  में बदलाव लाना पड़ेगा  हमे इन नालों की साफ़ सफाई और सोन्दर्यी करण पर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है। जब हम यह मानते हैं की नदी में हमे साबुन का इस्तमाल नहीं करना चाहिए जिस से नदी दूषित होती है  तब हमे अपने घरों में साफ़ सफाई में आने वाले जहरीले रसायनो के बदले हानिरहित चीजों का इस्तमाल करने  की जरूरत है।

हम ऋषि खेती में जमीन की जुताई नहीं करते हैं इस से बरसात का सम्पूर्ण जल जमीन के द्वारा सोख लिए जाता है जो  नर्मदाजी  को साल भर सप्लाई होता है।  हम किसी भी मानव निर्मित खाद और रसायन का इस्तमाल नहीं करते हैं जिस से भूमिगत जल शुद्ध रहता है इसी प्रकार हम अपने खतों को हरियाली से ढाक  कर रखते हैं जिस से कुदरती शुद्ध हवा का संचार होता है। यह हमारी माँ  नर्मदा के लिए की जा रही सच्ची पूजा है।

यदि हम सब मिल ऋषि खेती करते हैं और घरों में प्लास्टिक ,जहरीले साबुन आदि का उपयोग बंद कर देते हैं ,नालों में किसी भी प्रकार जहरीले रसायनो को मिलने से रोक देते हैं तो इस से बहुत  लाभ मिलेगा स्वास्थ  पर होने वाले खर्च कम हो जायेंगे हम बीमारियों से बच जायेंगे।

हमने यह पाया है नगर में अनेक छोटी छोटी ऐसी इकाइयां हैं मोटर ,कार आदि के सफाई सेंटर इनसे भी बहुत गंदगी नदियों में जा रही है ,अनेक डाक्टरों की  दुकानो से गन्दी वस्तुए निकल रही है जिन्हे नालो में डम्प  किया जा रहा है। मेरिज गार्डन  और होटलों से भी बहुत गंदगी है जिसे लोग नालो में डाल रहे हैं जिसे रोकने की जरूरत  है।  असल में इस सम्बन्ध में जागरूकता की बहुत कमी है इसलिए हम अपने फार्म पर निशुल्क शिक्षण का भी काम कर रहे हैं।  शिक्षा सबसे पहले मेरे से शुरू होती है।

माँ नर्मदा की पूजा का मतलब दिखावा  नहीं है यह हमारी आस्था का प्रश्न है जिसे हमे खराब होने से बचाने की सख्त जरूरत है।





Monday, February 8, 2016

खेसरी दाल की वापसी



खेसरी दाल की वापसी 


जब से माननीय नरेंद्र मोदीजी ने सिक्किम को जैविक प्रदेश का नाम दिया है और हर प्रदेश को जैविक खेती करने का आव्हान किया और केंद्रीय खाद्य मंत्री श्री पासवान जी ने खेसरी दाल की तारीफ़ की है तब से रासायनिक खेती का बोरिया  बिस्तर लिपटने लगा है। श्री पासवानजी का यह कहना की न मेरा परिवार  स्व मेने बचपन में खूब इस दाल का सेवन किया है यह दाल बहुत ताकतवर और लाभप्रद है।  इसी प्रकार श्री स्वामीनाथन जी की पुत्री भी इस दाल को देश में आये  दाल संकट का हल मानती हैं।

मुझे याद है जब हम छोटे थे और रासायनिक खेती शुरू नहीं हुई थी बेलों से जुताई कर खेती की जाती थी।  उन दिनों खेसरी दाल को बरसात के बाद बो दिया  जाता था  जो मूल रूप से बेलों को चारे के रूप में देने के लिए बोया जाता था इसको खाने से बैल  बहुत जल्दी मोटे हो जाते थे जिनसे बहुत जुआई का काम लया जाता था।

खेसरी दाल का सबसे अच्छा गुण  यह था की इसका बीज जमीन पर पड़ा रह जाये तो यह सुरक्षित रहता है जो अपने मौसम में अपने आप उग आता है।  यह खेतों में जबरदस्त नत्रजन प्रदान करने वाला पौधा है तथा इसमें जबरदस्त प्रोटीन होता है जो खाने के लिए सर्वोत्तम है।

 इन्ही गुणों के कारण इस दाल को प्रतिबंधित कर दिया गया था।  यह प्रतबंध व्यापारिक सोच के चलते किया गया था। प्रतिबंध के बाद भी इस दाल का चलन आज भी होता है इसकी दाल अरहर की दाल में मिलावट के काम में आती है।  दूसरा देशी परम्परागत खेती किसानी में यूरिया का चलन किसानो को स्वीकार्य नहीं था इसलिए भी इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।

यह कहा  जाता है की इसमें जहर है जिस से लखुए का रोग हो जाता है यह भ्रान्ति है। जबकि यूरिया और अनेक किस्म के भोपाली जहर खुले आम चल रहे जिनसे एक  अनेक बीमारियां हो रही है किन्तु खेती किसानी के डॉ इसका विरोध नहीं करते हैं।

खेसरी दाल एक बहुत अच्छा कम या बिना सिंचाई के होने वाला ग्राउंड कवर की फसल है जो नत्रजन देने के आलावा ,नमी  के संरक्षण और खरपतवारों और कीड़ों की रोक थाम में बहुत ही महत्व पूर्ण फसल है।  यह बिना जुताई की जैविक खेती की जान है।

अब जबकि रासायनिक खेती के कारण खेत बंजर होने लगे है खेती अलाभकारी हो गयी है अनेक किसान खेती छोड़ रहे हैं या आत्म हत्या कर रहे हैं।  इस दाल का महत्व समझ में आ रहा है इस लिए इसको वापस लाने की कोशिश हो रही  है। हम इसका स्वागत करते हैं।

भारतीय परम्परगत देशी खेती किसानी में दालों  का बहुत महत्व था हर किसान खेतों की नत्रजन बरकरार रखने के लिए दालों  को बोया करता था जिसमे सिंचाई ,जमीन की जुताई और मानव निर्मित जैविक खादों की कोई जरूरत नहीं है।

अरहर के साथ ११-१२ अनाजों को बो दिया जाता था जिनसे साल भर की खेती आसानी से हो जाती थी किन्तु जब से हरित क्रांति के नाम से सिंचाई पर आधारित रासायनिक खेती का आगमन हुआ है तब से किसान कंगाल होने लगे हैं। खेती में हो रहे घाटे  का कारण किसान खेती  छोड़ रहे हैं।

केवल खेसरी दाल के वापस आने से दालों समस्या हल होने वाली नहीं है।  दालों  को यदि वापस लाना है तो रासायनिक यूरिया पर प्रतिबन्ध लगाना होगा क्योकि यही वह रसायन है जिसने दालों  के महत्व को कम कर दिया है। दूसरा सबसे अधिक घातक उपाय है जमीन की जुताई जिस खेतों की नत्रजन गैस बन कर उड़ जाती है और खेतों की जैविक खाद बह जाती है।

हम पिछले 30  सालो से बिना जुताई करे जैविक खेती को अमल में ला रहे हैं जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं। इसमें हम मूल रूप से दलहन फसलों से नत्रजन पैदा करते हैं जिसके सहारे  गेंहूँ और चावल को बोते हैं जिस से हमे बंपर फसलें  मिल जाती हैं।