Thursday, February 9, 2012

कुछ मत करो आर्थिक लाभ.


कुछ मत करो
आर्थिक लाभ.
देवेंगेरे (कर्नाटक )  में नेचरल फार्मिग की कार्य शाला  के आखरी दिन जब अधिकतर लोग ये मान गए की कुदरती खेती करना दूसरी खेती  करने की विधियों से सरल, कम लागत वाली, प्रदुषण रहित और सबसे अधिक उत्पादन वाली है. तो प्रति एकड़ आर्थिक लाभ का प्रश्न उठा.
  आज कल हर कोई कुदरती खेती करने से पहले उस से मिलने वाले आर्थिक लाभ के बारे में जानना चाहता है. उस के मन में ये सोच रहता है की यदि हम जुताई नहीं करेंगे ,बाजार से खरीद कर खाद नहीं डालेंगे तो आर्थिक लाभ कैसे कमाएंगे.
      हमने भी इस असमंजस में अनेक साल फालतू बर्बाद किये. कुदरती खेती करने से पहले हम वैज्ञानिक खेती करते थे  इस से पूर्व हमारे यहाँ परंपरागत देशी खेती होती थी. जिसमे पेट्रोल,सिंचाई,खाद,दवाई,बिजली का कोई उपयोग नहीं था. खेती मोसम के अनुकूल होती थी. जितना भी मिलता उस से संतोष करना पड़ता था. खाने का  अनाज ,सब्जी, दूध आदि मिल जाता था. पकाने को इंधन की कमी नहीं थी. सादगी से रहने से समस्या अधिक नहीं थी. काफी हद तक इस खेती में आत्म निर्भरता थी. जो कुछ बचता उस से दो पैसे मिल जाते थे.अधिकतर खेती हम हमारे परिवार की जरुरत के मुताबिक करते थे.
किन्तु ये प्रश्न आखिर बना ही रहता था की हम अधिक से अधिक उत्पादन कर अधिक से अधिक पैसा कैसे कमाए. इसी चक्कर में हम "हरित" क्रांति के चक्कर में फंस गए. जिसमे वैज्ञानिक हमेशा "हाई यील्ड" और ग्रो मोर की बात करते हैं. बस हंमने आव देखा न तव तुरंत अपनी देशी खेती को बंद कर हरित क्रांति की वैज्ञानिक  खेती को अपना लिया.पहले साल जो उत्पादन मिला उस से कुछ उम्मीद बनी किन्तु दूसरे साल में ही ये उम्मीद टूटने लगी. अधिक लागत होने के कारण मुनाफा नहीं के बराबर था. १५ साल हम एक कोल्हू के बैल की तरह हरित क्रांति से मुनाफा कमाने के चक्कर में लगे रहे. जमीन बंजर हो गयी और हम कंगाल.
 हम खेती को बंद करने ही वाले थे की हमारे हाथ फुकुओकाजी की 'कुछ मत करो' खेती करने की किताब हाथ लग गयी. हमने इसे भी यही सोच कर की यदि लागत कम हो जाएगी और उत्पादन हमें बढते क्रम में मिलेगा तो मुनाफा तो जरुर होगा इसे अपना लिया.चाहे कुछ समय क्यों न लग जाये. और हम बेफिक्र हो कर कुदरती खेती करने लगे. किन्तु प्रति एकड़ मुनाफे का प्रश्न अभी भी बरक़रार रहा.किन्तु घाटा बंद हो जाने से हमें काफी संतोष रहा. यदि खूब आ नहीं रहा है तो कोई बात नहीं जा तो नहीं रहा है. फेक्ट्री की नोकरी का सहारा होने से हम बेफिक्र होकर अपने प्रयोगों में लगे रहे. हमने मुनाफा कमाने की नजर से अनाज, फल सब्जी दूध आदि की खेती कर ये पाया की इन सब चीजों में बाजार का जबरदस्त नियंत्रण है. बाजार हमें मुनाफा नहीं कमाने देता है.
इस सोच के आते ही हमने खाने पीने की तमाम चीजों को केवल हमारे लिए ही पैदा कने पर केद्रित करदिया.
और जमीन का अधिकतर हिस्सा हमने पूरी तरह कुछ नहीं करो पर छोड़ दिया. जिसमे अनेक सुबबूल जैसे अनेक पेड़ थे.
  सन 1999 में हमारी मुलाकात गाँधी आश्रम में फुकुओकाजी से हुई  अपनी समस्या उनके सामने रखने पर उन्होंने भी हमें यही सलाह दी की सुबबूल जैसे पेड़ों के साथ सीमित पशुपालन अच्छे से संभव और पेड़ न केवल आप के पशुओं को पर आपको भी अच्छे से पाल लेंगे.अनाज, फल दूध, सब्जी यदि उपयोग से अधिक है तो आप उसे बेच सकते हैं किन्तु कीमत हर हाल में दूसरों की अपेक्षा कम होनी चाहिए. इस से उपभोक्ता को शुद्ध मिलेगा और आपका मुनाफा भी बना रहेगा.तो हम इसी राह पर चल पड़े.
  हम सुबबूल  की पत्तियों को पशुओं को खिलाने के लिए पेड़ के उपर से शाखाये कटवाते है जिस से उपर की लाइट नीचे आ जाती है नए पोधों को बढ़ने में दिक्कत नहीं होती है.ऐसा करने से पत्तियां तो पशु खा जाते है किन्तु लकड़ियाँ वहीँ पड़ी रहती थी. इन्हें वंही मल्च की तरह इस्तमाल करते रहे  किन्तु. आसपास में गरीबों को पकाने के लिए  इंधन नहीं मिलने के कारण लोग इसे उठाकर ले जाते और दूसरी समस्या ये थी की आसपास के खेतों में किसान लोग स्ट्रा जलाते हैं जिस से अनेक बार ये लकड़ियाँ जल जाती थीं. इस समस्या के निवारण के लिए हमने अनेक बार इन लकड़ियों को जमीन में नालियां बनाकर गड़ा दिया किन्तु  इसमें लागत और श्रम अधिक होने से ये काम आगे नहीं हो सका. तो हमने इन लकड़ियों को घर के पास इकठा करना शुरू कर दिया. यंहा भी हमें इस में आग लगने का डर रहता था. तो मजबूरी में इसे बाजार से आधी कीमत में वहीँ से बेचना शुरू कर दिया.इस का लाभ ये हुआ की जिन गरीब परिवारों को खाना पकाने के लिए इंधन नहीं मिलता था उन्हें ये मिलने लगा और हमें इस से हजारो रु की आमदनी होने लगी.हमारे  अनुमान से ये बढ़ते क्रम में  १५ हजार रु /एकड़/माह  से अधिक है. जो हर हाल में अनाज,फल सब्जी आदि की खेती से बहुत अधिक है.
   एक ओर सरकारी हरित क्रांति है जिस से हरयाली खत्म हो गयी है.गरीब को अनाज तो मिल जाता है किन्तु पकाने को इंधन नहीं मिलता है. प्रति एकड़ पैदावार घट रही है.अनाज जहरीला हो रहा है, मोसम परिवर्तन, बढती गर्मी, उर्जा और जल का संकट हो रहा है, किसान आत्म हत्या कर रहे है. अनाज गोदामों में सड़ रहा है.
 दूसरी ओर ये कुदरती हरित क्रांति है.जिस से कुछ किये बगेर सब कुछ आसानी से मिल रहा है. हमारा ये मानना है जिस देश में किसान जो अन्नदाता कहलाता है को आत्म हत्या करने पर मजबूर होना पड़े. उस देश में अब सब को कुदरती आहार स्वं उगाना चाहिए. इसी लिए फुकुओकाजी सब को एक चोथाई एकड़ का किसान बनने की सलाह देते हैं.वो कहते है की "कुछ नहीं करो" विधि से हर कोई छुट्टियों में अपना आहार स्वं पैदा कर सकते हैं.
राजू टाईटस   

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