Sunday, March 1, 2015

जैवविविधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका सुधार योजना


 

जैवविविधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका सुधार योजना (BCRLIP) सतपुरा -पेंच कॉरिडोर 

TITUS NATURAL FARMING MODAL(RISHI KHETI )

 

 
 जकल आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियां जहाँ हमारे  जीवन को सुलभ बना  रही हैं वहीं इसका  विपरीत असर  हमारी जलवायु और  जैवविधताओं पर बहुत पड़ रहा है। जिसके कारण ग्रामीण आजीविका का संकट उत्पन्न हो गया है। 
  हम सब जानते हैं की देश 60 % आबादी अभी भी गांवों में रहती है। जो जल ,जंगल और जमीन पर आश्रित है। जिसका मूल व्यवसाय खेती है। ये सही है आधुनिक वैज्ञानिक खेती ने हमारे देश की खाद्य सुरक्षा में महत्व पूर्ण भूमिका निभायी है किन्तु इसके हानिकारक प्रभावों के चलते हमारे सामने जल ,जंगल और जमीन से जुडी जैव विवधताओं के लुप्त होने खतरा उत्पन्न हो गया है। इसलिए इनके संरक्षण की जरूरत आज की सबसे बड़ी मांग बन गयी है।
 
जंगली ,अर्ध जंगली और फलदार पेड़ों के साथ सब्जियों ,अनाज और चारे की खेती एक साथ
"आल इन वन क्वाटर एकड़ बगीचा "
भारत सरकार का पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग इस समस्या के प्रति जागरूक है। इसलिए जैव विविधता  ग्रामीण आजीविका सुधार की योजना "सतपुरा और पेंच कॉरिडोर के माध्यम से  म. प्र. सरकार द्वारा यहाँ कार्यरत है। इसका मूल उदेश्य ग्रामीण लोगों के साथ मिल कर पर्यावरण का संरक्षण करना है जिस से इस छेत्र की जलवायु और जैवविवधताएं संरक्षित रहें और ग्रामीणो को इसका लाभ मिले इसमें उनकी भागीदारी सुनश्चित की जा सके।

  अब हमे ऐसी खेती करने की जरूरत है जो हमारी लुप्त होती जैवविविधताओं को न सिर्फ थामे वरन फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता को भी बढ़ते क्रम में टिकाऊ बनाये।  बिना जुताई की कुदरती खेती जिसका आविष्कार जापान के जग प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक स्व मस्नोबू फुकुकाजी ने किया है। जिसे भारत  में किसानो के अपनाने लायक बनाने में टाइटस ऋषि खेती फार्म की अहम भूमिका रही है। इस फार्म ने फुकोओका  फार्मिंग  को जो नेचरल फार्मिग के नाम से विख्यात है को ऋषि खेती के नाम से दीर्घ कालीन अभ्यास कर प्रचारित करने भी बहुत बड़ा योगदान दिया है। 
 
यह खेती हमारे कुदरती वनो के सिद्धांतों पर आधारित है जैसे  वनो में जुताई ,खाद और दवाइयों की कोई जरूरत नहीं रहती है जिस के कारण जल ,जंगल और जमीन  की जैवविविधताये संरक्षित रहती हैं।  उसी प्रकार ऋषि खेती में जुताई ,खाद दवाइयों के बिना अनाजों,फलों , जंगली और अर्ध जंगली पेड़ों को एक साथ "आल इन वन " के आधार  पर फसलों का उत्पादन किया  जाता है। 
 
खरपतवारें जल जलवायु और  जैवविधताओं की माँ हैं। 
ऋषि खेती में कुदरती तरीके से अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों जिन्हे खरपतवार कहा जाता  है की अहम भूमिका रहती है।  ये  जमीन पर अपना घर  बनाकर अनेक जीव जंतु ,कीड़े मकोड़ों जैसे केंचुए ,चीटियाँ ,दीमक आदि को आश्रय प्रदान करती हैं। जिनके जीवन चक्र से जमीन बहुत नीचे तक उर्वरक ,छिद्रित और नम हो जाती है। इसके कारण बरसात का पानी जमीन के द्वारा सोख लिया जाता है जो साल भर इस जैवविविधता के काम आता जिस से आस पास की  तमाम फसलें झाड़ियाँ और पेड़ों को खाद और पानी लगातार मिलता रहता है। 


पेड़ों के साथ गेंहूँ की फसल उत्पादन ५०० ग्राम /वर्ग मीटर 
हम इन कुदरती वनस्पतयों में गेंहूँ ,चावल ,दालों ,सब्जियों और फलों की खेती करते हैं। इसे करने के लिए सीधे बीजों को या बीजों को क्ले (कप वाली मिट्टी ) की गोली में बंद कर फेंकते हैं ,जरूरत पड़ने पर  रोपे  भी लगाते  हैं।   हर वनस्पति एक दुसरे की पूरक रहती है जिसमे इनके सहारे  रहने वाले कीड़े मकोड़े ,जीव  जंतु भी और उनके दुश्मन भी परस्पर सहयोग से रहते हैं। इसे हम "आल इन वन " कहते हैं।
 
 
बिना टूटी नरवाई /पुआल और दाने अलग करने की पांव से चलने वाली मशीन 
पुआल के ढकाव से जैविक खाद बनती है. इस से  झांकते गेंहूँ के नन्हे पौधे 
 फसल पकने के बाद अनाज,सब्जी ,फल आदि तो हम ले लेते हैं किन्तु इनसे मिलने वाले तमाम अवशेषों जैसे पुआल ,नरवाई ,पत्तियां ,टहनियां आदि को जहाँ का तहाँ जमीन पर वापस डाल देते हैं जो एक ओर  जहाँ अनावशयक खरपतवारों को नियंत्रित करने में ,नमी के संरक्षण में ,हानिकारक कीड़ों के शिकारियों के छुपने में सहायता पहुंचाते हैं वहीं सड़ कर जैविक खाद बनते हैं। इसके लिए इस बात का ध्यान  रखने की जरूरत  है की धान की पुआल या गेंहूँ आदि की नरवाई भूसा नहीं बने  भूसा जमीन को चोक  कर देता है जिस से बीजों का अंकुरण प्रभावित होता है।

इसके लिए हम पांव से चलने वाले कटीले ड्रम का उपयोग करते हैं.  इस से अनाज के दाने अलग हो जाते हैं और पुआल तथा नरवाई बिना टूटे हुए अलग हो जाती है।

बिना टूटा हुआ पुआल /नरवाई  जमीन पर जहाँ का तंहा डालदेने से  बीज सुरक्षित हो जाते हैं जो उग कर बाहर निकल आते हैं। नन्हे पौधे ठीक जुते  हुए खेतों की तरह पनप  कर बम्बर फसल देते हैं। इस से एक और जहाँ ८०% खेती खर्च कम हो जाता है वहीं उत्पादों की गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है जिसे खाने से कैंसर जैसी बीमारी भी ठीक हो जाती है।

छिपकलियां और मेढक हानिकर कीड़ों को खा जाते हैं 
रात में उल्लू चूहे पकड़ लेते हैं 
इस खेती में फसलों में कोई बीमारी नहीं लगती है कुदरती संतुलन बना रहता है। छिपकलियां ,मेंढक आदि कीड़ों को खा लेते हैं। रात में पेड़ों पर उल्लू बैठते हैं जो चूहों के प्रकोप को खत्म कर देते हैं
 
 
 
 खेती में पम्परगत खेती की दो धारणाओं का पूरी तरह अंत हो जाता है पहला की खरपतवार फसलों का खाना  खा लेती है दूसरा छाया  में फसलें नहीं होती।  इस खेती का सबसे  बड़ा फायदा यह है की इसमें श्रम और लागत की भारी  कमी रहती है एक किसान परिवार जिसके परिवार में ५-६ सदस्य रहते हैं हर सदस्य को एक घंटे प्रति दिन से अधिक के समय की जरूरत  नहीं है। 

जल ,जंगल जैविविविधताओं के समन्वय से किसान की आजीविका हर हाल में सबसे अच्छी रहती है।
 

1 comment:

Majumdar said...

Rajuji,

The biggest thing the govt can do to support natural/organic farming (NF/OF) is by abolishing all subsidies to power, water, fertiliser, diesel and farm credit. The "productivity" of chemical farming I suspect comes from these subsidies and not from any magical properties in chemicals and fertilisers. If these subsidies are withdrawn I suspect most farmers will revert to rishi krishi in 5-10 years time. Meanwhile to support farmers all such subsidies, which I estimate to be around Rs. 200,000 crores can be replaced by a per hectare subsidy of around Rs. 14,000/hectare (200,000 crores divided by 140 million ha). What do you say, sir?

Regards