Saturday, March 7, 2015

रासायनिक खेती और जैविक खेती (ORGANIC FARMING ) एक सिक्के के दो पहलू हैं !

रासायनिक खेती और जैविक  खेती (ORGANIC FARMING  ) एक सिक्के के दो पहलू हैं !


जुताई (PLOWING) सब से हानिकारक कार्य है।

 
बिना जुताई की कुदरती खेती या बिना जुताई की जैविक खेती करें। 

बसे "हरित क्रांति " जो एक आधुनिक खेती के रूप में जानी जाती ,जिसमे खेती मशीनी जुताई और रसायनो को बल पर की जाती है पर सवालिया निशाँन  लगे हैं तब से "जैविक खेती "का हल्ला  बहुत सुनायी देने लगा है।
इन दोनों में केवल  इतना अंतर बताया जा रहा है की किसान रसायनो के बदले गैर रासयनिक उर्वरकों , कीड़ामार और नींदामार  उपायों को अमल में लाते रहे हैं।

कुदरती खेती की जग प्रसिद्ध किताब 

भारतीय पम्परागत प्राचीन खेती किसानी में खेती बिना जुताई के की जाती थी। वह असली कुदरती खेती थी। आज कल भी अनेक आदिवासी अंचलों में इस खेती को देखा जा सकता है। झूम खेती ,बेगा खेती और बारह अनाजी खेती ,उतेरा  आदि खेती की ऐसी प्राचीन पद्धतियाँ आज भी देखि जा सकती हैं। ये खेती किसानो के द्वारा बचाये कुदरती बीजों से की जाती हैं जिसमे सिंचाई ,रसायनो और मशीनो का बिलकुल उपयोग नहीं है।

बिना जुताई की जैविक खेती की
जग प्रसिद्ध किताब 
इन  खेती की प्राचीन तकनीकों का मौजूदा रासायनिक और जैविक खेती की तकनीकों से तुलना करने पर पता चलता है कि इनकी उत्पादकता ,गुणवत्ता  यानी आर्थिक ,सामाजिक एवं पर्यावरणीय स्तर के अनुसार सबसे उत्तम है। यही कारण है आदिवासी लोग आज भी हम शहरों में रहने वाले लोगों से बहुत तंदरुस्त हैं।

एक और जहाँ जैविक और अजैविक खेती की पद्धतियाँ हरियाली को मार कर जमीन को खूब खोद और जोत कर हिंसात्मक तरीके से की जारही हैं जिस से  हमारा पर्यावरण  नस्ट हो रहा है ,जमीने बंजर हो रही हैं ,सूखा और बाढ़ समस्या बन गए हैं।  वहीं कुदरती खेती की सभी विधियां हरियाली और जमीन की उर्वरकता और जलग्रहण शक्ति को बचा कर की जाती हैं।  जिस से हमारा पर्यावरण स्वस्थ रहता है कुदरती आहार ,कुदरती जल,और कुदरती हवा मिलती है।

इसलिए हमारा कहना है की जब तक खेती में जुताई और रसायनो को बंद नहीं किया जाता है किसानो को और कुदरत को जो हमारी माँ है कोई लाभ नहीं है।

फसलों  के उत्पादन में किसानो को सबसे अधिक परेशानी खरपतवारों से आती है , असल में ये खरपतवारें कुदरत के द्वारा खेतों को उर्वरकता ,नमी और छिद्रियता प्रदान करती हैं इनमे असंख्य जीव,जंतु ,कीड़े मकोड़े रहते हैं जो जमीन में पोषक तत्त्वों की आपूर्ती कर देते हैं जमीन को गहराई तक छिद्रिय बना  देते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में समा जाता है।

किसान जुताई कर इन लाभकारी खरपतवारों को जुताई , खरपतवार नाशक जहरों से या गुड़ाई आदि से निकलते रहते हैं इसलिए खेत बंजर हो जाते हैं इनमे रासायनिक या जैविक खादों के बिना फसलों का उत्पादन नहीं मिलता है। जुताई नहीं करने और खरपतवारों नहीं मारने से जमीन की जैवविवधताएं सुरक्षित रहती हैं जिसके कारण रासयनिक और जैविक खाद और दवाओं की कोई जरूरत नहीं रहती है।

बिना जुताई की कुदरती खेती में फसलों का उत्पादन अपने आप पैदा होने वनस्पतियों के साथ किया जाता है वहीँ बिना जुताई जैविक खेती में खरपतवारों को जहाँ का तहाँ जीवित सुला कर खेती की जाती है। 





 

3 comments:

dakshrk said...

"रासायनिक खेती और जैविक खेती (ORGANIC FARMING ) एक सिक्के के दो पहलू हैं !"
अच्छा लिखा है श्री मान परन्तु मेरे मान में एक प्रश्न उठता है कि जैविक को किस प्रकार से वताबरन के लिए दोषी बताया है यदि गोबर की खाद गौमूत्र आदि हानिकारक है तो उनका प्रयोग क्यों किया जाता है तो कुदरती खेती भी हानिकारक है और खेती ही हानिकारक हो सकती है

dakshrk said...

सभी लोग जानते हैं कि आज हर कोई मौसम में बदलाव के खतरे से डरा हुआ है। लेकिन समाधान की तरफ नहीं सोंचा जा रहा है, समस्या हमने पैदा की है तो समाधान भी हमारे ही हाथों में है और वह समाधान है जैविक खेती

जलवायु परिवर्तन खेतीबारी के विकास में एक बड़ी समस्या बन कर उभर रहा है। आज दुनिया के 50 से ज्यादा देश अनाज संकट से गुजर रहे हैं। जिससे खाद्यान्न सुरक्षा का संकट खडा हो गया है।

एक अनुमान के मुताबिक अगर कार्बन डाईआक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों का निकलना इसी तरह जारी रहा तो इस सदी के आखिर तक हमारी आबोहवा में 4 डिगरी सेल्सियस तापमान बढ़ सकता है। तापमान में इस इजाफे से धरती के उत्तरी भागेां में जहां फसलों के मुताबिक सही मौसम में इजाफे से पैदावार बढ़ेगी, वहीं मैदानी और गरम इलाकों में फसलों की पैदावार घटेगी।

जलवायु परिवर्तन के चलते गेहूं की पैदावार में 4-5 क्विटंल प्रति हेक्टेयर कमी आ सकती है।

खेती में संकर किस्मों के इस्तेमाल के साथ केमिकलों के लंबे समय तक इस्तेमाल से लगातार अच्छे नतीजे नहीं मिल पर रहे हैं। पिछले 5 सालों में कृषि विकास दर 2 फीसदी के आसपास रही है। जो अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अच्छी नहीं है।

खेती में जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने के लिए उत्पादन तकनीक में बदलाव लाने की जरूरत है। देश में हरित क्रांति से अनाज की पैदावार तो बढ़ी है। लेकिन जलवायु परिवर्तन में मददगार ग्रीनहाउस गैसों में भी इजाफा हुआ है। क्योंकि फसलों में केमिकल खादों, कीटनाशकों का इस्तेमाल इसके लिए मददगार है।

इसी तरह के आंकड़े थाइलैंड में भी देखने को मिलें हैं। जहां केमिकल खादों के इस्तेमाल में 25 फीसदी और केमिकल कीटनाशकों में 50 फीसदी इजाफे के बाद पैदावार में केवल 6.5 फीसदी की बढ़वार दर्ज की गई है।

वैज्ञानिक मानते है। कि जलवायु परिर्वन के कारण बढ़ते तापमान का असर के पैदावार पर ही नहीं पडे़गा बल्कि फसलों पर नए कीटों व बीमारियों का भी ज्यादा हमला हो सकता है। जिससे पैदावार पर और ज्यादा बुरा असर पडेगा।

खेती में जलावायु परिवर्तन के खतरे को कम करने के लिए जैविक खेती एक अच्छा रास्ता है। जिससे ग्रीनहाउस गैसों का निकलना कम होगा और पैदावार में भी इजाफा होगा। दुनिया भर में केमिकल खादों और कीटनाशकों पर आधारित खेती के लिए नाइट्रोजन खाद बनाने के लिए 9 करोड टन खनिज तेल या कुदरती गैस का इस्तेमाल हो रहा है। जिससे 25 करोड़ टन कार्बन डाइआक्साइड गैस हवा में मिलती है। इसी तरह केमिकल कीटनाशकों से भी ग्रीनहाउस गैसें निकलती है।

अकेले भारत में ही तकरीबन 47 हजार टन केमिकल कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है। जैविक खेती में पौधों के पोषक के लिए केमिकल खादों की जगह गोबर की खाद, हरी खाद, कंपोस्ट खाद, वर्मी कम्पोस्ट, नीलाहरा शैवाल, सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे राइजोवियम ऐजोटाबैक्टर माइक्रोराजा और माइक्रोइाहजा पर आधारित खादों का इस्तेमाल होता है। जिसने ग्रीनहाउस गैसें नहीं निकलती है। जैविक खेती में कीटों और बीमारियों की रोकथाम के लिए केमिकलों के स्थान पर जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है। ये कीटनाशक नीम, करंज, क्राईजैथेमम युकेलिप्टस जैसे कई पेड़ों से हासिल होते है। और इसके साथ ट्राईकोडर्मा फफूंद और म्यूडोमोनास जैसे जीवाणुओं से भी जैविक कीटनाशक बनते है।

वैज्ञानिकों के स्विटजरलैंड, आस्ट्रेलिया और जरमनी में किये गये तजरबों से यह पता चलता है कि मिट्टी में जैविक खेती से हवा की 575 से 7 सौ किलोग्राम तक कार्बन डाइआक्साइड गैस प्रति हेक्टेयर सोख ली जाती है। इस तरह जैविक खेती में इस्तेमाल किये गये किसी भी जैविक अंश से ग्रीनहाउस गैसें पैदा नही होती हैं। बल्कि वायुमंडल की कार्बन डाइआक्साइड भी सोख ली जाती है।

जैविक खादों के इस्तेमाल से मिट्टी में पानी को सोखने की ज्यादा कूबत होती है। जिससे इस पर उगाई गयी फसलों में सूखा सहने की ज्यादा ताकत होती । कृषि एवं खाद्य संगठन से कराए गए एक सर्वे के अनुसार जैविक विधि से उगाई गयी फसलों में ज्यादा पैदावार पाई गई है।

इस सर्वे में बोलबिया में आलू में प्रति हेक्टेयर 4 से 15 टन की बढोत्तरी दर्ज की गई। पाकिस्तान में आम की पैदावार में 6 से 30 टन प्रति हेक्टेयर, क्यूबा में सब्जियों में 2 गुणा और कीनिया में पक्के के उत्पादन में 2 से 9 टन का इजाफा पाया गया है।

भारत कुदरती संसाधनों से संपन्न देश है। जहां जैविक खेती के सभी संसाधन अच्छी मात्रा में मौजूद है इस तरह की खेती से जहां खेती की लागत में कमी आएगी। खेती फायदेमंद होगी। पर्यावरण भी साफ होगा और और इस तरह की खेती से उपजे उत्पाद क्वालिटी में अच्छे और सेहत के लिए भी फायदेमंद होगें।

कुदरती संसाधनों का प्रयोग ही हमारी पृथ्वी को बचा सकता है मेरा अनुरोध है समस्या का समाधान जैविक का प्राचर प्रसार करें अफबाहें न फैलाएं



Dr. Radha kant

Unknown said...

Mai ek chhota kishan hoon.abhi mere khet me pani laga thha jo sukh gaya hai bahut sare khar patwar nikal aaye hain.mai aalu phool govi lagana chahata hoon kripya marg Darshan den.