धान के पुआल से करें बिना जुताई की कुदरती खेती.
जुताई, खाद और दवाई के बिना खेती
श्री बेरवा फार्म मंडीदीप म.प्र.में धान के पुआल में पैदा किया गया गेंहूं की पहली फसल है. श्री आर.एन. बेरवाजी सेवानिर्व्त I.A.S. अधिकारी हैं जिन्होंने म.प्र.के अनेक महत्व पूर्ण पदों पर अपनी सेवाये दी हैं. इन दिनों महू इंदोर म.प्र. के अम्बेडकर विज्ञानं संस्थान में डिरेक्टर के पद पर काम कर रहे हैं. बिना जुताई की कुदरती खेती के प्रति समप्रित हैं.
तवा कमांड के छेत्र में आज कल धान की खेती का चलन बढ़ने लगा है किसान बड़ी बड़ी मशीन से खेतों को समतल बनवाकर चारोँ तरफ मेड बनाने का काम करवा रहे हैं. वे हर साल धान के पुआल को जला देते हैं. समतलीकरन और पुआल को जलाने के कारण खेत कमजोर हो रहे हैं इस लिए धान और गेंहूं दोनों का उत्पादन तेजी से घट रहा है. रासयनिक/जैविक खाद, कीट/खरपतवार नाशकों का अँधा धुंद खर्च बढ़ रहा है. लागत अधिक होने से मुनाफा घट रहा है.
हम पिछले २६ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती के अभ्यास और प्रचार में लगे है. हम धान के पुआल को जलाते नहीं है वरन बिना जुताई करे गेंहूं के बीजों को बिखराकर उस के उपर धान के पुआल को आडा तिरछा ढँक देते हैं. सामान्य तरीके से सिंचाई कर देते हैं. जिस से गेंहूं के बीज उग कर सूर्य की रोशनी के सहारे ऊपर आ जाते हैं.
ऐसा करने से पुआल के ढकाव में अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु पैदा हो जाते हैं जो जमीन को बहुत गहराई तक छिद्रित ,उर्वरक और पानीदार बना देते हैं. जिस में बिना मानव निर्मित खाद, दवा के पहले ही साल से जुताई ,खाद दवाई वाली खेती से अधिक उत्पादन मिलता है. ये ढकाव एक और जहाँ जल के संरक्षण का काम करता है वहीँ फसल को बीमारी के कीड़ों से बचाता है इस में अनेक फसल की बीमारी के कीड़ों के दुश्मन निवास करने लगते हैं जिस से रोग लगते ही नहीं हैं.
दूसरी ओर पुआल के ढकाव में काम करने वाले अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु जमीन को ताकतवर बना देते हैं जिसमे ताकतवर फसल तयार होती है जिस में रोग निरोध शक्ति का संचार हो जाता है .कुदरती संतुलन और ताकतवर जमीन के रहने से बिना जुताई की कुदरती खेती में फसलों के रोग की कोई समस्या देखने को नहीं मिलती है.
किसान वर्षों से जमीन की जुताई को एक पवित्र काम मानकर करता आया है वो ये इस लिए करता है क्यों की वो अपनी फसल के अलावा किसी भी पोधे को अपनी फसल के साथ देख नहीं सकता उसे डर रहता है की कहीं मेरी फसल का खाना ये ना खा ले. दूसरा वो समझता है की ऐसा करने से जमीन छिद्रित होती है किन्तु ये भ्रान्ति है कोई पौधा जमीन से कुछ भी नहीं लेता है वरन वो जमीन को देता है इनकी जड़ो से जमीन छिद्रित होती है हर पौधे के मित्र पौधे होते हैं जो एक दूसरे को सहायता देते है.
जब भी खेती करने के लिए जमीन को जोतकर बखरा जाता है बखरी बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिलकर कीचड़ बन जाती है ये कीचड़ बरसात के पानी को जमीन के अंदर नहीं जाने देती है. इस लिए पानी तेजी से बहता है साथ में जमीन की उपरी खाद मिट्टी को बहा कर ले जाता है. जिस से खेत भूके और प्यासे हो जाते हैं. एक और बात है जमीन के अंदर की जैविक खाद जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते है ये जुताई से गेस में तब्दील हो कर उड़ जाती है जो बाद में धरती के गरम होने और मोसम परिवर्तन में सहयक होती है.
अधिकतर लोग समझते हैं की जमीन के कमजोर होने का कारण रासायनिक खाद और दवा हैं इस लिए यदि हम गेररासयनिक खाद और दवा का उपयोग करेंगे तो समस्या नहीं रहेगी ये भ्रान्ति है. क्यों की एक बार जमीन को जोतने से उसकी आधी ताकत नस्ट हो जाती है हर साल भूमिछरण से ५ से १५ टन खाद मिट्टी खेतों से बहकर चली जाती है.
जमीन में खाद और पानी का चोली दामन का साथ रहता है. बेपानी जमीन रेगिस्तान में तब्दील हो जाती है. आज कल घटते भू जल का यही कारण है.
किन्तु जमीन को नहीं जोतने से जमीन अनेक केंचुओं आदि के कारण इतनी छिद्रित हो जाती है की बरसात का पानी पूरा जमीन में समां जाता है. जुताई करने से छिद्रियता नस्ट हो जाती है पानी जमीन में ना जाकर बहता है साथ में खाद मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है.
जुताई वाली जैविक ओर अजैविक खेती में पेडों के साथ दोस्ती नहीं रहती है देखा ये गया है की पेडों की छाया में फसल कमजोर हो जाती है ऐसा जमीन की जुताई आने वाली कमजोरी के कारण होता है बिना जुताई की खेती में पेडों के साथ दोस्ती रहती है.
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमे खेती और पशु पालन का भी चोली दामन का साथ रहा है. दूध सबसे अधिक स्वास्थवर्धक आहार के रूप में जाना जाता है. किन्तु जुताई में जबसे मशीनों को चलन शुरू हुआ है तबसे जंगल ओर चारागाह सब के सब अनाज की खेती के खातिर नस्ट होने लगे हैं. बाग़ बगीचे भी नस्ट हो रहे हैं. किन्तु बिना जुताई की कुदरती खेती में चारे ओर फलों के पेडों के साथ अनाज और सब्जी की खेती भी आसानी से हो जाती है. समतलीकरण और धान की खेती के लिए मेड बनाना गेर जरुरी बल्कि हानीकारक सिद्ध हुआ है. धान की खेती में पानी भर कर नहीं रखा जाता है.
भारत में जबसे रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव दिखाई देने लगे है तबसे जुताई आधारित जैविक खेती की बात होने लगी है. इस में जुताई कर गोबर और गो मूत्र की खाद से खेती करने की सलाह दी जाती है किन्तु जुताई से होने वाले भूमि,जल और जैव- विवधताओं के छरण को नजर अंदाज कर दिया जाता है. किसान ट्रेक्टर से जमीनों की जुताई करते हैं और बाजार से शहरी दूषित कचरों से बनी खाद खरीद कर डालते हैं. पुआल नरवाई आदि को जला देते हैं. इस में जुताई के कारण खेत भूके और प्यासे ही रह जाते हैं इस लिए इनसे प्राप्त आहार भी रोगजनित ही पाए जाते हैं. इसी प्रकार विदेशों में होने वाली ओर्गानिक खेती है ये भी गोबर,मुगियों की बीट, सूअर के मल् आदि को ठिकाने लगाने के लिए की जाती है. बहुत बड़े भूभाग से ओरगनिक पदार्थों को इकठा कर थोड़ी सी जमीन में ये खेती की जाती है इसका आधार भी ओरगनिक पदार्थों का शोषण है.
भारतीय परंपरागत खेती में किसान हलकी जुताई करते थे और कमजोर होते खेतों को बिना जुताई कर ठीक लिया करते थे. दलहनी फसलों और हरी खाद का इस्तमाल होता था. आज भी ऐसी खेती को अनेक आदिवासी अंचलों में देखा जा सकता है.
शालिनी और राजू टाइटस
बिना जुताई की कुदरती खेती के किसान
जुताई, खाद और दवाई के बिना खेती
श्री बेरवा फार्म मंडीदीप म.प्र.में धान के पुआल में पैदा किया गया गेंहूं की पहली फसल है. श्री आर.एन. बेरवाजी सेवानिर्व्त I.A.S. अधिकारी हैं जिन्होंने म.प्र.के अनेक महत्व पूर्ण पदों पर अपनी सेवाये दी हैं. इन दिनों महू इंदोर म.प्र. के अम्बेडकर विज्ञानं संस्थान में डिरेक्टर के पद पर काम कर रहे हैं. बिना जुताई की कुदरती खेती के प्रति समप्रित हैं.
तवा कमांड के छेत्र में आज कल धान की खेती का चलन बढ़ने लगा है किसान बड़ी बड़ी मशीन से खेतों को समतल बनवाकर चारोँ तरफ मेड बनाने का काम करवा रहे हैं. वे हर साल धान के पुआल को जला देते हैं. समतलीकरन और पुआल को जलाने के कारण खेत कमजोर हो रहे हैं इस लिए धान और गेंहूं दोनों का उत्पादन तेजी से घट रहा है. रासयनिक/जैविक खाद, कीट/खरपतवार नाशकों का अँधा धुंद खर्च बढ़ रहा है. लागत अधिक होने से मुनाफा घट रहा है.
हम पिछले २६ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती के अभ्यास और प्रचार में लगे है. हम धान के पुआल को जलाते नहीं है वरन बिना जुताई करे गेंहूं के बीजों को बिखराकर उस के उपर धान के पुआल को आडा तिरछा ढँक देते हैं. सामान्य तरीके से सिंचाई कर देते हैं. जिस से गेंहूं के बीज उग कर सूर्य की रोशनी के सहारे ऊपर आ जाते हैं.
ऐसा करने से पुआल के ढकाव में अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु पैदा हो जाते हैं जो जमीन को बहुत गहराई तक छिद्रित ,उर्वरक और पानीदार बना देते हैं. जिस में बिना मानव निर्मित खाद, दवा के पहले ही साल से जुताई ,खाद दवाई वाली खेती से अधिक उत्पादन मिलता है. ये ढकाव एक और जहाँ जल के संरक्षण का काम करता है वहीँ फसल को बीमारी के कीड़ों से बचाता है इस में अनेक फसल की बीमारी के कीड़ों के दुश्मन निवास करने लगते हैं जिस से रोग लगते ही नहीं हैं.
दूसरी ओर पुआल के ढकाव में काम करने वाले अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु जमीन को ताकतवर बना देते हैं जिसमे ताकतवर फसल तयार होती है जिस में रोग निरोध शक्ति का संचार हो जाता है .कुदरती संतुलन और ताकतवर जमीन के रहने से बिना जुताई की कुदरती खेती में फसलों के रोग की कोई समस्या देखने को नहीं मिलती है.
किसान वर्षों से जमीन की जुताई को एक पवित्र काम मानकर करता आया है वो ये इस लिए करता है क्यों की वो अपनी फसल के अलावा किसी भी पोधे को अपनी फसल के साथ देख नहीं सकता उसे डर रहता है की कहीं मेरी फसल का खाना ये ना खा ले. दूसरा वो समझता है की ऐसा करने से जमीन छिद्रित होती है किन्तु ये भ्रान्ति है कोई पौधा जमीन से कुछ भी नहीं लेता है वरन वो जमीन को देता है इनकी जड़ो से जमीन छिद्रित होती है हर पौधे के मित्र पौधे होते हैं जो एक दूसरे को सहायता देते है.
जब भी खेती करने के लिए जमीन को जोतकर बखरा जाता है बखरी बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिलकर कीचड़ बन जाती है ये कीचड़ बरसात के पानी को जमीन के अंदर नहीं जाने देती है. इस लिए पानी तेजी से बहता है साथ में जमीन की उपरी खाद मिट्टी को बहा कर ले जाता है. जिस से खेत भूके और प्यासे हो जाते हैं. एक और बात है जमीन के अंदर की जैविक खाद जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते है ये जुताई से गेस में तब्दील हो कर उड़ जाती है जो बाद में धरती के गरम होने और मोसम परिवर्तन में सहयक होती है.
अधिकतर लोग समझते हैं की जमीन के कमजोर होने का कारण रासायनिक खाद और दवा हैं इस लिए यदि हम गेररासयनिक खाद और दवा का उपयोग करेंगे तो समस्या नहीं रहेगी ये भ्रान्ति है. क्यों की एक बार जमीन को जोतने से उसकी आधी ताकत नस्ट हो जाती है हर साल भूमिछरण से ५ से १५ टन खाद मिट्टी खेतों से बहकर चली जाती है.
जमीन में खाद और पानी का चोली दामन का साथ रहता है. बेपानी जमीन रेगिस्तान में तब्दील हो जाती है. आज कल घटते भू जल का यही कारण है.
किन्तु जमीन को नहीं जोतने से जमीन अनेक केंचुओं आदि के कारण इतनी छिद्रित हो जाती है की बरसात का पानी पूरा जमीन में समां जाता है. जुताई करने से छिद्रियता नस्ट हो जाती है पानी जमीन में ना जाकर बहता है साथ में खाद मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है.
जुताई वाली जैविक ओर अजैविक खेती में पेडों के साथ दोस्ती नहीं रहती है देखा ये गया है की पेडों की छाया में फसल कमजोर हो जाती है ऐसा जमीन की जुताई आने वाली कमजोरी के कारण होता है बिना जुताई की खेती में पेडों के साथ दोस्ती रहती है.
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमे खेती और पशु पालन का भी चोली दामन का साथ रहा है. दूध सबसे अधिक स्वास्थवर्धक आहार के रूप में जाना जाता है. किन्तु जुताई में जबसे मशीनों को चलन शुरू हुआ है तबसे जंगल ओर चारागाह सब के सब अनाज की खेती के खातिर नस्ट होने लगे हैं. बाग़ बगीचे भी नस्ट हो रहे हैं. किन्तु बिना जुताई की कुदरती खेती में चारे ओर फलों के पेडों के साथ अनाज और सब्जी की खेती भी आसानी से हो जाती है. समतलीकरण और धान की खेती के लिए मेड बनाना गेर जरुरी बल्कि हानीकारक सिद्ध हुआ है. धान की खेती में पानी भर कर नहीं रखा जाता है.
भारत में जबसे रासायनिक खेती के दुष्प्रभाव दिखाई देने लगे है तबसे जुताई आधारित जैविक खेती की बात होने लगी है. इस में जुताई कर गोबर और गो मूत्र की खाद से खेती करने की सलाह दी जाती है किन्तु जुताई से होने वाले भूमि,जल और जैव- विवधताओं के छरण को नजर अंदाज कर दिया जाता है. किसान ट्रेक्टर से जमीनों की जुताई करते हैं और बाजार से शहरी दूषित कचरों से बनी खाद खरीद कर डालते हैं. पुआल नरवाई आदि को जला देते हैं. इस में जुताई के कारण खेत भूके और प्यासे ही रह जाते हैं इस लिए इनसे प्राप्त आहार भी रोगजनित ही पाए जाते हैं. इसी प्रकार विदेशों में होने वाली ओर्गानिक खेती है ये भी गोबर,मुगियों की बीट, सूअर के मल् आदि को ठिकाने लगाने के लिए की जाती है. बहुत बड़े भूभाग से ओरगनिक पदार्थों को इकठा कर थोड़ी सी जमीन में ये खेती की जाती है इसका आधार भी ओरगनिक पदार्थों का शोषण है.
भारतीय परंपरागत खेती में किसान हलकी जुताई करते थे और कमजोर होते खेतों को बिना जुताई कर ठीक लिया करते थे. दलहनी फसलों और हरी खाद का इस्तमाल होता था. आज भी ऐसी खेती को अनेक आदिवासी अंचलों में देखा जा सकता है.
शालिनी और राजू टाइटस
बिना जुताई की कुदरती खेती के किसान
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