क्या जैविक खेती टिकाऊ है ?
असल में खेत फसलों के पैदा होने से नहीं वरन जुताई करने से कमजोर होते हैं. जुताई करने से खेतों की बखरी मिट्टी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड में तब्दील हो जाती है इस लिए बरसात का पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ बखरी मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है. इस कारण खेत कमजोर होकर सूख जाते हैं. उनमे फसलें पैदा करना कठिन हो जाता है और उस में कान्स जैसी गहरी जड़ वाली वनस्पतियाँ पनप जाती हैं जो किसान की नाक में दम कर देती है.
भारतीय परम्परगत खेती किसानी में खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए किसान दलहन और गेर दलहन फसलों को बदल बदल कर लगाते थे जिस से नत्रजन की कोई कमी नहीं होती थी. पड़ती करने से खेत पुन: ताकतवर और पानीदार हो जाते थे.
अंग्रेजो के ज़माने में इंदोर म.प्र में एक कृषि वैज्ञानिक थे जिनका नाम था डॉ हावर्ड था जिन्होंने ये देखा की भारतीय परंपरागत खेती किसानी हजारों सालों से टिकाऊ है तो उन्होंने ये पाया की किसान गर्मियों में गोबर गोंजन आदि को खेतों में वापस ड़ाल आते हैं यही वो कारण है जिस से ये खेती टिकाऊ बनी रहती है. बस इसी आधार पर उन्होंने कम्पोस्ट बनाने की विधि बनाई और जिसे रसायनों के बदले उपयोग करने की सलाह देना शुरू किया. ये विधि पश्चिमी देशो में जहाँ गोबर, मुर्गे की बीट और सूअर आदि के मल को विसर्जित करना बहुत बड़ी समस्या है में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई. इस खेती को उन्होंने ओरगेनिक खेती नाम दिया जो हिंदी में जैविक खेती कहलाती है.
हमरे देश में बड़ी विडंबना है की हम अपने देशी तरीकों पर विश्वाश नहीं करते हैं वरन कोई भी विदेशी तकनीक को आंख बंद कर अमल में ले आते हैं. वैसे ही जब हमारे देश में लोग रासायनिक खेती से परेशान होने लगे तो उन्होंने विदेशी ओरगेनिक तकनीक को इस के विकल्प के रूप में आंख बंद कर स्वीकार कर लिया. किन्तु किसी ने भी जुताई से होने वाले नुकसान की ध्यान नहीं दिया .सब ने यही सोचा की खेती किसानी में जो भी गलत हो रहा है उस के पीछे कृषि रसायनों का ही दोष है.
इस भ्रान्ति को जापान के जग प्रसिद्ध कृषि के वैज्ञानिक माननीय मस्नोबू फुकुओका ने बिना जुताई की कुदरती खेती का अविष्कार कर दूर कर दिया उन्होंने पाया की फसलों के उत्पादन के लिए की जारही जमीन की जुताई से एक बार में जमीन की आधी ताकत नस्ट हो जाती है. और यदि तमाम फसलों के अवशेषों जैसे पुआल, नरवाई, गन्ने की पत्तियां, सोयाबीन का टाटरा आदि को जहाँ का तहां फेला दें तो अलग से जैविक खाद बना कर खेतों में डालने की कोई जरुरत नहीं है.जुताई नहीं की जाये तो ये ताकत अपने आप कुदरती बढती जाती है. उन्होंने पाया की जमीन के एक छोटे से कण को यदि हम सूख्श्म दर्शी यंत्र से देखें तो उस में असंख्य सूक्ष्म जीवाणु नजर आयेंगे. इस में अनेक जीव जंतु निवास करते हैं जैसे केंचुए, दीमक,चीटे चीटी, चूहे आदि. इनके घर बरसात के पानी को जमीन के अंदर ले जाने के लिए जरुरी हैं. किन्तु जब जमीन को जोत दिया जाता है ये घर मिट जाते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है. वह अपने साथ बारीक मिट्टी जो असली जैविक खाद है को बहा कर ले जाती है इस कारण खेत कमजोर और सूखे हो जाते हैं.
जैविक खेती का कहना है की रसायनों के कारण खेत कमजोर हो रहे हैं और यदि जुताई के रहते खेतों में जैविक खाद डाली जाये और बीमारी की रोक थाम के लिए जैविक उपाय किये जाये तो खेत ताकतवर हो जायेंगे.ये भ्रान्ति है. ऐसा एक भी खेत नहीं है जिस में बाहर से जैविक अंश न लाये जाते हों बाहर से जैविक अंशो को लाने से जहाँ से भी ये लाये जाते है वहां की जमीन कमजोर हो जाती है. फुकुओकाजी कहते है की ये तो अनेकों को गरीब और एक को अमीर बनाने वाली बात है.
जब से फुकुओका जी ने बिना जुताई की खेती का अविष्कार किया है अमेरिका में बिना जुताई की खेती की धूम मच गयी है. ये दो प्रकार से की जाती है एक जैविक और दूसरी अजैविक तरीके से जैविक तरीके में रसायनों का बिलकुल इस्तमाल नहीं होता है अजैविक तरीके में किसान खरपतवारों को मारने के लिए रासायनिक खरपतवार नाशक का उपयोग करते हैं. और नत्रजन आदि उर्वरकों को खेतों में डालते हैं. किन्तु वे इसे धीरे2 कम करते जा रहे हैं क्यों की जुताई नहीं करने से जल और जैविकता का छरण पूरी तरह रुक जाता है. बिना जुताई की कोई भी खेती हो चाहे वह बिना जुताई की जैविक खेती हो या बिना जुताई की अजैविक खेती हो या बिना जुताई की कुदरती खेती हो सभी को अब अमेरिका आदि में कार्बन क्रेडिट का लाभमिलने लगा है ये लाभ पर्यावरणी लाभों के मद्दे नजर दिया जाता है. जिसे किसानो की यूनियन के द्वारा तय किया जाता है. वे देखते हैं किस किसान ने कितने केंचुओं के घर बचाए हैं एक वर्ग मीटर में केंचुओं के घरों के आधार पर प्रति एकड़ कार्बन सेविंग की गणना होती है. किन्तु जुताई वाली जैविक खेती को भूमि,जल और जैव विविधताओं के छरण के कारण टिकाऊ नहीं माना गया है. उनका ये भी कहना है की जुताई करने से जमीन का कार्बन गैस बन कर ग्रीन हॉउस गैस में तब्दील हो जाता है जिस से ग्लोबल वार्मिंग और मोसम परिवर्तन की समस्या हो रही है.
इसमें कोई समझदारी नहीं है की पहले हम अपनी कीमती जैविक खाद को जाती कर बहा दे नरवाई को जला दें फिर बाहर से लाकर उस की पूर्ती करें. वैज्ञानिकों का मत है की हर साल एक एकड़ से करीब १० टन जैविक खाद बहकर चली जाती है. जिस की कीमत NPK की तुलना में लाखो रु है.. इस प्रकार हम कितनी जैविक खाद कहाँ से लाकर डालेंगे. अधिकतर लोगों का मत है की पशु पालन कर हम इस की आपूर्ति कर लेंगे ये भ्रान्ति है इतनी खाद के लिए कितने पशु लगेंगे और उन्हें खिलाने के लिए कितने जंगल लगेंगे ये कोई नहीं सोचता है और आज जब किसानो ने पशुओं को त्याग कर मशीनो से खेती शुरू कर दी है ऐसे में पुन: वापस जाना ना मुमकिन है.
बिना जुताई की जैविक खेती या बिना जुताई की अजैविक खेती को हजारों एकड़ जमीन में मशीन की सहायता से किया जा रहा है. इस तकनीक में कृषि अवशेषों को जलाया नहीं जाता है इसे जहाँ का तहां छोड़ दिया जाता है.खरपतवारों का नियंत्रण रसायनों या क्रिम्पर रोलर के माध्यम से किया जाता है. तथा बुआई बिना जुताई की बोने की सीड ड्रिल से की जाती है. इस से एक और जहाँ ८०% डीजल की बचत होती है वहीँ ५०% सिंचाई खर्च बचता है भूमि में जल संरक्षित हो जाता है और खेत हर साल ताकतवर हो रहे है. इस से सोयाबीन, मक्का, गेंहूं आदि का बम्पर उत्पादन मिल रहा है. जिन इलाकों में सूखे के कारण खेती होना बंद हो गयी थी वहां अब बम्पर उत्पादन मिल रहा है. किसानो के बच्चे खेती किसानी के लिए लोटने लगे हैं. वहां किसानो का खोया सम्मान वापस आ गया है.
बिना जुताई की कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं और जिस के अभ्यास और प्रचार में २५ सालों से अधिक समय से लगे हैं उसका आधार भी यही है केवल इस में अधिकतर काम हाथों से किया जाता है. किसी भी प्रकार की मशीन का उपयोग नहीं किया जाता है ये विधा सीमान्त किसानो भूमिहीन किसानो,खेतिहर मजदूरों, महिलाओं और बच्चों के द्वारा आसानी से होने वाली है. इस से एक चोथाई एकड़ में जहाँ ५-६ सदस्य वाले परिवार की परवरिश आसानी से संभव है. परिवार के हर सदस्य को एक घंटे प्रति दिन से अधिक काम करने की जरुरत नहीं है.
आजकल कुपोषण ,खून में कमी, नवजात शिशुओं की मौत, केंसर जैसी महाबीमारियों का बोल बाला है. और ये अभी और बढ़ने वाला है इस का मुख्य कारण कमजोर जमीनों में कमजोर फसलों,दूध,और सब्जी के पैदा होने के कारण है. एक श्रमिक कहता है की जहाँ दो रोटी में हम दिन भर काम करते थकते नहीं थे दस रोटी खाकर भी ताकत महसूस नहीं होती है. कहने को तो हमने इतना अनाज पैदा कर लिया है की उसको रखने की जगह नहीं है किन्तु अनाज अंदर से खोखला हो गया है. जहरीली दवाओं से नुकसान अतिरिक्त है. दूध पिलाने वाली हर महिला के दूध में ये जहर घुल रहा है. हर इन्सान के खून में जहर पाया जाने लगा है. रासायनिक और जैविक खेती के विशेषज्ञों का कहना है पोषक तत्वों की कमी को उर्वरकों और दवाओं से पूरा किया जा सकता है किन्तु ये भ्रान्ति है. गेर कुदरती दवाओं से फसलें हों या शरीर ये और कमजोर हो जाते हैं.
इस लिए यूरिया हो या यूरीन , मेलथिओन हो या नीम कोई फर्क नहीं है. जब से रासयनिक खेती पर प्रश्न चिन्ह लगा है. तब से अनेक कुकरमुत्तों की तरह खेती के नीम हकीम पैदा हो गए है. कोई कहता है की केंचुओं की खाद डालो, कोई कहता है की राख़ डालो कोई कहता है की पत्थर को पीस कर डालो, कोई कहता है, काली गाय के सींग में गोबर डाल कर उसे जमीन में गाड कर खाद बनाओ, कोई अमृत मिटटी और अमृत पानी को बनाने की सलाह देता है कई किस्म के जीवाणुओं के टीके आज कल बाज़ार में आ गए हैं. अनेक प्रकार के जैविक और अजैविक टानिक बाज़ार में आ गये हैं. फसलों को जल्दी से बड़ा करने के चक्कर में ओक्सीतोसीन जैसे घातक हारमोन गेंहूं और धान जैसी फसलों में डाले जाने लगे हैं. जुताई ,खाद ,दवाओं का गोरख धन्दा चल निकला है जिस के माध्यम से किसानो को लूटा जा रहा है इस में कम्पनियां डॉ को कमीशन देकर इसे प्रोत्साहित करती हैं. इन के उपयोग से कभी भी किसान आत्मनिर्भर नहीं बन सकता है. ये बहुत बड़ी हिंसा है.
ऋषि खेती पूरी तरह आत्म निर्भर खेती है जो कुदरती सत्य और अहिंसा पर आधारित है. इस में जुताई, किसी भी प्रकार के मानव निर्मित खाद,उर्वरक और दवाई का उपयोग नही है. जो गीताजी में लिखे अकर्म और भगवन बुद्ध के द्वारा बताये "कुछ नहीं " के सिधांत से मेल खाती है. इस में जमीन की उपरी और गहराई तक की जैव विविधताओं को बचाया जाता है जिस से धरती माता जियें और हमको जिलाएँ.
अधिकतर किसान ये कहते हैं की ये दर्शन तो सही है किन्तु इसे व्यावहारिक नहीं बनाया जा सकता है. ये भ्रान्ति है हमारा ही नहीं अब अनेक फार्म इसे अपना रहे है, अमेरिका में करीब ४० % किसान अब बिना जुताई की खेती करने लगे हैं. केनेडा में २६ % किसान इसे कर रहे हैं. आस्ट्रेलिया और ब्राज़ील में भी ये विधा अब खूब पनप रही है. गंगाजी के कछारी छेत्रों में पाकिस्तान,पंजाब,से लेकर बंगला देश तक ये खेती अब जड़ जमा रही है.
हमारी चिंता का विषय मिनी पंजाब कहलाने वाला तवा का छेत्र है जिस में उपजाऊ मिट्टी और पानी की कोई कमी नहीं है सरकार ने क्या कुछ नहीं किया बड़ा बांध बनवाया, खेतों को समतल कराया,कृषि के अनुसन्धान पर अरबो रु पानी की तरह लगाये ,अनुदान, सस्ते ब्याज का पैसा दिया ,तमाम बीज और खाद को किसानो के मुंह तक पहुँचाया फिर भी यहाँ के खेत बंजर हो रहे हैं और किसान गरीब हो रहे है. और वे अब आत्म हत्या करने लगे है. बच्चे खेती छोडकर भाग रहे हैं. किसान खेती के बदले कुछ भी करने को मजबूर है.
सोयाबीन जहाँ एक एकड़ में २० क्विंटल होता था वो अब २० किलो पर आ गया है, धान में लागत असमान छु रही है और भाव पटियों पर हैं, गेंहू में उत्पादन हर साल घट रहा है.लागत बढती जा रही है. किसान जमीनों को हाल साल में या जड़ खरीद में ओने पाने भाव में बेचने लगे हैं. घबराहट चरम सीमा पर है.
किन्तु हमारा मानना है की इस समस्या से आसानी से पार पाया जा सकता है इस में लागत बढ़ाने की अपेक्षा घटाने की जरुरत है. जुताई बंद कर नरवाई को बचा भर लेने से इस समस्या का समाधान हो जायेगा और यहाँ का किसान अमेरिका के किसान को भी मात दे देगा. किन्तु ये काम सरकार के बस का नहीं है. ये काम किसान स्वं अपने आत्म निर्भर संघ बना कर कर सकते है. जुताई आधारित रसायन मिश्रित जैविक खेती धोका है. अनेक खेती के वैज्ञानिक और विदेशी सहायता से चल रहे एन. जी. ओ. किसानो को भ्रमित कर रहे हैं इन से बचने की जरूरत है. ऑर्गनिक और जैविक के नाम से अनेक नकली सामान की दुकाने चल रही हैं इन से बचने की जरुरत है. किसानो को अधिक दाम के लालच के बदले ८०% लागत कम करने और प्रति एकड़ उत्पादन बढ़ाने पर बल देना चाहिए जो बिना जुताई की खेती से ही संभव है.
पशु पालन जरुरी है इस के लिए चारे के पेड़ लगाने होंगे जैसे सुबबूल इस से सालभर भरपूर चारा मिलता है और भरपूर जलाने का इंधन. हमारी मुख्य आमदनी जलाऊ इंधन से पूरी हो जाती है. सुबबूल की खेती बहुत आसान है. इस से हम अपने इलाके को ओधोगिगता भी प्रदान कर सकते हैं इसका नक्शा बदल सकते हैं. सोयाबीन एक अच्छी पैसा देने वाली फसल है. इसका उत्पादन आसानी से बिना जुताई खाद और दवा के बढाया जा सकता है, धान की खेती के लिए गड्डे बनाना ,कीचड मचाना ,रोपे लगाना सब व्यर्थ के काम हैं. रासयनिक गेंहूं से कही अधिक कुदरती गेंहू बिना लागत के पैदा होता है. ये सब बातें किताबी नहीं हैं इन्हें हमारे फार्म पर देखा और सीखा जा सकता है.
हमारा फार्म अब बिना जुताई की कुदरती खेती (ऋषि खेती) का विश्व न. वन हो गया है. इस में हम बरसों से प्रशिक्षण दे रहे हैं जिसके कारण ना केवल भारत में वरन भारत के बाहर भी अनेक फार्म बने है और बनते जा रहे है. स्थानीय किसान संघों को इसका फायदा उठाना चाहिए इस में हम पूरा सहयोग करने का वायदा करते है.
राजू टाइटस
भारतीय
पम्परागत खेती किसानी में जुताई करना ठीक नहीं माना जाता था. इस लिए किसान
कम से कम जुताई करते थे और जब वो देख लेते थे की जुताई के कारण कमजोर होते
खेतों को जुताई बंद कर ठीक कर लिया करते थे. मध्य भारत में आज भी ऋषि
पंचमी के पर्व पर बिना जुताई करे पैदा किये गए अनाज या कुदरती रूप से पैदा
अनाज को खाने की सलाह दी जाती है. इस पर्व पर कान्स घास की पूजा होती है.
खेतों में काँस घास बहुत ही कठिन खरपतवार के रूप में जानि जाती है ये जुताई
के कारण जमीन के कमजोर हो जाने पर आती है. ये घास जब खेतों में फूलने लगती
थी किसान जान जाते थे अब खेत सूखने लगे हैं इस लिए वे जुताई को बंद कर
खेतों में पशु चराते थे जिस से खेत फिर से उपजाऊ हो जाते थे. इसी लिए आज भी
ऋषि पंचमी के पर्व में काँस घास की पूजा होती है.असल में खेत फसलों के पैदा होने से नहीं वरन जुताई करने से कमजोर होते हैं. जुताई करने से खेतों की बखरी मिट्टी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड में तब्दील हो जाती है इस लिए बरसात का पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ बखरी मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है. इस कारण खेत कमजोर होकर सूख जाते हैं. उनमे फसलें पैदा करना कठिन हो जाता है और उस में कान्स जैसी गहरी जड़ वाली वनस्पतियाँ पनप जाती हैं जो किसान की नाक में दम कर देती है.
भारतीय परम्परगत खेती किसानी में खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए किसान दलहन और गेर दलहन फसलों को बदल बदल कर लगाते थे जिस से नत्रजन की कोई कमी नहीं होती थी. पड़ती करने से खेत पुन: ताकतवर और पानीदार हो जाते थे.
अंग्रेजो के ज़माने में इंदोर म.प्र में एक कृषि वैज्ञानिक थे जिनका नाम था डॉ हावर्ड था जिन्होंने ये देखा की भारतीय परंपरागत खेती किसानी हजारों सालों से टिकाऊ है तो उन्होंने ये पाया की किसान गर्मियों में गोबर गोंजन आदि को खेतों में वापस ड़ाल आते हैं यही वो कारण है जिस से ये खेती टिकाऊ बनी रहती है. बस इसी आधार पर उन्होंने कम्पोस्ट बनाने की विधि बनाई और जिसे रसायनों के बदले उपयोग करने की सलाह देना शुरू किया. ये विधि पश्चिमी देशो में जहाँ गोबर, मुर्गे की बीट और सूअर आदि के मल को विसर्जित करना बहुत बड़ी समस्या है में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई. इस खेती को उन्होंने ओरगेनिक खेती नाम दिया जो हिंदी में जैविक खेती कहलाती है.
हमरे देश में बड़ी विडंबना है की हम अपने देशी तरीकों पर विश्वाश नहीं करते हैं वरन कोई भी विदेशी तकनीक को आंख बंद कर अमल में ले आते हैं. वैसे ही जब हमारे देश में लोग रासायनिक खेती से परेशान होने लगे तो उन्होंने विदेशी ओरगेनिक तकनीक को इस के विकल्प के रूप में आंख बंद कर स्वीकार कर लिया. किन्तु किसी ने भी जुताई से होने वाले नुकसान की ध्यान नहीं दिया .सब ने यही सोचा की खेती किसानी में जो भी गलत हो रहा है उस के पीछे कृषि रसायनों का ही दोष है.
इस भ्रान्ति को जापान के जग प्रसिद्ध कृषि के वैज्ञानिक माननीय मस्नोबू फुकुओका ने बिना जुताई की कुदरती खेती का अविष्कार कर दूर कर दिया उन्होंने पाया की फसलों के उत्पादन के लिए की जारही जमीन की जुताई से एक बार में जमीन की आधी ताकत नस्ट हो जाती है. और यदि तमाम फसलों के अवशेषों जैसे पुआल, नरवाई, गन्ने की पत्तियां, सोयाबीन का टाटरा आदि को जहाँ का तहां फेला दें तो अलग से जैविक खाद बना कर खेतों में डालने की कोई जरुरत नहीं है.जुताई नहीं की जाये तो ये ताकत अपने आप कुदरती बढती जाती है. उन्होंने पाया की जमीन के एक छोटे से कण को यदि हम सूख्श्म दर्शी यंत्र से देखें तो उस में असंख्य सूक्ष्म जीवाणु नजर आयेंगे. इस में अनेक जीव जंतु निवास करते हैं जैसे केंचुए, दीमक,चीटे चीटी, चूहे आदि. इनके घर बरसात के पानी को जमीन के अंदर ले जाने के लिए जरुरी हैं. किन्तु जब जमीन को जोत दिया जाता है ये घर मिट जाते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है. वह अपने साथ बारीक मिट्टी जो असली जैविक खाद है को बहा कर ले जाती है इस कारण खेत कमजोर और सूखे हो जाते हैं.
जैविक खेती का कहना है की रसायनों के कारण खेत कमजोर हो रहे हैं और यदि जुताई के रहते खेतों में जैविक खाद डाली जाये और बीमारी की रोक थाम के लिए जैविक उपाय किये जाये तो खेत ताकतवर हो जायेंगे.ये भ्रान्ति है. ऐसा एक भी खेत नहीं है जिस में बाहर से जैविक अंश न लाये जाते हों बाहर से जैविक अंशो को लाने से जहाँ से भी ये लाये जाते है वहां की जमीन कमजोर हो जाती है. फुकुओकाजी कहते है की ये तो अनेकों को गरीब और एक को अमीर बनाने वाली बात है.
जब से फुकुओका जी ने बिना जुताई की खेती का अविष्कार किया है अमेरिका में बिना जुताई की खेती की धूम मच गयी है. ये दो प्रकार से की जाती है एक जैविक और दूसरी अजैविक तरीके से जैविक तरीके में रसायनों का बिलकुल इस्तमाल नहीं होता है अजैविक तरीके में किसान खरपतवारों को मारने के लिए रासायनिक खरपतवार नाशक का उपयोग करते हैं. और नत्रजन आदि उर्वरकों को खेतों में डालते हैं. किन्तु वे इसे धीरे2 कम करते जा रहे हैं क्यों की जुताई नहीं करने से जल और जैविकता का छरण पूरी तरह रुक जाता है. बिना जुताई की कोई भी खेती हो चाहे वह बिना जुताई की जैविक खेती हो या बिना जुताई की अजैविक खेती हो या बिना जुताई की कुदरती खेती हो सभी को अब अमेरिका आदि में कार्बन क्रेडिट का लाभमिलने लगा है ये लाभ पर्यावरणी लाभों के मद्दे नजर दिया जाता है. जिसे किसानो की यूनियन के द्वारा तय किया जाता है. वे देखते हैं किस किसान ने कितने केंचुओं के घर बचाए हैं एक वर्ग मीटर में केंचुओं के घरों के आधार पर प्रति एकड़ कार्बन सेविंग की गणना होती है. किन्तु जुताई वाली जैविक खेती को भूमि,जल और जैव विविधताओं के छरण के कारण टिकाऊ नहीं माना गया है. उनका ये भी कहना है की जुताई करने से जमीन का कार्बन गैस बन कर ग्रीन हॉउस गैस में तब्दील हो जाता है जिस से ग्लोबल वार्मिंग और मोसम परिवर्तन की समस्या हो रही है.
इसमें कोई समझदारी नहीं है की पहले हम अपनी कीमती जैविक खाद को जाती कर बहा दे नरवाई को जला दें फिर बाहर से लाकर उस की पूर्ती करें. वैज्ञानिकों का मत है की हर साल एक एकड़ से करीब १० टन जैविक खाद बहकर चली जाती है. जिस की कीमत NPK की तुलना में लाखो रु है.. इस प्रकार हम कितनी जैविक खाद कहाँ से लाकर डालेंगे. अधिकतर लोगों का मत है की पशु पालन कर हम इस की आपूर्ति कर लेंगे ये भ्रान्ति है इतनी खाद के लिए कितने पशु लगेंगे और उन्हें खिलाने के लिए कितने जंगल लगेंगे ये कोई नहीं सोचता है और आज जब किसानो ने पशुओं को त्याग कर मशीनो से खेती शुरू कर दी है ऐसे में पुन: वापस जाना ना मुमकिन है.
बिना जुताई की जैविक खेती या बिना जुताई की अजैविक खेती को हजारों एकड़ जमीन में मशीन की सहायता से किया जा रहा है. इस तकनीक में कृषि अवशेषों को जलाया नहीं जाता है इसे जहाँ का तहां छोड़ दिया जाता है.खरपतवारों का नियंत्रण रसायनों या क्रिम्पर रोलर के माध्यम से किया जाता है. तथा बुआई बिना जुताई की बोने की सीड ड्रिल से की जाती है. इस से एक और जहाँ ८०% डीजल की बचत होती है वहीँ ५०% सिंचाई खर्च बचता है भूमि में जल संरक्षित हो जाता है और खेत हर साल ताकतवर हो रहे है. इस से सोयाबीन, मक्का, गेंहूं आदि का बम्पर उत्पादन मिल रहा है. जिन इलाकों में सूखे के कारण खेती होना बंद हो गयी थी वहां अब बम्पर उत्पादन मिल रहा है. किसानो के बच्चे खेती किसानी के लिए लोटने लगे हैं. वहां किसानो का खोया सम्मान वापस आ गया है.
बिना जुताई की कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं और जिस के अभ्यास और प्रचार में २५ सालों से अधिक समय से लगे हैं उसका आधार भी यही है केवल इस में अधिकतर काम हाथों से किया जाता है. किसी भी प्रकार की मशीन का उपयोग नहीं किया जाता है ये विधा सीमान्त किसानो भूमिहीन किसानो,खेतिहर मजदूरों, महिलाओं और बच्चों के द्वारा आसानी से होने वाली है. इस से एक चोथाई एकड़ में जहाँ ५-६ सदस्य वाले परिवार की परवरिश आसानी से संभव है. परिवार के हर सदस्य को एक घंटे प्रति दिन से अधिक काम करने की जरुरत नहीं है.
आजकल कुपोषण ,खून में कमी, नवजात शिशुओं की मौत, केंसर जैसी महाबीमारियों का बोल बाला है. और ये अभी और बढ़ने वाला है इस का मुख्य कारण कमजोर जमीनों में कमजोर फसलों,दूध,और सब्जी के पैदा होने के कारण है. एक श्रमिक कहता है की जहाँ दो रोटी में हम दिन भर काम करते थकते नहीं थे दस रोटी खाकर भी ताकत महसूस नहीं होती है. कहने को तो हमने इतना अनाज पैदा कर लिया है की उसको रखने की जगह नहीं है किन्तु अनाज अंदर से खोखला हो गया है. जहरीली दवाओं से नुकसान अतिरिक्त है. दूध पिलाने वाली हर महिला के दूध में ये जहर घुल रहा है. हर इन्सान के खून में जहर पाया जाने लगा है. रासायनिक और जैविक खेती के विशेषज्ञों का कहना है पोषक तत्वों की कमी को उर्वरकों और दवाओं से पूरा किया जा सकता है किन्तु ये भ्रान्ति है. गेर कुदरती दवाओं से फसलें हों या शरीर ये और कमजोर हो जाते हैं.
इस लिए यूरिया हो या यूरीन , मेलथिओन हो या नीम कोई फर्क नहीं है. जब से रासयनिक खेती पर प्रश्न चिन्ह लगा है. तब से अनेक कुकरमुत्तों की तरह खेती के नीम हकीम पैदा हो गए है. कोई कहता है की केंचुओं की खाद डालो, कोई कहता है की राख़ डालो कोई कहता है की पत्थर को पीस कर डालो, कोई कहता है, काली गाय के सींग में गोबर डाल कर उसे जमीन में गाड कर खाद बनाओ, कोई अमृत मिटटी और अमृत पानी को बनाने की सलाह देता है कई किस्म के जीवाणुओं के टीके आज कल बाज़ार में आ गए हैं. अनेक प्रकार के जैविक और अजैविक टानिक बाज़ार में आ गये हैं. फसलों को जल्दी से बड़ा करने के चक्कर में ओक्सीतोसीन जैसे घातक हारमोन गेंहूं और धान जैसी फसलों में डाले जाने लगे हैं. जुताई ,खाद ,दवाओं का गोरख धन्दा चल निकला है जिस के माध्यम से किसानो को लूटा जा रहा है इस में कम्पनियां डॉ को कमीशन देकर इसे प्रोत्साहित करती हैं. इन के उपयोग से कभी भी किसान आत्मनिर्भर नहीं बन सकता है. ये बहुत बड़ी हिंसा है.
ऋषि खेती पूरी तरह आत्म निर्भर खेती है जो कुदरती सत्य और अहिंसा पर आधारित है. इस में जुताई, किसी भी प्रकार के मानव निर्मित खाद,उर्वरक और दवाई का उपयोग नही है. जो गीताजी में लिखे अकर्म और भगवन बुद्ध के द्वारा बताये "कुछ नहीं " के सिधांत से मेल खाती है. इस में जमीन की उपरी और गहराई तक की जैव विविधताओं को बचाया जाता है जिस से धरती माता जियें और हमको जिलाएँ.
अधिकतर किसान ये कहते हैं की ये दर्शन तो सही है किन्तु इसे व्यावहारिक नहीं बनाया जा सकता है. ये भ्रान्ति है हमारा ही नहीं अब अनेक फार्म इसे अपना रहे है, अमेरिका में करीब ४० % किसान अब बिना जुताई की खेती करने लगे हैं. केनेडा में २६ % किसान इसे कर रहे हैं. आस्ट्रेलिया और ब्राज़ील में भी ये विधा अब खूब पनप रही है. गंगाजी के कछारी छेत्रों में पाकिस्तान,पंजाब,से लेकर बंगला देश तक ये खेती अब जड़ जमा रही है.
हमारी चिंता का विषय मिनी पंजाब कहलाने वाला तवा का छेत्र है जिस में उपजाऊ मिट्टी और पानी की कोई कमी नहीं है सरकार ने क्या कुछ नहीं किया बड़ा बांध बनवाया, खेतों को समतल कराया,कृषि के अनुसन्धान पर अरबो रु पानी की तरह लगाये ,अनुदान, सस्ते ब्याज का पैसा दिया ,तमाम बीज और खाद को किसानो के मुंह तक पहुँचाया फिर भी यहाँ के खेत बंजर हो रहे हैं और किसान गरीब हो रहे है. और वे अब आत्म हत्या करने लगे है. बच्चे खेती छोडकर भाग रहे हैं. किसान खेती के बदले कुछ भी करने को मजबूर है.
सोयाबीन जहाँ एक एकड़ में २० क्विंटल होता था वो अब २० किलो पर आ गया है, धान में लागत असमान छु रही है और भाव पटियों पर हैं, गेंहू में उत्पादन हर साल घट रहा है.लागत बढती जा रही है. किसान जमीनों को हाल साल में या जड़ खरीद में ओने पाने भाव में बेचने लगे हैं. घबराहट चरम सीमा पर है.
किन्तु हमारा मानना है की इस समस्या से आसानी से पार पाया जा सकता है इस में लागत बढ़ाने की अपेक्षा घटाने की जरुरत है. जुताई बंद कर नरवाई को बचा भर लेने से इस समस्या का समाधान हो जायेगा और यहाँ का किसान अमेरिका के किसान को भी मात दे देगा. किन्तु ये काम सरकार के बस का नहीं है. ये काम किसान स्वं अपने आत्म निर्भर संघ बना कर कर सकते है. जुताई आधारित रसायन मिश्रित जैविक खेती धोका है. अनेक खेती के वैज्ञानिक और विदेशी सहायता से चल रहे एन. जी. ओ. किसानो को भ्रमित कर रहे हैं इन से बचने की जरूरत है. ऑर्गनिक और जैविक के नाम से अनेक नकली सामान की दुकाने चल रही हैं इन से बचने की जरुरत है. किसानो को अधिक दाम के लालच के बदले ८०% लागत कम करने और प्रति एकड़ उत्पादन बढ़ाने पर बल देना चाहिए जो बिना जुताई की खेती से ही संभव है.
पशु पालन जरुरी है इस के लिए चारे के पेड़ लगाने होंगे जैसे सुबबूल इस से सालभर भरपूर चारा मिलता है और भरपूर जलाने का इंधन. हमारी मुख्य आमदनी जलाऊ इंधन से पूरी हो जाती है. सुबबूल की खेती बहुत आसान है. इस से हम अपने इलाके को ओधोगिगता भी प्रदान कर सकते हैं इसका नक्शा बदल सकते हैं. सोयाबीन एक अच्छी पैसा देने वाली फसल है. इसका उत्पादन आसानी से बिना जुताई खाद और दवा के बढाया जा सकता है, धान की खेती के लिए गड्डे बनाना ,कीचड मचाना ,रोपे लगाना सब व्यर्थ के काम हैं. रासयनिक गेंहूं से कही अधिक कुदरती गेंहू बिना लागत के पैदा होता है. ये सब बातें किताबी नहीं हैं इन्हें हमारे फार्म पर देखा और सीखा जा सकता है.
हमारा फार्म अब बिना जुताई की कुदरती खेती (ऋषि खेती) का विश्व न. वन हो गया है. इस में हम बरसों से प्रशिक्षण दे रहे हैं जिसके कारण ना केवल भारत में वरन भारत के बाहर भी अनेक फार्म बने है और बनते जा रहे है. स्थानीय किसान संघों को इसका फायदा उठाना चाहिए इस में हम पूरा सहयोग करने का वायदा करते है.
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