Wednesday, April 29, 2015

भूकम्प और हरयाली

भूकम्प और  हरयाली 

बिना जुताई की कुदरती खेती से भूकम्प जैसी समस्याओं को टाला  जा सकता है। 

भूमि के  पोषण और बंधन में सबसे बड़ा हाथ हरियाली का है।  जितनी अधिक हरियाली रहती है उतनी ही अधिक जड़ें  जमीन के अंदर रहती है जो जमीन को गहराई तक और सघनता  से धरती को पकड़ कर रखती उसे हिलने नहीं  देती हैं।   भूकम्प आते हैं तो ये जड़ें कम्पन को सोख लेती हैं। यही कारण है की जंगलों में भूकम्प का कोई असर नहीं होता है।

 जब से हमने विकास का दामन  थामा है  तब से हम लगातार  हरे भरे भू  भागों को रेगिस्तान में बनाने में लगे हैं।  यही कारण है अब हम भूकम्प जैसे संकटों में फसते  जा रहे हैं।

एक समय था जब हम आदिवासियों की तरह रहते थे उस समय हमारे चारों तरफ घने जंगल हुआ करते थे। तब भूकम्प की कोई समस्या नहीं थी।  आज भी जंगलों में भूकम्प पता नहीं चलते हैं।

अभी जो भूकम्प आया उसमे भी यही बात देखने को मिली की हरे भरे भू भाग इस भूकम्प से अछूते रहे हैं।  हम पिछले अनेक सालो से बिना जुताई की खेती कर रहे हैं। इस से पहले हम जुताई आधारित खेती कर रहे थे इस से हमारे खेत हरियाली विहीन मरुस्थलों में तब्दील हो गए थे जो अब पूरी तरह हरे भरे वृक्षों से भर गए हैं।

हमारा मानना है की हरियाली के बल पर हम एक और जहाँ भूकम्प  समस्याओं को नियंत्रित कर सकते हैं वहीँ हम खेती किसानी से जुडी समस्याओं को भी हल कर सकते हैं। दोनों समस्याएं एक दुसरे से जुडी हैं।

इसके लिए हमे बड़े व्यापक पैमाने पर मरुस्थलों को हरा भरा बनाने की जरूरत है जापान के जाने माने कुदरती  मस्नोबू फुकूओकाजी इस काम के जानकार रहे हैं। उनकी लिखी यह किताब जग प्रसिद्ध है। 

हमे स्मार्ट सिटी की नहीं स्मार्ट खेतों की जरूरत है।

हमे स्मार्ट सिटी की नहीं स्मार्ट खेतों की जरूरत है। 


खेतों के सुधार के बिना नहीं रुकेंगी किसानो की आत्म हत्याएं। 


बिना जुताई की कुदरती खेती है समाधान। 


भारतीय परंपरागत खेती किसानी में जमीन की जुताई को फसलों के उत्पादन के लिए बहुत हानिकारक माना जाता रहा है।  इस से खेतों की उर्वरकता और जलधारण शक्ति पर विपरीत  प्रभाव पड़ता है।  इसलिए किसान अपने खेतों को कुछ सालो  के लिए पड़ती कर दिया कर देते थे जिस खेत हरियाली के कारण उपजाऊ और पानीदार बन जाते थे।

आदिवासी अंचलों में आज भी झूम खेती देखि जा सकती है इस खेती में किसान हरियाली को बचाकर खेतों को उर्वरक और पानीदार बना लेते हैं। छत्तीसगढ़  की उतेरा खेती में किसान बिना जुताई करे अनाजों को सीधा फेंक कर फैसले आज भी लेते दिख जायेंगे उसी प्रकार उतराखंड में हिमालय पर आज भी बारहनजी खेती को देखा जा सकता है , ये खेती करने की विधियां स्व किसानो ने विकसित की हैं जो आज तक जीवित हैं।

जबकि विज्ञान पर आधारित  "हरित क्रांति  " अब दम  तोड़ रही है. इसके कारण खेत मरुस्थलों में तब्दील हो गए है किसान आत्म हत्या कर रहे हैं।

इस समस्या का हल कर्जों ,मुआवजों और अनुदानों से संभव नहीं है।  इस समस्या के समाधान के लिए फसलोत्पादन के लिए की जारही जमीन की जुताई ,खादों और दवाओं की बिलकुल जरूरत नहीं है बल्कि इनके उपयोग से किसान कर्जदार हो रहे हैं कर्ज नहीं अदा कर पाने के कारण वे  आत्म हत्या कर रहे हैं।

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है हरित क्रांति अजैविक है इसलिए अब हमे जैविक खेती को अमल में लाना होगा किन्तु जैविक खेती और अजैविक खेती दोनों एक सिक्के के दो पहलू  हैं। हमे जरूरत है स्मार्ट खेतों की जैसे जंगल जहां जुताई ,खाद और दवाइयों के बिना सब कुछ अच्छा होता है।

स्मार्ट खेती अहिंसा पर आधारित है जबकि जैविक और अजैविक खेती  जुताई  (हिंसा )  पर आधारित है। जब हम अपने खेतों में नींदों ,कीड़े मकोड़ों ,जीव जंतुओं और सूक्ष्म जीवाणुओं को बचाते हैं खेत अपने आप ताकतवर हो जाते हैं। ताकतवर खेतों में ताकतवर फसलें होती है जिनकी उत्पादकता और गुणवत्ता सर्वोपरि रहती है।

स्मार्ट खेती का आविष्कार जापान के जाने माने कुदरती किसान ने किया है जिसे उन्हें अनेक वर्षों तक कर दुनिया को दिखा दिया की वैज्ञानिक खेती कितनी नुक्सान दायक हैं। होशंगाबाद  के हमारे (टाइटस ) फार्म में हम विगत २८ सालो से स्मार्ट खेती कर रहे हैं।



Sunday, April 26, 2015

खेत किसान बचेंगे तब ही हम भी बचेंगे।

खेत और किसान बचेंगे तब ही हम भी बचेंगे। 

र किसी को जीने के लिए आसरा चाहिए किसानो के पास खेती ही आसरा है जब वह खेती के खर्चों के कारण कर्ज में फंस जाता है और खेती से आमदनी नहीं होती है  तो वह मजबूर हो जाता है और मौत को गले लगा लेता है।
 "आत्म हत्या " कोई बच्चों का खेल नहीं है किन्तु जब कोई आत्म हत्या करता है तो यह बहुत बड़ी घटना बन जाती है। किन्तु जब एक नहीं दो नहीं लाखों किसान आत्म  हत्या करने लगें  तो यह पागल पन  नहीं किन्तु हम सब के लिए सोचने वाली घटना बन जाती है। क्योंकि हमारी रोटी ,हवा ,पानी का स्रोत हमारे खेत हैं।

इसलिए देश में खेत और किसानो के मरने का मतलब है की वह दिन दूर नहीं जब हमे रोटी ,हवा और पानी से वंचित रहना पड़ेगा। सरकार की यह जवाबदारी है की एक ओर  वह हमे रोटी ,हवा और पानी से महफूस रखे और खेत किसानो की पवरिष भी अच्छे से रखे जिस से खेत और किसान समृद्ध रहें उन्हें  कोई तकलीफ न हो किन्तु अफ़सोस की बात है की ऐसा नहीं हो पा  रहा है।

आज खेती किसानी की समस्या बड़ी गंभीर हो गयी है एक और जहाँ हर रोज कोई किसान आत्म हत्या कर रहा है वहीं बहत बड़ी तादात में किसान खेती का काम बंद कर रहे  हैं। यदि कोई गेंहूँ ,चावल आदि नहीं उगायेगा तो हम क्या खाएंगे ? सब खेत रेगिस्तान बन जायेंगे तो हवा और पानी कहाँ से आएगा ? इसका असर हर रोजगार  पर पड़ेगा स्कूल ,अस्पताल ,कारखाने कैसे चलेंगे ? पैसा तो रहेगा पर खाना नहीं मिलेगा।  यही कारण है की किसान को "अन्नदाता " कहा  जाता है।

इस समस्या  को हल करने की पूरी जवाबदारी सरकार की बनती है किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हम सब सरकार पर छोड़ दें हमारी भी उतनी जवाबदारी बनती है जितनी सरकार की है क्योंकि यह मसला हमारी रोजी का रोटी का मसला भी है। खेत किसान बचेंगे तब ही हम भी बचेंगे। हम पिछले कई दशकों से खेती किसानी से जुड़े हैं हमारा मानना है की आजकल जो खेती हो रही है है उसमे सुधार की जरूरत है हमे ऐसी खेती करना चाहिए जिस से खेत और किसान समृद्ध होते जाएँ उन्हें खेती छोड़ने की जरूरत नहीं रहे ,उन्हें कभी घाटा ना हो वे कभी कर्जों में न फंसे।  बिना जुताई की कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं का यही उदेश्य है।

 कुदरत की और वापस लोटना पड़ेगा "ऋषि खेती " कुदरत की ओर  लौटने का मार्ग है। 

Friday, April 24, 2015

किसानो को आल इन वन पद्धति अपनाना चाहिए

किसानो को आल इन वन पद्धति अपनाना चाहिए


आज कल किसानो अधिकतर किसान मोनोकल्चर करते हैं। यानी  गेंहूँ चावल लगाते हैं वो बार बार इसी को दोहराते जाते हैं इसी प्रकार जो पशुपालन करते हैं या फलों के बाग़ लगाते हैं वो बार बार इसी को दोहराते जाते हैं। इसके कारण जब किसी एक फसल पर संकट आता है सब चोपट हो जाता हैं।



इसी लिए हम सलाह देते है की किसानो को मिश्रित खेती करना चाहिए यानि एक ही खेत में जंगली पेड़ों ,अर्धजंगली पेड़ों ,फलदार पेड़ों के साथ अनाज ,सब्जी और पशु पालन एक साथ करने की जरूरत है। हम पिछले २८ साल से बिना जुताई की खेती करते हैं जिसमे हम "आल इन वन " की तकनीत का इस्तमाल करते हैं। कृपया इस वीडियो को देखें 

Thursday, April 23, 2015

कुदरती खेती से रोकें किसानो की आत्म हत्याएं।

किसानो को आत्म हत्या के पीछे "हरित क्रांति " का दोष है. 

कुदरती खेती से रोकें किसानो की आत्म हत्याएं। 

हरित क्रांति एक वैज्ञानिक खेती है जिसमे गहरी जुताई ,रसायनो का उपयोग ,भारी सिंचाई, भारी मशीनो ,गेरकुदरती बीजों का उपयोग किया जाता है। जिसके कारण खेत अपना कुदरती स्वरूप खो देते हैं वो रेगिस्तान में तब्दील हो जाते हैं , खेती खर्च बहुत बढ़ जाता है घाटा  होने के कारण किसान आत्म हत्या  करने लगते हैं। 

इस समस्या से निपटने के लिए कुदरती खेती करने की जरूरत है।  कुदरती खेती में जमीनो  की जुताई , रसायनो और मशीनो का उपयोग नहीं है। जिस से खेत लगातार ताकतवर होते जाते हैं। फसलें कुदरती गुणों से भरपूर ताकतवर मिलती हैं जो मौसम की मार को सहन कर लेती हैं। खेती खर्च नहीं के बराबर रहता है। घाटे  का प्रश्न ही नहीं रहता है।

हम पिछले २८ सालों से इस खेती का अभ्यास कर रहे हैं। हमारा मानना  है की यदि वाकई हम किसानो की आत्म हत्याओं प्रति संवेदनशील हैं तो हमे बिना जुताई की कुदरती खेती को ही करना पड़ेगा। आजकल सरकार  जैविक खेती की बात करती है जो जमीन की जुताई और जैविक खादों पर आधारित है यह भी उतनी ही हानिकारक है जितनी रासयनिक खेती है। 








































































Monday, April 6, 2015

हमारा पर्यावरण और हरित क्रांति

हमारा पर्यावरण और हरित क्रांति

पेड़ों के साथ करें बिना जुताई की "ऋषि खेती "


भारत एक कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है।  जिसकी अधिकांश आबादी गाँवों में रहती है जो खेती किसानी पर आश्रित है। किन्तु विगत कुछ सालो  से जब से भारी सिंचाई ,रसायनो और मशीनो का खेती में आगमन हुआ है।  खेती किसानी की आत्मनिर्भरता ,पर्यावरण  और सामाजिक स्थिती में बहुत अधिक कमी आई है। इसके कारण एक और जहां हमारी रोटी जहरीली होती जा रही है वहीं मिट्टी अनुपजाऊ हो रही है और मौसम में परवर्तन हो रहा है जिस से बाढ़ ,सूखा ,ग्लोबल वार्मिंग ,और ज्वर भाटों की समस्या गंभीर हो गयी है। रेगिस्तान पनप रहे हैं ,हवा में जहर घुलने लगा है।

खेती किसानी देश की समृद्धि में एक रीढ़ की हड्डी के समान है जब रीढ़ ही टूट जाएगी तो देश कैसे चलेगा।  आज जो महानगरीय विकास दिख रहा है उसके पीछे खेती किसानी का बहुत बड़ा हाथ है किन्तु जैसे जैसे खेती किसानी कमजोर हो रही है महानगरीय जीवन पर भी उसका असर दिखाई देने लगा है।

दिल्ली जिसे हम देश का दिल कहते हैं में पीने के पानी और सांस  लेने लायक हवा की भारी कमी दिखाई दे रही है यही हाल पूरे देश के महानगरों की है या होने जा रही है। यदि हम सेटेलाइट से देखें तो हमे पूरे देश  में बहुत बड़े भू भाग पर रेगिस्तान या पेड़ विहीन खेत नजर आएंगे। ये वह भूभाग है जो कभी हरियाली से ढंका था जिसे जुताई आधारित खेती किसानी ने नस्ट कर दिया है।

भारतीय प्राचीन परम्परागत खेती किसानी जिसमे खेती पशु पालन, बाग़ बगीचों ,चरोखरों और वनो के सहारे की जाती थी अब लुप्त हो गयी है। प्राचीन खेती में फसलों का  उत्पादन जुताई के बिना या हलकी जुताई से की जाती थी।  जब किसान देखते थे की अब खेत कमजोर होने लगे हैं किसान खेतों को पड़ती कर दिया कर देते थे जिस खेत अपने आप हरियाली से ढक  जाते थे और वे पून : ताकतवर हो जाते थे।

किन्तु मात्र कुछ सालो की रसायन और मशीनो पर आधारित गहरी जुताई वाली खेती ने खेतों को मरुस्थल बना दिया है। यह बहुत गंभीर समस्या है। यही हाल जारी रहा तो वह दिन दूर नही है  की हमे खाने के अनाजों के लाले पड़  जायेंगे।  ऐसा नहीं है की  हमे बहुत अच्छा अनाज खाने को मिल रहा है। यह अनाज जो हम खा रहे हैं यह कमजोर खेतों से रसायनो के बल पर पैदा किया गया है जो स्वाद और गुण रहित है जिसे खाने से अनेक  बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं।

आज से २८ साल पहले हम भी आधुनिक वैज्ञानिक खेती जो "हरित क्रांति " के नाम से जानी जाती है करते थे जिस से हमारे खेत भी मरुस्थल में तब्दील हो गए थे। खेत कांस घास से धक गए थे.उथले कुओं का पानी सूख गया था। फसलों की लागत  अधिक  थी आमदनी कम होने के कारण खेती घाटे का सौदा बन गयी थी। हमारे पास खेती को छोड़ने के  सिवाय कोई उपाय नही बचा था।

भला हो जापान के बिना जुताई की  कुदरती खेती के किसान और जग प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक मस्नोबू फुकूओकाजी का जिनके अनुभवों की किताब "दी वन स्ट्रा रिवोलूशन  " का जिस्ने  हमारी आँखे खोल दी इस किताब से हमे पता चला की फसलोत्पादन में हजारों साल से की जाने वाली जमीन की जुताई खेती किसानी में सबसे बड़ा नुक्सान दायक  काम है।  इसके कारण खेत कमजोर हो जाते हैं  और जुताई नहीं करने से खेत ताकतवर हो जाते हैं उनमे खाद और पानी का संचार हो जाता है।

जैसे ही हमे यह बात समझ में आयी हमने जुताई को बंद कर दिया और बिना जुताई करे खेती करने लगे इस से एक और हमारा खेती खर्च घट गया और हमारे खेत पु न : ताकतवर बन गए जिस से हमे कम लागत में गुणकारी फसलें मिलने से खेती लाभ प्रद बन गयी। कुओं में पानी लबालब रहने  लगा।

खेती और उसके पर्यावरण का चोली दामन का साथ है जो खेत में रहने वाली हरियाली पर निर्भर है। खेतों में रहने वाली तमाम वनस्पतियां जिन्हे हम खरपतवार कहते हैं ये , झाड़ियाँ और पेड़ खेत की जान हैं। जुताई करने से खेत की हरियाली नस्ट हो जाती है ,उसकी जैविकता नस्ट हो जाती है ,बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है। रसायन और मशीनी जुताई इस समस्या को तेजी से बढ़ाती है।

बिना जुताई की खेती इस समस्या से निपटने का सबसे सस्ता ,सुंदर और टिकाऊ उपाय है।









Sunday, April 5, 2015

कुदरती शिक्षा

कुदरती शिक्षा 

जकल शिक्षा का मतलब बदल गया है। शिक्षा अब केवल पूंजिपतयों के व्यवसायों को चलाने  के काम की रह गयी है। आधार ,मोबाइल और बैंक खाता जरूरी समझा जा रहा है किन्तु इस से किस को फायदा है इसका लाभ उधोग जगत उठा रहा है।  जो लोग जंगलों में रह रहे हैं महानगरीय शिक्षा से वंचित हैं वे फिर भी सुखी हैं। वो कुदरती खान पान और हवा का सुख भोग रहे हैं किन्तु जो लोग महानगरों में  है वे कुदरती खान पान से तो वंचित हैं तथा बेरोजगारी ,गरीबी और महामारियों के बोझ तले  दबे हैं।

इसका मतलब यह नहीं है की जंगलों में रहने वालों को शिक्षा नहीं मिलना चाहये यह उनका जन्म सिद्ध अधिकार है किन्तु यदि वह नहीं मिल रही है तो उनको चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि शिक्षा का अब मतलब बदल गया है।  सबसे अच्छी शिक्षा हमारे अपने पर्यावरण  के अनुकूल हमारे रहन सहन  और अपनी मात्र भाषा के अनुसार हमारे लिए होना चाहये। महानगरों में जो अंग्रेजी जानता  है वही  पढ़ा लिखा समझा जाता है यह गलत है। इस से हमारा शोषण हो रहा है।

जंगल आज भी  आत्मनिर्भर महाज्ञान से भरे हैं हमे उसे सही तरीके से जी सकें उसमे ही हमारी भलाई है हमे महानगरों की और ललचाई निगाह से ताकने की जरूरत नहीं है जंगल स्वर्ग हैं वहीँ महानगर अब नरक में तब्दील होते जा रहे हैं।

आधुनिक वैज्ञानिक खेती से हजार गुना अच्छी जंगलों में होने वाली बेगा , झूम, बारह अनाजी और उतेरा  खेती हैं।  जिनमे प्रदूषण बिलकुल नहीं हैं इनसे जल वायु संरक्षित रहती है जबकि आधुनिक वैज्ञानिक खेती से जलवायु परवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग पनप  रही है।  इसी प्रकार जंगलों में बीमारी और इलाज नाम की कोई चीज नहीं होती है।  वहां का रहन सहन अपने आप स्वास्थ प्रद है जबकि महानगरों में मलेरिया ,डेंगू ,स्वानफलु ,कैंसर महामारियों बन रही हैं।  नकली डाक्टरों और दवाओं का मकड़जाल जनता को चूस रहा है। जबकि जंगली हवा ,पानी और आहार खुद डाक्टर और दवा हैं।




Saturday, April 4, 2015

पर्यावरणीय संरक्षित भूमि को बचाने की अपील

पर्यावरणीय संरक्षित भूमि को बचाने की अपील 

वन ,स्थाई कुदरती चरोखरों ,बिना जुताई के खेतों और बाग  बगीचों को बढ़ावा दिया जाये। 

कुदरती खान पान और हवा हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है जिस से हम वंचित हो रहे हैं। 

गैर कुदरती खेती ,कल-कारखानो  और वाहनो पर रोक  लगाई  जाये। 

मारे देश में पर्यावरण प्रदूषण ,मौसम परिवर्तन ,गर्माती धरती , ग्रीन हॉउस गैसों का उत्सर्जन ,सूखा और बाढ़ की समस्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। इसका सीधा सम्बन्ध जुताई आधारित रासायनिक  खेती , प्रदूषण फैलाने वाले कल कारखानो, तेलचलित वाहनो ,सड़कों और बड़े बांधों से है।

अनेक महानगरों में तो पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है की लोगों को सांस लेना  दूभर हो गया है। अनेक स्थान ऐसे हैं जहां सूखे के कारण फसलें पैदा होना बंद हो गयी हैं।  अनेक स्थान ऐसे हैं जहां बेमौसम इतनी बरसात हो रही है की लोग आये दिन भूस्खलन और बाढ़ से परेशान हो रहे हैं। ज्वारभाटों के कारण समुद्र के किनारे रहने वाले लोग आये दिन परेशान हो रहे हैं।

इन  समस्याओं की जड़ में पिछले हजारों से चल रहा गैरपर्यावरणीय विकास है। इसी तारतम्य में भारत सरकार ने पुन : विकास के नाम पर नया भूमिअधिग्रहण बिल बनाया है। जिसके माध्यम से अनेक ऐसे काम किए जाने हैं जिनसे हमारा पर्यावरण और अधिक प्रभावित होने वाला है। इन कार्यों के लिए यह दलील दी जा रही है की हमारे देश में किसानो की आर्थिक स्थिती  ठीक नहीं है उन्हें और अनेक पढेलिखे बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध करना सरकार की जवाबदारी  है इसलिए भूमि को अधिग्रहित कर उन पर कल कारखाने आदि लगाये जायेंगे जिस से रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकें।

वैसे सरसरीतोर पर सरकार का यह कहना सही लगता है की जो देश अभी तक हमारे जल,जंगल और जमीन पर आश्रित था वह अब उनकी कमी के कारण समस्यों से ग्रसित हो गया है इसलिए किसानो की  माली हालत और बढ़ते पढे लिखे लोगों की बेरोजगारी की समस्या एक बहुत बड़ी मुसीबत बन गया है उसका हल जरूरी है। किन्तु प्रश्न यह उठता है की क्या हमारे पर्यावरण  की अनदेखी का असर हमारे कलकरखानो और वहां करने वालों पर नहीं पड़ेगा।

 उदाहरण के तोर पर दिल्ली और गुजरात को देखिये जो देश के  सबसे विकसित प्रदेश है वहां पीने का पानी उपलब्ध नहीं है ,सांस लेने के लिए मिलने वाली मुफ्त हवा नहीं मिल रही है। इस समस्या को कलकरखानो से नहीं दूर किया जा सकता है बल्कि  उनसे यह समस्या और बढ़ेगी।

इस समस्या का सीधा और सबसे सरल उपाय यह है की हरियाली को बढ़ाया  जाये जहां कहीं भी हरियाली के साधन उपलब्ध हैं उन्हें बचाने की जरूरत है। जैसे कुदरती वन छेत्र ,स्थाई बाग़ बगीचे ,स्थाई चरोखरें, बिना जुताई के खेत आदि। असल में होना तो यह चाहिए  की पर्यावरणीय इन छेत्रों  को बढ़ावा देने  के लिए सरकार को कुछ प्रलोभन देना चाहिए जो अभी तक सरकार नहीं कर रही है दूसरा सरकार को विकास के लिए उन तमाम छेत्रों को जिनसे हमारा पर्यावरण दूषित हो रहा है जैसे प्रदूषण फैलाने वाले कल कारखाने ,जुताई  आधारित रासायनिक खेती ,बड़े बाँध आदि पर रोक लगाने  जरूरत है।

हम पर्यावरणीय भूमि को अधिग्रहित कर उन्हें प्रदूषित करने वाले कार्यों में  उपयोग लाने  के पक्षधर नहीं है।
कुदरती खान ,पान और हवा हमारा  जन्म सिद्ध अधिकार है उसे हम अब नहीं छोड़ सकते हैं। सरकार को कोई भी भूमि को अधिग्रहित  करने से पूर्व हमे इस बात की गारंटी देने की जरूरत है।






Dan Forgey_Adding Cover Crops to a No Till System