Monday, January 30, 2012

Update From Ranchi


It has been just over a month since the first workshop that Raju Ji organized. The day was nicely broken up into classroom style teaching (using black board and slide projector to show pictures from Raju Ji's working farm). And the kids got to get their hands dirty (literally), making the seed balls and planting them in a strip of land next to their conventional garden.

With a little bit of care and watering, the seeds have now sprouted, and there are green shoots coming up from under the straw. More than the plants, Raju Ji definitely inspired several people in the area, who are now eager to visit his working farm, and learn how to do this on a larger scale on their own farms. There are preparations under way to organize a trip from Ranchi to Hoshangabad sometime in April.
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Green shoots breaking through the straw covering. The seeds were planted on Dec. 20, 2011. The pictures are from Jan. 30, 2012. There was an effort to water the plants, and then the weather helped by pouring some late winter rains.

Saturday, January 28, 2012

एक तिनके से आयी क्रांति

एक तिनके से आयी क्रांति
  दुनिया भर में इन दिनों बिना जुताई की खेती की चर्चा है. एक जमाना था जब जमीन की जुताई एक पवित्र काम माना जाता था. किन्तु इस के कारण हमारा पर्यावरण नस्ट हो रहा है और किसान आत्म हत्या कर रहे हैं. इस लिए ये काम महापाप में तब्दील हो रहा है. होशंगाबाद .म.प्र. में इस कारण खेत और किसान दोनों मर रहे हैं. ये गंभीर चिंता का विषय है.
   बहुत कम किसान ये जानते हैं की हमारी मिट्टी ही असली खाद है. इस को जोतने खोदने से ये खाद बह जाती है या गेस में तब्दील हो कर उड़ जाती है. बखरी बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड में तब्दील हो जाती है जिस से जमीन में रहने वाली तमाम जैव विविधताएँ जैसे केंचुए, चूहे आदि के घर मिट जाते हैं जिस से पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ खाद को भी बहा कर ले जाता है.
      अधिकतर किसान ये सोचते हैं की जमीन की घट रही ताकत के पीछे रसायनों का उपयोग है,   जैविक खाद बनाकर डालने से समस्या का हल हो जयेगा  किन्तु उन्हें मालूम नहीं है की एक बार की जमीन की जुताई करने से जमीन की आधी ताकत नस्ट हो जाती है. किसानो की गरीबी का मूल कारण जमीन की जुताई है. होशंगाबाद बाबई का सरकारी फार्म हो या रसूलिया का गेर सरकारी फार्म सब इस कारण घाटे में चल रहे हैं. बड़े बड़े किसान भी खेती में हो रहे घाटे के कारण कर्ज से नहीं उबर प़ा रहे हैं. किसानो की आत्म हत्या एक गंभीर समस्या बन गयी है.
    महिलाओं और बच्चों में कुपोषण भी इसी कारण है. जब धरती मां भूखी रहेगी तो उस के बच्चों का पेट कैसे भरेगा.
  भारत में बिना जुताई की खेती का चलन आदिवासी अंचलों में अभी भी देखा जा सकता है.परम्परागत देशी खेती किसानी में जिस में गोसंवर्धन किया जाता था ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिस में किसान जमीन को जोते बगेर खेती करते हैं. वे हलकी जुताई कर जमीन की ताकत और नमी को संरक्षित करते थे. जुताई के कारण कमजोर होती जमीन को चारागाह से बदल लेते थे. जिस से एक और जहाँ पशुधन संवर्धित रहता था और कमजोर होती जमीन सुधर जाती थी.
   बिना जुताई की कुदरती खेती का अविष्कार जापान के जग प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक स्व. मस्नोबू फुकुओकाजी ने किया है.जिनके अनुभवों की किताब "एक तिनके से आयी क्रांति "भारत में इन दिनों बहुत धूम मचा रही है.
  भारत में मस्नोबू फुकुओकाजी का परिचय फ्रेंड्स रुरल सेंटर रसूलिया होशंगाबाद म.प्र. में इस केंद्र के भूतपूर्व समन्वयक श्री परताप अग्रवालजी ने ७०-80 के दशक में कराया था.जिस के कारण फुकुओकाजी को भारत सरकार के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधीजी ने देशिकोत्तम से सम्मानित किया था. इसी समय वे रसूलिया में भी पधारे थे उस समय उन्होंने उन्होंने बिना जुताई की कुदरती खेती को तीन साल से कर रहे टाइटस फार्म को देख कर उसे "विश्व न. वन" से नवाजा था तब से आज तक ये फार्म इस विधा को करने और इसके प्रचार प्रसार को करने में न.वन है. इस के कारण एक तिनके से उठी क्रांति सब से पहले अमेरिका पहुंची जहाँ इन दिनों अनेक किसान इस विधा को बिना जुताई की जैविक खेती के नाम से की जाने लगी है. अमेरिका में रोडाल्स इस का प्रणेता है. जिन्होंने इसे बिना रसायन मशीन से करने का बहुत ही आसान तरीका इजाद किया है. जिस से बिना जुताई ,बिना सिंचाई, बिना रसायन उत्तम खेती ८०% खर्च कम में होने लगी है. इस खेती के कारण खेती से दूर जा रहे बच्चे खेती किसानी में लोटने लगे हैं. सूखे से बर्बाद होती जमीने पानीदार ताकतवर हो गयी हैं. म.प्र.सरकार ने भी रासयनिक खेती से परेशान होकर अब जैविक खेती की नीति बनाई है.किन्तु इस में सफलता बिना जुताई की जैविक खेती से ही संभव है. जब तक हम जुताई से बहने और उड़ने वाले जैविक खाद को नहीं रोकते हम गिरते भू जल को नहीं थाम सकते हैं. और जब तक हम अपनी जमीनों को पानीदार ताकतवर नहीं बनाते हम कुपोषण और किसानो की आत्म हत्या को नहीं रोक सकते हैं.

  


Monday, January 9, 2012

बिना जुताई की कुदरति खेती के मसीहा मसनेबु फुकुओका !


          बिना जुताई की कुदरति खेती के मसीहा मसनेबु फुकुओका !
 जापान मे जन्मे ,पढ़े और बढ़े तथा एक माइक्रोबायलाजिस्ट कृषि वैज्ञानिक के रुप मे ख्याति अर्जित करने के बाद एक कुदरति किसान के रुप मे खूब नाम कमा कर अब 95 वर्ष की उर्म मे मसनेबु फुकुओका ने अपना जीवन त्याग दिया। फुकुओकाजी एक ऐसे कृषि वैज्ञानिक थे जिन्होने न सिर्फ आधुनिक वैज्ञानिक खेती को वरन् तमाम जुताई पर आधारित खेती करने के तरीकों को हमारे पर्यावरण ,स्वास्थ ,और खाद्य सुरक्षा के प्रतिकूल निरुपित कर दिया।
 उन्होने बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना निन्दाई ,बिना दवाइयों से दुनिया भर मे सबसे अधिक उत्पादकता एवं गुणवत्ता वाली खेती की न सिर्फ खोज की वरन् उसे लगातार पचास सालों तक स्वयं कर मौज़ूदा वैज्ञानिक खेती को कटघरे मे खड़ा कर दिया।उन्होने जापान मे उंची पहाडि़यों पर संतरों का कुदरति बगीचा बनाया जिसमे अनेक फलों के साथ साथ अनेक प्रकार की सब्जियां बिना कुछ किये मौसमी खरपतवारों की तरह पैदा होती हैं। पहाडि़यों के नीचे वे धान के खेतो मे बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना रोपा लगाये ,बिना पानी भरे एक चैथाई एकड़ से एक टन चांवल आसानी से 50 सालों तक लेते रहे, इतना नहीं धान की खड़ी फसलों मे गेहूं के बीजों को छिटककर वे इतना गेहूं भी लेते रहे। उनके कुदरति अनाजों मे इतनी ताकत है कि इनके सेवन मात्र से केंसर भी ठीक हो जाता है।

 वे सच्चे अहिंसावादी थे। जिस समय वे एक सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक के रुप मे सूक्ष्मदर्शी यंत्रो का उपयोग कर धान के पौधों मे लगने वाली बीमारियों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्होंने यह पता चला कि आज का विज्ञान बीमारियों की रोकथाम के लिये सूक्ष्मजीवाणुओं को दोषी मानकर उनकी अनावश्यक हत्या करता है। जबकि ये सूक्ष्मजीवाणु ही असली निर्माता हैं।उनकी बिना जुताई की कुंदरति खेती का यही आधार है।उन्होने मिटटी के एक कण को बहुत बड़ा कर देखकर यह पाया कि मिटटी अनेक सूक्ष्मजीवाणुओं का समूह है। इसे जोतने ,हांकने बखरने या ेंइसमे रासायनिक खादों को डालने ,खरपतवार नाशकों को डालने ,कीटनाशकों को छिड़कने या कीचड़ आदी मचाने से आंखों से दिखाई न देने वाले अंसख्य सूक्ष्मजीवों की हत्या होती है।यह सबसे बड़ी हिंसा है।
   सन 1988 जनवरी जब वे हमारे खेतों मे पधारे थे तब उन्होने बताया था कि जमीन को बखरने से बखरी हुई बारीक उपरी सतह की मिटटी थोड़ी बरसात होने पर कीचड़ मे तब्दील हेा जाती है जो बरसात के पानी के पानी को भीतर नहीं जाने देती बरसात का पानी तेजी से बहने लगता है साथ मे बहुमूल्य उपरी सतह की मिटटी(खाद) को भी बहा ले जाता है।कृषि वैज्ञानिकों का यह कहना कि फसलें खाद खाती हैं अैार पानी पी जाती हैं यह भ्रान्ति है। जुताई के कारण होने वाले भू एवं जल क्षरण के कारण ही खेत खाद और पानी मांगते हैं।
 फुकुओकी जी के 25 सालों के अनुभव की किताब दि वन स्ट्रा रिवोलूशन दुनिया भर मे बहुत पसदं की गई इस किताब को अनेक भाषाओं मे छापा जा रहा है। स्ट्रासे उनका तात्पर्य मूलतः नरवाई या धान के पुआल से है। दुनिया भर मे अधिकतर किसान इसे जला देते हैं या खेतों से हटा देते हैं। उनका कहना है कि यदि इसे जलाने कि अपेक्षा किसान इसे खेतों मे जहां कि तहां फैला दें तो इसके अनेक लाभ हैं। पहला नरवाई के ढकाव के नीचे असंख्य केचुए आदी जमा हो जाते हैं जो बहुत गहराई तक भूमी को पोला कर देते हैं आज तक कोई भी ऐसी मशीन नहीं बनी है जो इस काम को कर सकती है।इसके दो फायदे हैं एक तो बरसात का पानी बह कर खेतों से बाहर नहीे निकलता है दूसरे फसलों की जड़ों को पसरने मे आसानी हाती है।दूसरा यह ढकाव सड़ कर खेतों को उत्तम जरुरी जैविक अशं दे देता है। तीसरा इसमे फसलों की बीमारियों के कीड़ों के दुश्मन रहते हैं जिससे फसलें बीमार नहीं पड़ती। चैथा ढकाव की छाया के कारण खरपतवारों के बीज अंकुरित नहीं होते जिससे खरपतवारों की कोई समस्या नहीे रहती है।निन्दाई गैर जरुरी हो जाती है।
      जब वे हमारे खेतों पर पधारे थे उस समय हम नेचरल फार्मिंग के मात्र तीसरे बर्ष मे थे. और अब तक दी वन स्ट्रा रिवोल्सन . के अलावा हमारा कोई गाइड नहीं था। वह तो बरसात के दिनों मे एक अनायास प्रयोग हमसे हो गया ।हमने सोयाबीन के कुछ दानों को जमीन पर छिटकर उस पर प्याल की मल्चिगं कर दी ,मात्र 4 दिनो बाद हमने देखा कि सोयाबीन बिलकुल बखरे खेतों के माफिक उग कर प्याल के उपर निकल आई है। बस हम खुशी से फूले नहीे समाये हमे बिना जुताई कुदरति खेती करने का तरीका मिल गया था। बिना जुताई की कुदरति खेती करने से पूर्व हम अपने खेतों मे गहरी जुताई ,भारी सिंचाई ,कृषि रसायनों पर आधारित खेती का अभ्यास करते थे, जिससे हमारे खेत मरुस्थल मे और हम कंगाली की कगार तक पहुंच गये थे। हमारे खेत कांस घांस से भर गये थे,कांस घांस एक ऐसी घास है जिसकी जड़ें 25 फीट से 30 फीट तक की गहराई तक फैल जाती हैं जिस के कारण कोई भी खेती करना मुश्किल रहता है।

हमने पहले बरसात मे कांस घास को बढ़ने दिया फिर ठण्ड के मौसम मे खडी घांस मे दलहन जाती के बीजों जैसे चना ,मसूर ,मटर ,तिवड़ा ,बरसीम आदी के बीजों को छिटकर ,घास को काटकर जहां का तहां आड़ा तिरछा फैला दिया और स्प्रिंकलर से सिंचाई कर दी। ठीक हमारे प्रयोग की तरह पूरा खेत फसलों से लहलहा उठा। हालाकि हम फुकुओका विधी से अभी काफी दूर थे इसलिये उनके आगमन से काफी डरे हुए थे। किन्तु जब उन्होंने हमारे खेत मे इस विधी से खेती करते देखा तो उन्होने कहा कि मै अभी अमेरिका से आ रहा हूं ,वहां की करीब तीन चैथाई भूमी मे यह घास छा गई है ,जिसमे अब खेती नहीं की जाती है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम है कि क्या करें? यह घास जुताई के कारण पनपते रेगीस्तानों की निशानी है। चूंकि आप यहां इस घास मे कुदरति खेती कर रहे हैं इसलिये हम आपको हमारे द्वारा दुनिया भर मे चल रहे प्रयोगों मे न. वन देते हैं, किन्तु अभी आपको केवल 60 प्रतिशत ही नम्बर मिलेंगे क्योंकि अभी आपको बहुत कुछ सीखने की जरुरत है। पर यदि आप ठीक ऐसा ही करते रहे तो आप आराम से बिना कुछ किये जीवन बिता सकते हैं।

और आज हमे अपने गुरु के वे शब्द याद आते हैं हमारे खेत पूरे हरे भरे घने पेड़ों से भर गये हैं। ये खेत नहीं रहे वरन वर्षा वन बन गये हैं।इससे हमे वह सब मिल रहा है जो जरुरी है।जैसे कुदरति हवा ,जल ,ईंधन ,आहार और आराम।

आज की दुनिया मे हम भारी कुदरति कमि मे जीवन यापन कर रहे हैं। सूखा और बाढ़ आम हो गया है। केंसर जैसी अनेक लाइलाज बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। धरती पर बढ़ती गर्मी और मौसम की बेरुखी से पूरी दुनिया परेशान है। गरीबी ,बेरोजगारी मुसीबत बन गये हैं। भारत मे हजारेंा किसान आत्म हत्या करने लगे हैं लोग खेती किसानी को छोड़ भाग रहे हैं। इन सब समस्याओं के पीछे खेती मे हो रही जमीन की जुताई का प्राथमिक दोष है। जुताई के कारण हरे भरे वन ,चारागाह ,बाग बगीचे सब अनाज के खेतों मे तब्दील हो रहे हैं ,तथा खेत मरुस्थल मे तब्दील हो रहे हैं। हरियाली गायब होती जा रही है। गरीबों को जलाने का ईधन और पीने का पानी नसीब नहीं हो रहा है।

ऐसे मे बिना जुताई की कुदरति खेती के अलावा हमारे पास और कोई उपाय नहीे है। अमेरिका मे अब बिना जुताई की कनज़र्वेटिव खेती और बिना जुताई की आरगेनिकखेती जड़ जमाने लगी है। 37 प्रतिशत से अधिक किसान इस खेती को करके खेती किसानी के व्यवसाय को बचाने मे अच्छा योगदान कर रहे हैं। यह सब फुकुओका की देन है। हमारे देश मे पशुपालन आधारित खेती हजारों साल स्थाई रही किन्तु जुताई के अनावश्यक कार्य के कारण बेलों की जगह ट्रेक्टरों ने ले ली इस कारण पालतू पशु और चारा लुप्त हो रहे हैं। किसान गेहूं की नरवाई और कीमती धान के पुआल को जला देते हैं। आधुनिक बिना जुताई की खेती पिछली फसल से बची खड़ी नरवाई मे सीधे बिना जुताई की सीड ड्रिल का उपयोग कर की जाती है। बिना जुताई की आरगेनिक खेतीकरने के लिये किसान खड़ी नरवाई या हरे मल्च को रोलर ड्रम की सहायता से मोड़ देते हैं।फिर उसमे बिना जुताई की सीड ड्रिल से बुआई कर देते हैं। ऐसा करने से जहां 80 प्रतिशत खर्च मे कमि आती है वहीं उत्पादन और गुणवत्ता मे भी लाभ होता है। आजकल बिना जुताई की खेती करने वाले किसानों को कार्बन के्रडिट के माध्यम से अनुदान भी मुहैया कराया जाने लगा है।

फुकुओका जी से हमारी आखिरी मुलाकात सन 1999 मंे सेवाग्राम मे हुई थी वे वहां वे अपने सहयोगियों की सहायता से सीड बालबनाकर बताते हुए अपनी बात कहते जा रहे थे उन्होने बताया कि तनज़ानिया के रेगिस्तानों को हरा भरा बनाने मे ये मिटटी की गोलियां बहुत उपयोगी सिघ्द हुईं हैं। आज यदि गांधी जी होते तो वे जरुर चरखे के साथ मिटटी की बीज गोलियों से खेती करते। एक ई-ेमंेल से पता चला है कि उनके अतिंम संस्कार के समय उनके पोते ने कहा कि उनके दादा ने लोगो के मनो मे सीड बालबोने का काम कर दिया है बस उनके अंकुरित होने का इन्तजार है।

दुनिया भर मे आज हो रही हिसां के पीछे हमारी सभ्यताओं का बहुत बड़ा हाथ है फुकुओका जी का कहना है कि शांति का मार्ग ’’हरियाली ’’ के पास है। वे कुदरत को ही भगवान मानते थे। वे अकर्म’ (डू नथिंग) के अनुयाई थे।

शालिनी एवं राजू टाईटस
 बिना जुताई की कुदरति खेती के किसान
 ग्राम- खोजनपुर  ,होशंगाबाद ,म.प्र. 461001

ई-मेल तंरनाजपजने/हउंपसण्बवउ

Tuesday, January 3, 2012

GROWING RICE IN WEEDS.

खरपतवारों से करें धान की खेती. - https://docs.google.com/open?id=1apF-69e6VUoe6ZNgLhhnmi8ePNq8K67duCIk186tQ6S32TQPk4PK0XT1hDzS

केंसर का भूत

केंसर का भूत - https://docs.google.com/document/d/1WDL2kwv-e2zQEbePycwIbI0xIwm_7Km65QaaPS2KFJ4/edit

NMM Newsletter - Jan 2012

NMM Newsletter - Jan 2012.pdf - https://docs.google.com/open?id=1fewfhs1GTiK9jtK5Xu8E8ptGl5U1J48Db9kcKGqADJnHlQk2odD8qmQ8i2hT

SLIDE SHOW GROWING WHEAT IN STRAW.

BERWA FARM MODIFIED PPW - https://docs.google.com/present/edit?id=0AUAvUuuHMx_GZGZmems5NGpfMTUwaGI5cDRzY2o

GROWING NATURAL CROPS WITH THE HELP OF WEEDS.

                                 खरपतवारों की दोस्ती से करें खेती
                                           बिना जुताई,खाद,दवाई और निंदाई की कुदरती खेती

 
     कुदरती हवा, पानी ,खाद ,चारा, फल, सब्जी, और अनाज  पैदा करें बिना कुछ किये  
         
                              गाजर घास Parthenium                                                  सन हेम्प                       
                                         
जारो सालों से खेती खरपतवारों को मार कर की जारही है किन्तु अफ़सोस की बात है की खरपतवार नहीं वरन अब किसान ही मरने लगे है. जो दवाई वे कीड़े मकोड़ों और नींदों को मारने के लिए खरीद कर लाते हैं खुद पी कर  आत्म हत्या करने लगे हैं.
    भारतीय प्राचीन खेती किसानी में खेती जमीन को पड़ती कर उपजाऊ और पानीदार बनाईं जाती थी. पड़ती करने से जमीन पूरी तरह अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों से ढँक जाती थीं इस ढकाव में अनेक धरती में रहने वाले जीव जंतु सक्रीय हो जाते हैं वे बहुत जल्दी जमीन को छिद्रित, उर्वरक और पानीदार बना देते हैं.
      काँस घास जुताई के कारण फेलती है इसकी जड़े २५-३० फीट नीचे तक चली जाती हैं इसकी दोस्ती से खेती करने से ये    चली जाती है.

   भारत में आज भी ऋषि पंचमी के पर्व में काँस घास की पूजा होती है तथा बिना जुताई पैदा हुए अनाजों को फलाहार के रूप में खाने की हिदायत दी जाती है. काँस घास खेतों में जुताई के कारण पनपते मरुस्थल की निशानी है. वो बताती है की खेत अब मुरदार होकर सूखने लगे हैं.इस लिए जब किसान अपने खेतों में काँस घास को फूलता देखते थे जुताई बंद कर दिया करते थे इस से खेत अपने आप वहां पैदा होने वाली अनेक भूमि ढकाव की वनस्पतियों से ढक जाते थे जिस से वे जल्द ही उर्वरक और पानीदार हो जाते थे.
     किन्तु जबसे भारत में आधुनिक जैविक और अजैविक खेती का विज्ञानं आया इस खेती को भुला दिया गया और गेर कुदरती सिंचाई, खाद और दवाइयों के बल पर खेती  की जाने लगी.  जुताई से होने वाले नुकसान को बिलकुल नजर अंदाज कर दिया गया.  जिसे  जापान के माननीय श्री मसनोबू फुकुओका जी ने पुन: जीवित कर दिया तब से जैविक और अजैविक खेती की पद्धतियों में उनका बोरिया बिस्तर लिपटने के डर से हडकंप मचा है.

            दी वन स्ट्रा रिवोलुसन के लेखक श्री लेरी कोर्न और कुदरती खेती के अविष्कारक  श्री मस्नोबू फुकुओका
हम पिछले २५ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं इस से पहले हम आधुनिक वैज्ञानिक खेती का अभ्यास करते थे इस से पूर्व हमारे यहाँ देशी खेती होती थी. चूंकि हमने जीव विज्ञानं में पढाई किया था इस लिए हम भी आयातित "हरित क्रांति" के चक्कर में फंस गए थे . जिस से हमारे खेत बंजर हो गए थे और हम कर्जों में फंस गए. किन्तु जापान के श्री फुकुओका जी के अनुभवों पर आधारित किताब  "एक तिनके से आई क्रांति" (अंग्रेजी ) ने हमारी ऑंखें खोल दीं.
   तब से लेकर आज तक हमने खेतों में एक बार भी हल या बखर नहीं चलाया नाही किसी भी प्रकार की मानव निर्मित खाद और दवा का उपयोग किया. तब से आज तक हमने कभी अपने खेतों में खद,पानी की कमी और नींदों /बीमारी के कीड़ों का प्रकोप नहीं देखा है.ताकतवर खेतों में हमेशा ताकतवर फसल पैदा होती हैं इस लिए नींदों और कीड़ों का कोई प्रकोप नहीं रहता है. खेतों में कुदरती संतुलन बन जाता है.
  हालाकि हमें जापानी कुदरती खेती को जानकारी के अभाव में अपने यहाँ सफल बनाने में अनेक साल लगे.ऐसा गाइड के अभाव में रहा. किन्तु अब हमारे मार्ग दर्शन में ये विधा भारत में फल फूल रही है. हाल ही में रतलाम जिले के एक किसान ने ५ एकड़ में सन हेम्प और गाजर घास के भूमि ढकाव में सिचित गेंहूं पैदा कर हळ चल मचा दी है. पहले साल में पहली फसल ने सब को पीछे छोड़ दिया.
  हमने अपने यहाँ पैदा होने वाले अनेक कुदरती वनस्पतियों के ढकाव में कुदरती फसलों को बार बार पैदा कर इतने प्रयोग किये हैं की शायद ही फुकुओका जी के बाद  दुनिया में किसी और ने कियें होंगे. इन प्रयोगों में बिफल्ताओं से हमने बहुत सीखा है. इस खेती में असली गुरु क़ुदरत है.
ये खेती मूलत: जुताई के बिना की जाती है क्यों की ट्रेक्टरों से की जाने वाली जुताई के कारण बखरी बारीक मिटटी पानी से कीचड़ में तब्दील हो जाती जिस से बरसात का पानी जमीन में ना जाकर तेजी से बहता है. अपने साथ उपरी खाद को भी बहा कर ले जाती है. खेत भूके और प्यासे हो जाते हैं. जुताई नहीं करने से केंचुए ,चूहे आदि के घर सुरक्षित रहते हैं बरसात का पानी खेतो में समां जाता है वो बहता नहीं है इस से खाद का बहना भी पूरी तरह रुक जाता है. खेत में खाद और पानी की मांग खतम हो जाती है. कुदरती संतुलन के कारण नींदों और कीड़ों की बीमारी नहीं आती है.

इस खेती को करना बहुत आसान है जमीन को आसपास सुलभता से मिलने वाली कोई भी वनस्पति से ढँक  लीजिये जैसे गाजर घास, सुबबूल,सन हेम्प,राजगीर आदि. इस ढकाव में हम जो बोना चाहते हैं जैसे धान ,सोयाबीन, अरहर,ज्वार आदि के एकल या मिश्रित बीजों को छिड़क देने से ये खेतों में मोसम अनुसार उगने लगते हैं . इन्हें वनस्पतियों से बाहर निकालने के लिए मूल ढकाव को काट या मोड़ भर देने से खेती हो जाती है. क़ुदरत का नियम है वो अपनी जमीन जो  असंख्य जीव जंतु का घर है को बचाने के लिए उसे ढांकना चाहती है.किन्तु हम किसान लोग उसे ये काम नहीं करने देते है इस से ये जीव जंतु म़र जाते हैं खेत मरू हो जाते हैं. जमीन के ढँक मात्र जाने से इन जीव जंतुओं का बड़ी तेजी से विकास होता है. कोई भी मानव निर्मित रासायनिक या गेर रासायनिक खाद या उर्वरक ये काम नहीं कर सकता है .
     सन हेम्प और गाजर घास के भूमि ढकाव में पैदा किया गया गेंहूं किसान श्री मोहनलाल पिरोदिया रतलाम म.प्र.
   जब से रासयनिक खादों,कीटनाशको ,खरपतवार नाशकों के दुष्परिणाम सामने आये हैं. तब से गोबर और गो मूत्र से जीव जंतुओं को बढाने की कवायत तेज हो गयी है प्राम्भिक अवस्था में परिणाम मिलना जायज है किन्तु  जुताई के कारण जीव जंतुओं की होने वाली हत्या के कारण के कारण समस्या जहाँ की तहां पहुँच जाती है.
   भारत एक कृषि प्रधान देश है इसमें खेती और पशु पालन में चोली दामन का साथ है. जुताई करने से तेजी से हरयाली नस्ट हो रही है इस लिए पशु आहार बहुत  बड़ी समस्या बन गया है. एक गाय का पालना  भी किसानों के लिए मुस्किल हो गया है. बिना जुताई की खेती पेडों के साथ की जाती है.
चारे के दलहनी  पेड़ एक और जहाँ खेतों को खाद प्रदान करते हैं वहीँ वे पशु आहार भी उपलब्ध करते हैं. जैसे सुबबूल. किन्तु जुताई वाली खेती में ये संभव नहीं है क्यों की जुताई से छाया का असर होता है फसल ख़राब हो जाती है. इस खेती में अनाज ,सब्जी, फल ,दूध हम ले सकते हैं किन्तु सभी खेती के अवशेषों जैसे पुआल,नरवाई,गोबर ,मल् मूत्र सभी को जहाँ का तहां वापस कर दिया जाता है जिस से फसलों के उत्पादन और गुणवत्ता में बढ़ता लाभ मिलता है. ऐसा करने के लिए हम बायो गेस प्लांट का सहारा लेते हैं. जिसमे तमाम पदार्थों को डाल कर खेत में लोटाना आसान हो जाता है साथ में जलाने के लिए गेस भी मिल जाती है.

              सुबबूल जमीन से जितना उपर रहता है अपनी छाया के छेत्र में नत्रजन,पानी,चारा,और ईंधन देता है.
   ये ऐसी खेती की तकनीक है जिस में खरीफ और रबी दोनों मोसम में फसल उत्पादन का एक सा तरीका रहता है. धान की खेती के लिए गडडे बनाना,कीचड़ मचाना, रोपे लगाना, खेतों में पानी भर के रखना गलत माना गया है.

        धान की कटाई और गहाई के बाद गेंहूं के बीजों को बिखराकर पुआल से ढँक भर देने से बोने का  काम पूरा हो            जाता है ये गेंहू इसी तरीके से श्री बेरवा फार्म मंदी दीप में पैदा किया गया है.

  रबी की फसल के लिए सिचित खेती के लिए बीओं को छिटक कर खेती के अवशेषों को जहाँ का तहां आडा तिरछा डाल दिया जाता है.
   असिचित खेती में पहले कुदरती भूमि ढकाव को बढ़ने दिया जाता है करीब १०" का होने के बाद इस ढकाव में सीधे अनेक बीजों का छिडकाव कर हरे ढकाव को हंसिये की मदद से काटकर जहाँ का तहां डाल दिया जाता है.
या मोड़ दिया जाता है.
      बड़ी जोत के लिए मशीनों से चलने वाली बिना जुताई की बोने की मशीन और क्रिम्पर रोलर की मदद ली जाती है. ऐसा करने से एक और जहाँ बरसात का पानी खेतों में समां जाता है वो वास्प बन ऊपर आने लगता है जो ठन्डे हरे ढकाव में सिचाई का काम करता है. ये विधि असिचित इलाकों में जहाँ आधुनिक वैज्ञानिक खेती बिलकुल नाकाम सिद्ध हुई है बहुत सफल हो रही है बम्पर उत्पादन मिल रहा है.

                 
बिना जुताई की जैविक खेती इस विधि को अमेरिका के रोडाल्स संस्था ने विकसित किया है ये तरीका सूखे से निपटने में बहुत कामयाब हुआ है. एकबार ट्रेक्टर को चलाने से बोने का काम पूरा हो जाता है आगे से हरे भूमि ढकाव को सुला दिया जाता है पीछे से बिना जुताई करे बोने की मशीन से बोनी हो जाती है . बम्पर उत्पादन मिल रहा है. बरसात बढ़ रही है भूजल भी बढ़ रहा है .




राजू टाइटस
बिना जुताई की खेती के किसान
होशंगाबाद म.प्र.

GROWING WHEAT WITH RICE STRAW

                        धान के पुआल से करें बिना जुताई की कुदरती खेती.
                                               जुताई, खाद और दवाई के बिना खेती

 श्री बेरवा फार्म मंडीदीप म.प्र.में धान के पुआल में पैदा किया गया गेंहूं की पहली फसल है. श्री आर.एन. बेरवाजी सेवानिर्व्त I.A.S. अधिकारी हैं जिन्होंने म.प्र.के अनेक महत्व पूर्ण पदों पर अपनी सेवाये दी हैं. इन दिनों महू इंदोर म.प्र. के अम्बेडकर विज्ञानं संस्थान में डिरेक्टर के पद पर काम कर रहे हैं. बिना जुताई की कुदरती खेती के प्रति समप्रित हैं.

          तवा कमांड के छेत्र में आज कल धान की खेती का चलन बढ़ने लगा है किसान बड़ी बड़ी मशीन से खेतों को समतल बनवाकर चारोँ तरफ मेड बनाने का काम करवा रहे हैं. वे हर साल धान के पुआल को जला देते हैं. समतलीकरन और पुआल को जलाने के कारण खेत कमजोर हो रहे हैं इस लिए धान और गेंहूं दोनों का उत्पादन तेजी से घट रहा है. रासयनिक/जैविक खाद, कीट/खरपतवार नाशकों का अँधा धुंद खर्च बढ़ रहा है. लागत अधिक होने से मुनाफा घट रहा है.
  हम पिछले २६ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती के अभ्यास और प्रचार में लगे है. हम धान  के पुआल को जलाते नहीं है वरन बिना जुताई करे गेंहूं के बीजों को बिखराकर  उस के उपर धान के पुआल को आडा तिरछा ढँक देते हैं. सामान्य तरीके से सिंचाई कर देते हैं. जिस से गेंहूं के बीज उग कर सूर्य की रोशनी के सहारे ऊपर आ जाते हैं.
  ऐसा करने से पुआल के ढकाव में अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु पैदा हो जाते हैं जो जमीन को बहुत गहराई तक छिद्रित ,उर्वरक और पानीदार बना देते हैं. जिस में बिना मानव निर्मित खाद, दवा के पहले ही साल से  जुताई ,खाद दवाई वाली खेती से अधिक उत्पादन मिलता है. ये ढकाव एक और जहाँ जल के संरक्षण का काम करता है वहीँ फसल को बीमारी के कीड़ों से बचाता है इस में अनेक फसल की बीमारी के कीड़ों के दुश्मन निवास करने लगते हैं जिस से रोग लगते ही नहीं हैं.
  दूसरी ओर पुआल के ढकाव में काम करने वाले अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े  और सूक्ष्म जीवाणु जमीन को ताकतवर बना देते हैं जिसमे ताकतवर फसल तयार होती है जिस में रोग निरोध शक्ति का संचार हो जाता है .कुदरती संतुलन और ताकतवर जमीन के रहने से बिना जुताई की कुदरती खेती में फसलों के रोग की कोई समस्या देखने को नहीं मिलती है.
  किसान वर्षों से जमीन की जुताई को एक पवित्र काम मानकर करता आया है वो ये इस लिए करता है क्यों की वो अपनी फसल के अलावा किसी भी पोधे को अपनी फसल के साथ देख नहीं सकता उसे डर रहता है की कहीं मेरी फसल का खाना ये ना खा ले. दूसरा वो समझता है की ऐसा करने से जमीन छिद्रित होती है किन्तु ये भ्रान्ति है कोई पौधा जमीन से कुछ भी नहीं लेता है वरन वो जमीन को देता है इनकी जड़ो से जमीन छिद्रित होती है हर पौधे के मित्र पौधे होते हैं जो एक दूसरे को सहायता देते है.
  जब भी खेती करने के लिए जमीन को जोतकर बखरा जाता है बखरी बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिलकर कीचड़ बन जाती है ये कीचड़ बरसात के पानी को जमीन के अंदर नहीं जाने देती है. इस लिए पानी तेजी से बहता है साथ में जमीन की उपरी  खाद मिट्टी को बहा कर ले जाता है. जिस से खेत भूके और प्यासे हो जाते हैं. एक और बात है जमीन के अंदर की जैविक खाद जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते है ये जुताई से गेस में तब्दील हो कर उड़ जाती है जो बाद में धरती के गरम होने और मोसम परिवर्तन में सहयक होती है.
 अधिकतर लोग समझते हैं की जमीन के कमजोर  होने का कारण रासायनिक खाद और दवा हैं इस लिए यदि हम गेररासयनिक खाद और दवा का उपयोग करेंगे तो समस्या नहीं रहेगी ये भ्रान्ति है. क्यों की एक बार जमीन को जोतने से उसकी आधी ताकत नस्ट हो जाती है हर साल भूमिछरण  से ५ से १५ टन खाद मिट्टी  खेतों  से बहकर चली  जाती है.
जमीन में खाद और पानी का चोली दामन का साथ रहता है. बेपानी जमीन रेगिस्तान में तब्दील हो जाती है. आज कल घटते भू जल का यही कारण है.
किन्तु जमीन को नहीं जोतने से जमीन अनेक केंचुओं आदि के कारण इतनी छिद्रित हो जाती है की बरसात का पानी  पूरा  जमीन में समां  जाता है. जुताई करने से छिद्रियता  नस्ट हो जाती है  पानी जमीन में ना जाकर बहता है साथ में खाद मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है.
 जुताई वाली जैविक ओर अजैविक खेती में पेडों के साथ दोस्ती नहीं रहती है देखा ये गया है की पेडों की छाया में फसल कमजोर हो जाती है ऐसा जमीन की जुताई आने वाली कमजोरी के कारण होता है बिना जुताई की खेती में पेडों के साथ  दोस्ती रहती है.
  भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमे खेती और पशु पालन का  भी चोली दामन का साथ रहा है. दूध सबसे अधिक स्वास्थवर्धक आहार के रूप में जाना जाता है. किन्तु जुताई में जबसे मशीनों को चलन शुरू हुआ है तबसे जंगल ओर चारागाह सब के सब अनाज की खेती के खातिर नस्ट होने लगे हैं. बाग़ बगीचे भी नस्ट हो रहे हैं. किन्तु बिना जुताई की कुदरती  खेती में चारे ओर फलों के पेडों के साथ अनाज और सब्जी की खेती भी आसानी से हो जाती है. समतलीकरण और धान की खेती के लिए मेड बनाना गेर जरुरी बल्कि हानीकारक सिद्ध हुआ है. धान की खेती में पानी भर कर नहीं रखा जाता है.
 भारत में जबसे रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव दिखाई देने लगे है तबसे जुताई आधारित जैविक खेती की बात होने लगी है. इस में जुताई कर गोबर और गो मूत्र की खाद से खेती करने की सलाह दी जाती है किन्तु जुताई से होने वाले भूमि,जल और जैव- विवधताओं के छरण को नजर अंदाज कर दिया जाता है. किसान ट्रेक्टर से जमीनों की जुताई करते हैं और बाजार से शहरी दूषित कचरों से बनी खाद खरीद कर डालते हैं. पुआल नरवाई आदि को जला देते हैं. इस में जुताई के कारण खेत भूके और प्यासे ही रह जाते हैं इस लिए इनसे प्राप्त आहार भी रोगजनित ही पाए जाते हैं. इसी प्रकार विदेशों में होने वाली ओर्गानिक खेती है ये भी गोबर,मुगियों की बीट, सूअर के मल् आदि को ठिकाने लगाने के लिए की जाती है. बहुत बड़े भूभाग से ओरगनिक पदार्थों को इकठा कर थोड़ी सी जमीन में ये खेती की जाती है इसका आधार भी ओरगनिक पदार्थों का शोषण है.
  भारतीय परंपरागत खेती में किसान हलकी जुताई करते थे और कमजोर होते खेतों को बिना जुताई कर ठीक लिया करते थे. दलहनी फसलों और हरी खाद का इस्तमाल होता था. आज भी ऐसी खेती को अनेक आदिवासी अंचलों में देखा जा सकता है.
शालिनी और राजू टाइटस
बिना जुताई की कुदरती खेती के किसान

GANDHI KHETI

                                          गाँधी खेती 
                                          सत्य और अहिंसा पर आधारित खेती
" आज यदि गांधीजी जीवित होते तो वो चरखे की तरह  क्ले मिटटी से बीज गोलियां बनाते और सिखाते  "
               मसनोबु  फुकुकोका (1999 सेवाग्राम )



  मारे इन खेतों को देखिये ये अनगिनत  पेड़ों से ढके हैं. जिस में अधिकतर बबूल जाती के दलहनी पेड़ों के साथ फलदार पेड़ भी लगे हैं. सुबबूल के दलहनी पेड़ों से हमारे पशुओं के लिए साल भर का चारा मिल जाता है. तथा  हमें पकाने  के लिए इंधन मिलता है. बचे अतिरक्त इंधन को हम बाजार से आधी कीमत में हमारे आस पास रहने वालों लोगो को खेतों से सीधे बेच देते हैं जिस से  कमसे कम १५ हजार रु. प्रति माह  तक आमदनी भी हो जाती है. गरीब लोगों को खाने के लिए अनाज तो मिल जाता है पर सरकार ने उनके लिए पकाने के इंधन का कोई इंतजाम नहीं किया है. इस इंधन से उनकी कम से कम एक दिन की मजदूरी बच जाती है. दूध फल अनाज सब्जी भी हमें यंहा से हमारे परिवार के लिए प्राप्त हो जाता है. ये हमारे ऋषि खेत हैं. इस खेती को हम ऋषि खेती (गाँधी खेती)  कहते हैं. इन खेतों में पिछले २५ सालों से जुताई नहीं की गयी है ना ही  इसमें किसी भी प्रकार के मानव निर्मित खाद का उपयोग किया गया है. ना ही इस में कीड़ों और नींदों को मारने के लिए कोई भी काम किया जाता है. ये पूरीतरह कुदरती सत्य पर आधारित अहिंसात्मक खेती है. ये असली "कुदरती हरित क्रांति" है. ये दूसरी आज़ादी की शुरुवाद है.
  अब जरा एक नजर वैज्ञानिक हरित क्रांति की ओर डालिए अनाज की वैज्ञानिक इस खेती ने तमाम कुदरती वन, .बाग़ बगीचे और स्थाई चरागाहों को रेगिस्थान में बदल दिया है और बदलते जा रही है. सूखा, बाढ़ ,गर्मी,प्रदूषित आहार,किसानो की मौत , बढती बीमारियाँ, बेरोजगारी,नक्सलवाद आदि सब इस की देन है. ये दूसरी गुलामी है. जो हमने पैदा की है. अब इस से मुक्ति पाने का एक मात्र रास्ता "कुदरती हरित क्रांति " का ही बचा है.
  हमारे ये खेत और खेती पूरी तरह आत्म निर्भर हैं.  ये सरकारी अनुदान,कर्ज से मुक्त हैं. कुछ बची कुची टहनियों की लकड़ियों  जिनकी पत्तियों को पशुओं को चारा दिया जाता है को छोड़कर. हम सब कृषि अवशेषों को खेतों में जहाँ से लेते हैं वहीँ लोटा देते हैं. वैज्ञानिक खेती की तरह हम इन्हें जलाते नहीं हैं. जुताई नहीं करने से हमारे खेतों की खाद  बहकर खेतों से बाहर नहीं जाती  है.ना ही वह वैज्ञानिक खेती की तरह ग्रीन गैस बन कर उडती है. इस प्रकार जुताई नहीं करने के कारण खेतों में बने केंचुओं. चूहों आदि के घर नहीं टूटते हैं जिस से बरसात का पानी खेतों में समां जाता है. जिस से हर साल हमारे खेतों के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ रहा है. भरी गर्मी में जहाँ हमारे कुए लबालब रहते हैं वहीँ हमारे पड़ोसियों के खेतों के कुए बरसात में भी खाली रहने लगे हैं. ऋषि खेती केवल अनाज की खेती नहीं है इस से एक और जहाँ कुदरती हवा  और पानी मिलता है. ये धरती पर बढ़ रही गर्मी को कम करने और मोसम को नियंत्रण करने भी सहयोग करती है.
फ़ोटो:
 वैज्ञानिक अनाज की खेती में अब किसानो को हर साल गहरी जुताई करनी पड़ती है ओर धान का पुआल, नरवाई आदि को जलाना पड़ता है. जिस से खेत तेजी से उतर  रहे  हैं. इस लिए रासयनिक उर्वरकों, कीट/ खरपतवार नाशकों, ओक्सिटोसीन जैसे खतरनाक टोनिकों का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है.. संकर बीज अब नाकाम होने लगे हैं इस लिए जी ऍम बीज आ रहे हैं. जिस से अब ये अनाज खाने लायक ही नहीं रहे है इस लिए ये गोदामों में सड़ रहे हैं.
 अधिकतर लोग सोचते है की असली समस्या रसायनों से है इस लिए इनके बदले जैविक खाद दवायों का उपयोग करने से समस्या का समाधान  हो जायेगा ये भ्रान्ति है. असली नुकसान जमीन की जुताई से होता है. १० से १५ टन जैविक खाद हर साल एक एकड़ खेत से बह/उड़  जाती है. जुताई नहीं करने से हर एकड़ खेत से इतनी खाद बच जाती है की बाहरी खाद की कोई जरुरत नहीं रहती है.खेती के अवशेषों को जहाँ का तहां वापस कर देने से अगली फसल के लिए भरपूर खाद मिल जाती है.  खेतों में खरपतवार ओर कीड़ों की बीमारी खेतों के कमजोर हो जाने से आती है ताकतवर खेतों में ताकतवर फसल पैदा होती है इस लिए खरपतवार ओर कीड़ों की कोई समस्या नहीं रहती है.
धन्यवाद

शालिनी और राजू टाइटस
कुदरती खेती के किसान
होशंगाबाद. म.प्र. ४६१००१ फ़ो.09179738049  ईमेल- rajuktitus @gmail .com.
  

Monday, January 2, 2012

No Till ‘Friendly Farming’: A Quaker Perspective

No Till ‘Friendly Farming’: A Quaker Perspective

The Friends’ philosophy developed to fulfill a global vision of peace, which encompasses a shared, sustainable future for all of us. This peace is impossible to imagine without considering our interactions with our environment. One of the biggest impacts on our environment stems from our farming practices, namely the tilling of land. Tilling destroys the greenery of the land, as well as the delicate structure created by earthworms and other organisms. Water falling on this soil flows fast and furious, taking with it the organic nutrients, and leaving the land hungry, thirsty and weakened. Furthermore, tilling hastens the oxidation of the carbonaceous organic matter, further contributing to global warming and climate change (http://www.ars.usda.gov/is/pr/2004/040831.htm).

There are many examples in India’s history where farmers paid attention to the damage caused by tilling of the land. They would stop farming on sections of the land to let the land recover from the impact of tilling. However, the large scale commercialization of agriculture has put an end to such sustainability practices, and large stretches of land are being transformed into deserts (http://www.adb.org/environment/desertification.asp). This has lead to large scale scarcity in natural soil, water, food and fuel. Lack of greenery is choking the very air out of our breath.

Coaxing a weak harvest from a sick soil requires heavy use of chemical fertilizers and pesticides, which are further poisoning our environment. The poison spreads from the land to our food, and ultimately to our body, making us sick, and causing cancer epidemics. Anaemia in women, infant death, lung disease in children, high blood pressure, blood sugar, obesity, and malnutrition are the gifts of this unsustainable agricultural practice. The flavors have vanished from our food. This is why we look for exotic flavors, which leads to further imbalance in our bodies.

The conventional tilling based agriculture is now a losing proposition for the farmers. He is tied to the post, going around a circle of increasing hardship and low return for his efforts. The poverty is pushing many farmers in Madhya Pradesh (in central India) to suicide.

Starting in the 1970’s, the Friends Rural Center of Rasulia had established a model for the Green Revolution, which quickly lead to its downfall. The Friends of the meeting then undertook ‘Friendly Farming’ as its way of life, which not only helped them recover as a community, but also made them a topic of conversation in conservation circles the world over. A big part of this fame is due to following the footsteps of Japan’s Masanobu Fukuoka. His philosophy of no till agriculture, summed up in his famous ‘One Straw Revolution’, stands out as a masterpiece of conservation literature. It is impossible to read this book and not be influenced and transformed. It radically changes our thinking, from viewing tilling as a sacred act of farming to a grave environmental crime.

As I was born to a Friend family, I became a member of the Friends’ circle. This organization was established by Friends, to serve the world according the the Friends’ philosophy. Through my association with this organization, I was able to carry out the No Till Farming methodology in my fields, and over the last 25 years, I have been able to save my fields from the path of destruction. Today, my farm ranks as one of the best Natural Farms in the world, and I owe it all to my Friends who introduced me to Fukuoka’s No Till Farming. This is a true Friendly Farming. Just as true Friends have a natural love towards their own self, they have a similar love for their soil. Braking the runaway soil helps absorb and retain the moisture in the soil, which further helps in rainfall. Every grain of soil comes alive. Under a microscope, there is nothing but life in every part of the soil. This is why the soil is our mother, mother earth. No Till Friendly farming is a non-violent form of agriculture, which is the first step towards a sustainable global peace.

This No Till practice is being adopted in many developed countries, where No Till is practiced in both Chemical and Organic farms. Farmers dependent on chemicals are slowly turning away from them. Helping conserve the earthworms’ homes pay rich dividends, making the conservation financially viable. This is being implemented along the Gangetic valley as well.

I am grateful that I was saved by the No Till Friendly Farming. And I want that whoever is associated with farming, discover and be saved by this practice. Recently, my friend Kaushik visited from the US to introduce this Friendly Farming practice to Bharat Sevashram and Ramakrishna Mission in Ranchi. He introduced me to these organizations, and invited me to teach the principles of Friendly Farming to them. He wants to try this out to make a Gurukul style school run by Bharat Sevashram to become self-sufficient in their food needs. Another effort is at Ramakrishna Missions TB Sanatorium, to help the patients heal better with natural food. I believe that the lack of natural food, water and air has contributed to our ill health. I am grateful to Kaushik for his invitation and efforts in this direction. I would like him to translate this letter, and take it to Friends in the US, so that our Quaker Friends in the US can learn about our efforts and get involved. This farming has been called Rishi Kheti, Natural Farming, or Friendly Farming in India.

I feel that this form of Friendly Farming can be viewed as another manifestation of ‘Alternate to Violence Project’. This is another gift of service of the Quakers to the world, which has made significant contributions to world peace.

Raju Titus
Hoshangabad. M.P .India
(Translation By Kousik Katari)

NATURAL FARMING WORK SHOP IN HARIYANA (HINDI)

कुदरती खेती कार्यशाला
१०,११,१२ दिसम्बर कनालसी  गाँव यमुनानगर हरियाणा
आयोजक पीस संस्था दिल्ली
द्वारा -राजू टाइटस कुदरती खेती के किसान ,होशंगाबाद,म.प्र.
उपस्थित- नदी मित्र मंडलियाँ  (किसान) ६० से अधिक
   श्री मनोज जी इस कार्यशाला के मुख्य स्रोत हैं. वे IFS सेवानिवृत हैं. तथा पर्यावरण के जानकार हैं .अनेक वर्ष उन्होंने सरकारी वन विभाग में सेवाएं दी हैं. उनकी संस्था का नाम पीस है. वे हरियाणा में यमुना को बचाने के लिए काम करते हैं. इसी लिए उन्होंने नदी मित्रों  की मंडलियाँ बनाई हैं जो अनेक प्रदेशों में काम कर रही हैं. इन्ही मित्रों के साथ मिलकर ये कार्य शाला आयोजित की गयी थी.
    इस में सोच ये है की नदियों का  जन्म और उनका पोषण आसपास के पर्यावरण से होता है जिस में अधिकतर जुताई आधारित खेत हैं जो इस में बाधक हैं. इस लिए भूमिगत जल,कुओं नालो और नदियों में जल का स्तर तेजी से गिर रहा है. जहाँ दो हाथ पर पानी मिल जाया करता था वहां अब बोर करने की मशीनों से भी पानी नहीं मिल रहा है. मिल भी रहा है तो उसे पाने के लिए बहुत बिजली या तेल की जरुरत है. अधिक लागत के कारण किसान गरीब हो रहे हैं. खेती पानी के बिना संभव नहीं है. खेतों में पानी नहीं तो खाद भी नहीं और फसल भी नहीं. अधिकतर लोग सोचते हैं की छोटे बड़े बांध बना कर, तालाब बनाकर हम पानी को बचा सकते हैं. किन्तु जुताई कर के खेती करने से पानी की  मांग बढ़ते क्रम में रहती है. जिसे  टिकाऊ तरीके से पूरा करना ना मुमकिन है.
     कुदरती खेती जुताई के बिना की जाती है जिस से बरसात का पानी खेतों के द्वारा सोख लिया जाता है. जिस से लगातार भूमिगत जल का स्तर बढ़ता जाता है.पानी की मांग घटते क्रम रहती है जिसे आसानी से छोड़ा जा सकता है. खेतों का ये पानी फसलों के अलावा कुए,नदी के जल की आपूर्ति करता है वही ये बरसात भी करवाता है.
         बिना जुताई किये खेती करने से खेतों की ऊपरी सतह  पर जमा खाद खेतों में ही जमा होती रहती है तथा हम खेती के अवशेषों को जहाँ से लेते हैं वहीँ   छोड़ देते हैं जिस से खेत ताकतवर हो जाते हैं जिस से गुणवत्ता और उत्पादन दोनों बढ़ते क्रम में मिलते हैं. खेती की लागत में ८०% खर्च कम आता है.
     पूरे तीन दिन इसी विषय पर चर्चा रही. जिसे अनेक किसानो  ने बहुत सराहा तथा अनेक किसानो ने इसे करने का संकल्प लिए. जिस गाँव में ये कार्य शाला आयोजित की गयी थी उस में किसान पेडों के साथ अनाज की भी खेती करते हैं. इस लिए वे समझदार और धनि हैं. जो परिवर्तन  कर आसानी से यमुना नदी को बचाने में सहयोग प्रदान करेंगे इस में कोई दो राय नहीं है. आखरी दिन इस बात की चर्चा रही की कौन कहाँ  और कैसे इस खेती को करेगा. अनेक किसानो ने खेती को करने का संकल्प लिया. इस कार्य शाला के अंत में छोटे बच्चों के साथ चर्चा की गयी जिस में उन्होंने बड़े किसानो से कहीं अधिक रूचि दिखाई और जब उन से पूछा गया की आप कुदरती खेती कर सकते हो तो उन्होंने कहाँ हम कर सकते हैं. और वे तुरंत बीज गोलिओं को बनाने लगे.
         पूरी रिपोर्ट श्री मनोज मिश्रा
yamunajiye@gmail.com से प्राप्त की जा सकती है.

DEEP TILLING IS RESPONSIBLE FOR UNSUSTAINABLE DEVELOPMENT.

गहरी जुताई आधारित खेती के कारण अवरुद्ध है विकास.
        मध्य भारत में जब सोयाबीन की खेती आयी थी किसानो के जीवन में रोनक आ गयी थी . उनदिनों  सोयाबीन आसानी से एक एकड़ में दो टन तक पैदा हो जाता था  इसके खल चूरे के नियार्त से किसानो की अच्छी कमाई हो रही थी इस कारण बाजार में र्भी रोनक आ गयी थी. उन दिनों इसे " काला सोना " कहा जाने लगा था. किन्तु मात्र कुछ सालों के अंदर सोयाबीन का उत्पादन घट कर २० किलो तक आ गया है.  ऐसा खेती में की जारही गहरी जुताई और नरवाई जलाने के कारण हो रहा है. सोयाबीन एक दलहनी फसल है हर दलहनी फसल जमीन में कुदरती नत्रजन सप्लाई करने का काम करती है. दलहन जाती का हर  पौधा जमीन से जितना ऊपर होता है उसकी छाया  के छेत्र में कुदरती नत्रजन सप्लाई करने का काम करता है. इस नत्रजन के सहारे गेंहूं का उत्पादन भी आसानी से दो टन प्रति एकड़ मिल जाता था. किन्तु आज क़ल ये भी तेजी से घट रहा है. आज इस का ओसत उत्पादन घट कर ६ से ८ क्विंटल रह गया है. वो दिन दूर नहीं जब ये सोयबीन की तरह हो जाये.
    खेती करने के लिए की जारही गहरी जुताई बहुत घातक है. वैज्ञानिकों ने पता लगाया है की एक बार की जमीन की गहरी जुताई करने से खेतों की आधी ताकत नस्ट हो जाती है. खेतों में जुताई करने से एक और जहाँ बरसात का पानी जमीन नहीं जाता वहीं ये तेजी से बहता है जो अपने साथ खेत की खाद को भी बहा कर ले जाता है. असल में ऐसा जुताई के कारण खेत की छिद्रियता के मिट जाने के कारण होता है. ये छिद्रियता केंचुओं, चूहों जैसे अनेक जीव जंतुओं के द्वारा उत्पन्न होती है.
अमेरिका के नब्रासका छेत्र  में करीब ५० % किसान बिना जुताई करे सोयाबीन की खेती करते हैं जिस से उनका उत्पादन हर साल बढ़ रहा है जिस से वहां एक और किसान मालामाल  हो रहे हैं वहीँ सूखे की समस्या का भी अंत हो गया. किसानो के बच्चे शहर छोड़ खेती किसानी में लोटने लगे हैं.
  वैज्ञानिकों ने ये भी पता किया है जब खेतों को जोता जाता है तब खेतों की जैविक खाद (कार्बन ) गेस बन कर उड़ जाता है. जो ग्लोबल वार्मिंग और मोसम परिवर्तन की समस्या को उत्पन्न करती है. बिना जुताई की खेती करने से खेतों का कार्बन यानि जैविक खाद खेतों में ही रहती है. इस से फसलो का उत्पादन बढ़ता है और पर्यावरण भी ठीक रहता है.
  हम पिछले २५ सालों से बिना जुताई की की खेती कर रहे हैं और उस से बहुत लाभ कमा रहे हैं हमारा मानना है की की यदि सही टिकाऊ विकास करना है तो बिना जुताई की खेती उसकी पहली सीढ़ी है. बिना जुताई की सोयाबीन की खेती आज भी किसानो को मालामाल कर सकती है जिस ना केवल किसानो में रोनक लोटेगी वरन हमारा बाजार भी खूब फलेगा और फूलेगा. बिना जुताई की खेती करने में ८०% लागत कम हो जाती है. किसान खरपतवारों को क्रिम्पर रोलर की सहायता से जमीन में सुलादेते तथा बिना जुताई की बोने की मशीन से बोनी कर देते हैं. कर देते है. ये दोनों काम एक साथ एक चक्कर में हो जाते हैं.