Friday, March 28, 2014

SCIENTIFIC FARMING IS FAILING

एक तिनका क्रांती 

मासानोबू फुकुओका 

 मेरे खेतों पर निगाह डालें 

ये सरसों  और गेंहूं के खेत हैं। इन खेतों से मुझे प्रति चौथाई एकड़ एक टन अनाज मिल जाता है. यह उत्पादन जापान के सबसे उत्पादक वैज्ञानिक खेती के उत्पादन के बराबर है. जबकि मेने अपने खेतों को पिछले २५ सालो से ना जोता है ना ही बखरा है. मै इन खेतों में किसी भी प्रकार के खाद और दवा का उपयोग नहीं करता हूँ.
एक टन प्रति चौथाई एकड़ पैदावार 


सरसों और गेंहूं की बोनी करने के लिए मै धान की कटाई से करीब १५-२० दिन पहले खड़ी धान की फसल में बीजों को छिड़क देता हूँ. धान की कटाई और  धान को झड़ाने के बाद में बची पुआल को उगते नन्हे पौधों के ऊपर जहाँ का तहां आड़ा तिरछा फेंक देता हूँ.
एक किलो प्रती वर्ग मीटर पैदावार 

धान की बुआई भी में इसी प्रकार करता हूँ धान के बीजों को सीधा मै  गेंहूं और सरसों के खेतों में सीधे फेंक देता हूँ. गेंहूं और सरसों की नरवाई को भी मै इसी प्रकार खेतों पर जहाँ का तहां फेंक देता हूँ. धान और गेंहूं की फसल चक्र में ये विधि मेरे ही खेतों में अपनाई जाती है.

इसमें खेतों में पानी भर कर रखना ,रोपा लगाना ,कीचड आदी मचाने की कोई जरुरत नहीं है. इस खेती की पैदावार वैज्ञानिक खेती के बराबर जरुर है किन्तु जमीन और फसल की गुणवत्ता  का कोई मुकाबला नहीं है.






Wednesday, March 26, 2014

पूरे देश में कृषी की ग्रोथ नेगेटिव है.


पूरे देश में कृषी की ग्रोथ नेगेटिव है. 

खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं ,इसलिए किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं.


मारी खेती किसानी हमारे पर्यावरण के अनुसार चलती है जिसमे कुदरती जल और मिट्टी की उर्वरता की अहम् भूमिका है.किन्तु जब फसलोत्पादन के लिए हरयाली को नस्ट कर खेतों को जोता जाता है तब बरसात का पानी जमीन में ग्रहण  नहीं होता है वह तेजी से बहता है जो अपने साथ खेत की जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है. करीब हर साल १५ टन जैविक खाद इस प्रकार खेतों से बह जाती है. 

दूसरा जुताई करने से खेतों की जैविक खाद गैस में तब्दील होकर उड़ जाती है जिस से एक और खेत कमजोर हो जाते है वही ग्रीन हॉउस गैस की समस्या उत्पन्न हो जाती है. एक बार जुताई करने से खेत की आधी ताकत 
नस्ट हो जाती है. इसलिए सूखे और बाढ़ दोनों की समस्या आम रहती है किसान घाटे में रहते हैं.
फ़ोटो: NATURAL WHEAT CROP OF TITUS NATURAL FARM.
टाइटस कुदरती खेती की फसल. (गेंहू)
पेड़ों के साथ बिना जुताई की कुदरती खेती 
यही कारण है कि खेती किसानी में भयंकर अनुदान दिया जा रहा है. इसके बावजूद किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं. ऐसा नेगेटिव ग्रोथ के कारण है.

ग्रोथ को बढ़ाने के लिए अनेक किसान अब बिना जुताई की खेती करने लगे हैं. जिस से जैविकता और पानी का छरण पूरी तरह रुक जाता है और खेत किसान संपन्न हो रहे है. जुताई के कारण पनपते मरुस्थल जीवित हो रहे हैं.

Monday, March 24, 2014

STOP DESERTIFICATION

पानी ना तो आसमान से आता है नाही वह जमीन के भीतर से आता है पानी तो हरियाली से आता है.-फुकुओका 

प्राचीन  खेती किसानी में किसान जब अपने खेतों में कान्स घास को फूलता देखते थे वे जुताई को बंद कर खेतों को पड़ती कर दिया करते थे.  उन्हें पता चल जाता था कि अब खेतों का पानी सूखने लगा है. पड़ती करने से खेत हरियाली से ढक जाते हैं  जिस से खेत पुन: पानीदार हो जाते हैं.  हमारे इलाके में ऋषि पंचमी के त्यौहार में कांस घास की पूजा होती है और बिना-जुताई के अनाजों को फलाहार के रूप में सेवन किया जाता है. इस बात से पता चलता है कि हमारे पूर्वज किसान कितने समझदार और उन्नत थे।
कांस घास 


झूम खेती 
आज भी अनेक आदिवासी अंचलों में "झूम खेती " होती है. जो पिछले हजारों साल से हो रही है इसमें किसान पहले हरियाली के भूमि ढकाव को बचाते हैं जिस से जमीन पानीदार और उर्वरक हो जाती है. हरियाली के ढकाव में असंख्य जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े ,सूक्ष्म जीवाणु पैदा हो जाते हैं जिनके जीवन चक्र से जमीन के पोषक तत्वों की आपूर्ती हो जाती है और बरसात का पानी जमीन में समां जाता है जो वाष्प बन सिंचाई का काम करता है. इस का लाभ लेने के लिए आदिवासी लोग एक सीमित जमीन के टुकड़े की हरियाली को काटकर उसे जला देते हैं जिस से जमीन फसलोत्पादन के लिए तैयार हो जाती है. इस जमीन में वे बरसात में अनेक बीजों को मिलाकर छिड़क देते हैं जिस से उन्हें अनेक किस्म की फसलें प्राप्त हो जाती है. कुछ फसलें बरसात के रहती है तथा कुछ फासले अगले मौसम की रहती है जिसमे दाल,चावल सब्जियां आदी रहती हैं. बीच बीच में फलों के पेड़ों को छोड़ दिया जाता है जिस से उन्हें फल भी मिल जाते हैं. इस जमीन के टुकड़े में करीब तीन साल तक ही खेती करते हैं इसके बाद वे फिर से जमीन को छोड़ देते है जिस से वह पुन: हरियाली के भूमि ढकाव से धक् जाती है जिसमे पानी और उर्वरकता का संचार हो जाता है.
क्लोवर के साथ धान की खेती 

जापान क विश्व विख्यात कृषि वैज्ञानिक और कुदरती खेती के किसान मासानोबू फुकुओकाजी ने भी इस कुदरती तकिनक के शेयर कुदरती खेती का विकास किया है. वे अपने धान ,गेंहूं और राइ  के खेतों में एक स्थाई भूमिधकाव  की वनस्पती जिसे वे क्लोवर कहते हैं सालभर जीवित रखते हैं जिस से उनके खेत उर्वरक और पानीदार रहते हैं उस में बदल बदल कर धान ,गेंहू और राइ की फसल होती रहती है. जिसका उत्पादन बढ़ते क्रम में रहता है.


आज कल  अनेक किसान अपनी जमीन को उर्वरक और पानीदार बनाने के लिए "हरी खाद " के नाम से खेतों में सन,ढेंचा ,चौलाई, गाजर घास  आदी के हरे ढकाव से जमीन उर्वरक और पानीदार बनाते हैं किन्तु वे जमीन की जुताई कर  इस ढकाव को मिट्टी में मिला देते हैं इस से जमीन की उर्वरकता और नमी का लाभ नहीं मिल पाता  है. जुताई करने से खेत की जैविक खाद गैस  बन कर उड़ जाती है और बरसात के पानी के साथ बह जाती है इस कारण खेत निरंतर कमजोर होते जाते हैं उनमे खाद और पानी की भीमकाय मांग होती जाती है.

हरे भूमिधकाव में बिना जुताई करे बुआई करने का तरीका
सामने क्रिम्पर रोलर पीछे जीरो टिलेज सीड ड्रिल। 

बिना-जुताई की जैविक खेती करने के लिए अनेक किसान ट्रेकटर के आगे हरे भूमि ढकाव को मोड़ कर सुला देते हैं तथा उसमे बिना जुताई की बोने की मशीन से बोनी कर बम्पर फसल ले रहे हैं. ढकाव की फसल को मोड़ कर जमीन  पर सुला देने से वह मरता नहीं है पानी और उर्वरकता प्रदान करता रहता है इसमें हरी छाया में रहने वाले अनेक जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े सहायता प्रदान करते हैं. यह खेती सिचाई के बिना की जाती है. जो पानी पीती नहीं है वरन पानी देती है.

हम पिछले २७ सालो से बिना जुताई की कुदरती खेती को ऋषि खेती के नाम से कर रहे हैं. जिस से हमारी खेती जो पहले जुताई आधारित खेती करने के कारण घटे का सौदा बन गयी थी अब लाभकारी खेती में तब्दील हो गयी.

बिना पानी भरे कुदरती धान की खेती 
बिना-सिचाई ,बिना-जुताई ,बिना-खाद का कुदरती गेंहूं। 
हमारा मानना है जब तक इस देश के योजनाकार ,किसान ,खेती के डॉ लोग आदी फसलोत्पादन के लिए की जारही जमीन की जुताई पर नियंत्रण नहीं करते है जब इस देश के खेतों और किसानो का विकास नहीं हो सकता है और देश रेगिस्थान में तब्दील होता जायेगा।बड़े बांधों को बनाने से कभी पानी की  समस्या का हल नहीं हो सकता है. खेतों को हरा भरा बनाने से पानी का स्थाई हल हो जाता है. इसलिए फुकुओकाजी जिन्होंने  करीब ७० साल बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना निंदाई ,बिना सिंचाई करे खेती कर दुनिया को बता दिया है कि ये सब उपाय निरर्थक ही नहीं बहुत नुक्सान दायक हैं. पानी आसमान से नहीं आता ,पानी धरती से नहीं आता वह तो हरियाली से ही आता है.





Monday, March 17, 2014

सम्पूर्ण बेरोजगारी का हल ऋषि-खेती में है.

सम्पूर्ण बेरोजगारी का हल ऋषि-खेती में है.

धोगिकीकरण बेरोजगारी का कारण है, हल नहीं है। जब से हरित क्रांती के नाम से गहरी जुताई और जहरीले रसायनो का उपय़ोग ओधोगिक खेती के नाम से शुरू हुआ है तब से खेतिहरों  का गांवों से तेजी  से पलायन हुआ है अब स्थिती ये है कि गांवों में खेती के लिए काम वाले  नहीं मिल रहे हैं और शहरों में बेरोजगारों की भीड़ जमा हो रही है.

ऋषि खेती बिना जुताई और बिना रसायनो से की जाने  वाली खेती है. जिस से हर हाथ को काम और खान-पान दोनों बहुलता से उपलब्ध रहता है. पानी की कमी आज कल  सबसे बड़ी समस्या उभर कर आ रही है. दिल्ली और गुजरात जैसे ओधोगिक प्रदेश पानी की कमी के कारण प्यासे है. यह ओधोगिक खेती का ही परिणाम है. ओधोगिक खेती से पर्यावरण नस्ट हो जाता है हरियाली नहीं रहने के कारण पानी नहीं मिलता है असल में पानी ना तो आसमान से आता है ना ही वह धरती से आता है वह तो हरियाली से आता है. बड़े बाँध बना कर पानी की समस्या को दूर नहीं किया जा सकता है हरियाली नहीं रहेगी तो .नदियों में पानी कहाँ से आयेगा और बाँध कैसे भरेंगे।

  1. Natural Farming with Masanobu Fukuoka - YouTube

    www.youtube.com/watch?v=Ft0ylk4sU5M

    23-03-2012 - PermaculturePlanet द्वारा अपलोड किया गया
    Full-length documentary following the legendary MasanobuFukuoka on a visit to India.
औधोगिक खेती और कारखाने गैर -पर्यावरणीय विकास के सूचक हैं. पर्यावरण नहीं रहेगा  तो हम कैसे रह सकते हैं. आज देश में पढ़े लिखे और बहुत अधिक पढ़े लिखे बे रोजगारों को रोजगार देना उद्घोगों के बस की बात नहीं है. क्योंकि इस में खर्च ,समय प्रदूषण और गैर -टिकाऊपन की गम्भीर समस्या है.

जबकि ऋषि-खेती में सामान्य खेती से ८०% खर्च कम आता है. उत्पादकता  और गुणवत्ता के साथ साथ हरियाली तेजी से पनपती है जिस से कुदरती आहार,ईंधन ,चारा सब कुछ मिल जाता है.

लोन के खेल में फंसे किसान, 4 ने की खुदकुशी

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बैंक मैनेजर के लोन के खेल में फंसे किसान, 4 ने की खुदकुशी

मनोज कुमार [Edited By: स्‍वपनल सोनल]  23 फरवरी 2014 | अपडेटेड: 23:16 IST
Symbolic Image
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गाजियाबाद पुलिस ने फ्रॉड के एक ऐसे मामले का खुलासा किया है जिसके कारण अब तक 4 किसानों ने खुदकुशी कर ली है. इतना ही नहीं कई अन्‍य इस वजह से खेत-खलियान और घर बेच गांव छोड़ने पर मजबूर हो गए हैं. किसानों के साथ फ्रॉड का यह खेल किसी ऐरे-गैरे ने नहीं बल्कि सिंडिकेट बैंक के एक ब्रांच मैनेजर ने खेला, जो फिलहाल गाजियाबाद की क्राइम ब्रांच की गिरफ्त में है.
एक ओर जहां सरकार किसानों के लिए अधिक से अधिक सुविधाजनक लोन स्किम लेकर आ रही है, वहीं बैंक मैनेजर ललित कुमार सिंघल ने इसे किसानों के लिए जी का जंजाल बना दिया. ललित कुमार पर आरोप है कि उसने 200 किसानों के नाम फर्जी तरीके से बैंक लोन पास किया और इस तरह कुल 4 करोड़ रुपये का घोटाला किया. अपने दो साथियों के साथ मिलकर ललित कुमार ने किसानों के नाम और पते पर झूठे कागजात तैयार किए और वैसे लोन पास किए जो कभी किसानों को मिले ही नहीं.
...और आने लगे रिकवरी नोटिस
जानकारी के मुताबिक, बैंक मैनेजर और उसके दो साथी आनंद सिंघल और सतवीर सिंह ने फर्जी तरीके से किसानों के नाम लोन पास किए. इनमें आनंद सिंह लोन की उन फाईलो में बैंक गारंटर था और सतवीर बैंक का लीगल एडवायजर.
एक पीड़ित किसान ने बताया कि हम में से किसी को भी लोन की कोई जानकारी नहीं थी. लेकिन जब बैंक से बार-बार रिकवरी नोटिस आने लगा तो समस्‍या बढ़ने लगी. कई किसानों ने तो परेशान होकर खुदकुशी कर ली. जबकि कई गांव छोड़कर चले गए.
जमीन, ट्यूबवेल और मवेशी के लिए लोन
गाजियाबाद के सिटी एसपी शिव हर‍ि मीना ने बताया कि फर्जीवाड़े के इस खेल में ललित कुमार ने अपने साथियों के साथ मिलकर किसानों के नाम पर उनकी जमीन, ट्यूबवेल और भैंस-गाय के लिए लोन पास किया. इनमें से आनद सिंघल ने अक्‍टूबर 2013 में कोर्ट में सरेंडर कर दिया था जबकि सतवीर सिंह की हार्ट अटैक में मौत हो चुकी है. घोटाले का यह मुकदमा 2010 में भोजपुर थाने में दर्ज हुआ था. 2013 से क्राइम ब्रांच इस घोटाले की जांच कर रही है.

किसान ने लगाई फांसी

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समझौते के कागज को नोटिस समझ किसान ने लगाई फांसी

आशीष मिश्र [Edited By: स्‍वपनल सोनल] | लखनऊ, 16 मार्च 2014 | अपडेटेड: 15:23 IST
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वह किसान का बेटा था. मां-बाप ने उसका नाम 'आबाद' रखा था. यकीनन वे चाहते होंगे कि उनका लाल ताउम्र आबाद रहे, लेकिन घटती पैदावार और कर्ज के बोझ ने उसे बर्बाद कर दिया. देश में खेतीहर किसान, पैदावार की कमी और बैंक से बढ़ते कर्ज का का खौफ क्‍या होता है इसकी एक बानगी यूपी के महोबा में देखने को मिली. यहां एक किसान के घर अदालती कागज आता है. घर की माली हालत ऐसी है कि वह कर्ज चुका नहीं सकता. ऐसे में बिना कागज पढ़े अपनी जिंदगी से निराश वह किसान खुद को फांसी लगा लेता है, ज‍बकि वह कागज राष्‍ट्रीय लोक अदालत से समझौते के लिए भेजा गया पत्र था.
दरअसल, महोबा कचहरी में 12 अप्रैल को राष्‍ट्रीय लोक अदालत के जरिए किसानों व अन्य लोगों के वादों का निस्तारण किया जाना है. इसके तहत जिला विधिक प्राधिकरण ने शुक्रवार को आबाद मोहम्‍मद को पत्र भेजा. पत्र में 20 मार्च को न्यायालय में आकर सुलह समझौते के आधार पर लोन का निस्तारण किए जाने की बात थी, लेकिन अनपढ़ किसान उसे बैंक के अधिकारियों का नोटिस समझ बैठा और उसने शनिवार को घर पर पंखे के हुक से फांसी लगा ली.
तीन साल पहले लिया था कर्ज
जानकारी के मुताबिक, महोबा के मोहल्ला कसौराटोरी निवासी आबाद मोहम्मद की बीजानगर रोड पर पांच बीघा कृषि भूमि है. साल 2011 में आबाद ने भारतीय स्टेट बैंक महोबा से खेती के लिए 20 हजार रुपये कर्ज लिए थे, जिसे वह अब तक नहीं चुका पाया था.
बताया जाता है कि आबाद ने बैंक से बोरिंग करवाने के लिए पैसे लिए थे. उसने बोरिंग करवा भी दी थी. इससे हर साल अच्छी उपज मिलने लगी. खेत में उत्पादन क्षमता बढऩे से किसान ने बैंक का कुछ लोन अदा कर दिया. अब उसे ब्याज सहित करीब 15 हजार रुपये अदा करना था. इस साल खेत में अच्छी फसल भी तैयार थी, लेकिन अधिक बारिश और ओले गिरने के कारण उसकी फसल बर्बाद हो गई. बैंक का कर्ज अदा करना तो दूर आबाद के घर रोजी रोटी का संकट बढ़ गया.
मृतक के बेटे शफीक का कहना है कि शुक्रवार को बैंक का नोटिस आने के बाद से ही पिता परेशान थे. एसडीएम सत्यप्रकाश राय ने बताया कि बैंक का कुछ पैसा बकाया होने के कारण 12 अप्रैल को लगने वाली लोक अदालत में पैसा जमा कर समझौते को जिला विधिक सेवा प्राधिकरण ने आबाद के पास पत्र भेजा था, जिसे पुलिसकर्मी ने तामील कराया था. तामील के बाद उसने फांसी लगा ली. जांच के लिए नायब तहसीलदार को भेजा गया है.

Sunday, March 16, 2014

सच्चाई, ईमानदारी ,समानता और सादगी

शुरुवाद ईमानदार खेती से ही होगी 


ब समय आ गया है कि हम अपने देश के प्रती जागरूक होकर अपने स्वम के लिए ,परिवार के लिए और समाज के लिए प्रतिनिधि चुने , हम ऐसा प्रतिनिधी चाहते है जो ईमानदार हो, जिसमे सच्चाई कूट कूट कर भरी हो, जो समाज के हर वर्ग से प्रेम करता हो जिसमे सादगी होना जरूरी है.

जब हम सच्चाई की बात करते हैं तब सबसे बड़ी सच्चाई हमारा हमारे पर्यावरण के प्रती जागरूक का होना है जिसमे हरियाली का सबसे बड़ा महत्त्व है. जैसा कहा जाता है कि "हरियाली है जहाँ खुशहाली है वहाँ " एक समय था जब हमारे देश में हरे भरे जंगल थे घी दूध की नदियां बहती थीं ,हमे कुदरती रोटी और पानी की कोई कमी  नहीं थी. हमारी संस्कृति माता,पिता ,बुजुर्गों का सम्मान रहता था. महिलाओं का  सम्मान होता था. धरती माता को पूजा जाता था. पेड़ों की पूजा होती थी.
विकास यानी गन्दगी 

किन्तु आज़ादी के बाद से जब हमने अपनी सरकार बनाई धीरे धीरे हमने अपनी हरियाली को विकास के नाम पर नस्ट करना शुरू कर दिया उसके बदले हमने खेत , कारखाने ,सड़कें ,बड़े बाँध बनाना शुरू कर दिए जिस से धीऱे२ हरियाली नस्ट होती गयी और हम जहरीली हवा,पानी और रोटी के जंजाल में फंस गए.
ओद्योगिक क्रांती जिस की शुरुवाद हरित क्रांती के नाम से शुरू की गयी है और जिसे प्रान्त की हर सरकार आज तक विकास के पैमाने के रूप में जनता को छल  रही है के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं .इस खेती में सबसे पहले हरे भरे कुदरती वनो,चरागाहों और बाग़ बगीचों को नस्ट कर मोटे अनाजों जैसे गेंहूं और चावल के खेत बनाए गए. ये खेती मूलत : बिजली ,पेट्रोल /डीज़ल पर आधारित है. 

बड़े बड़े बाँध बनाये गए, ढेरों कोयले की  खदान खोदी गयी, अनेक गहरे तेल के कुए खोदे गए. बड़ी बड़ी छोड़ी सड़कों का निर्माण किया गया ,बड़े बड़े पुल  बनाये जाने लगे. हरियाली के बदले सीमेंट कांक्रीट का जंगल बनाये जाने लगे ,छोटे छोटे आत्म  निर्भर गाँव  बिजली पेट्रोल के गुलाम शहर में तब्दील हो गए. जहाँ गंदगी के सिवाय कुछ नहीं है. जितना बड़ा नगर उतनी बड़ी गंदगी।कुदरती हवा,पानी ओर रोटी का नामो निशान  नहीं है चोरी बेईमानी चरम सीमा पर है.

ईमानदार खेती की पहल  

रोज खून खराबे ,बलात्कार, बम विस्फोट की ख़बरों के ख़बरों ने दिल को दहला दिया है. छोटे२  रकबों में जहाँ पहले सड़कें नहीं थी वहाँ भी नक्सलवादी घटनाओं ने मन को बहुत दुखी कर दिया है. पहले पढ़े लखे बेरोजगारों की बात होती थी अब उच्य शिक्षित बेरोजगारों की बात होने लगी है.

आज किसानो की आत्महत्याओं की बात हो रही है अब कर्ज दार छोटे उद्मियों ,उच्यशिक्षित बेरोजगारों की आत्महत्याओं की खबर आने लगी है.

इन सारी समस्याओं की जड़ में हरियाली का नहीं होना है सरकारें जिसके प्रती बिलकुल उदासीन हैं. उन्हें केवल और केवल पूंजीपतियों की चिंता रह गयी है. जिनसे खूब चंदा मिलता है. हम सोचते हैं सरकार हम चला रहे हैं ऐसा नहीं है सरकारें बहुरास्ट्रीय कंपनियों के हाथ में हो गयी है.

 अब बिजली जब कोयला ख़तम होने लगा ,पेट्रोल ख़तम होने लगा ,गैस कम पड़ने लगी तो अब परमाणु ऊर्जा का संकट लादा जा रहा है. जिस से लोग परमाणु बम की तरह मरने लगेंगे जैसा जापान में हो रहा है. खेतों में उत्पादन कम होने लगा तो अनुवांशिक बीजों के  नाम पर बीज कम्पनियों को लाभ पहुँचाया जा रहा है.
हरयाली और खुश्बू से भरा कुदरती बगीचा 

इन सब गैर पर्यावरणीय विकास का खामियाजा देश के  आम आदमी को भुगतना पड़ता है जो बड़ी ईमानदारी से अपना वोट दे देता है. किन्तु सवाल फिर भी उठता है कि अब जो ईमानदारी और सच्चाई के नाम पर जीत कर आयेगा वह ईमानदारी से काम करेगा और वह क्या करेगा ?

हमारा मानना है जब तक हम बेईमानी की जड़ में नहीं जाते हम बेईमानी को रोकने में नाकामयाब रहेंगे इसलिए हमे शुरुवाद ईमानदार खेती से करना पड़ेगा। ईमानदार खेती केवल कुदरती खाना ही नहीं देती है यह हरियाली भी बढ़ाती है यह कुदरती जल को भी मुहैया कराती है. एक कहावत है "जैसा खाएं अन्न वेसा होय
 मन '' यह खेती हमें ईमानदार भी बनाती है. ऋशिखेती (बिना जुताई की कुदरती खेती)  इसका जीता जागता उदाहरण है. इसमें बिना मशीन ,बिना रसायन ,बिना जुताई करे कुल ८० % खर्च कम से सर्वोत्तम खेती हो जाती है.

इसलिए इस चुनाव  में हमे ईमानदार नेताओं को चुनना जरूरी है इसका चुनाव हम नेताओं के द्वारा चुनाव में किए जा रहे खर्च से पता कर सकते हैं जो बेईमान है वह अंधाधुंध जीतने के लिए करोड़ों रूपए फूंकता दिखेगा,जो जितना अधिक खर्च करेगा वह उतना अधिक बेईमान और भ्रस्टाचारी रहेगा। दूसरा हर नेता का ये फ़र्ज़ है कि वह जनता को बताये कि वह कहाँ से पैसा इकठा कर रहे हैं. क्योंकि गुमनाम पैसा आतंकवादी और नक्सलवादी का भी हो सकता है वह बेईमान कम्पनियो का भी हो सकता है.

हमारे देश में ईमानदार लोगों की कमी नहीं है इस बार चुन चुन कर ईमानदार लोगों को जिन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा उन्हें टिकिट दिए गए हैं. इनमे जितने लोग जीत कर आएंगे हमारी ईमानदार आवाज़ को बुलंद करेंगे वो सरकार को बैईमानी नहीं करने देंगे। अभी तक पक्ष और विपक्ष मिलकर बेईमानी करते रहे हैं इस लिए हम आज हिंसात्मक विकास के जंजाल में फंस गए हैं. 

Friday, March 14, 2014

" ऋषि-खेती आल इन वन बगीचा "

 " ऋषि-खेती आल इन वन बगीचा "


कैसे बनायें ?


ज कल अनाज की खेती ,सब्जियों की खेती और फलों की खेती अलग अलग खेतों में की जाती है।  ऋषि खेती करने के लिए ये जरूरी नहीं है अनाज, सब्जी और फलों के पेड़ हम  एक साथ लगा सकते हैं. 

सन,घास आदी  का ढकाव 

असल में फसलोत्पादन में किसानो को सबसे बड़ा डर खरपतवारों और पेड़ों की छाया का रहता है.जबकि ऋषि -खेती  में पेड़ ,झाड़ियां और अनाज की फसलों में मित्रता रहती है.

गाजर घास का ढकाव 

ऋषि-खेती   करने से पहले हमे अपने खेत को पूरी तरह जुताई,चराई ,आग से सुरक्षित करने की जरुरत है. ऐसा करने से पहली बरसात में हमको बहुत वनस्पतियों मिल जाती हैं हम उनकी सहायता से बिना जुताई की आल इन वन खेती शुरू कर सकते हैं. वनस्पतियों के घनत्व को बढ़ाने के उदेश्य से बरसात के पहले खेत में असंख्य सुबबूल,सन, ढेंचा,गाजर घास  आदी  के बीज का छिड़काव करने की हम सलाह देते हैं इस से खेतों में हमको अपनी आवशयकतानुसार हरियाली का ढकाव मिल जाता है.  हरियाली के ढकाव में हम बीजों को सीधे छिड़कर इस ढकाव को जहाँ का तहां मोड़कर सुला देते हैं. इस से बीज अंकुरित होकर सोये ढकाव के ऊपर छ जाता हैं. और आराम से हमे बम्पर फसल मिल जाती है. धान ,सोयबीन ,अरहर ,बेंगन टमाटर के साथ हम २०-२० फीट की दूरी पर फलदार पेड़ भी लगा सकते हैं.

पेड़ों के नीचे ऋषी गेंहू 

 जुताई नहीं करने से खेत की जैविक खाद बहती नहीं है वरन तेजी से जैव विविधताएं पनपती हैं.जो खेत को ताकतवर और पानीदार बना देती हैं.

ताकतवर खेतों में ताकतवर फसलें पैदा होती हैं उनमे रोग नहीं लगते हैं इस लिए किसी भी प्रकार की दवाई की जरुरत नहीं रहती है.
सामान्यत: एक ५-६ सदस्यों वाले परिवार के लिए एक चौथाई एकड़ जमीन पर्याप्त रहती है. प्रत्येक परिवार के सदस्य को एवरेज एक घंटे से अधिक समय की जरुरत नहीं रहती है.
यह खेती जियो  और जीने दो के सिद्धांत पर आधारित है.

Thursday, March 13, 2014

प्रकृती के शरण और हनन की अजीब दास्तान

प्रकृती के शरण  और हनन की अजीब दास्तान 

मधु टाइटस 
 हमारे देश में आज बहुत बड़ा तबका ऐसा हो चुका है ,जो अपने जीवन को प्रकृती की शरण में जीना चाहता है या फिर ये चाहता है कि दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुएं खाद्य सामग्री ऐसी हो जो रसायन मुक्त हो या उनके उपयोग से स्वम का एवं पर्यावरण को नुक्सान  ना होता हो ,यह जागरूकता  पश्चिमी देशों पिछले  ६० वर्षों से देखी जा रही है। यह अब अत्यधिक चिंता का विषय बन चुका है कि  प्रकृति अपना मूल सवरूप खोती जा रही है।
गैर कुदरती खेती के कारण पनपते मरुस्थल 


इसके विपरीत यदी हम अपने दैनिक जीवन पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि सुबह उठकर ८-१० लीटर पानी फ्लश में बहाने से लेकर कई दैनिक वस्तुएं जैसे पेस्ट ,साबुन,खाद्य सामग्री के हमारे घरों तक पहुँचने के पीछे प्रकृति के हनन की  एक लम्बी और अजीब दास्तान छुपी हुई है। खेर नुक्सान सिर्फ प्रकृति के मूल सवरूप का ही नहीं बल्की सम्पूर्ण मानव जाती को हो रहा है।

एक ओर दैनिक जीवन में बदलाव भी लाना भी बहुत कठिन है तो दूसरी ओर प्रकृति के विनाश को रोकना भी है। हमारे दैनिक जीवन में प्राथमिकता के आधार पर देखें तो रसायन मुक्त खाद्य सामग्री प्राप्त करना प्राथमिकता में सबसे पहले है फिर पहनने के कपडे फिर अन्य दैनिक उपयोग की सामग्री जैसे साबुन,पेस्ट,बर्तन धोने के पॉवडर इत्यादी और उसके बाद जहाँ हम रहते हों, बच्चों के स्कूल हों वहाँ का वातावरण अच्छा हो ऐसा दुनिया में बहुत कम लोगों को प्राप्त होगा जो कि सभी को मिलना चाहिए।

यहाँ ख़ास तौर पर उस तबके के लोगों का जिक्र किया है जो कि आज जागरूक है और चिंता में है कि ये सारी चीजें कैसे पाप्त हों?

एक ओर है  इस तबके की चिता है तो दूसरी ओर इस चिंता की भनक बड़ी-बड़ी कम्पनीज़ को भी लग चुकी है  कम्पनीज़ अब इस चिंता को भुनाने की तैयारी में हैं। आने वाले पांच वर्षों में केमिकल फ्री , ऑर्गेनिक  लेबल लगे हुए  कई महंगे उत्पाद होंगे पर क्या ऐसा हो जाने  पर चिंता ख़तम होगी फिलहाल ये सवाल बना ही रहेगा?

अब हम उस तबके की और देखें जो कृषि आधारित है। बहुत ज्यादह समय नहीं बीता है मात्र ३० -३५ साल पहले पंजाब में आई 'हरित क्रांती' को आधार मानकर रसायन युक्त आधुनिक कृषी कही जाने वाली पद्धती  किसानो पर लाद दी गयी।
नाम है हरित क्रांती पर आग नरवाई में लगाई जा रही है। 

जिसके दुष्परिणाम अब सामने आ चुके हैं। आज सारी दुनिया में पर्यावरणीय  बदलाव के मद्दे नजर कृषी को स्थाई विकल्प देने की जरुरत है। विकल्प जो कि स्थाई हो यह एक असाधारण सवाल आज सारी दुनिया के सामने बना हुआ है।

विगत २७ सालो से पारिवारिक तौर  पर बिना जुताई  आधारित  ' प्राकृतिक खेती' से जुड़े एवं इस विषय से जुड़े रहने के अनुभव के आधार पर इस लेख को प्रस्तुत करने का उद्शेय है इस विषय पर जागरूक लोगों की संख्या बढ़ाना एवं कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करना है जिस से जागरूकता और विषय स्पस्ट हो  सके।
मधु टाइटस किसानो से बात करते हुए। 

चूंकी यह तबका जिनका  जीवन कृषी आधारित नहीं है उनकी लगभग सारी जरुरतें बाज़ार पूरी करता है।

यदी हम बाज़ार और हमारे रिश्ते का बारीकी से अध्यन करेंगे तो हम पाएंगे कि आमतौर पर एक परिवार अपनी एक निश्चित राशन के दूकान एवं निश्चित सब्जी बाज़ार या साप्ताहिक हाट बाजार या कई बार तो एक निश्चित सब्जी वाले की दूकान तक तय कर लेता है। जो कि उस परिवार की जरूरतों एवं इस परिवार के गुणवत्ता के मायनों  के आधार पर होता है। इस पहलू की और भी बारीकियां हैं जिनका ज्यादह वर्णन हमें समाज शास्त्र में देखने को नहीं मिलता है जो कि एक शोध का विषय भी है।

यहाँ इस पहलू को उजागर करने का उद्शेय यह है कि मेरा यह मानना है कि इस जागरूकता विषय को जागरूक तबका बाज़ार तक पहुंचा सकता है और छोटे -छोटे सब्जी या राशन के जरिये यह सन्देश उत्पादकों तक पहुँच कर उत्पाद को बदलने की दम रखता है।

उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश के सब्जी बाज़ारों में ४ या ५ साल पहले नासिक के गोल टमाटर की धूम थी और देशी पतले छिलके का टमाटर पूर्णतया गायब हो चुका  था पर एक दो सालों बाद एक नया टमाटर आया जो मोटे छिलके का था पर देशी की शक्ल का था. अब वापस से देशी टमाटर सब्जी बाज़ार में दिखने लगे हैं और देशी  टमाटर का भाव भी ज्यादह होता है।
सब्जियों में जहर की मात्र बहुत रहती है। 

आपने यदी सब्जी बाज़ार पर और ध्यान दिया हो तो आप पाएंगे कि दुकानदार ज्यादह ग्राहकों से देशी सम्बोधन देकर लुभाने लगे हैं। जैसे देशी धनिया,देशी बल्हर है या देशी छोटा आलू आदी ज़िस तरह आज देशी ने सब्जी बाज़ार में पैठ  की है कल 'प्राकृतिक रसायन मुक्त' भी पैठ  सकता है।

खेर किसी भी विषय पर सामाजिक बदलाव आना एक जटिल प्रक्रिया है और इसका कोई सीधा सादा रास्ता भी नहीं है।

अंतत: कुछ उदाहरण ऐसे प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिनको अपने में जीवन में उपयोग लाने  से हम कुछ हद तक अपने को एवं अपने परिवार को विषैली ,खाद्य सामग्री से बचा सकते हैं। एक बार सब्जी बाज़ार में एक सब्जी की दूकान पर बेंगन खरीदते समय दुकानदार ने मुझ से कहा भईया कोई भी उठा लो एक भी कीड़ा नहींहै   मैने  दुकानदार से कहा कि भैया जिसे कीड़ा नहीं खाता है उसे इंसान क्यों खाता है ?  और मै उसे समझते हुए दूसरी दूकान पर चल दिया।
अमरुद 
उपरोक्त उदाहरण प्रस्तुत करने का तात्पर्य यह है कि चमकदार, दोष रहित,एक से आकार की सब्जियों के लाट  से आकर्षित नहीं होना चाहिए जबकि इसका उल्टा दोषपूर्ण लाट  आड़ा -तिरछा,छोटा बड़ा इस तरह के लाटों से अपनी सब्जियों को चुने जो कि शायद कुछ हद तक जहरीली कीटनाशक दवाओं से वंचित रह गयी हों।

मौसम से पूर्व आने वाली सब्जियों को खरीदना भी बहुत खतरनाक होता है। भिन्डी,गोभी और पत्ता गोभी में बहुत  ताकतवर जहरीले रसायनो का उपयोग किया  जाता है। मौसम में आने वाली बेलाओं पर लगने वाली सब्जियों जैसे गिलकी, करेला, बल्हर कम नुक्सान देय  हो सकते हैं. स्थानीय फलों का मौसम आने पर ज्यादह सेवन करें जैसे  अमरुद, बेर ,पपीता आदी।


यदी आपके आस पास कोई ग्रामीण बाज़ार हाट हो तो कुछ जंगली फल प्राप्त किए जा सकते हैं जैसे भिलवां ,तेंदू ,अचार आदी।
कृषी में स्थाई विकल्प प्रदान करने के लिए सिर्फ किसानो का ही नहीं सभी का सहयोग वांछनीय है।

मधु टाइटस
टाइटस नेचरल फार्म
होशंगाबाद।

Tuesday, March 11, 2014

नींदों को मोड़कर की जाने वाली ऋषि-खेती

असिंचित बिना-जुताई की ऋषि-खेती 

नींदों को मोड़कर की जाने वाली ऋषि-खेती 

  खेती के लिए जमीन की जुताई प्राचीन काल से एक पवित्र काम माना जाता रहा है. किन्तु अभी मात्र कुछ सालों से जमीन की जुताई को ना खेती के लिए वरन हमारे पर्यावरण के लिए सबसे अधिक हानीकर  माना जाने लगा है. इस से खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं. मौसम बिगड़ रहा है. 
जमीन की जुताई का मूल उदेश्य नींदों की हिंसा है.
जबकी नींदे जिन्हे हम  खरपतवार कहते हैं ये असली खेती के देवता हैं. हम इन्हे भूमी ढकाव की फसलें कहते हैं. इनके ढकाव में असंख्य जीवित विविधतायें पनपती हैं जो जमीन को हवादार ,पानीदार और उर्वरक बनाती है. इस लिए आज कल इनकी हिंसा के वजाय इनकी सुरक्षा कर खेती का चलन हो गया है.
बरसात के शुरू में ये वनस्पतियां तेजी से पनपती हैं जब इनकी ऊंचाई  करीब एक दो फीट की हो जाती है इसके ढकाव में फसलों के बीजों को छिड़ककर वनस्पतियों को जहाँ का तहां मोड़कर सुला दिया जाता है. इन वनस्पतियों को इस तरह मोड़ा जाता है जिस से ये सीधे नहीं होते हैं किन्तु मरते नहीं हैं. ये मुड़ी हुई वनस्पतियां का ढकाव बहुत उपयोगी रहता है ये हरा कवर जीवित रहता है जिसके नीचे पनप रही तमाम जीवित विविधताएं भी जीवित रहती हैं जो जमीन को गहराई तक छिद्रित बना देती हैं खेतों को उर्वरकता प्रदान करती है ,बरसात के पानी को संरक्षित करती हैं तथा फसलों पर लगने वाली बीमारियों से रक्षा करती हैं जैविक खाद बनती हैं. फसलों के बीज  जमीन की ऊपरी सतह पर अनुकूल वातावरण पा कर ऊग जाते हैं. जो मुड़े कवर पर छा जाते हैं.
जुताई नहीं होने और जमीन के भीतर पानी के ले जाने वाली वाहनियों   के सुरक्षित रहने के कारण बरसात का पानी जमीन में समां जाता है तथा वह वास्प बन कर फसलों की पानी की मांग को भी पूरा करता है. कृत्रिम सिंचाई की कोई जरुरत नहीं रहती है.
  

किसी को चिंता नहीं है किसानो की 





जो थोड़ी फसल बची थी, वह भी तबाह

11march 2014. Dainik bhaskar Hoshangabad.

जो थोड़ी फसल बची थी, वह भी तबाह

आज भी बारिश-ओले गिरने की संभावना
मौसम विभाग ने मंगलवार को भी गरज-चमक के साथ बारिश की संभावना जताई है। इस दौरान कई क्षेत्रों में ओलावृष्टि भी हो सकती है। 
प्रशासन ने कहा- ऐसी ओलावृष्टि नहीं देखी
सिरोंज के एसडीएम राकेश शर्मा कहते हैं- मैंने अपनी जिंदगी में ऐसी ओलावृष्टि नहीं देखी। जिन गांवों में ओलावृष्टि हुई हैं वहां सौ फीसदी नुकसान हुआ है। कुछ मवेशी भी मारे गए हैं। नुकसान का शीघ्र सर्वे कराया जाएगा। 
असर : गेहूं और चने के दाम बढऩे लगे
बेमौसम बारिश और ओलों के कारण फसल तबाह होने के बाद गेहूं-चने के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं। मंडियों में लोकमन गेहूं के दाम पिछले एक हफ्ते में करीब 250 रु. की तेजी के साथ 1700-1900 रु. प्रति क्विंटल हो गए, जबकि चना 200-250 रु. तेज होकर 2700-2900 रु. पर पहुंच गया। जानकार मान रहे हैं कि अगले 8-10 दिनों में गेहूं में 100 रु. और चने में 300 रु. क्विंटल की तेजी आ सकती है। 
नगर संवाददातात्नभोपाल. पिछले महीने ओलावृष्टि की मार झेल चुके किसानों पर सोमवार को फिर आफत बरसी। पूरे अंचल में ओले गिरने से बची-खुची फसल भी तबाह हो गई। इस दौरान विदिशा, गुना, बैतूल, राजगढ़, सागर और दमोह जिले के कई इलाकों में ओलावृष्टि हुई। सबसे ज्यादा नुकसान विदिशा जिले के सिरोंज में हुआ। सरकार के अनुमान के अनुसार, 51 जिलों में 30 लाख हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में फसलों का नुकसान हुआ है। प्रारंभिक आकलन के अनुसार लगभग 10 हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। सरकार मंगलवार को नुकसान का मेमोरेंडम तैयार कर केंद्र सरकार को भेजेगी।
(किसी को नहीं चिंता, कैसे जल रहा उनके घर का चूल्हात्नपेज ४)
बैतूल के भोगीतेड़ा गांव में सड़क से खेतों तक ओले ही ओले 



Monday, March 10, 2014

जुताई के कारण पनपते मरुथलों को थामने की कोशिश

Sowing Seeds in Desert

 

ऋषि- खेती 

जुताई के कारण पनपता मरुस्थल  -अनार और संतरे के बगीचे सूख गए -महारास्ट्र 
जुताई ,निंदाई ,गुड़ाई के कारण फल बाग़ मरुस्थल में तब्दील हो गया है। 


मरुस्थलों को हरा भरा बनाने की योजना 
कुदरती खेती (Natural Way Of Farming)
लेखक :मासानोबू फुकुओका जापान।   अनुवादक : लॉरी कॉर्न अमेरिका।
कुछ मत करो 
जमीन की नही करना है ,थाले बनाना नहीं है ,कोई भी जैविक या रासायनिक खाद नहीं डालना है ,कोईभी केंचुआ ,गोबर,गौ मूत्र खाद या दवा नहीं ,अमृत मिट्टी ,अमृत पानी नहीं ,जीवाणु खाद नहीं ,निंदाई नहीं,जड़ों को और शाखाओं को छांटना नहीं है. कोई भी कीट या नींदा नाशक का उपयोग नहीं करना है.
कुछ करो 
पेड़ों की छाया के छेत्र में सीधे बीजों को छिड़कर हरियाली का ढकाव सब्जियों , फसलों या खरपतवारों से होना जरूरी है जिस से केंचुए ,चीटियां ,दीमक आदि वहाँ पनपे और मिट्टी को छिद्रित हवादार ,उर्वरक और पानीदार बना सकें। सूखे अवशेषों जैसे पुआल,नरवाई ,पत्तियां ,टहनियां आदि का जहाँ का तहां छोड़ दें. ये जीवित विवधताओं का खाना है इस से जैविक खाद बनती है. इस हरियाली के ढकाव
जुताई नहीं,निंदाई नहीं ,गुड़ाई नहीं फुकुओकाजी का मोसम्बी का बगीचा 
में फलदार पेड़ों के असंख्य दोस्त रहते हैं जो पेड़ों पर लगने वाले रोगों को नियंत्रित करते हैं. पेड़ों के बीच का हरियाली ढकाव हर प्रकार के पोषक तत्वों की आपूर्ती कर  देता है.

Sunday, March 9, 2014

GUJARAT REELING UNDER SEVERE DROUGHT

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GUJARAT REELING UNDER SEVERE DROUGHT

Sunday, 14 April 2013 | PTI | Rajkot

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Narendra Modi may be on a campaign selling his model of governance but Gujarat is reeling under severe drought that has left Saurashtra and Kutch regions parched and people battling odds to get even a pot of drinking water.
An estimated 10 to 15 per cent of the cash crops may have failed because of the drought this year that has come on the back of 11 normal monsoons.
The water situation in half of the state has worsened with the onset of summer as big and small water reservoirs have dried up, forcing women in rural area to travel long distances, sometimes two to three kms, everyday for water.
Modi had, in his speeches in the national capital and in Kolkata recently, made claims regarding supply of piped water for long distances, thanks to Narmada projects.
But familiar scenes of people jostling to get a bucket of water when a tanker arrives once in a while in their village or urban area are common in Kutch, Saurashtra and some northern parts of the state.
"Our children are thirsty as there is severe drinking water problem. Officials here are merely giving us hollow promises. No steps have been taken for regular supply of water by tanker to us," said Saroj Makwana, a resident of Jetpur town in Rajkot district where water is supplied every 10 days.
"Ours is the remotest area where drinking water is being supplied once in 15 days. And despite our repeated representation to local municipal officers, the condition is unchanged," said a frustrated Champaben Rabari of Amreli city.
Protests and bandhs are order of the day in affected areas. Amreli city had observed a total bandh recently on the issue of non-supply of water.    
Women taking out protest marches with empty water pots has become a common scene in affected areas.
Saurashtra, Kutch and North Gujarat had witnessed acute water scarcity in 1998 and 1999 when successive years of deficient rains had made life hell for the people of these three regions of the state.
But 11 good monsoons from 2001 to 2011 had made people forgot those years of scarcity, driving Gujarat to double digit agriculture growth.
The state government also appeared to have taken the situation lightly when the rain goods were smiling as two major projects -- Sardar Sarovar Dam on Narmada river and Kalpsar project -- conceived to solve drinking water problems of scarcity-prone regions, have not progressed as per schedule. Modi took over as the Gujarat chief minister in 2001.
Seventy-five percent of the canal network of Sardar Sarovar Project still remains to be completed by the state government, which is an impediment in taking water of big dam constructed on Narmada river to the parched lands of state, as per the data presented in the state assembly.
While the Kalpsar project was conceived to build a reservoir with dam in the Gulf of Khambhat to harness flood waters of nine rivers during the time of Keshubhai Patel government in 1998, it is still in the study stage mode even after 14 years of conceptualisation.
On March 26, Revenue Minister Anandi Patel had declared water scarcity in about 4,000 villages and towns in 10 districts of Saurashtra, Kutch and North Gujarat. However, the opposition has said this is too little, too late.
"The state government should have anticipated the situation of scarcity last June itself as many areas of Kutch and Saurashtra had deficient rain and still it has done nothing to avert the situation," says Leader of Opposition Shankarsinh Vaghela, whose Congress party has launched a 12-day 'Jal Adhikar Yatra' to highlight the water woes experienced by this region.
The government, on the other hand, has been denying the existence of water crisis. It claims it has been supplying more water to this region for the last six months and is resolved to implement on "war footing" a contingency master plan of Rs 134 crore to provide water to Saurashtra and Kutch.
Government spokesperson and Finance Minister Nitin Patel, while brushing aside Congress claims, charges opposition leaders with 'misleading' the people by 'spreading lies' on the water situation.
"We have already been providing enhanced water supply to cities like Rajkot, Jamnagar, Bhavnagar, Junagadh and Amreli," Patel said.
Narmada water and Sardar Sarovar Dam issues have also been raised by both the state BJP and opposition parties for scoring brownie points over each other.
Congress and Gujarat Parivartan Party have accused Modi government of 'inaction' to complete the construction work of the Narmada canals.
"Since 2006, the height of Sardar Sarovar Narmada Dam has reached to 121.92 meters and that was enough for the storage of water which could have been used for irrigation in 10 lakh hectare agriculture land and provide drinking water to 11,000 villages and cities, but they have not completed the canal network," Vaghela said.
However, state BJP has alleged that as the central government has been stalling the permission to raise the height of the dam to 138 meters and to build gates on the dam, people of Saurashtra and Kutch were facing acute water situation.
Rajkot, Jamnagar, Junagadh, Amreli and Bhavnagar are the worst-hit districts in Saurashtra where people are supplied water once in three to fifteen days in different areas. Around 500 villages and some towns in these areas have to depend on water supplied to them by tankers.
In Rajkot, water levels in 34 reservoirs and dams likeAaji, Nyaari, Bhadar, Setubandh, Alansagar, Machhu have receded to almost 3 per cent of its storage capacity.
Total water storage capacity of these 34 dams and reservoirs are 28,032.69 million cubic feet (MCF) whereas at present it is only 664.63 MCF there.
A similar situation exists in other districts like Amreli (8.92 per cent), Jamnagar (0.43 per cent), Junagadh (6.06 per cent), Porbandar (1.11 per cent), Bhavnagar (5.29 per cent), Surendranagar (7.15 per cent) and Kutch (14.04 per cent).
Deficient rain has also created problems for farmers and agriculture production has been hit.
"Though we are yet to ascertain production loss due to deficient rain, it must be between 15 to 20 per cent in cash crops and about 20 per cent in other crops including vegetables in Saurashtra and Kutch area," a state agriculture department official said.
He said the Rabi season has witnessed 15 per cent less sowing in comparison to the last year due to less rains.
Agriculture expert and former Director of Institute of Rural Management, Anand (IRMA) Dr Y K Alagh said "though the figure have not come out yet, if you compare the date of State Gross Domestic Product (SGDP) of previous two years, you can at least very conservatively say that because of deficient rain 15-20 per cent crop has failed in the state".