कुदरती खेती के बढ़ते कदम और रास्ते में आने वाली दिक्कतें.
विगत दिनों मुझे ICRA बेंगलोर के भाई बाबु और बहन गायत्री ने देवनगेरे जो बेगलोर से करीब २५० km दूर है के कृषि विज्ञानं केंद्र में कर्णाटक के अनेक जिलों से आये करीब १०० किसानो को उपरोक्त विषय को समझाने के लिए बुलाया गया था. जिसमे OFAI ने भी सहयोग प्रदान किया. आजकल हरित क्रांति के कारण खेती किसानी में उत्त्पन्न समस्याओं के चलते आम किसान विकल्प की खोज में है. जुताई और बिना जुताई की अनेक खेती की विधियाँ बताई जा रही हैं जिस से किसान असमंजस में हैं. इस लिए हमने अपनी बात रखने से पहले किसानो से पूछा की पेड़ों को काटकर उसकी छाया को मिटाना तथा खेतों को भारी मशीन से बहुत गहराई तक जोतना क्या कुदरती (जैविक) तरीका है.जिसमे बरसात का पानी खेतों में न समाकर तेजी से बह जाता है साथ में जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है.? जिस से खेत सूख कर कमजोर हो रहे हैं जिनसे बिना खाद और दवाई से खेती करना अब नामुमकिन हो रहा है. दूसरा इन कमजोर खेतों की कमजोर फसलें क्या वाकई स्वास्थवर्धक हैं?
दूसरा इन कुदरती वनों को देखिये न जुताई ना खाद और ना दवाई फिरभी सब कुछ साल दर साल अच्छा होता जा रहा है. बरसात का पानी जमीन में समां जाता है जो बाद में वास्पीकरण के मध्यम से सिंचाई का काम करते हुए बदल बन बरसता है. हरयाली प्रदुषण निवारण के साथ साथ मोसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को थामने का काम करती है .हरयाली की गहरी और घनी जड़ें भूमि के अंदर की जैवविविध्ताओं, जल और हवा का संचार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं. लोग समझते हैं बरसात आसमान से आती है ये भ्रान्ति है पानी का असली स्रोत भूमिगत जल है ये जल होगा तभी पानी बरसेगा नहीं तो नहीं.
जुताई आधारित खेती की कुदरती हरयाली से बहुत बड़ी दुश्मनी है खरपतवार और छाया किसानो को बर्दास्त नहीं है. यही कारण है की हमारे कुदरती वन, चारागाह और बाग़ बगीचे सब के सब अनाज की खेती के कारण रेगिस्तान में तब्दील होते जा रहे है. पर्यावरण की अनेक समस्याओं के पीछे यही मूल कारण है.
कार्य शाला का पहला पूरा दिन हमने हमारे खेतों और फुकुओकाजी के फार्म के फोटो दिखाते हुए अपनी बात स्पस्ट करने की कोशिश की किन्तु अनेक सवाल किसानो ने अपनी असहमति प्रगट करते हुए हमसे पूछे. हजारों सालों से खेती करने के लिए की जारही जमीन की जुताई आज अचानक गलत कैसे हो सकती है ?
दूसरा दिन कुदरती खतों के भ्रमण का था २० की.मी . दूर भाई राघव का कुदरती फार्म था हम सब वंहा बस में बैठ कर पहुंचे इस फार्म में पिछले अनेक सालों से जमीन की जुताई, खाद और दवा का उपयोग बंद किया जा चुका था. नारियल के पेड़ों के नीचे . आम अमरुद आदि के साथ वंहा हमें पेड़ों के नीचे की जाने वाली वेनीला और कोको की खेती देखने को मिली. तथा जमीन पूरी तरह से दलहन जाती के पोधों से ढंकी थी. इस खेत को देखकर हम सभी आश्चर्य चकित हो गए. हमारे सारे प्रश्न हवा हो गए. लोटकर सभी से पूछा गया सबने बिनाजुतई की खेती को सर्वोत्तम बताकर हमारी इस कार्यशाला को ९०% सफल बना दिया. इस समूह में और भी अनेक कुदरती किसान थे जो पिछले अनेक सालों खेती कर रहे थे फिर उन्होंने भी खुल कर अपने अनुभव सब के साथ बांटे. फिर भी अनेक ऐसे प्रश्न थे जिन पर चर्चा होनी थी. तो हम सब ने आयोजकों के आग्रह पर आखरी समय तक निवारण करने का प्रयास किया. जिसमे कुदरती खेती क्या है ? इस को कैसे शुरू किया जाये ? इस से सामाजिक,पर्यावरण और आर्थिक लाभ क्या हैं.? गरीब से गरीब सूखी खेती के किसान इसे कैसे करें आदि?
कार्य शाला में एक बार जब विषय समझ में आ गया तो सवाल के जवाब अपने आप आपस में सुलझ गए. इस कार्य शाला में सब से महत्वपूर्ण भूमिका भाई बाबु और गायत्री बहन ने निभाई उहोने छोटे से छोटे सवाल को अनुतरित नहीं रहने दिया. मै हिंदी में बोल रहा था और हमारे बीच के एक भाई कन्नड़ में अनुवाद कर रहे थे. तीन दिन कब निकल गए पता नहीं पड़ा. इस कार्यशाला में स्थानीय कृषि विज्ञानं केंद्र की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता. सभी के रहने ,खाने के साथ सँचालन मे उनका सहयोग भुलाया नहीं जा सकता है. इस कार्य शाला में दूर दूर से आये किसानो ने अपने अनुभव सुनाकर सभी को आश्चर्य चकित कर दिया.
मेरे लिए ये एक बहुत ही सफल कार्य शाला रही क्यों की ये पूरीतरह बिना जुताई की कुदरती खेती विषय पर आयोजित की गयी थी. इस में पूरी जवाबदारी मेरे उपर सोपी गयी थी. और मुझे ख़ुशी है की में इस में सफल रहा.अधिकतर लोग ये समझते हैं की खेती की बिगडती हालत में रसायनों का बहुत बड़ा हाथ है इस लिए यदि हम रसायनों के बदले जैविक खाद दवाओं का उपयोग करने लगें तो समाधान हो जायेगा. ये एक भ्रान्ति है. जमीन की जुताई से होने वाले भूमि, जैव , और पानी के छरण के चलते कुछ लाभ संभव नहीं है.और इस छरण के रुकते ही बाहरि खाद और दवा गेर जरुरी हो जाते हैं. कृषि अवशेषों को जहाँ का तहां वापस कर देने से खेतों की जुताई अपने आप हो जाती है.
इस का मतलब ये नहीं है की कुदरती खेती विश्वव्यापी जैविक खेती की विरोधी है. कुदरती खेती असली जैविक खेती है.
हम जैविक तत्वों का महत्व समझते हैं उनको जहाँ का तहां वापस ड़ाल देते है कंही बाहर से लाना या खेतों के जैविक तत्वों को खेत के बाहर कर देना, जला देना या खाद बनाने को गलत मानते है. हम गोबर गोंजन,गोमूत्र,नरवाई,पुआल आदि को जहाँ से लेते है वहीँ लोटा देते हैं. ऐसा करने से जैविक तत्वों की आपूर्ति हो जाती है.
जब से हरित क्रांति पर प्रश्न चिह लगा है अनेक प्रकार की खाद दवाओं को बेचने की डाक्टरी चलने लगी है.कोई केंचुए की खाद बनाने की सलाह देता है तो कोई गोबर,गोमूत्र से खाद और दवा बना रहा है, तो कोई सूक्ष्म जीवाणु की दुकान चला रहा है. अमृत मिटटी, अमृत पानी, सूक्ष्म जीवाणुओं के टीके आदि जैसे अनेक टोने टोटके चल पड़े हैं. असल में कोई भी दवा जब कारगर होती है जब कोई बीमार हो इस लिए दवा को कारगर बनाने के लिए जरुरी है की हम कमजोरी पैदा करें . जमीन की जुताई इस में पूरी तरह सक्षम है. मै यूरिया और यूरिन में फसलोत्पादन के लिहाज से कोई फर्क नहीं समझता हूँ. इस प्रकार आप मेलथिओन से मारें या नीम से उदेश्य हिंसा है. जुताई आधारित सभी खेती की विधियाँ हिंसक हैं. ये परमाणु बम से भी खतरनाक काम है. हमारे देश को अंग्रेजों ने जितना नुकसान नहीं पहुँचाया उतना नुकसान भारी मशीनो से की जाने वाली गहरी जुताई ने पहुँचाया है. दूसरा नो घातक कृषि रसायनों का आता है.
जुताई नहीं कर खेती करने से कमजोरी और बीमारी नहीं रहती है इस लिए इस डाक्टरी की कोई जरुरत नहीं है. अधिकतर लोग कुदरती खेती को पशुपालन का विरोधी बताते हैं जबकि जुताई आधारित खेती से हरयाली नस्ट हुई है जिस से पशुपालन नामुमकिन हो गया है. कुदरती खेती से हरयाली वापस आजाती है जिसके साथ साथ पशुपालन भी होने लगता है. पशु पालन के लिए लोग अनाजों और घासों का सहारा लेते हैं किन्तु हम पिछले २५ सालों से चारे के पेड़ों की पत्तियों से सफलता से पशु पालन कर रहे हैं. इस से हमें जलाऊ लकड़ियाँ भी मिल जाती है.जो हमारा आय का मुख्य श्रोत है. हम बाजार भाव से आधि कीमत में गरीब वर्ग को इंधन उपलब्ध कराते हैं.
प्रचीन भारती खेती किसानी में जुताई से कमजोर होते खेतों को पड़ती कर उसमे पशु पाले जाते थे जिस से इंधन और चारे दोनों का समाधान हो जाता था और खेत पुन: ताकतवर हो जाते थे. किन्तु हरित क्रांति में मशीनो, रसायनों और भारी सिचाई के चलते किसान कृषि अवशेषों को जला देते हैं. घास के लिए जंगलों में आग लगा दी जाती है. छाया के डर से पेड़ नहीं रखे जाते हैं. चुन चुन कर मूल फसलों के आलावा वनस्पतियों को खरपतवार मान कर मार दिया जाता है. हर एक वनस्पति के सहारे अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु रहते हैं. जो हमारी फसलों के लिए बहुत ही लाभप्रद हैं. इनकी हत्या बहुत बड़ी हिंसा है.
बिना जुताई की कुदरती खेती भूमि ढकाव फसलों के साथ साथ पेड़ों के साथ की जाती है. हर पेड़ अपनी छाया की गोलाई में केवल 'देने' का काम करता है. ये कहना ये पोधे जमीन से 'लेते' हैं भ्रान्ति है. इस लिए इस खेती से हरयाली पनपती है. और सूखे तथा बाढ़ का नियंत्रण होता है.
कुदरती खेती ग्लोबलवार्मिंग को थामने में सक्षम है.
इस कार्य शाला के उपरान्त बैंगलोर के कृषि अनुसन्धान संस्थान में ofai और icra के द्वारा उपरोक्त विषय पर एक सेमिनार को आयोजित किया गया था जिसमे मुझे बोलना था जो मेरे लिए इस प्रकार का पहला अनुभव था बाबु ने बताया की आज रविवार है इस लिए मालूम नहीं कितने लोग यंहा आयेंगे किन्तु आश्चर्य की बात थी की हाल खाचा खच भरा था. इस में मैने हरयाली की कमी के कारण धरती पर बढ़ रही गर्मी के बारे में बताने की कोशिश की ये गर्मीं जमीन की जुताई के कारण जमीन में जमा कार्बन के ग्रीनहाउस गेस में परिवर्तन के कारण हो रही है. यदि हम बिना जुताई की खेती करें तो हम इस पर काबू पा सकते हैं. अनेक देशों में अब किसान बिना जुताई की खेती करने लगे हैं. अमेरिका में ४० % किसान नो टिल फार्मिंग कर रहे हैं. उन्हें सरकार और उनकी समिति अतिरक्त आर्थिक लाभ देते हैं.ये किसान वंहा समाज में सम्मान पाते हैं. जबकि वे मशीनो और रसायनों का इस्तमाल करते हैं. किन्तु हमारे यंहा बिना जुताई की रसायन और मशीनो के बिना की जाने वाली खेती को भी सरकार ने अभी तक मान्यता प्रदान नहीं की है.
इस सेमिनार में मैसूर से पधारे श्री क्रिश्नामुर्तिजी ने भी अपने उदगार रखे वे अनेक सालों से कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं. यंहा पर आये अनेक लोगों ने बाजारू जैविक खेतीके पनप रहे गोरखधंदे पर प्रश्न चिन्ह लगये. हमने कहा की जब हमारे कृषि उत्पाद में लागत कम है तो वे हर हाल में सस्ते रहना चहिये किन्तु बिचोलिये उन्हें महंगा कर बेचते हैं ये ठीक नहीं है. इस लिए हर किसी को अपना कुदरती आहार पैदा करने के बारे सोचना चाहिए. वे इस छुट्टियों में भी कर सकते हैं.
मुझे बड़ी प्रसन्नता जब मिली जब मेरे द्वारा बोले गए को बगलोर के आईटी भाई शशी ने अनुवाद किया वे बगलोर से ९० km दूर कुदरती खेती कर रहे हैं. कुल मिलाकर सेमिनार बहुत सफल रहा .
राजू टाइटस
विगत दिनों मुझे ICRA बेंगलोर के भाई बाबु और बहन गायत्री ने देवनगेरे जो बेगलोर से करीब २५० km दूर है के कृषि विज्ञानं केंद्र में कर्णाटक के अनेक जिलों से आये करीब १०० किसानो को उपरोक्त विषय को समझाने के लिए बुलाया गया था. जिसमे OFAI ने भी सहयोग प्रदान किया. आजकल हरित क्रांति के कारण खेती किसानी में उत्त्पन्न समस्याओं के चलते आम किसान विकल्प की खोज में है. जुताई और बिना जुताई की अनेक खेती की विधियाँ बताई जा रही हैं जिस से किसान असमंजस में हैं. इस लिए हमने अपनी बात रखने से पहले किसानो से पूछा की पेड़ों को काटकर उसकी छाया को मिटाना तथा खेतों को भारी मशीन से बहुत गहराई तक जोतना क्या कुदरती (जैविक) तरीका है.जिसमे बरसात का पानी खेतों में न समाकर तेजी से बह जाता है साथ में जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है.? जिस से खेत सूख कर कमजोर हो रहे हैं जिनसे बिना खाद और दवाई से खेती करना अब नामुमकिन हो रहा है. दूसरा इन कमजोर खेतों की कमजोर फसलें क्या वाकई स्वास्थवर्धक हैं?
दूसरा इन कुदरती वनों को देखिये न जुताई ना खाद और ना दवाई फिरभी सब कुछ साल दर साल अच्छा होता जा रहा है. बरसात का पानी जमीन में समां जाता है जो बाद में वास्पीकरण के मध्यम से सिंचाई का काम करते हुए बदल बन बरसता है. हरयाली प्रदुषण निवारण के साथ साथ मोसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को थामने का काम करती है .हरयाली की गहरी और घनी जड़ें भूमि के अंदर की जैवविविध्ताओं, जल और हवा का संचार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं. लोग समझते हैं बरसात आसमान से आती है ये भ्रान्ति है पानी का असली स्रोत भूमिगत जल है ये जल होगा तभी पानी बरसेगा नहीं तो नहीं.
जुताई आधारित खेती की कुदरती हरयाली से बहुत बड़ी दुश्मनी है खरपतवार और छाया किसानो को बर्दास्त नहीं है. यही कारण है की हमारे कुदरती वन, चारागाह और बाग़ बगीचे सब के सब अनाज की खेती के कारण रेगिस्तान में तब्दील होते जा रहे है. पर्यावरण की अनेक समस्याओं के पीछे यही मूल कारण है.
कार्य शाला का पहला पूरा दिन हमने हमारे खेतों और फुकुओकाजी के फार्म के फोटो दिखाते हुए अपनी बात स्पस्ट करने की कोशिश की किन्तु अनेक सवाल किसानो ने अपनी असहमति प्रगट करते हुए हमसे पूछे. हजारों सालों से खेती करने के लिए की जारही जमीन की जुताई आज अचानक गलत कैसे हो सकती है ?
दूसरा दिन कुदरती खतों के भ्रमण का था २० की.मी . दूर भाई राघव का कुदरती फार्म था हम सब वंहा बस में बैठ कर पहुंचे इस फार्म में पिछले अनेक सालों से जमीन की जुताई, खाद और दवा का उपयोग बंद किया जा चुका था. नारियल के पेड़ों के नीचे . आम अमरुद आदि के साथ वंहा हमें पेड़ों के नीचे की जाने वाली वेनीला और कोको की खेती देखने को मिली. तथा जमीन पूरी तरह से दलहन जाती के पोधों से ढंकी थी. इस खेत को देखकर हम सभी आश्चर्य चकित हो गए. हमारे सारे प्रश्न हवा हो गए. लोटकर सभी से पूछा गया सबने बिनाजुतई की खेती को सर्वोत्तम बताकर हमारी इस कार्यशाला को ९०% सफल बना दिया. इस समूह में और भी अनेक कुदरती किसान थे जो पिछले अनेक सालों खेती कर रहे थे फिर उन्होंने भी खुल कर अपने अनुभव सब के साथ बांटे. फिर भी अनेक ऐसे प्रश्न थे जिन पर चर्चा होनी थी. तो हम सब ने आयोजकों के आग्रह पर आखरी समय तक निवारण करने का प्रयास किया. जिसमे कुदरती खेती क्या है ? इस को कैसे शुरू किया जाये ? इस से सामाजिक,पर्यावरण और आर्थिक लाभ क्या हैं.? गरीब से गरीब सूखी खेती के किसान इसे कैसे करें आदि?
कार्य शाला में एक बार जब विषय समझ में आ गया तो सवाल के जवाब अपने आप आपस में सुलझ गए. इस कार्य शाला में सब से महत्वपूर्ण भूमिका भाई बाबु और गायत्री बहन ने निभाई उहोने छोटे से छोटे सवाल को अनुतरित नहीं रहने दिया. मै हिंदी में बोल रहा था और हमारे बीच के एक भाई कन्नड़ में अनुवाद कर रहे थे. तीन दिन कब निकल गए पता नहीं पड़ा. इस कार्यशाला में स्थानीय कृषि विज्ञानं केंद्र की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता. सभी के रहने ,खाने के साथ सँचालन मे उनका सहयोग भुलाया नहीं जा सकता है. इस कार्य शाला में दूर दूर से आये किसानो ने अपने अनुभव सुनाकर सभी को आश्चर्य चकित कर दिया.
मेरे लिए ये एक बहुत ही सफल कार्य शाला रही क्यों की ये पूरीतरह बिना जुताई की कुदरती खेती विषय पर आयोजित की गयी थी. इस में पूरी जवाबदारी मेरे उपर सोपी गयी थी. और मुझे ख़ुशी है की में इस में सफल रहा.अधिकतर लोग ये समझते हैं की खेती की बिगडती हालत में रसायनों का बहुत बड़ा हाथ है इस लिए यदि हम रसायनों के बदले जैविक खाद दवाओं का उपयोग करने लगें तो समाधान हो जायेगा. ये एक भ्रान्ति है. जमीन की जुताई से होने वाले भूमि, जैव , और पानी के छरण के चलते कुछ लाभ संभव नहीं है.और इस छरण के रुकते ही बाहरि खाद और दवा गेर जरुरी हो जाते हैं. कृषि अवशेषों को जहाँ का तहां वापस कर देने से खेतों की जुताई अपने आप हो जाती है.
इस का मतलब ये नहीं है की कुदरती खेती विश्वव्यापी जैविक खेती की विरोधी है. कुदरती खेती असली जैविक खेती है.
हम जैविक तत्वों का महत्व समझते हैं उनको जहाँ का तहां वापस ड़ाल देते है कंही बाहर से लाना या खेतों के जैविक तत्वों को खेत के बाहर कर देना, जला देना या खाद बनाने को गलत मानते है. हम गोबर गोंजन,गोमूत्र,नरवाई,पुआल आदि को जहाँ से लेते है वहीँ लोटा देते हैं. ऐसा करने से जैविक तत्वों की आपूर्ति हो जाती है.
जब से हरित क्रांति पर प्रश्न चिह लगा है अनेक प्रकार की खाद दवाओं को बेचने की डाक्टरी चलने लगी है.कोई केंचुए की खाद बनाने की सलाह देता है तो कोई गोबर,गोमूत्र से खाद और दवा बना रहा है, तो कोई सूक्ष्म जीवाणु की दुकान चला रहा है. अमृत मिटटी, अमृत पानी, सूक्ष्म जीवाणुओं के टीके आदि जैसे अनेक टोने टोटके चल पड़े हैं. असल में कोई भी दवा जब कारगर होती है जब कोई बीमार हो इस लिए दवा को कारगर बनाने के लिए जरुरी है की हम कमजोरी पैदा करें . जमीन की जुताई इस में पूरी तरह सक्षम है. मै यूरिया और यूरिन में फसलोत्पादन के लिहाज से कोई फर्क नहीं समझता हूँ. इस प्रकार आप मेलथिओन से मारें या नीम से उदेश्य हिंसा है. जुताई आधारित सभी खेती की विधियाँ हिंसक हैं. ये परमाणु बम से भी खतरनाक काम है. हमारे देश को अंग्रेजों ने जितना नुकसान नहीं पहुँचाया उतना नुकसान भारी मशीनो से की जाने वाली गहरी जुताई ने पहुँचाया है. दूसरा नो घातक कृषि रसायनों का आता है.
जुताई नहीं कर खेती करने से कमजोरी और बीमारी नहीं रहती है इस लिए इस डाक्टरी की कोई जरुरत नहीं है. अधिकतर लोग कुदरती खेती को पशुपालन का विरोधी बताते हैं जबकि जुताई आधारित खेती से हरयाली नस्ट हुई है जिस से पशुपालन नामुमकिन हो गया है. कुदरती खेती से हरयाली वापस आजाती है जिसके साथ साथ पशुपालन भी होने लगता है. पशु पालन के लिए लोग अनाजों और घासों का सहारा लेते हैं किन्तु हम पिछले २५ सालों से चारे के पेड़ों की पत्तियों से सफलता से पशु पालन कर रहे हैं. इस से हमें जलाऊ लकड़ियाँ भी मिल जाती है.जो हमारा आय का मुख्य श्रोत है. हम बाजार भाव से आधि कीमत में गरीब वर्ग को इंधन उपलब्ध कराते हैं.
प्रचीन भारती खेती किसानी में जुताई से कमजोर होते खेतों को पड़ती कर उसमे पशु पाले जाते थे जिस से इंधन और चारे दोनों का समाधान हो जाता था और खेत पुन: ताकतवर हो जाते थे. किन्तु हरित क्रांति में मशीनो, रसायनों और भारी सिचाई के चलते किसान कृषि अवशेषों को जला देते हैं. घास के लिए जंगलों में आग लगा दी जाती है. छाया के डर से पेड़ नहीं रखे जाते हैं. चुन चुन कर मूल फसलों के आलावा वनस्पतियों को खरपतवार मान कर मार दिया जाता है. हर एक वनस्पति के सहारे अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु रहते हैं. जो हमारी फसलों के लिए बहुत ही लाभप्रद हैं. इनकी हत्या बहुत बड़ी हिंसा है.
बिना जुताई की कुदरती खेती भूमि ढकाव फसलों के साथ साथ पेड़ों के साथ की जाती है. हर पेड़ अपनी छाया की गोलाई में केवल 'देने' का काम करता है. ये कहना ये पोधे जमीन से 'लेते' हैं भ्रान्ति है. इस लिए इस खेती से हरयाली पनपती है. और सूखे तथा बाढ़ का नियंत्रण होता है.
कुदरती खेती ग्लोबलवार्मिंग को थामने में सक्षम है.
इस कार्य शाला के उपरान्त बैंगलोर के कृषि अनुसन्धान संस्थान में ofai और icra के द्वारा उपरोक्त विषय पर एक सेमिनार को आयोजित किया गया था जिसमे मुझे बोलना था जो मेरे लिए इस प्रकार का पहला अनुभव था बाबु ने बताया की आज रविवार है इस लिए मालूम नहीं कितने लोग यंहा आयेंगे किन्तु आश्चर्य की बात थी की हाल खाचा खच भरा था. इस में मैने हरयाली की कमी के कारण धरती पर बढ़ रही गर्मी के बारे में बताने की कोशिश की ये गर्मीं जमीन की जुताई के कारण जमीन में जमा कार्बन के ग्रीनहाउस गेस में परिवर्तन के कारण हो रही है. यदि हम बिना जुताई की खेती करें तो हम इस पर काबू पा सकते हैं. अनेक देशों में अब किसान बिना जुताई की खेती करने लगे हैं. अमेरिका में ४० % किसान नो टिल फार्मिंग कर रहे हैं. उन्हें सरकार और उनकी समिति अतिरक्त आर्थिक लाभ देते हैं.ये किसान वंहा समाज में सम्मान पाते हैं. जबकि वे मशीनो और रसायनों का इस्तमाल करते हैं. किन्तु हमारे यंहा बिना जुताई की रसायन और मशीनो के बिना की जाने वाली खेती को भी सरकार ने अभी तक मान्यता प्रदान नहीं की है.
इस सेमिनार में मैसूर से पधारे श्री क्रिश्नामुर्तिजी ने भी अपने उदगार रखे वे अनेक सालों से कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं. यंहा पर आये अनेक लोगों ने बाजारू जैविक खेतीके पनप रहे गोरखधंदे पर प्रश्न चिन्ह लगये. हमने कहा की जब हमारे कृषि उत्पाद में लागत कम है तो वे हर हाल में सस्ते रहना चहिये किन्तु बिचोलिये उन्हें महंगा कर बेचते हैं ये ठीक नहीं है. इस लिए हर किसी को अपना कुदरती आहार पैदा करने के बारे सोचना चाहिए. वे इस छुट्टियों में भी कर सकते हैं.
मुझे बड़ी प्रसन्नता जब मिली जब मेरे द्वारा बोले गए को बगलोर के आईटी भाई शशी ने अनुवाद किया वे बगलोर से ९० km दूर कुदरती खेती कर रहे हैं. कुल मिलाकर सेमिनार बहुत सफल रहा .
राजू टाइटस
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