Tuesday, January 3, 2012

GANDHI KHETI

                                          गाँधी खेती 
                                          सत्य और अहिंसा पर आधारित खेती
" आज यदि गांधीजी जीवित होते तो वो चरखे की तरह  क्ले मिटटी से बीज गोलियां बनाते और सिखाते  "
               मसनोबु  फुकुकोका (1999 सेवाग्राम )



  मारे इन खेतों को देखिये ये अनगिनत  पेड़ों से ढके हैं. जिस में अधिकतर बबूल जाती के दलहनी पेड़ों के साथ फलदार पेड़ भी लगे हैं. सुबबूल के दलहनी पेड़ों से हमारे पशुओं के लिए साल भर का चारा मिल जाता है. तथा  हमें पकाने  के लिए इंधन मिलता है. बचे अतिरक्त इंधन को हम बाजार से आधी कीमत में हमारे आस पास रहने वालों लोगो को खेतों से सीधे बेच देते हैं जिस से  कमसे कम १५ हजार रु. प्रति माह  तक आमदनी भी हो जाती है. गरीब लोगों को खाने के लिए अनाज तो मिल जाता है पर सरकार ने उनके लिए पकाने के इंधन का कोई इंतजाम नहीं किया है. इस इंधन से उनकी कम से कम एक दिन की मजदूरी बच जाती है. दूध फल अनाज सब्जी भी हमें यंहा से हमारे परिवार के लिए प्राप्त हो जाता है. ये हमारे ऋषि खेत हैं. इस खेती को हम ऋषि खेती (गाँधी खेती)  कहते हैं. इन खेतों में पिछले २५ सालों से जुताई नहीं की गयी है ना ही  इसमें किसी भी प्रकार के मानव निर्मित खाद का उपयोग किया गया है. ना ही इस में कीड़ों और नींदों को मारने के लिए कोई भी काम किया जाता है. ये पूरीतरह कुदरती सत्य पर आधारित अहिंसात्मक खेती है. ये असली "कुदरती हरित क्रांति" है. ये दूसरी आज़ादी की शुरुवाद है.
  अब जरा एक नजर वैज्ञानिक हरित क्रांति की ओर डालिए अनाज की वैज्ञानिक इस खेती ने तमाम कुदरती वन, .बाग़ बगीचे और स्थाई चरागाहों को रेगिस्थान में बदल दिया है और बदलते जा रही है. सूखा, बाढ़ ,गर्मी,प्रदूषित आहार,किसानो की मौत , बढती बीमारियाँ, बेरोजगारी,नक्सलवाद आदि सब इस की देन है. ये दूसरी गुलामी है. जो हमने पैदा की है. अब इस से मुक्ति पाने का एक मात्र रास्ता "कुदरती हरित क्रांति " का ही बचा है.
  हमारे ये खेत और खेती पूरी तरह आत्म निर्भर हैं.  ये सरकारी अनुदान,कर्ज से मुक्त हैं. कुछ बची कुची टहनियों की लकड़ियों  जिनकी पत्तियों को पशुओं को चारा दिया जाता है को छोड़कर. हम सब कृषि अवशेषों को खेतों में जहाँ से लेते हैं वहीँ लोटा देते हैं. वैज्ञानिक खेती की तरह हम इन्हें जलाते नहीं हैं. जुताई नहीं करने से हमारे खेतों की खाद  बहकर खेतों से बाहर नहीं जाती  है.ना ही वह वैज्ञानिक खेती की तरह ग्रीन गैस बन कर उडती है. इस प्रकार जुताई नहीं करने के कारण खेतों में बने केंचुओं. चूहों आदि के घर नहीं टूटते हैं जिस से बरसात का पानी खेतों में समां जाता है. जिस से हर साल हमारे खेतों के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ रहा है. भरी गर्मी में जहाँ हमारे कुए लबालब रहते हैं वहीँ हमारे पड़ोसियों के खेतों के कुए बरसात में भी खाली रहने लगे हैं. ऋषि खेती केवल अनाज की खेती नहीं है इस से एक और जहाँ कुदरती हवा  और पानी मिलता है. ये धरती पर बढ़ रही गर्मी को कम करने और मोसम को नियंत्रण करने भी सहयोग करती है.
फ़ोटो:
 वैज्ञानिक अनाज की खेती में अब किसानो को हर साल गहरी जुताई करनी पड़ती है ओर धान का पुआल, नरवाई आदि को जलाना पड़ता है. जिस से खेत तेजी से उतर  रहे  हैं. इस लिए रासयनिक उर्वरकों, कीट/ खरपतवार नाशकों, ओक्सिटोसीन जैसे खतरनाक टोनिकों का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है.. संकर बीज अब नाकाम होने लगे हैं इस लिए जी ऍम बीज आ रहे हैं. जिस से अब ये अनाज खाने लायक ही नहीं रहे है इस लिए ये गोदामों में सड़ रहे हैं.
 अधिकतर लोग सोचते है की असली समस्या रसायनों से है इस लिए इनके बदले जैविक खाद दवायों का उपयोग करने से समस्या का समाधान  हो जायेगा ये भ्रान्ति है. असली नुकसान जमीन की जुताई से होता है. १० से १५ टन जैविक खाद हर साल एक एकड़ खेत से बह/उड़  जाती है. जुताई नहीं करने से हर एकड़ खेत से इतनी खाद बच जाती है की बाहरी खाद की कोई जरुरत नहीं रहती है.खेती के अवशेषों को जहाँ का तहां वापस कर देने से अगली फसल के लिए भरपूर खाद मिल जाती है.  खेतों में खरपतवार ओर कीड़ों की बीमारी खेतों के कमजोर हो जाने से आती है ताकतवर खेतों में ताकतवर फसल पैदा होती है इस लिए खरपतवार ओर कीड़ों की कोई समस्या नहीं रहती है.
धन्यवाद

शालिनी और राजू टाइटस
कुदरती खेती के किसान
होशंगाबाद. म.प्र. ४६१००१ फ़ो.09179738049  ईमेल- rajuktitus @gmail .com.
  

1 comment:

Unknown said...

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