Tuesday, March 4, 2014

ईमानदार खेती की पहल

एक तिनका क्रांती 

कुदरती खेती (ऋषि-खेती) का परिचय 

The One Straw Revolution के अनुवादक /लेखक लॉरी  कॉर्न की प्रस्तावना की समीक्षा। 


लॉरी कॉर्न The One Straw Revolution के  लेखक  
मीन की जुताई और जहरीले रसायनो से होने वाली खेती भले अनेक देशों के लिए विकास का पैमाना हो सकती है किन्तु यह एक हिंसात्मक खेती है. इसके अमल से भारत जैसे खेती पर आश्रित देश को बहुत नुक्सान हो रहा है एक और जहाँ खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं वहीं किसान खेती छोड़ रहे हैं और आत्महत्या भी कर रहे हैं.

इस खेती की नक़ल अमेरिका से की गयी है. जिसके घातक परिणाम भी अमेरिका में सबसे पहले दिखाई दिए और इस का विरोध भी सबसे पहले वहीं से शुरू  हुआ है.

अमेरिका के लॉरी  कॉर्न एक समाज सेवक के रूप में जाने  जाते हैं. उन्होंने 1978 में जापान के मासानोबू फुकुओका द्वारा रचित पुस्तक "शिझेन नोहो वारा इप्पोन काकुमेई " का अंग्रेजी में अनुवाद लिखा और किताब का नाम रखा The one straw revolution  जिसे अमेरिका की जैविक खेती की प्रचारक संस्था रोडेल ने छपवाया जो वैकल्पिक खेती के रूप में दुनिया भर में बहुत प्रसिद्ध हुई है जिसके अनेक भाषा में अनुवाद छप रहे हैं.

एक तिनका क्रांती 
  लॉरी  कॉर्न बताते हैं कि दक्षिण जापान के शिकोकू द्वीप के एक छोटे से गांव में मासानोबू फुकुओका कुदरती खेती की एक ऐसी नयी विधि विकसित करने में लगे थे  जो जुताई और रसायनो से होने वाली हिंसात्मक गती को रोकने में सिद्ध हो सकती है. इस कुदरती खेती के लिए ना तो जुताई  की जरुरत होती है ना रसायनो की तथा इस खेती में कीट और खरपतवारों को मारने की जरुरत भी नहीं है. फुकुओका जी जैविक खाद का उपयोग भी नहीं करते थे . वे धान के खेतों में पानी भर कर भी नहीं रखते थे . इसके बावजूद उनकी फसल ७० साल से भी अधिक समय से सबसे अधिक उत्पादक छेत्रों से अधिक मिलती रही है. कुदरती खेती करने में एक और जहाँ लागत और श्रम की भारी बचत है वहीं पेट्रोलियम ईंधन का उपयोग नहीं होने के कारण प्रदुषण नहीं होता है.

लेरी कॉर्न  बताते हैं कि जब पहली बार उन्हें  पता चला तो  विश्वाश ही नहीं हुआ कि बिना जुताई और बिना खाद का उपयोग किए साल दर साल बढ़ते क्रम में गेंहूं और चावल का उत्पादन कैसे सम्भव है.
फुकुओकाजी  पिछले अनेक सालो से जापानी विधि से क्योतो के पहाड़ी  इलाके में सोयाबीन ,चावल ,राय ,गेंहूं ,सब्जियों और फलों की परम्परागत जैविक खेती को कर रहे थे अनेक लोग फुकुओकाजी के फार्म से उनके पास आते थे किन्तु वे फुकुओकाजी की विधि के बारे में विस्तार से नहीं बता  पाते थे. इसलिए लॉरी  कॉर्न की  जिज्ञासा फुकुओकाजी की खेती को जानने  हो गयी.
लॉरी  एक घुमक्कड़ इंसान हैं वे जब भी समय मिलता अन्य फार्मो पर स्वंसेवक के रूप में रहकर खेती को करके सीखते रहते हैं.

लॉरी  बताते हैं जब पहली बार  मेने उन्हें देखा तो विश्वाश नहीं हुआ  "एक जगप्रसिद्ध खेती का वैज्ञानिक एक खेतिहर मजदूर के तरह कपडे और जूते पहने खेतों में काम कर रहा है"  उनकी सफ़ेद हल्की दाढ़ी और आत्म विश्वाश से भरा चेहरा मुझे उनके बेहद असाधारण इंसान होने का  अहसास दिला रहा था मै  उनके फार्म पर कई माह तक रहा।
फुकुओका खेतों में काम करते हुए। 
स्वंसेवक के रूप में फुकुओकाजी  के खेतों और संतरों के बागानों में काम करते हुए मिट्टी के घरों में रहते हुए कुदरती खेती  के ' हरयाली दर्शन' को समझने का खूब मौका मिला। फार्म पर कोई भी आधुनिक  सुविधाएँ नहीं थीं पानी पास के झरनो से बाल्टी में भर कर लाना पड़ता था.खाना चूल्हों पर लकड़ियों को जलाकर पकाया जाता था. रात में रौशनी के लिए मोमबती या केरोसिन की लालटेन जलाई जाती थी.पहाड़ों पर से जंगली सब्जियां ,झरनो से मछली ,सीप और पास से समुंद्री वनस्पती मिल जाती थीं.

शिकोकू के जिस इलाके में फुकुओकाजी रहते थे वहाँ पहाड़ों पर निम्बू जाती के फल पेड़ लगाये जाते थे और नीचे मैदानी छेत्र में चावल और गेंहू की खेती होती थी. फुकुओकाजी के सवा एकड़ में गेंहूं/चावल के खेत थे और १२ एकड़ में मोसम्बी और संतरे के फलबाग थे. वैसे  अमेरिका की तुलना  में ये बहुत छोटे खेत थे किन्तु मशीनो के बिना हाथों के ओजार से काम करने के लिए इसमें भी बहुत काम रहता था.

फुकुओकाजी अपने खेतों में अधिकतर अपने साथ रहने वाले स्वम सेवकों से साथ काम करते रहते थे. इसके लिए वे सेवकों को कुछ मानदेय  भी दे देते थे. उन्हें जगह जगह से आये सेवकों के साथ काम करते करते बात करने का बहुत शौक था.

अधिकतर स्वम् सेवक जो ये समझते थे कि कुदरती खेती जंगलों में रहने जैसा है उन्हें वे समझाते  थे कि कुदरती खाद्यों का शिकार और कुदरती फसलों को पैदा करने में काफी अंतर है. यह खेती  कुदरत को मार कर खेती को करने की वजाय कुदरत के सहयोग से की जाती है.
कुदरती चावल 

अनेक मेहमान उनके यहाँ केवल एक दो पहर के लिए आते थे.किन्तु वे उन्हें भी बड़े धेर्य के साथ सब दिखाते और समझाते थे वे पहाड़ों पर बच्चों की तरह पगडंडियों पर दौड़ते चलते थे जबकी उनके पीछे मेहमान हांफते हुए चलते थे.

फुकुओकाजी ने अपना गांव सूक्ष्म वैज्ञानिक बनने के उदेश्य से छोड़ दिया था. वे फसलों में लगने वाली बीमारियों के डाक्टर बन गए और शहर की प्रयोगशाला में एक कृषी निरीक्षक के रूप में कार्य करने लगे . उनकी उम्र उस समय 25 साल की थी. इसी दौरान उन्हें कुदरती ज्ञान की प्राप्ती हुई. जिसने उनका जीवन ही बदल दिया जो  'एक तिनका क्रांती' का आंदोलन बन गया. उन्होंने नोकरी छोड़ दी और गांव में अपने खेतों पर अपने विचारों को चरितार्थ करने में जुट गए.

इस नयी विधि का विचार उन्हें तब आय़ा जब वे एक पुराने खेत से गुजर रहे थे जिस में पिछले अनेक सालो से खेती नहीं हो रही थी. वहाँ उन्हें अनेक घास और खरपतवारों के बीच कई  स्वस्थ धान  के पौधे नजर आये. उन्होंने तभी से धान की' पाम्परिक खेती' को त्याग कर कुदरती तरीके से धान के बीजों को सीधे जमीन पर छिटक कर बोना शुरू कर दिया।
कुदरती सब्जियों की खेती 

खरपतवारों से निजात पाने के लिए उन्होंने एक स्थानीय वनस्पती का सहारा लिया जो पूरे समय  जमीन पर छिछली रहती है जो दूसरी वनस्पतियों को आने नहीं देती दूसरा फसलों के अवशेषों पुआल ,नरवाई आदी को खेतों पर जहाँ का तहां डाल  देने से खेत ढके रहते हैं. घास, नींदों आदी की कोई समस्या नहीं रहती है.

जब फुकुओकाजी को इस विधि पर भरोसा हो गया तब उन्होंने खेत के कीड़े मकोड़ों को भी बचाना शुरू कर दिया इस से खेतों में कुदरती संतुलन स्थापित हो गया और फसलों की बीमारियों की समस्या भी नहीं रही.

फुकुओकाजी धान को काटने के करीब १५-20 दिन पहले खड़ी धान की फसल में गेंहूं के बीज छिड़क देते थे  जो धान  काटते समय अंकुरित हो जाते थे. धान को झाड़ लेने के बाद बचे पुआल को वे पनपते गेंहूं के नन्हे पौधों के ऊपर आड़ा ,तिरछा जहाँ का तहां फेंक देते थे. गेंहूं पुआल से बाहर निकल कर गेंहूं की सामान्य फसल मिलती है.
लॉरी कॉर्न और फुकुओकाजी कुदरती गेंहूं के खेत में 

इस प्रकार धान और गेंहूं के फसल चक्र में एक टन प्रती चौथाई एकड़ प्रति फसल का उत्पादन प्राप्त होता है. यह उत्पादन जापान की रासायनिक और परंपरागत खेती के बराबर या उस से भी अधिक  है. कुदरती फसल में अंतर यह है कि इसकी गुणवत्ता और उत्पादकता सब से अधिक रहती है. मिट्टी की उर्वराशक्ती और जलधारण शक्ती में लगातार वृद्धी होती है.

फुकुओकाजी के फल के बागानों में भी वे जमीन  की जुताई खाद आदी का इस्तमाल नहीं करते थे. नाही वे अपने फलदार वृक्षों की टहनियों की छटाई की जाती है. सब्जियों की खेती में भी
कुदरती संतरों से लदे फल के पेड़ 

फुकुओकाजी सीधे बीजों का छिड़काव कर उगाते रहे हैं. खरपतवारों के नियंत्रण और हरी खाद के लिए वे स्थानीय दलहन वनसपतियों को यहाँ वहाँ उगाते रहते थे.
कुदरती खेती किसी भी धार्मिक या संगठन से प्रेरित खेती नहीं है. किन्तु फुकुओकाजी के दर्शन में भगवान् बुद्ध के दर्शन का गहरा प्रभाव है. पर वे अपनी बात को सिद्ध करने के लिए हर धर्मशास्त्र  के उदाहरण देते हैं इस से उनका सम्बन्ध कुदरती खेती को धार्मिक लोगों के दिलों में बैठाना है. वे मानते हैं कि कुदरती खेती व्यक्ती की अध्यात्मिक सोच से सम्बंधित है. कुदरती खेती और आराधना एक ही काम है.

आज जब रासायनिक खेती के जहरीले प्रभाव सामने आने लगे हैं दुनिया भर में वैकल्पिक खेती की खोज होने लगी है इसमें फुकुओकाजी का स्थान सबसे ऊपर है. इस किताब  के प्रकाशन के बाद पूरी दुनिया में कुदरती खेती के प्रती रुची बढ़ी है.

हमने अपने खेतों में पिछले २७ सालो से  हल नहीं चलाया है नहीं किसी जैविक और रासायनिक खाद खेतों में डाला है नहीं हमने खरपतवारों और कीड़ों को मारने  के लिए किसी जहर का प्रयोग किया है. ये सही है कि हमे फुकुओकाजी की विधी को स्थानीय फसलों के चक्र में ढालने में काफी समय लगा है. ऐसा सीधे मार्ग दर्शन की कमी के कारण हुआ है. किन्तु आज हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि इस विधि की भारतीय खेती किसानी को बचाने में अहम् भूमिका है.

यह एक इमानदार खेती है.

शालिनी एवं राजू टाइटस
ऋषि-खेती किसान
होशंगाबाद। मप. rajuktitus@gmail.com. mob.09179738049
461001.











                                                                                                                                                                                                                                                                                                               

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