हमारा पर्यावरण और हरित क्रांति
पेड़ों के साथ करें बिना जुताई की "ऋषि खेती "
भारत एक कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है। जिसकी अधिकांश आबादी गाँवों में रहती है जो खेती किसानी पर आश्रित है। किन्तु विगत कुछ सालो से जब से भारी सिंचाई ,रसायनो और मशीनो का खेती में आगमन हुआ है। खेती किसानी की आत्मनिर्भरता ,पर्यावरण और सामाजिक स्थिती में बहुत अधिक कमी आई है। इसके कारण एक और जहां हमारी रोटी जहरीली होती जा रही है वहीं मिट्टी अनुपजाऊ हो रही है और मौसम में परवर्तन हो रहा है जिस से बाढ़ ,सूखा ,ग्लोबल वार्मिंग ,और ज्वर भाटों की समस्या गंभीर हो गयी है। रेगिस्तान पनप रहे हैं ,हवा में जहर घुलने लगा है।
खेती किसानी देश की समृद्धि में एक रीढ़ की हड्डी के समान है जब रीढ़ ही टूट जाएगी तो देश कैसे चलेगा। आज जो महानगरीय विकास दिख रहा है उसके पीछे खेती किसानी का बहुत बड़ा हाथ है किन्तु जैसे जैसे खेती किसानी कमजोर हो रही है महानगरीय जीवन पर भी उसका असर दिखाई देने लगा है।
दिल्ली जिसे हम देश का दिल कहते हैं में पीने के पानी और सांस लेने लायक हवा की भारी कमी दिखाई दे रही है यही हाल पूरे देश के महानगरों की है या होने जा रही है। यदि हम सेटेलाइट से देखें तो हमे पूरे देश में बहुत बड़े भू भाग पर रेगिस्तान या पेड़ विहीन खेत नजर आएंगे। ये वह भूभाग है जो कभी हरियाली से ढंका था जिसे जुताई आधारित खेती किसानी ने नस्ट कर दिया है।
भारतीय प्राचीन परम्परागत खेती किसानी जिसमे खेती पशु पालन, बाग़ बगीचों ,चरोखरों और वनो के सहारे की जाती थी अब लुप्त हो गयी है। प्राचीन खेती में फसलों का उत्पादन जुताई के बिना या हलकी जुताई से की जाती थी। जब किसान देखते थे की अब खेत कमजोर होने लगे हैं किसान खेतों को पड़ती कर दिया कर देते थे जिस खेत अपने आप हरियाली से ढक जाते थे और वे पून : ताकतवर हो जाते थे।
किन्तु मात्र कुछ सालो की रसायन और मशीनो पर आधारित गहरी जुताई वाली खेती ने खेतों को मरुस्थल बना दिया है। यह बहुत गंभीर समस्या है। यही हाल जारी रहा तो वह दिन दूर नही है की हमे खाने के अनाजों के लाले पड़ जायेंगे। ऐसा नहीं है की हमे बहुत अच्छा अनाज खाने को मिल रहा है। यह अनाज जो हम खा रहे हैं यह कमजोर खेतों से रसायनो के बल पर पैदा किया गया है जो स्वाद और गुण रहित है जिसे खाने से अनेक बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं।
आज से २८ साल पहले हम भी आधुनिक वैज्ञानिक खेती जो "हरित क्रांति " के नाम से जानी जाती है करते थे जिस से हमारे खेत भी मरुस्थल में तब्दील हो गए थे। खेत कांस घास से धक गए थे.उथले कुओं का पानी सूख गया था। फसलों की लागत अधिक थी आमदनी कम होने के कारण खेती घाटे का सौदा बन गयी थी। हमारे पास खेती को छोड़ने के सिवाय कोई उपाय नही बचा था।
भला हो जापान के बिना जुताई की कुदरती खेती के किसान और जग प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक मस्नोबू फुकूओकाजी का जिनके अनुभवों की किताब "दी वन स्ट्रा रिवोलूशन " का जिस्ने हमारी आँखे खोल दी इस किताब से हमे पता चला की फसलोत्पादन में हजारों साल से की जाने वाली जमीन की जुताई खेती किसानी में सबसे बड़ा नुक्सान दायक काम है। इसके कारण खेत कमजोर हो जाते हैं और जुताई नहीं करने से खेत ताकतवर हो जाते हैं उनमे खाद और पानी का संचार हो जाता है।
जैसे ही हमे यह बात समझ में आयी हमने जुताई को बंद कर दिया और बिना जुताई करे खेती करने लगे इस से एक और हमारा खेती खर्च घट गया और हमारे खेत पु न : ताकतवर बन गए जिस से हमे कम लागत में गुणकारी फसलें मिलने से खेती लाभ प्रद बन गयी। कुओं में पानी लबालब रहने लगा।
खेती और उसके पर्यावरण का चोली दामन का साथ है जो खेत में रहने वाली हरियाली पर निर्भर है। खेतों में रहने वाली तमाम वनस्पतियां जिन्हे हम खरपतवार कहते हैं ये , झाड़ियाँ और पेड़ खेत की जान हैं। जुताई करने से खेत की हरियाली नस्ट हो जाती है ,उसकी जैविकता नस्ट हो जाती है ,बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है। रसायन और मशीनी जुताई इस समस्या को तेजी से बढ़ाती है।
बिना जुताई की खेती इस समस्या से निपटने का सबसे सस्ता ,सुंदर और टिकाऊ उपाय है।
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