खरपतवारों की दोस्ती से करें खेती
बिना जुताई,खाद,दवाई और निंदाई की कुदरती खेती
कुदरती हवा, पानी ,खाद ,चारा, फल, सब्जी, और अनाज पैदा करें बिना कुछ किये
गाजर घास Parthenium सन हेम्प
हजारो सालों से खेती खरपतवारों को मार कर की जारही है किन्तु अफ़सोस की बात है की खरपतवार नहीं वरन अब किसान ही मरने लगे है. जो दवाई वे कीड़े मकोड़ों और नींदों को मारने के लिए खरीद कर लाते हैं खुद पी कर आत्म हत्या करने लगे हैं.
भारतीय प्राचीन खेती किसानी में खेती जमीन को पड़ती कर उपजाऊ और पानीदार बनाईं जाती थी. पड़ती करने से जमीन पूरी तरह अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों से ढँक जाती थीं इस ढकाव में अनेक धरती में रहने वाले जीव जंतु सक्रीय हो जाते हैं वे बहुत जल्दी जमीन को छिद्रित, उर्वरक और पानीदार बना देते हैं.
काँस घास जुताई के कारण फेलती है इसकी जड़े २५-३० फीट नीचे तक चली जाती हैं इसकी दोस्ती से खेती करने से ये चली जाती है.
भारत में आज भी ऋषि पंचमी के पर्व में काँस घास की पूजा होती है तथा बिना जुताई पैदा हुए अनाजों को फलाहार के रूप में खाने की हिदायत दी जाती है. काँस घास खेतों में जुताई के कारण पनपते मरुस्थल की निशानी है. वो बताती है की खेत अब मुरदार होकर सूखने लगे हैं.इस लिए जब किसान अपने खेतों में काँस घास को फूलता देखते थे जुताई बंद कर दिया करते थे इस से खेत अपने आप वहां पैदा होने वाली अनेक भूमि ढकाव की वनस्पतियों से ढक जाते थे जिस से वे जल्द ही उर्वरक और पानीदार हो जाते थे.
किन्तु जबसे भारत में आधुनिक जैविक और अजैविक खेती का विज्ञानं आया इस खेती को भुला दिया गया और गेर कुदरती सिंचाई, खाद और दवाइयों के बल पर खेती की जाने लगी. जुताई से होने वाले नुकसान को बिलकुल नजर अंदाज कर दिया गया. जिसे जापान के माननीय श्री मसनोबू फुकुओका जी ने पुन: जीवित कर दिया तब से जैविक और अजैविक खेती की पद्धतियों में उनका बोरिया बिस्तर लिपटने के डर से हडकंप मचा है.
दी वन स्ट्रा रिवोलुसन के लेखक श्री लेरी कोर्न और कुदरती खेती के अविष्कारक श्री मस्नोबू फुकुओका
हम पिछले २५ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं इस से पहले हम आधुनिक वैज्ञानिक खेती का अभ्यास करते थे इस से पूर्व हमारे यहाँ देशी खेती होती थी. चूंकि हमने जीव विज्ञानं में पढाई किया था इस लिए हम भी आयातित "हरित क्रांति" के चक्कर में फंस गए थे . जिस से हमारे खेत बंजर हो गए थे और हम कर्जों में फंस गए. किन्तु जापान के श्री फुकुओका जी के अनुभवों पर आधारित किताब "एक तिनके से आई क्रांति" (अंग्रेजी ) ने हमारी ऑंखें खोल दीं.
तब से लेकर आज तक हमने खेतों में एक बार भी हल या बखर नहीं चलाया नाही किसी भी प्रकार की मानव निर्मित खाद और दवा का उपयोग किया. तब से आज तक हमने कभी अपने खेतों में खद,पानी की कमी और नींदों /बीमारी के कीड़ों का प्रकोप नहीं देखा है.ताकतवर खेतों में हमेशा ताकतवर फसल पैदा होती हैं इस लिए नींदों और कीड़ों का कोई प्रकोप नहीं रहता है. खेतों में कुदरती संतुलन बन जाता है.
हालाकि हमें जापानी कुदरती खेती को जानकारी के अभाव में अपने यहाँ सफल बनाने में अनेक साल लगे.ऐसा गाइड के अभाव में रहा. किन्तु अब हमारे मार्ग दर्शन में ये विधा भारत में फल फूल रही है. हाल ही में रतलाम जिले के एक किसान ने ५ एकड़ में सन हेम्प और गाजर घास के भूमि ढकाव में सिचित गेंहूं पैदा कर हळ चल मचा दी है. पहले साल में पहली फसल ने सब को पीछे छोड़ दिया.
हमने अपने यहाँ पैदा होने वाले अनेक कुदरती वनस्पतियों के ढकाव में कुदरती फसलों को बार बार पैदा कर इतने प्रयोग किये हैं की शायद ही फुकुओका जी के बाद दुनिया में किसी और ने कियें होंगे. इन प्रयोगों में बिफल्ताओं से हमने बहुत सीखा है. इस खेती में असली गुरु क़ुदरत है.
ये खेती मूलत: जुताई के बिना की जाती है क्यों की ट्रेक्टरों से की जाने वाली जुताई के कारण बखरी बारीक मिटटी पानी से कीचड़ में तब्दील हो जाती जिस से बरसात का पानी जमीन में ना जाकर तेजी से बहता है. अपने साथ उपरी खाद को भी बहा कर ले जाती है. खेत भूके और प्यासे हो जाते हैं. जुताई नहीं करने से केंचुए ,चूहे आदि के घर सुरक्षित रहते हैं बरसात का पानी खेतो में समां जाता है वो बहता नहीं है इस से खाद का बहना भी पूरी तरह रुक जाता है. खेत में खाद और पानी की मांग खतम हो जाती है. कुदरती संतुलन के कारण नींदों और कीड़ों की बीमारी नहीं आती है.
इस खेती को करना बहुत आसान है जमीन को आसपास सुलभता से मिलने वाली कोई भी वनस्पति से ढँक लीजिये जैसे गाजर घास, सुबबूल,सन हेम्प,राजगीर आदि. इस ढकाव में हम जो बोना चाहते हैं जैसे धान ,सोयाबीन, अरहर,ज्वार आदि के एकल या मिश्रित बीजों को छिड़क देने से ये खेतों में मोसम अनुसार उगने लगते हैं . इन्हें वनस्पतियों से बाहर निकालने के लिए मूल ढकाव को काट या मोड़ भर देने से खेती हो जाती है. क़ुदरत का नियम है वो अपनी जमीन जो असंख्य जीव जंतु का घर है को बचाने के लिए उसे ढांकना चाहती है.किन्तु हम किसान लोग उसे ये काम नहीं करने देते है इस से ये जीव जंतु म़र जाते हैं खेत मरू हो जाते हैं. जमीन के ढँक मात्र जाने से इन जीव जंतुओं का बड़ी तेजी से विकास होता है. कोई भी मानव निर्मित रासायनिक या गेर रासायनिक खाद या उर्वरक ये काम नहीं कर सकता है .
सन हेम्प और गाजर घास के भूमि ढकाव में पैदा किया गया गेंहूं किसान श्री मोहनलाल पिरोदिया रतलाम म.प्र.
जब से रासयनिक खादों,कीटनाशको ,खरपतवार नाशकों के दुष्परिणाम सामने आये हैं. तब से गोबर और गो मूत्र से जीव जंतुओं को बढाने की कवायत तेज हो गयी है प्राम्भिक अवस्था में परिणाम मिलना जायज है किन्तु जुताई के कारण जीव जंतुओं की होने वाली हत्या के कारण के कारण समस्या जहाँ की तहां पहुँच जाती है.
भारत एक कृषि प्रधान देश है इसमें खेती और पशु पालन में चोली दामन का साथ है. जुताई करने से तेजी से हरयाली नस्ट हो रही है इस लिए पशु आहार बहुत बड़ी समस्या बन गया है. एक गाय का पालना भी किसानों के लिए मुस्किल हो गया है. बिना जुताई की खेती पेडों के साथ की जाती है.
चारे के दलहनी पेड़ एक और जहाँ खेतों को खाद प्रदान करते हैं वहीँ वे पशु आहार भी उपलब्ध करते हैं. जैसे सुबबूल. किन्तु जुताई वाली खेती में ये संभव नहीं है क्यों की जुताई से छाया का असर होता है फसल ख़राब हो जाती है. इस खेती में अनाज ,सब्जी, फल ,दूध हम ले सकते हैं किन्तु सभी खेती के अवशेषों जैसे पुआल,नरवाई,गोबर ,मल् मूत्र सभी को जहाँ का तहां वापस कर दिया जाता है जिस से फसलों के उत्पादन और गुणवत्ता में बढ़ता लाभ मिलता है. ऐसा करने के लिए हम बायो गेस प्लांट का सहारा लेते हैं. जिसमे तमाम पदार्थों को डाल कर खेत में लोटाना आसान हो जाता है साथ में जलाने के लिए गेस भी मिल जाती है.
सुबबूल जमीन से जितना उपर रहता है अपनी छाया के छेत्र में नत्रजन,पानी,चारा,और ईंधन देता है.
ये ऐसी खेती की तकनीक है जिस में खरीफ और रबी दोनों मोसम में फसल उत्पादन का एक सा तरीका रहता है. धान की खेती के लिए गडडे बनाना,कीचड़ मचाना, रोपे लगाना, खेतों में पानी भर के रखना गलत माना गया है.
धान की कटाई और गहाई के बाद गेंहूं के बीजों को बिखराकर पुआल से ढँक भर देने से बोने का काम पूरा हो जाता है ये गेंहू इसी तरीके से श्री बेरवा फार्म मंदी दीप में पैदा किया गया है.
रबी की फसल के लिए सिचित खेती के लिए बीओं को छिटक कर खेती के अवशेषों को जहाँ का तहां आडा तिरछा डाल दिया जाता है.
असिचित खेती में पहले कुदरती भूमि ढकाव को बढ़ने दिया जाता है करीब १०" का होने के बाद इस ढकाव में सीधे अनेक बीजों का छिडकाव कर हरे ढकाव को हंसिये की मदद से काटकर जहाँ का तहां डाल दिया जाता है.
या मोड़ दिया जाता है.
बड़ी जोत के लिए मशीनों से चलने वाली बिना जुताई की बोने की मशीन और क्रिम्पर रोलर की मदद ली जाती है. ऐसा करने से एक और जहाँ बरसात का पानी खेतों में समां जाता है वो वास्प बन ऊपर आने लगता है जो ठन्डे हरे ढकाव में सिचाई का काम करता है. ये विधि असिचित इलाकों में जहाँ आधुनिक वैज्ञानिक खेती बिलकुल नाकाम सिद्ध हुई है बहुत सफल हो रही है बम्पर उत्पादन मिल रहा है.
बिना जुताई की जैविक खेती इस विधि को अमेरिका के रोडाल्स संस्था ने विकसित किया है ये तरीका सूखे से निपटने में बहुत कामयाब हुआ है. एकबार ट्रेक्टर को चलाने से बोने का काम पूरा हो जाता है आगे से हरे भूमि ढकाव को सुला दिया जाता है पीछे से बिना जुताई करे बोने की मशीन से बोनी हो जाती है . बम्पर उत्पादन मिल रहा है. बरसात बढ़ रही है भूजल भी बढ़ रहा है .
राजू टाइटस
बिना जुताई की खेती के किसान
होशंगाबाद म.प्र.
बिना जुताई,खाद,दवाई और निंदाई की कुदरती खेती
गाजर घास Parthenium सन हेम्प
हजारो सालों से खेती खरपतवारों को मार कर की जारही है किन्तु अफ़सोस की बात है की खरपतवार नहीं वरन अब किसान ही मरने लगे है. जो दवाई वे कीड़े मकोड़ों और नींदों को मारने के लिए खरीद कर लाते हैं खुद पी कर आत्म हत्या करने लगे हैं.
भारतीय प्राचीन खेती किसानी में खेती जमीन को पड़ती कर उपजाऊ और पानीदार बनाईं जाती थी. पड़ती करने से जमीन पूरी तरह अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों से ढँक जाती थीं इस ढकाव में अनेक धरती में रहने वाले जीव जंतु सक्रीय हो जाते हैं वे बहुत जल्दी जमीन को छिद्रित, उर्वरक और पानीदार बना देते हैं.
काँस घास जुताई के कारण फेलती है इसकी जड़े २५-३० फीट नीचे तक चली जाती हैं इसकी दोस्ती से खेती करने से ये चली जाती है.
भारत में आज भी ऋषि पंचमी के पर्व में काँस घास की पूजा होती है तथा बिना जुताई पैदा हुए अनाजों को फलाहार के रूप में खाने की हिदायत दी जाती है. काँस घास खेतों में जुताई के कारण पनपते मरुस्थल की निशानी है. वो बताती है की खेत अब मुरदार होकर सूखने लगे हैं.इस लिए जब किसान अपने खेतों में काँस घास को फूलता देखते थे जुताई बंद कर दिया करते थे इस से खेत अपने आप वहां पैदा होने वाली अनेक भूमि ढकाव की वनस्पतियों से ढक जाते थे जिस से वे जल्द ही उर्वरक और पानीदार हो जाते थे.
किन्तु जबसे भारत में आधुनिक जैविक और अजैविक खेती का विज्ञानं आया इस खेती को भुला दिया गया और गेर कुदरती सिंचाई, खाद और दवाइयों के बल पर खेती की जाने लगी. जुताई से होने वाले नुकसान को बिलकुल नजर अंदाज कर दिया गया. जिसे जापान के माननीय श्री मसनोबू फुकुओका जी ने पुन: जीवित कर दिया तब से जैविक और अजैविक खेती की पद्धतियों में उनका बोरिया बिस्तर लिपटने के डर से हडकंप मचा है.
दी वन स्ट्रा रिवोलुसन के लेखक श्री लेरी कोर्न और कुदरती खेती के अविष्कारक श्री मस्नोबू फुकुओका
हम पिछले २५ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं इस से पहले हम आधुनिक वैज्ञानिक खेती का अभ्यास करते थे इस से पूर्व हमारे यहाँ देशी खेती होती थी. चूंकि हमने जीव विज्ञानं में पढाई किया था इस लिए हम भी आयातित "हरित क्रांति" के चक्कर में फंस गए थे . जिस से हमारे खेत बंजर हो गए थे और हम कर्जों में फंस गए. किन्तु जापान के श्री फुकुओका जी के अनुभवों पर आधारित किताब "एक तिनके से आई क्रांति" (अंग्रेजी ) ने हमारी ऑंखें खोल दीं.
तब से लेकर आज तक हमने खेतों में एक बार भी हल या बखर नहीं चलाया नाही किसी भी प्रकार की मानव निर्मित खाद और दवा का उपयोग किया. तब से आज तक हमने कभी अपने खेतों में खद,पानी की कमी और नींदों /बीमारी के कीड़ों का प्रकोप नहीं देखा है.ताकतवर खेतों में हमेशा ताकतवर फसल पैदा होती हैं इस लिए नींदों और कीड़ों का कोई प्रकोप नहीं रहता है. खेतों में कुदरती संतुलन बन जाता है.
हालाकि हमें जापानी कुदरती खेती को जानकारी के अभाव में अपने यहाँ सफल बनाने में अनेक साल लगे.ऐसा गाइड के अभाव में रहा. किन्तु अब हमारे मार्ग दर्शन में ये विधा भारत में फल फूल रही है. हाल ही में रतलाम जिले के एक किसान ने ५ एकड़ में सन हेम्प और गाजर घास के भूमि ढकाव में सिचित गेंहूं पैदा कर हळ चल मचा दी है. पहले साल में पहली फसल ने सब को पीछे छोड़ दिया.
हमने अपने यहाँ पैदा होने वाले अनेक कुदरती वनस्पतियों के ढकाव में कुदरती फसलों को बार बार पैदा कर इतने प्रयोग किये हैं की शायद ही फुकुओका जी के बाद दुनिया में किसी और ने कियें होंगे. इन प्रयोगों में बिफल्ताओं से हमने बहुत सीखा है. इस खेती में असली गुरु क़ुदरत है.
ये खेती मूलत: जुताई के बिना की जाती है क्यों की ट्रेक्टरों से की जाने वाली जुताई के कारण बखरी बारीक मिटटी पानी से कीचड़ में तब्दील हो जाती जिस से बरसात का पानी जमीन में ना जाकर तेजी से बहता है. अपने साथ उपरी खाद को भी बहा कर ले जाती है. खेत भूके और प्यासे हो जाते हैं. जुताई नहीं करने से केंचुए ,चूहे आदि के घर सुरक्षित रहते हैं बरसात का पानी खेतो में समां जाता है वो बहता नहीं है इस से खाद का बहना भी पूरी तरह रुक जाता है. खेत में खाद और पानी की मांग खतम हो जाती है. कुदरती संतुलन के कारण नींदों और कीड़ों की बीमारी नहीं आती है.
इस खेती को करना बहुत आसान है जमीन को आसपास सुलभता से मिलने वाली कोई भी वनस्पति से ढँक लीजिये जैसे गाजर घास, सुबबूल,सन हेम्प,राजगीर आदि. इस ढकाव में हम जो बोना चाहते हैं जैसे धान ,सोयाबीन, अरहर,ज्वार आदि के एकल या मिश्रित बीजों को छिड़क देने से ये खेतों में मोसम अनुसार उगने लगते हैं . इन्हें वनस्पतियों से बाहर निकालने के लिए मूल ढकाव को काट या मोड़ भर देने से खेती हो जाती है. क़ुदरत का नियम है वो अपनी जमीन जो असंख्य जीव जंतु का घर है को बचाने के लिए उसे ढांकना चाहती है.किन्तु हम किसान लोग उसे ये काम नहीं करने देते है इस से ये जीव जंतु म़र जाते हैं खेत मरू हो जाते हैं. जमीन के ढँक मात्र जाने से इन जीव जंतुओं का बड़ी तेजी से विकास होता है. कोई भी मानव निर्मित रासायनिक या गेर रासायनिक खाद या उर्वरक ये काम नहीं कर सकता है .
सन हेम्प और गाजर घास के भूमि ढकाव में पैदा किया गया गेंहूं किसान श्री मोहनलाल पिरोदिया रतलाम म.प्र.
जब से रासयनिक खादों,कीटनाशको ,खरपतवार नाशकों के दुष्परिणाम सामने आये हैं. तब से गोबर और गो मूत्र से जीव जंतुओं को बढाने की कवायत तेज हो गयी है प्राम्भिक अवस्था में परिणाम मिलना जायज है किन्तु जुताई के कारण जीव जंतुओं की होने वाली हत्या के कारण के कारण समस्या जहाँ की तहां पहुँच जाती है.
भारत एक कृषि प्रधान देश है इसमें खेती और पशु पालन में चोली दामन का साथ है. जुताई करने से तेजी से हरयाली नस्ट हो रही है इस लिए पशु आहार बहुत बड़ी समस्या बन गया है. एक गाय का पालना भी किसानों के लिए मुस्किल हो गया है. बिना जुताई की खेती पेडों के साथ की जाती है.
चारे के दलहनी पेड़ एक और जहाँ खेतों को खाद प्रदान करते हैं वहीँ वे पशु आहार भी उपलब्ध करते हैं. जैसे सुबबूल. किन्तु जुताई वाली खेती में ये संभव नहीं है क्यों की जुताई से छाया का असर होता है फसल ख़राब हो जाती है. इस खेती में अनाज ,सब्जी, फल ,दूध हम ले सकते हैं किन्तु सभी खेती के अवशेषों जैसे पुआल,नरवाई,गोबर ,मल् मूत्र सभी को जहाँ का तहां वापस कर दिया जाता है जिस से फसलों के उत्पादन और गुणवत्ता में बढ़ता लाभ मिलता है. ऐसा करने के लिए हम बायो गेस प्लांट का सहारा लेते हैं. जिसमे तमाम पदार्थों को डाल कर खेत में लोटाना आसान हो जाता है साथ में जलाने के लिए गेस भी मिल जाती है.
सुबबूल जमीन से जितना उपर रहता है अपनी छाया के छेत्र में नत्रजन,पानी,चारा,और ईंधन देता है.
ये ऐसी खेती की तकनीक है जिस में खरीफ और रबी दोनों मोसम में फसल उत्पादन का एक सा तरीका रहता है. धान की खेती के लिए गडडे बनाना,कीचड़ मचाना, रोपे लगाना, खेतों में पानी भर के रखना गलत माना गया है.
धान की कटाई और गहाई के बाद गेंहूं के बीजों को बिखराकर पुआल से ढँक भर देने से बोने का काम पूरा हो जाता है ये गेंहू इसी तरीके से श्री बेरवा फार्म मंदी दीप में पैदा किया गया है.
रबी की फसल के लिए सिचित खेती के लिए बीओं को छिटक कर खेती के अवशेषों को जहाँ का तहां आडा तिरछा डाल दिया जाता है.
असिचित खेती में पहले कुदरती भूमि ढकाव को बढ़ने दिया जाता है करीब १०" का होने के बाद इस ढकाव में सीधे अनेक बीजों का छिडकाव कर हरे ढकाव को हंसिये की मदद से काटकर जहाँ का तहां डाल दिया जाता है.
या मोड़ दिया जाता है.
बड़ी जोत के लिए मशीनों से चलने वाली बिना जुताई की बोने की मशीन और क्रिम्पर रोलर की मदद ली जाती है. ऐसा करने से एक और जहाँ बरसात का पानी खेतों में समां जाता है वो वास्प बन ऊपर आने लगता है जो ठन्डे हरे ढकाव में सिचाई का काम करता है. ये विधि असिचित इलाकों में जहाँ आधुनिक वैज्ञानिक खेती बिलकुल नाकाम सिद्ध हुई है बहुत सफल हो रही है बम्पर उत्पादन मिल रहा है.
बिना जुताई की जैविक खेती इस विधि को अमेरिका के रोडाल्स संस्था ने विकसित किया है ये तरीका सूखे से निपटने में बहुत कामयाब हुआ है. एकबार ट्रेक्टर को चलाने से बोने का काम पूरा हो जाता है आगे से हरे भूमि ढकाव को सुला दिया जाता है पीछे से बिना जुताई करे बोने की मशीन से बोनी हो जाती है . बम्पर उत्पादन मिल रहा है. बरसात बढ़ रही है भूजल भी बढ़ रहा है .
राजू टाइटस
बिना जुताई की खेती के किसान
होशंगाबाद म.प्र.
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