Sunday, February 19, 2012

लुप्त होती खेतों की मिट्टी


लुप्त होती खेतों  की मिटटी

आज विष्व की सबसे गंभीर समस्या खेतों से लुप्त हो रही मिटटी है। अमेरिका के भूगर्भ एवं कृषि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि जिस रफ्तार से खेतों की मिटटी बह रही है उससे हमारे पास फसलों को पैदा करने के लिये मिटटी नहीं रहेगी।

यह खबर नेचरल न्यूज़ मे छपे श्री डेविड ग्युटीरेज़ के लेख से मिली है ,जिसमे बताया गया है फसलोत्पादन के लिये खेतों मे की जा रही जुताई से बह रही मिटटी के कारण अब खेतों मे कुल तीन फुट ही मिटटी बची है जो विश्व के कुछ चुने हुए इलाकों मे ही है। विष्व का करीब तीन चैथाई भाग भूमी क्षरण के कारण रेगीस्तान मे तब्दील हो गया है।

खेतों के उपरी सतह की मिटटी अंसख्य सूक्ष्म जीवाणुओं,फफून्दों,जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों से युक्त रहती है इनके निरन्तर पैदा होते मरते रहने के कारण मिटटी का निर्माण होता है। कुदरति वनों मे जहां कोई छेड़ छाड़ नहीं होती है वहां कई सौ सालों मे मुष्किल से एक इन्च मिटटी का निर्माण होता है।

अमेरिका जैसे देशों  मे खेतों की जुताई करने से भूमी का क्षरण करीब दस गुना तेजी से हो रहा है। इसलिये वहां की सरकार ने चेतावनी दी है कि यह समस्या पर्यावरण की सबसे गंभीर समस्या के रुप मे उभर कर आ रही है यह केवल अमेरिका की समस्या नहीं है यह सम्पूर्ण विश्व  की समस्या है। ग्लोबल वार्मिगं, बदलती आव और हवा, जल संकट और पर्यावरण प्रदूषण का इससे सीधा सम्बधं है। वहां के अनेक किसानों ने इस कारण बिना जुताई के खेती करना शुरु कर दिया है। उनका कहना है कि खेती  करने के लिये की जा रही जमीन की जुताई अनावश्यक  है।

शालिनी एवं राजू टाइटस

बिना जुताई(ऋषि खेती) के किसान,

ग्राम-खोजनपुर

होषंगाबाद. म.प्र. 461001. फोन-07574-280084 , 09179738049 , इमेल-rajuktitus@gmail.com

Sunday, February 12, 2012


                                 बिना जुताई की कुदरती खेती
                                             ऋषि खेती

  भारतीय पम्परागत खेती किसानी में जुताई करना ठीक नहीं माना जाता था. इस लिए किसान कम से कम जुताई करते थे और जब वो देख लेते थे की जुताई के कारण खेत कमजोर हो रहे हैं तो वे जुताई बंद कर ठीक कर लिया करते थे. मध्य भारत में आज भी ऋषि पंचमी के पर्व पर बिना जुताई करे पैदा किये गए अनाज या कुदरती रूप से पैदा अनाज को खाने की सलाह दी जाती है. इस पर्व पर कान्स घास की पूजा  होती है. खेतों में काँस घास बहुत ही कठिन खरपतवार के रूप में जानि जाती है ये जुताई के कारण जमीन के कमजोर हो जाने पर आती है. ये घास जब खेतों में फूलने लगती थी किसान जान जाते थे अब खेत सूखने लगे हैं इस लिए वे जुताई को बंद कर खेतों में पशु चराते थे जिस से खेत फिर से उपजाऊ हो जाते थे. इसी लिए आज भी ऋषि पंचमी के पर्व में काँस घास की पूजा होती है.
   असल में खेत फसलों के पैदा होने से नहीं वरन जुताई करने से कमजोर होते हैं. जुताई करने से खेतों की बखरी मिट्टी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड में तब्दील हो जाती है इस लिए बरसात का पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ बखरी मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है. इस कारण खेत कमजोर होकर सूख जाते हैं. उनमे फसलें  पैदा करना कठिन हो जाता है और उस में कान्स जैसी गहरी जड़ वाली वनस्पतियाँ पनप जाती हैं जो किसान की नाक में दम कर देती है.
     भारतीय परम्परगत खेती किसानी में खेतों  को उपजाऊ बनाने  के लिए किसान दलहन और गेर दलहन  फसलों को बदल बदल कर लगाते थे  जिस से नत्रजन की कोई कमी नहीं होती थी. पड़ती करने से खेत पुन: ताकतवर और पानीदार हो जाते थे.
      अंग्रेजो के ज़माने में इंदोर म.प्र में एक कृषि वैज्ञानिक थे जिनका नाम था डॉ हावर्ड था जिन्होंने ये देखा की भारतीय परंपरागत खेती किसानी हजारों सालों से टिकाऊ है तो उन्होंने ये पाया की किसान गर्मियों में गोबर गोंजन आदि को खेतों में वापस ड़ाल आते हैं यही वो कारण है जिस से ये खेती टिकाऊ  बनी रहती है. बस इसी आधार पर उन्होंने कम्पोस्ट बनाने की विधि बनाई और जिसे रसायनों के बदले  उपयोग करने की सलाह देना शुरू किया. ये विधि पश्चिमी देशो में जहाँ गोबर, मुर्गियों की बीट और सूअर आदि के मल को विसर्जित करना बहुत बड़ी समस्या है में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई. इस खेती को उन्होंने ओरगेनिक खेती नाम दिया जो हिंदी में जैविक खेती कहलाती है.
  हमारे देश में बड़ी विडंबना है की हम अपने देशी तरीकों पर विश्वाश नहीं करते हैं वरन कोई भी विदेशी तकनीक को आंख बंद कर अमल में ले आते हैं.  वैसे ही जब हमारे देश में लोग रासायनिक खेती से परेशान होने लगे तो उन्होंने विदेशी ओरगेनिक तकनीक को इस के विकल्प के रूप में आंख बंद कर स्वीकार कर लिया. किन्तु किसी ने भी जुताई से होने वाले नुकसान की ध्यान नहीं दिया .सब ने यही सोचा की खेती किसानी में जो भी गलत हो रहा है उस के पीछे कृषि रसायनों का ही दोष है.
    इस भ्रान्ति को जापान के जग प्रसिद्ध कृषि के वैज्ञानिक माननीय मस्नोबू फुकुओका ने बिना जुताई की कुदरती खेती का अविष्कार कर दूर कर दिया उन्होंने पाया  की फसलों के उत्पादन के लिए की जारही जमीन की जुताई से एक बार में जमीन की आधी ताकत नस्ट हो जाती है. और यदि तमाम फसलों के अवशेषों जैसे पुआल, नरवाई, गन्ने की पत्तियां, सोयाबीन का टाटरा आदि को जहाँ का तहां फेला दें तो अलग से जैविक खाद बना कर खेतों में डालने की कोई जरुरत नहीं है.जुताई नहीं की जाये तो ये ताकत अपने आप कुदरती बढती जाती है. उन्होंने पाया की जमीन के एक छोटे से कण को यदि हम सूख्श्म दर्शी यंत्र से देखें तो उस में असंख्य सूक्ष्म जीवाणु नजर आयेंगे. इस में अनेक जीव जंतु निवास करते हैं जैसे केंचुए, दीमक,चीटे चीटी, चूहे आदि. इनके घर बरसात के पानी को जमीन के अंदर ले जाने के लिए जरुरी हैं. किन्तु जब जमीन को जोत दिया जाता है ये घर मिट जाते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है. वह अपने साथ बारीक मिट्टी जो असली जैविक खाद है को बहा कर ले जाती है इस कारण खेत कमजोर और सूखे हो जाते हैं.
   जैविक खेती का कहना है की रसायनों  के कारण खेत कमजोर हो रहे हैं और यदि जुताई के रहते खेतों में जैविक खाद डाली जाये और बीमारी की रोक थाम के लिए जैविक उपाय किये जाये तो खेत ताकतवर हो जायेंगे.ये भ्रान्ति है. ऐसा एक भी खेत नहीं है जिस में बाहर से जैविक अंश न लाये जाते हों बाहर से जैविक अंशो को लाने से जहाँ से भी ये लाये जाते है वहां की जमीन कमजोर हो जाती है. फुकुओकाजी  कहते है की ये तो अनेकों को गरीब और एक को अमीर बनाने वाली बात है.
    जब से फुकुओका जी ने बिना जुताई की खेती का अविष्कार किया है अमेरिका में बिना जुताई की खेती की धूम मच गयी है. ये दो प्रकार से की जाती है एक जैविक और  दूसरी अजैविक तरीके से जैविक तरीके में रसायनों  का बिलकुल इस्तमाल नहीं होता है अजैविक तरीके में किसान खरपतवारों को मारने के लिए रासायनिक  खरपतवार नाशक का उपयोग करते हैं. और नत्रजन आदि उर्वरकों को खेतों में डालते हैं. किन्तु वे इसे धीरे2 कम करते जा रहे हैं क्यों की जुताई नहीं करने से जल और जैविकता का छरण पूरी तरह रुक जाता है. बिना जुताई की कोई भी खेती हो चाहे वह बिना जुताई की जैविक खेती हो या बिना जुताई की अजैविक  खेती हो या बिना जुताई की कुदरती खेती हो सभी को अब अमेरिका आदि में कार्बन क्रेडिट का लाभमिलने लगा है ये लाभ पर्यावरणी लाभों के मद्दे नजर दिया जाता है. जिसे किसानो की यूनियन के द्वारा तय किया जाता है. वे देखते हैं किस किसान ने कितने केंचुओं के घर बचाए हैं एक वर्ग मीटर में केंचुओं के घरों के आधार पर प्रति एकड़ कार्बन सेविंग की गणना होती है. किन्तु जुताई वाली जैविक खेती को भूमि,जल और जैव विविधताओं के छरण के कारण टिकाऊ नहीं माना गया है. उनका ये भी कहना है की जुताई करने से जमीन का कार्बन गैस बन कर ग्रीन हॉउस गैस में तब्दील हो जाता है जिस से ग्लोबल वार्मिंग और मोसम परिवर्तन की समस्या हो रही है.
    इसमें कोई समझदारी नहीं है की पहले हम अपनी कीमती जैविक खाद को जुताई कर बहा दे और नरवाई को जला दें फिर बाहर से लाकर उस की पूर्ती करें. वैज्ञानिकों का मत है की हर साल एक एकड़ से करीब १० टन जैविक खाद बहकर/उडकर चली जाती है. जिस की कीमत NPK की तुलना में लाखो रु है.. इस प्रकार हम कितनी जैविक खाद कहाँ से लाकर डालेंगे. अधिकतर लोगों का मत है की पशु पालन कर हम इस की आपूर्ति कर लेंगे ये भ्रान्ति है इतनी खाद के लिए कितने पशु लगेंगे और उन्हें खिलाने के लिए कितने जंगल लगेंगे ये कोई नहीं सोचता है और आज जब किसानो ने पशुओं को त्याग कर मशीनो से खेती शुरू कर दी है ऐसे में पुन: वापस जाना ना मुमकिन है.
  बिना जुताई की जैविक खेती या बिना जुताई की अजैविक खेती को हजारों एकड़ जमीन में मशीन की सहायता से किया जा रहा है. इस तकनीक में कृषि अवशेषों को जलाया नहीं जाता है इसे जहाँ का तहां छोड़ दिया जाता है.खरपतवारों का नियंत्रण रसायनों या क्रिम्पर रोलर के माध्यम से किया जाता है.  तथा बुआई बिना जुताई की बोने की सीड ड्रिल से की जाती है. इस से एक और जहाँ ८०% डीजल की बचत होती है वहीँ ५०% सिंचाई खर्च बचता है भूमि में जल संरक्षित हो जाता है और खेत हर साल ताकतवर होते जाते है. इस से सोयाबीन, मक्का, गेंहूं आदि का बम्पर उत्पादन मिल रहा है. जिन इलाकों में सूखे के कारण खेती होना बंद हो गयी थी वहां अब बम्पर उत्पादन मिल रहा है. किसानो के बच्चे खेती किसानी के में लोटने लगे हैं. वहां किसानो का खोया सम्मान वापस आ गया है.
      बिना जुताई की कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं और जिस के अभ्यास और प्रचार में २५ सालों से अधिक समय से लगे हैं उसका
                           
आधार भी यही है केवल इस में अधिकतर काम हाथों से किया जाता है. किसी भी प्रकार की मशीन और रसायन का उपयोग नहीं किया जाता है ये विधा सीमान्त किसानो भूमिहीन किसानो,खेतिहर मजदूरों, महिलाओं और बच्चों के द्वारा आसानी से होने वाली  है. इस से एक चोथाई एकड़ में जहाँ ५-६ सदस्य वाले परिवार की परवरिश आसानी से संभव है. परिवार  के हर सदस्य को एक घंटे प्रति दिन से अधिक काम करने की जरुरत नहीं है.
   आजकल कुपोषण ,खून  में कमी, नवजात शिशुओं की मौत, केंसर  जैसी महाबीमारियों का बोल बाला है. और ये अभी और बढ़ने वाला है इस का मुख्य कारण कमजोर जमीनों में कमजोर फसलों,दूध,और सब्जी के पैदा होने के कारण है. एक श्रमिक कहता है की जहाँ दो रोटी में हम दिन भर काम करते थकते नहीं थे दस रोटी खाकर भी ताकत महसूस नहीं होती है. कहने को तो हमने इतना अनाज पैदा कर लिया है की उसको रखने की जगह नहीं है किन्तु अनाज अंदर से खोखला हो गया है. जहरीली दवाओं से नुकसान अतिरिक्त है. दूध पिलाने वाली हर महिला के दूध में ये जहर घुल रहा है. हर इन्सान के खून में जहर  पाया जाने लगा है. रासायनिक और जैविक खेती के विशेषज्ञों का कहना है पोषक तत्वों की कमी को उर्वरकों और  दवाओं से पूरा किया जा सकता है किन्तु ये भ्रान्ति है. गेर कुदरती दवाओं से फसलें हों या शरीर ये और कमजोर हो जाते हैं.



   इस लिए यूरिया हो या यूरीन , मेलथिओन हो या नीम कोई फर्क नहीं है. जब से रासयनिक खेती पर प्रश्न चिन्ह लगा है. तब से अनेक कुकरमुत्तों की तरह खेती के नीम हकीम पैदा हो गए है. कोई कहता है की केंचुओं की खाद डालो, कोई कहता है की राख़ डालो कोई कहता है की पत्थर को पीस कर डालो, कोई कहता है, काली गाय के सींग में गोबर डाल कर उसे जमीन में गाड कर खाद बनाओ, कोई अमृत मिटटी और अमृत पानी को बनाने की सलाह देता है कई किस्म के जीवाणुओं के टीके आज कल बाज़ार में आ गए हैं. अनेक प्रकार के जैविक और अजैविक  टानिक बाज़ार में आ गये हैं. फसलों को जल्दी से बड़ा करने के चक्कर में ओक्सीतोसीन जैसे घातक हारमोन गेंहूं और धान जैसी फसलों में डाले जाने लगे हैं. जुताई ,खाद ,दवाओं का गोरख धन्दा चल निकला है जिस के माध्यम से किसानो को लूटा जा रहा है इस में कम्पनियां डॉ को कमीशन देकर इसे प्रोत्साहित करती हैं. इन के उपयोग से कभी भी किसान आत्मनिर्भर नहीं बन सकता है. ये बहुत बड़ी हिंसा है.
     ऋषि खेती  पूरी तरह आत्म निर्भर खेती है जो कुदरती सत्य और अहिंसा पर आधारित है. इस में जुताई, किसी भी प्रकार के मानव निर्मित खाद,उर्वरक और दवाई का उपयोग नही है. जो गीताजी में लिखे अकर्म और भगवन बुद्ध के द्वारा बताये "कुछ नहीं " के सिधांत से मेल खाती है. इस में जमीन की उपरी और गहराई तक की जैव विविधताओं को बचाया जाता है जिस से धरती माता जियें और हमको जिलाएँ.
   अधिकतर किसान ये कहते हैं की ये दर्शन तो सही है किन्तु इसे व्यावहारिक नहीं बनाया जा सकता है. ये भ्रान्ति है हमारा ही नहीं अब अनेक फार्म इसे अपना रहे है, अमेरिका में करीब ४० % किसान अब बिना जुताई की खेती करने लगे हैं. केनेडा में २६ % किसान इसे कर रहे हैं. आस्ट्रेलिया और ब्राज़ील में भी ये विधा अब खूब पनप रही है. गंगाजी के कछारी छेत्रों में पाकिस्तान,पंजाब,से लेकर बंगला देश तक ये खेती अब जड़ जमा रही है.
   हमारी चिंता का विषय मिनी पंजाब कहलाने वाला तवा का छेत्र है जिस में उपजाऊ मिट्टी और पानी की कोई कमी नहीं है सरकार ने क्या कुछ नहीं  किया बड़ा बांध बनवाया, खेतों को समतल कराया,कृषि के अनुसन्धान पर अरबो रु पानी की तरह लगाये ,अनुदान, सस्ते  ब्याज का पैसा दिया ,तमाम बीज और खाद को किसानो  के मुंह तक पहुँचाया फिर भी यहाँ के खेत बंजर हो रहे हैं और किसान गरीब हो रहे है. और वे अब आत्म हत्या करने लगे है. बच्चे खेती छोडकर भाग रहे हैं. किसान खेती के बदले कुछ भी करने को मजबूर है.
    सोयाबीन जहाँ एक एकड़ में २० क्विंटल होता था वो अब २० किलो पर आ गया है, धान में लागत असमान  छु रही है और भाव पटियों पर हैं, गेंहू में उत्पादन हर साल घट रहा है.लागत बढती जा रही है. किसान जमीनों को हाल साल में या जड़ खरीद में ओने पाने भाव में बेचने लगे हैं. घबराहट चरम सीमा पर है.
   किन्तु हमारा मानना है की इस समस्या से आसानी से पार पाया जा सकता है इस में लागत बढ़ाने की अपेक्षा घटाने की जरुरत है. जुताई बंद कर नरवाई को बचा भर लेने से इस समस्या का समाधान हो जायेगा और यहाँ का किसान अमेरिका के किसान को भी मात दे देगा.जहाँ का उत्पादन १ से 4 टन प्रति एकड़(असिचित) है. किन्तु ये काम सरकार के बस का नहीं है. ये काम किसान स्वं अपने आत्म निर्भर संघ बना  कर सकते है.  जुताई आधारित रसायन मिश्रित जैविक खेती धोका है. अनेक खेती के वैज्ञानिक और विदेशी सहायता से चल रहे एन.जी.ओ. किसानो को भ्रमित कर रहे हैं इन से बचने की जरूरत है. ऑर्गनिक और जैविक के नाम से अनेक नकली सामान की दुकाने चल रही हैं इन से बचने की जरुरत है. किसानो को अधिक दाम के लालच के बदले  लागत कम करने और प्रति एकड़ उत्पादन बढ़ाने पर बल देना चाहिए जो बिना जुताई की खेती से ही संभव है.
    पशु  पालन  जरुरी है इस के लिए चारे के पेड़ लगाने होंगे जैसे सुबबूल इस से सालभर भरपूर चारा मिलता है और   भरपूर जलाने का इंधन. हमारी मुख्य आमदनी जलाऊ इंधन से पूरी हो जाती है. सुबबूल की खेती बहुत आसान है. इस से हम अपने  इलाके को ओधोगिगता  भी प्रदान कर सकते हैं  इसका नक्शा बदल सकते हैं. सोयाबीन एक अच्छी पैसा देने वाली फसल है. इसका उत्पादन आसानी से बिना जुताई खाद और दवा के बढाया जा सकता है, धान की खेती के लिए गड्डे बनाना ,कीचड मचाना ,रोपे लगाना सब व्यर्थ के काम हैं.  रासयनिक गेंहूं से कही अधिक कुदरती गेंहू बिना लागत के पैदा होता है. ये सब बातें किताबी नहीं हैं इन्हें हमारे फार्म पर देखा और  सीखा जा सकता है.
   हमारा  फार्म अब बिना जुताई की कुदरती खेती (ऋषि खेती) का विश्व न. वन हो गया है. इस में हम बरसों से प्रशिक्षण दे रहे हैं जिसके कारण ना केवल भारत में वरन भारत के बाहर भी अनेक  फार्म बने है और बनते  जा रहे है. स्थानीय किसान संघों को इसका फायदा उठाना चाहिए इस में हम पूरा सहयोग करने का वायदा करते है.
 शालिनी एवं राजू टाइटसखोजनपुर होशंगाबाद म.प्र.
मो.9179738049 , ईमेल rajuktitus @gmail .com. http //:picasawebalbum .rajutitus .
blog :Natural way of farming (Rishi kheti)


Thursday, February 9, 2012

हार है आम कर्ज माफ़ी

हार है ! आम कर्ज माफी
आज़ादी के बाद पयावर्णीय टिकाउ विकास के लिये सभी सरकारों ने कृषि कोे प्राथमिकता इसलिये दी कि हमारा देष कृषि प्रधान है। खेती की तरक्की से हमारे गांव विकसित होते हैं तथा गांव से देष। किन्तु आम किसानों के कर्जेंा की माफी से पता चलता हैै कि बरसों से चलाया जा रहा विकास का यह फार्मूला पूरी तरह फेंल हो गया है। हम हार गये हैं।
अहिंसात्मक आज़ादी की जंग जीतने के बाद जब हमारे बापू महात्मा गांधी नहीं रहे थे पूज्य विनोबा जी ने देष के टिकाउ विकास के लिये सत्य और अहिंसा के फार्मूले के अनुरुप देष के विकास का बीड़ा उठाया था। जिसमे उन्होने पर्यावर्णीय टिकाउ खेती पर बल दिया था। जिसका नाम उन्होने ऋषि खेती रखा था। यह खेती पूरी तरह भारतीय सस्ंकृति पर आधारित थी।इसमे सोच यह था कि हर व्यक्ति अपनी आवष्यकता अनुसार ऐसी खेती करे जिससे एक ओर हमारा पर्यावरण सुरक्षित रहे वहीं हर हाथ को काम मिले।
किन्तु पष्चिमी संस्कृति पर आधारित हिसांत्मक विनाषकारी औधोगिक खेती हरिकृान्ति ने उनके इस फार्मूले को बिलकुल चलने नहीे दिया। इस खेती के आने से हरे भरे वन,स्थाई बाग बगीचे ओर तमाम कुदरति चारागाह खेतों मे तथा उपजाउ खेत मरुस्थ्लों मे तब्दील हो गये और किसान कंगाल हो गये। किसान जो कल तक सबका पेट भरता था आज अपना पेट भरने मे अक्षम हो गया है। उसे सरकारी अनुदान कर्ज इसलिये दिया जाता है कि वह आत्मनिर्भर हो जाये किन्तु ऐसा हो नहीं सका इसलिये सरकारों के पास कर्ज माफी के सिवाय कुछ उपाय नहीं रहा। हम हार गये।
हरितकृन्ति मे समतलीकरण, सिंचाई,मशीनो, कृषि अनुसंधान, खाद, बीज और दवाओ के लिये क्या कुछ नहीे किया गया किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ और हम हार गये।

शलिनी एवं राजू टाईटस,होषंगाबाद.

rajuktitus@gmail.com

कहानी मिट्टी

  कहानी
             मिट्टी
मै (६५) एंजिल(८) और बिट्टू(५) अपने कुदरती बगीचे मे खेल रहे थे. एंजिल ने एक सूखी  गिलकी( Luffa spong) को तोडकर ले आयी जैसे ही उसने उस गिलकी का ढक्कन खोला उस मे से बहुत से बीज निकल कर गिरने  लगे हमने उन बीजो को इकठा कर मिट्टी की गोली मे बंद करने का खेल खेलने की योजना बनाई.
 हम इस कुदरती बगीचे में हल नहीं चलाते हैं क्योंकि हल चलाने से बगीचे की मिट्टी घायल हो जाती है उसका लहू बरसात के पानी में बहने लगता है. इस लिए बीजों को मिटटी की गोली में बंद कर या सीधे ही फेंक कर उगाते हैं.
हमें पास ही  दीमक का घर(Termite mound) मिल गया जिस में बहुत गीली मिट्टी थी. दीमक बहुत अच्छी रहती है वो हमें जमीन के नीचे से मिट्टी लाकर देती है और खेती से बचे कचरे का खाद (मिट्टी) बना देती है. जिस से हम बीज गोली बनाते हैं.
  हम तीनो मिट्टी को सान कर बीज गोलिओं को बनाने लगे. इसी समय बिट्टू की मम्मी ने डांट कर कहा :  "बिट्टू मिट्टी से हाथ और कपडे गंदे हो जायेंगे मिटटी को हाथ मत लगाना".
बिट्टू ने मेरी और देखते हुए पूछा :  " दादा क्या मिट्टी गन्दी होती है?"
मैने कहा बाइबल मे उत्पत्ति के दूसरे अध्याय और उसकी सातवी पद मे लिखा है. " परमेश्वर ने आदम को मिटटी से बनाकर उसके नथुनों मे जीवन का साँस फूंक दिया और वह जीवित आत्मा बन गया."
मैने कहा : "आदम और हव्वा हमारे पूर्वज थे. वो मिटटी से बने थे यानि हम भी मिटटी से ही बने हैं." और जब हम मरेंगे तो  मिट्टी मे मिल जायेंगे.
" ये गेंहूं देखो इस से हमें रोटी मिलती है. ये मिटटी मे पनप रहा है. और ये हरयाली से भरे पेडों को देखो ये सब हमें जीने के लिए साँस और बरसात करवा कर पानी देते हैं. ये सब अपना खाना मिटटी से खाते हैं."
 ये सुन कर दोनों बच्चे बे फ़िक्र मिट्टी मे खेलते बीज गोलियां बनाते  और उन्हें यंहा वंहा फेंकते रहे. मिट्टी मे बीज चिड़ियों, चूहों आदि से सुरक्षित रहते हैं. और जब उनके उगने का समय आ जाता है वे उग आते हैं.
 एंजिल ने पूछा  :" नाना क्या जो बाइबल मे लिखा रहता है सब सच होता है? " और बिट्टू ने जोर से मम्मी को आवाज लगाते बोला मम्मी आपको मालूम है हम  मिट्टी से बने हैं " मिटटी गन्दी नहीं होती है".



हरियाली बढाओ पैसा कमाओ

हरियाली बढ़ाओ पैसा कमाओ !

दिनांक 14 जुलाई के  हेरल्ड मे छपी खबर के अनुसार लिनकोल्न से पाल हेमेल ने अवगत कराया है कि अब ग्लोबल वार्मिगं से लड़ने के लिये पैसे की बरसात शुरु हो गई है। अमेरिका मे अब बड़ी2 मल्टीनेषल कम्पनियों

ने ’’कार्बन क्रेडिट योजना’’ के माध्यम से उन किसानो को पैसा देना शुरु कर दिया है जो हरयाली बचाने के लिये बिना जुताई की खेती कर रहे हैं। इस योजना के अन्तर्गत उन सभी किसानों को लाभ मिल रहा है जो जमीन की जुताई किये बगैर अनाज की खेती कर रहे हैं ,बाग बगीचे ,चारागाह ,या जंगल आदी लगा रहे हैं।

गौरतलब है कि पर्यावरण को सबसे अधिक हानि खेती के लिये की जा रही जुताई से है। जिससे धरती निरन्तर गर्म हो रही है जिससे सूखा पड़ रहा है और बीमारियां फेल  रही हैं जिसमे बड़े पैमाने पर मलेरिया, किडनी और फेफड़ों के खराब होने की खबर आम है। वैज्ञानिकों का मत है कि जुताई करने से धरती का कार्बन ग्रीन हाउस गैस बन कर उड़ जाता है जिससे धरती के उपर एक कवर बन जाता है जिससे सूर्य की गर्मी भीतर तो आ जाती है किन्तु बाहर नहीं जा पाती धरती लगातार गर्म होती जाती हैं।

अमेरिका के नब्रासका क्षेत्र मे बनी किसानो की यूनियन के संवाददाता ग्रहम क्रिस्टेनसेन ने बताया है कि इस योजना के अन्र्तगत् अबतक 345,000 एकड़ जमीन को  लाभ मिल चुका है और 100,000.एकड़ को मिलने वाला है।

आजकल बिना जुताई की खेती सबसे आधुनिकतम खेती के रुप मे अपने पैर पसार रही है इसकी गुणवत्ता और उत्पादकता मोजुदा  जुताई वाली खेती से बहुत अधिक है।

शालिनी एवं राजू टाईटस

’ऋषि खेती’

होशंगाबाद 

नरवाई की आग में झुलसता तवा का छेत्र

नरवाई की आग में झुलसता तवा का छेत्र


गेंहूं  और सोयबीन की फसल के बाद तवा कमाण्ड के क्षेत्र मे जहां देखो वहां आग ही आग नज़र आयेगी। यह आग खेती  के बाद बची नरवाई को जलाने के कारण फैलती है इस आग से एक ओर जहां अनेक किसानों की फसले तथा झोपडि़यां तबाह हो जाती हैं वहीं ना चाहते हुए अनेक किसानों के पषुओं का चारा आदी सब नष्ट हो जाता है।यह आग मीलों तक अनियत्रित हवा के बहाव से बढ़ती जाती है। इस आग के कारण अब खेतों मे वृक्षों को पालना नामुमकिन हेा गया है। कोई किसान सब्जी या फलों की खेती  भी इस आग के कारण नहीं कर पाता है। खेतों मे केवल सोयाबीन और गेहूं ही नहीं रहता है। अनेक किस्म की जैवविविधतायें इसमे पनपती हैं जैसे सांप , चूहे ,छिपकलियां ,मेढक ,खरगोश  ,लोमडि़यां आदि । सब धीरे2 लुप्त प्राय; हो रहे हैं। सबसे अधिक मुसीबत जलाउ ईधंन की आ गई है। गांव मे खाने को अनाज तो है किन्तु पकाने की गंभीर समस्या है।

कहने को तो यह आधुनिक वैज्ञानिक हरित क्रांति  है किन्तु  इस से हरियाली बुरी तरह नष्ट हो गई है। हमारे सामने सबसे बड़ा प्रष्न यह है कि आखिर किसान क्यों अपने खेतों मे नरवाई को जलाते हैं? जबकि सब यह जानते हैं कि नरवाई खेतों मे सड़ जाये तो खाद बन जाती है।

असल मे इसके पीछे वैज्ञानिकों का हाथ है उनका मानना यह है कि एक फसल के बाद दूसरी फसल लगाने के पहले खेतो की अच्छी सफाई कर उसे गहराई तक जोत देना चाहिये जिससे पिछली फसल से उत्पन्न खरपतवारों एवं बीमारी के कीड़ो का पूरी तरह सफाया हो जाये। यह एक भ्रान्ति है। इसी भ्रान्ति के रहते किसान खेतों मे आग लगाते हैं।इससे उन्हे खेतों की जुताई करने मे भी आसानी हो जाती है। नरवाई जुताई के यन्त्रों मे फंसती नहीं है।

जबकि खेती  करने के लिये जुताई बिलकुल जरुरी नहीं है और करने के कारण ही खरपतवारों और कीड़ो की समस्या होती है।

हम पिछले 20 सालों  से अधिक समय से बिना जुताई की खेती कर रहे हैं तथा इसके प्रचार प्रसार मे लगे हैं। दुनिया भर मे अब अनेक किसान बिना जुताई की खेती करने लगे हैं केवल अमेरिका मे 40 प्रतिषत से अधिक किसान बिना जुताई की खेती करने लगे हैं। बिना जुताई की खेती करने वाले किसान पिछली फसल से बची नरवाई मे बिना जुताई की विषेष सीड ड्रिल से

सीधे  बिना बखरे बुआई कर देते हैं। उनका कहना है ऐसा करने से उन्हे 75 प्रतिषत डीज़ल की तथा 50 प्रतिषत सिंचाई खर्च मे लाभ मिलता है। खरपतवारों और बीमारी के कीड़ों की समस्या खत्म हो जाती है।उत्पादन और गुणवत्ता मे निरन्तर सुधार होता जाता है।इस खेती से अनेक पर्यावर्णीय ,सामाजिक एवं आर्थिक लाभ जुड़े होने के कारण बिना जुताई की खेती करने वाले किसानों को अतिरिक्त अनुदान भी दिया जाता है जिसे आम के आम और गुठली के दाम कहें तो कोई अतिष्योक्ति नही  होगा।

शालिनी एवं राजू टाईटस

बिना.-जुताई खेती के किसान

खोजनपुर गांव होषंगाबाद म.प्र.

461001 फोन-07574-280084
मालवा को रेगिस्थान बनने से बचाने के लिए
रतलाम के व्यवसायी बने बिना जुताई की कुदरती खेती के किसान
तलाम के आस पास जहाँ कुछ साल पहले बरसात में कुए ओवर हो जाया करते थे वहां अब अब बोरिंग की मशीने फेल हो रही हैं  १००० फीट पर भी पानी नहीं मिल रहा है. ये हालत मात्र कुछ सालों में आधुनिक वैज्ञानिक खेती में चल रही ट्रेक्टर की गहरी जुताई के कारण हुई है. खेती करने के लिए जब जमीन की जुताई की जाती है तो जुती हुई जमीन की बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड़ में तब्दील हो जाती है जिस से बरसात का पानी जमीन में ना जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ खेत की खाद  को भी बहा कर ले जाता है.
  अमेरिका के नाब्रसका इलाके में कुछ साल पहले इस समस्या के कारण खेती होना बंद हो गयी थी, बरसात भी नहीं हो रही थी किन्तु जब से उन्होंने बिना जुताई की खेती को शुरू किया है जबसे वहां अब असिचित खेती का उत्पादन और मुनाफा सिचित इलाकों से ज्याद होने लगा है तथा सूखे में भी बम्पर उत्पादन मिल रहा है. बरसात का पानी अब बहता नहीं वह खेतों में ही समां जाता है जिस से भूमिगत जल का स्तर हर साल बढ़ रहा है इसके साथ साथ सालाना बरसात भी बढ़ रही है.
 इसी तर्ज पर रतलाम शहर के व्यवसायी  पिरोदिया परिवार  ने बिना जुताई की खेती का शुभ  आरंभ किया है. उन्होंने अभी सिंचाई की मदद से करीब ५ एकड़ जमीन में कुदरती गेंहूं फसल लगाई है. जिसकी उत्पादकता और गुणवत्ता हर हाल में जुताई से की जाने वाली तमाम खेती करने की विधियों से अधिक है. इस के परिणामो को देख कर उन्होंने अपने १० एकड़ खेतों में भी इस को करने का फेसला किया है तथा वे इस विधि के प्रचार और प्रसार  में लग गए हैं जिस से अनेक किसानो ने इसे करने  का फेसला लिया है. यदि इसी रफ़्तार में इस विधा को समाज का  सहयोग मिला तो वो दिन दूर नहीं जब मालवा का ये छेत्र पानी की कमी को बिलकुल भूल जायेगा.
  अमेरिका के न्ब्रासका छेत्र में बिनाजुताई की खेती करने वाले किसानो की यूनियन है जो इस खेती को अपनाने वाले किसानो को आर्थिक सहायता भी देते हैं. इस से एक और जहाँ किसानो को अतिरक्त आर्थिक लाभ मिलता है वहीँ, उत्पादन/गुण  बढते क्रम में मिल रहे हैं. किसानो के बच्चे खेती किसानी को अपनाने  लगे हैं.
    बिना जुताई की खेती को शुरू करने वाले खेती के जाने माने वैज्ञानिक स्वर्गीय  श्री मस्नोबू फुकुओकाजी का कहना है की "बरसात आसमान से नहीं वरन जमीन के अंदर से आती है." जमीन में पानी होगा तो पानी बरसेगा अन्यथा नहीं.
इनकी" एक तनके से आयी क्रांति " जग प्रसिद्ध है. उन्होंने बिना जुताई ,खाद और दवाई का उपयोग किये दुनिया की सवोत्तम खेती को दीर्घ कालीन बना कर करके दिखा दिया है. अब दुनिया भर में लोग इसे करने लगे हैं.
  हमारे देश में आजादी के बाद से खेती में जुताई के चलते विनाश ही हुआ है इस लिए हमारा देश भरी कर्ज में डूब गया है. हर किसान सिर से लेकर पांव तक कर्ज में डूबा है किसान आत्म हत्या  कर रहे हैं.. ऐसा जुताई आधारित तेल की गुलाम खेती को अपनाने से हुआ है.
  मालवा के छेत्र में आज भी ऋषि पंचमी का पर्व मनाया जाता है जिस में काँस घास की पूजा होती है और बिना जुताई के अनाजों को खाने की सलाह दी जाती है. किसान खेतों में काँस के फूलने से जान जाते थे की उनके खेत सूखने लगे हैं इस लिए वे  जुताई बंद कर देते थे उन खेतों में पशु चराते  थे जिस से खेत नए पानी दार हो जाते थे.
  कुदरती अनाज , सब्जी फल आदि ना केवल स्वादिस्ट  होते हैं वरन केसर जैसी बीमारी को भी ठीक करने में सक्षम हैं. हम २५ सालों से होशंगाबाद स्थित अपने फार्म में इस विधा से खेती कर रहे हैं तथा इस के प्रचार प्रसार में लगे हैं हमने २ लाख रु प्रति एकड़ तक पेडों से आर्थिक लाभ अर्जित कर दिखा दिया है. इसे अपना कर किसान मालामाल हो सकते हैं. श्री पिरोदिया जी की तरह इस में साधू संतों और व्यापारी वर्ग को इस में आकर सफल बनाने में सहयोग करना चाहिए. मीडिया की इस में महत्व पूर्ण भूमिका है.
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kudrati genhoon -राजू टाइटस
कुदरती खेती के किसान

कुछ मत करो आर्थिक लाभ.


कुछ मत करो
आर्थिक लाभ.
देवेंगेरे (कर्नाटक )  में नेचरल फार्मिग की कार्य शाला  के आखरी दिन जब अधिकतर लोग ये मान गए की कुदरती खेती करना दूसरी खेती  करने की विधियों से सरल, कम लागत वाली, प्रदुषण रहित और सबसे अधिक उत्पादन वाली है. तो प्रति एकड़ आर्थिक लाभ का प्रश्न उठा.
  आज कल हर कोई कुदरती खेती करने से पहले उस से मिलने वाले आर्थिक लाभ के बारे में जानना चाहता है. उस के मन में ये सोच रहता है की यदि हम जुताई नहीं करेंगे ,बाजार से खरीद कर खाद नहीं डालेंगे तो आर्थिक लाभ कैसे कमाएंगे.
      हमने भी इस असमंजस में अनेक साल फालतू बर्बाद किये. कुदरती खेती करने से पहले हम वैज्ञानिक खेती करते थे  इस से पूर्व हमारे यहाँ परंपरागत देशी खेती होती थी. जिसमे पेट्रोल,सिंचाई,खाद,दवाई,बिजली का कोई उपयोग नहीं था. खेती मोसम के अनुकूल होती थी. जितना भी मिलता उस से संतोष करना पड़ता था. खाने का  अनाज ,सब्जी, दूध आदि मिल जाता था. पकाने को इंधन की कमी नहीं थी. सादगी से रहने से समस्या अधिक नहीं थी. काफी हद तक इस खेती में आत्म निर्भरता थी. जो कुछ बचता उस से दो पैसे मिल जाते थे.अधिकतर खेती हम हमारे परिवार की जरुरत के मुताबिक करते थे.
किन्तु ये प्रश्न आखिर बना ही रहता था की हम अधिक से अधिक उत्पादन कर अधिक से अधिक पैसा कैसे कमाए. इसी चक्कर में हम "हरित" क्रांति के चक्कर में फंस गए. जिसमे वैज्ञानिक हमेशा "हाई यील्ड" और ग्रो मोर की बात करते हैं. बस हंमने आव देखा न तव तुरंत अपनी देशी खेती को बंद कर हरित क्रांति की वैज्ञानिक  खेती को अपना लिया.पहले साल जो उत्पादन मिला उस से कुछ उम्मीद बनी किन्तु दूसरे साल में ही ये उम्मीद टूटने लगी. अधिक लागत होने के कारण मुनाफा नहीं के बराबर था. १५ साल हम एक कोल्हू के बैल की तरह हरित क्रांति से मुनाफा कमाने के चक्कर में लगे रहे. जमीन बंजर हो गयी और हम कंगाल.
 हम खेती को बंद करने ही वाले थे की हमारे हाथ फुकुओकाजी की 'कुछ मत करो' खेती करने की किताब हाथ लग गयी. हमने इसे भी यही सोच कर की यदि लागत कम हो जाएगी और उत्पादन हमें बढते क्रम में मिलेगा तो मुनाफा तो जरुर होगा इसे अपना लिया.चाहे कुछ समय क्यों न लग जाये. और हम बेफिक्र हो कर कुदरती खेती करने लगे. किन्तु प्रति एकड़ मुनाफे का प्रश्न अभी भी बरक़रार रहा.किन्तु घाटा बंद हो जाने से हमें काफी संतोष रहा. यदि खूब आ नहीं रहा है तो कोई बात नहीं जा तो नहीं रहा है. फेक्ट्री की नोकरी का सहारा होने से हम बेफिक्र होकर अपने प्रयोगों में लगे रहे. हमने मुनाफा कमाने की नजर से अनाज, फल सब्जी दूध आदि की खेती कर ये पाया की इन सब चीजों में बाजार का जबरदस्त नियंत्रण है. बाजार हमें मुनाफा नहीं कमाने देता है.
इस सोच के आते ही हमने खाने पीने की तमाम चीजों को केवल हमारे लिए ही पैदा कने पर केद्रित करदिया.
और जमीन का अधिकतर हिस्सा हमने पूरी तरह कुछ नहीं करो पर छोड़ दिया. जिसमे अनेक सुबबूल जैसे अनेक पेड़ थे.
  सन 1999 में हमारी मुलाकात गाँधी आश्रम में फुकुओकाजी से हुई  अपनी समस्या उनके सामने रखने पर उन्होंने भी हमें यही सलाह दी की सुबबूल जैसे पेड़ों के साथ सीमित पशुपालन अच्छे से संभव और पेड़ न केवल आप के पशुओं को पर आपको भी अच्छे से पाल लेंगे.अनाज, फल दूध, सब्जी यदि उपयोग से अधिक है तो आप उसे बेच सकते हैं किन्तु कीमत हर हाल में दूसरों की अपेक्षा कम होनी चाहिए. इस से उपभोक्ता को शुद्ध मिलेगा और आपका मुनाफा भी बना रहेगा.तो हम इसी राह पर चल पड़े.
  हम सुबबूल  की पत्तियों को पशुओं को खिलाने के लिए पेड़ के उपर से शाखाये कटवाते है जिस से उपर की लाइट नीचे आ जाती है नए पोधों को बढ़ने में दिक्कत नहीं होती है.ऐसा करने से पत्तियां तो पशु खा जाते है किन्तु लकड़ियाँ वहीँ पड़ी रहती थी. इन्हें वंही मल्च की तरह इस्तमाल करते रहे  किन्तु. आसपास में गरीबों को पकाने के लिए  इंधन नहीं मिलने के कारण लोग इसे उठाकर ले जाते और दूसरी समस्या ये थी की आसपास के खेतों में किसान लोग स्ट्रा जलाते हैं जिस से अनेक बार ये लकड़ियाँ जल जाती थीं. इस समस्या के निवारण के लिए हमने अनेक बार इन लकड़ियों को जमीन में नालियां बनाकर गड़ा दिया किन्तु  इसमें लागत और श्रम अधिक होने से ये काम आगे नहीं हो सका. तो हमने इन लकड़ियों को घर के पास इकठा करना शुरू कर दिया. यंहा भी हमें इस में आग लगने का डर रहता था. तो मजबूरी में इसे बाजार से आधी कीमत में वहीँ से बेचना शुरू कर दिया.इस का लाभ ये हुआ की जिन गरीब परिवारों को खाना पकाने के लिए इंधन नहीं मिलता था उन्हें ये मिलने लगा और हमें इस से हजारो रु की आमदनी होने लगी.हमारे  अनुमान से ये बढ़ते क्रम में  १५ हजार रु /एकड़/माह  से अधिक है. जो हर हाल में अनाज,फल सब्जी आदि की खेती से बहुत अधिक है.
   एक ओर सरकारी हरित क्रांति है जिस से हरयाली खत्म हो गयी है.गरीब को अनाज तो मिल जाता है किन्तु पकाने को इंधन नहीं मिलता है. प्रति एकड़ पैदावार घट रही है.अनाज जहरीला हो रहा है, मोसम परिवर्तन, बढती गर्मी, उर्जा और जल का संकट हो रहा है, किसान आत्म हत्या कर रहे है. अनाज गोदामों में सड़ रहा है.
 दूसरी ओर ये कुदरती हरित क्रांति है.जिस से कुछ किये बगेर सब कुछ आसानी से मिल रहा है. हमारा ये मानना है जिस देश में किसान जो अन्नदाता कहलाता है को आत्म हत्या करने पर मजबूर होना पड़े. उस देश में अब सब को कुदरती आहार स्वं उगाना चाहिए. इसी लिए फुकुओकाजी सब को एक चोथाई एकड़ का किसान बनने की सलाह देते हैं.वो कहते है की "कुछ नहीं करो" विधि से हर कोई छुट्टियों में अपना आहार स्वं पैदा कर सकते हैं.
राजू टाईटस   

भोपाल गैस का जहर इंदौर मे !

भोपाल  गैस का जहर इंदौर मे !
     
मारे पर्यावरण विभाग  के पास आज तक ओद्धौगिक कचरों के जहरों को  निष्क्रय करने का कोई उपाय नहीं है वो तो "यंहा का जहर वंहा" कर जनता को बेवकूफ बना रहे हैं. जब से हमारे देश मे हरित क्रांति के नाम से ओधौगिक खेती की क्रांति आई है तब  से आज तक इस समस्या का कोई भी समाधान हमारे वैज्ञानिक  ढून्ढ नहीं पाए हैं. भोपाल गैस कांड फसलों मे लगने वाले कीड़ों को मारने के लिए बनाये  जा रहे जहर के लीक कर जाने कारण हुआ था. जिसमे हजारों लोग मारे गए थे .. इसी तारतम्य मे आनन और  फानन मे  भोपाल गैस का बचा कुचे जहरीले  कचरे को इंदौर मे डंप कर दिया है. जिस से वंहा का पानी दूषित हो गया है और लोग बीमार होने लगे हैं.  किन्तु हमारे पर्यावरण और कृषि विभाग ने फ़िर भी इस से कोई शिक्षा  नहीं ली और घातक कृषि रसायनों को खुले आम सब्सिडी देकर बनाना  और फसलों पर डालना  जारी रखा है.  इस से कीड़े तो नहीं वरन इन्सान म़र रहे हैं. और हर साल अनेक कुकरमुत्तों की तरह जहर बनाने वाली कम्पनियां खड़ी हो रही हैं. ये तमाम जहर भोपाल गैस से कोई भिन्न नहीं हैं, ये जहर दवाई के नाम से खुले आम बाजार मे बेचें जा रहे हैं जिनको नियंत्रित करने लिए, निष्क्रिय करने के लिए वैज्ञानिकों  के पास कोई हल नहीं है.
    असल मे हमें उन कारणों पर गौर फ़रमाना होगा की आखिर फसलों मे कीड़े लगते क्यों हैं. ये एक फसलों की बीमारी है जो फसलों की कमजोरी से आती है. कमजोर खेतों मे कमजोर फसलॆं पैदा होती हैं इस लिए फसलॆं बीमार हो जाती हैं. खेतों की कमजोरी भूमि छरण और खेतों मे पानी की कमी हो जाने से होती हैं. खेतों मे हो रहे भूमि छरण और पानी की कमी के पीछे बार बार खेतों को गहराई तक खोदते और जोतते रहने प्रमुख  कारण है. जमीन की जुताई करने से खेतों की बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड बन जाती है जो बरसात के पानी को जमीन मे सोखने नहीं देती है जिससे वो जमीन मे ना जाकर तेजी से बहता है और अपने साथ बारीक बखरी मिटटी को भी बह कर ले जाता है. ये मिटटी ही असली कुदरती खाद है जिस से फसलें पकती  हैं के बह जाने से खेत कमजोर और सूखे हो जाते हैं.
  इंदोर शहर अपने सुहाने मोसम के कारण मशहूर था किन्तु हमारे पर्यावरण और कृषि विभाग ने इसे औधोगिक जहरों को डंप करने का कचरा घर बना दिया है. इंदौर शहर रसायन  रहित जैविक खेती के जनक डॉ हॉवर्ड के नाम से पूरी दुनिया मे मशहूर है. यंहा इस जहर को डंप करना  बहुत बड़ा अपराध है.
बहुत लोग ये समझते है की मानव निर्मित खाद को जमीन मे डालने से हम खोई जमीन की शक्ति को वापस पा सकते हैं और सिंचाई कर पानी की कमी से निज़ात पा सकते हैं किन्तु ये एक भ्रम है. जो क़ुदरत बनाती है वो इन्सान नहीं बना सकता है. हर साल जुताई करने से  टनॊ जैविक खाद ( मिट्टी) खेतों से बाहर  बह कर निकल जाती है. इस की आपूर्ति कम्पोस्ट या रासायनिक खादों से कभी नहीं की जा सकती है. आप खेतों मे कितनी खाद डालें खेत भूमि छरण के कारण कमजोर ही रहेंगे और वे कमजोर फसल ही पैदा करेंगे. इस लिए आज कल बिना जुताई की खेती का चलन शुरू हो गया है. ये रासायनिक  बिना जुताई की खेती ,  बिना जुताई की जैविक खेती और बिना जुताई की कुदरती खेती के रूप मे जड़ जमा रही है.
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     किन्तु हमारे पर्यावरण और कृषि विभाग मे इस की कोई जागरूकता नहीं है. इस लिए खेती की ये हानी रहित पर्यावरणीय खेती की तकनीक का विकास नहीं हो पा रहा है. हम पिछले २५ सालों से भोपाल के पास होशंगाबाद शहर मे  बिना जुताई  की कुदरती खेती का सफलता से अभ्यास कर रहे हैं और निजी स्तर पर इस के प्रचार प्रसार मे सलग्न है. हमारा अनुरोध है की अब समय आ गया है की हमें प्रदुषण फैलाने वाली खेती और उधोगों  का खुल कर विरोध करना चाहिए. जिस से हमारे सामूहिक  भविष्य का सम्बंध है.
धन्यवाद
शालिनी एवं राजू टाइटस
होशंगाबाद  .म.प.४६१००१.

कुदरती खेती के बढ़ते कदम और रास्ते में आने वाली दिक्कतें.

कुदरती खेती के बढ़ते कदम और रास्ते में आने वाली दिक्कतें.
  विगत दिनों मुझे ICRA बेंगलोर के भाई बाबु और बहन गायत्री ने देवनगेरे जो बेगलोर से करीब २५० km दूर है के कृषि विज्ञानं केंद्र में  कर्णाटक के अनेक जिलों  से आये करीब १०० किसानो को उपरोक्त विषय को समझाने के लिए बुलाया गया था. जिसमे OFAI ने भी सहयोग प्रदान किया. आजकल हरित क्रांति के कारण खेती किसानी में उत्त्पन्न समस्याओं के चलते आम किसान विकल्प की खोज में है. जुताई और बिना जुताई की अनेक खेती की विधियाँ बताई जा रही हैं जिस से किसान असमंजस में हैं. इस लिए हमने अपनी बात रखने से पहले किसानो से पूछा की पेड़ों को  काटकर उसकी छाया को मिटाना तथा खेतों को भारी मशीन से बहुत गहराई तक जोतना क्या कुदरती (जैविक) तरीका है.जिसमे बरसात का पानी खेतों में न समाकर तेजी से बह जाता है साथ में जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है.? जिस से खेत सूख कर कमजोर हो रहे हैं जिनसे बिना खाद और दवाई से खेती करना अब नामुमकिन हो रहा है. दूसरा  इन कमजोर खेतों की कमजोर फसलें क्या वाकई स्वास्थवर्धक हैं?
   दूसरा इन कुदरती वनों को देखिये न जुताई ना खाद और ना दवाई  फिरभी सब कुछ साल दर साल अच्छा होता जा रहा है. बरसात का पानी जमीन में समां जाता है जो बाद में वास्पीकरण के मध्यम से सिंचाई का काम करते हुए बदल बन बरसता है. हरयाली प्रदुषण निवारण के साथ साथ मोसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को थामने का काम करती है .हरयाली की गहरी और घनी जड़ें भूमि के अंदर की जैवविविध्ताओं, जल और हवा का संचार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं. लोग समझते हैं बरसात आसमान से आती है ये भ्रान्ति है पानी का असली स्रोत भूमिगत जल है ये जल होगा तभी पानी बरसेगा नहीं तो नहीं.
  जुताई आधारित खेती की कुदरती हरयाली से बहुत बड़ी दुश्मनी है खरपतवार और छाया किसानो को बर्दास्त नहीं है. यही कारण है की हमारे कुदरती वन, चारागाह और बाग़ बगीचे सब के सब अनाज की खेती के कारण रेगिस्तान में तब्दील होते जा रहे है. पर्यावरण  की अनेक  समस्याओं के पीछे यही मूल कारण है.
  कार्य शाला का पहला पूरा दिन हमने हमारे खेतों और फुकुओकाजी के फार्म के फोटो दिखाते हुए अपनी बात स्पस्ट करने की कोशिश की किन्तु अनेक सवाल किसानो ने अपनी असहमति प्रगट करते हुए हमसे  पूछे. हजारों सालों से खेती करने के लिए की जारही जमीन की जुताई आज अचानक गलत कैसे हो सकती है ?
      दूसरा दिन  कुदरती खतों के भ्रमण का था २० की.मी . दूर भाई राघव का कुदरती फार्म था हम सब वंहा बस में बैठ कर पहुंचे इस फार्म में पिछले अनेक सालों से जमीन की जुताई, खाद और दवा का उपयोग बंद किया जा चुका था. नारियल के पेड़ों के नीचे . आम अमरुद आदि के साथ वंहा हमें पेड़ों के नीचे की जाने वाली वेनीला और कोको की खेती देखने को मिली. तथा जमीन पूरी तरह से दलहन जाती के पोधों से ढंकी थी. इस खेत को देखकर हम सभी आश्चर्य  चकित हो गए. हमारे सारे प्रश्न हवा हो गए. लोटकर सभी से पूछा गया सबने बिनाजुतई की खेती को सर्वोत्तम बताकर हमारी इस कार्यशाला को ९०% सफल बना दिया. इस समूह में और भी अनेक कुदरती किसान थे जो पिछले अनेक  सालों खेती कर रहे थे फिर उन्होंने भी खुल कर अपने अनुभव सब के साथ बांटे. फिर भी अनेक ऐसे प्रश्न थे जिन पर चर्चा होनी थी. तो हम सब ने आयोजकों के आग्रह पर आखरी  समय तक निवारण करने का प्रयास किया. जिसमे कुदरती खेती क्या है ? इस को कैसे शुरू किया जाये ? इस से सामाजिक,पर्यावरण और आर्थिक लाभ क्या हैं.? गरीब से गरीब सूखी खेती के किसान इसे कैसे करें आदि?
   कार्य शाला में एक बार जब विषय समझ में आ गया तो सवाल  के जवाब अपने आप आपस में सुलझ गए. इस कार्य शाला में सब से महत्वपूर्ण भूमिका भाई बाबु और गायत्री बहन ने निभाई उहोने छोटे से छोटे सवाल को अनुतरित नहीं रहने दिया. मै हिंदी में बोल रहा था और हमारे बीच के एक भाई कन्नड़ में अनुवाद  कर रहे थे. तीन दिन कब निकल गए पता नहीं पड़ा. इस कार्यशाला में स्थानीय कृषि विज्ञानं केंद्र की भूमिका  को नाकारा नहीं जा सकता. सभी के रहने ,खाने  के साथ सँचालन मे उनका सहयोग भुलाया नहीं जा सकता है. इस कार्य शाला में दूर दूर से आये किसानो ने अपने अनुभव सुनाकर सभी को आश्चर्य  चकित कर दिया.
 मेरे लिए ये एक बहुत ही सफल कार्य शाला रही क्यों की ये पूरीतरह बिना जुताई की कुदरती खेती विषय पर आयोजित की गयी थी. इस में पूरी जवाबदारी मेरे उपर सोपी गयी थी. और मुझे ख़ुशी है की में इस में सफल रहा.अधिकतर लोग ये समझते हैं की खेती की बिगडती हालत में रसायनों का बहुत बड़ा हाथ है इस लिए यदि हम रसायनों के बदले जैविक खाद दवाओं का उपयोग करने लगें तो  समाधान हो जायेगा. ये एक भ्रान्ति है. जमीन की जुताई से होने वाले भूमि, जैव , और पानी के छरण के चलते कुछ लाभ संभव नहीं है.और इस छरण के रुकते ही बाहरि खाद और दवा गेर जरुरी हो जाते हैं. कृषि अवशेषों को जहाँ का तहां वापस कर देने से खेतों की जुताई अपने आप हो जाती है.
   इस का मतलब ये नहीं है की कुदरती खेती विश्वव्यापी जैविक खेती की विरोधी है. कुदरती खेती असली जैविक खेती है.
हम जैविक तत्वों  का महत्व  समझते हैं उनको जहाँ का तहां वापस ड़ाल देते है कंही बाहर से लाना या खेतों के जैविक तत्वों को खेत के बाहर कर देना, जला देना या खाद बनाने को गलत मानते है. हम गोबर गोंजन,गोमूत्र,नरवाई,पुआल आदि को जहाँ से लेते है वहीँ  लोटा देते हैं. ऐसा करने से जैविक तत्वों की आपूर्ति हो जाती है.
  जब से हरित क्रांति पर प्रश्न चिह लगा है अनेक प्रकार की खाद दवाओं को बेचने की डाक्टरी चलने लगी है.कोई केंचुए की खाद बनाने की सलाह देता है तो कोई गोबर,गोमूत्र से खाद और दवा बना रहा है, तो कोई सूक्ष्म जीवाणु  की दुकान चला रहा है. अमृत मिटटी, अमृत पानी, सूक्ष्म जीवाणुओं के टीके आदि  जैसे अनेक  टोने टोटके चल पड़े हैं. असल में कोई भी दवा जब कारगर होती है जब कोई बीमार हो इस लिए दवा को कारगर बनाने के लिए जरुरी है की हम कमजोरी पैदा करें . जमीन की जुताई इस में पूरी तरह सक्षम है. मै यूरिया और यूरिन में फसलोत्पादन के लिहाज से कोई फर्क नहीं समझता हूँ. इस प्रकार आप मेलथिओन से मारें या नीम से उदेश्य हिंसा है. जुताई आधारित सभी खेती की विधियाँ हिंसक हैं. ये परमाणु बम से भी खतरनाक काम है. हमारे देश को अंग्रेजों ने जितना नुकसान नहीं पहुँचाया उतना नुकसान भारी मशीनो  से की जाने वाली गहरी जुताई ने पहुँचाया है. दूसरा नो घातक कृषि रसायनों का आता है.
  जुताई नहीं कर खेती करने से कमजोरी और बीमारी नहीं रहती है इस लिए इस डाक्टरी की कोई जरुरत नहीं है. अधिकतर लोग कुदरती खेती को पशुपालन का विरोधी बताते हैं जबकि जुताई आधारित खेती से हरयाली नस्ट हुई है जिस से पशुपालन नामुमकिन हो गया है. कुदरती खेती से हरयाली वापस आजाती है जिसके साथ साथ पशुपालन भी होने लगता है. पशु पालन के लिए लोग अनाजों और घासों का सहारा लेते हैं किन्तु हम पिछले २५ सालों से चारे के पेड़ों की पत्तियों से सफलता से पशु पालन कर रहे हैं. इस से हमें जलाऊ  लकड़ियाँ भी मिल जाती है.जो हमारा आय का मुख्य श्रोत है. हम बाजार भाव से आधि कीमत में गरीब वर्ग को इंधन उपलब्ध  कराते हैं.
  प्रचीन भारती खेती किसानी में जुताई से कमजोर  होते  खेतों को पड़ती कर उसमे पशु पाले जाते थे जिस से इंधन और चारे दोनों का समाधान हो जाता था और खेत पुन: ताकतवर हो जाते थे. किन्तु हरित क्रांति में मशीनो, रसायनों और भारी सिचाई के चलते किसान कृषि अवशेषों को जला देते हैं. घास  के लिए जंगलों में आग लगा दी जाती है. छाया के डर से पेड़ नहीं रखे जाते हैं. चुन चुन कर मूल  फसलों के आलावा वनस्पतियों को खरपतवार मान कर मार दिया जाता है. हर एक  वनस्पति के सहारे अनेक जीव जंतु, कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु रहते हैं. जो हमारी फसलों के लिए बहुत ही लाभप्रद हैं. इनकी हत्या बहुत बड़ी हिंसा है.
   बिना जुताई की कुदरती खेती भूमि ढकाव फसलों के साथ साथ पेड़ों के साथ की जाती है. हर पेड़ अपनी छाया की गोलाई में केवल 'देने'  का काम करता है. ये कहना ये पोधे जमीन से 'लेते' हैं भ्रान्ति है. इस लिए इस खेती से हरयाली पनपती है. और सूखे तथा बाढ़ का नियंत्रण होता है.
कुदरती खेती ग्लोबलवार्मिंग को थामने  में सक्षम है.
 इस कार्य शाला के उपरान्त बैंगलोर के कृषि अनुसन्धान संस्थान में ofai और icra के द्वारा उपरोक्त विषय पर एक सेमिनार को आयोजित किया गया था जिसमे मुझे बोलना था जो मेरे लिए इस प्रकार का पहला अनुभव था बाबु ने बताया की आज रविवार है इस लिए मालूम नहीं कितने लोग यंहा आयेंगे किन्तु आश्चर्य की बात थी की हाल खाचा खच भरा था. इस में मैने हरयाली की कमी के कारण धरती पर बढ़ रही गर्मी के बारे में बताने की कोशिश की ये गर्मीं जमीन की जुताई के कारण जमीन में जमा कार्बन के ग्रीनहाउस गेस में परिवर्तन के कारण हो रही है. यदि हम बिना जुताई की खेती करें तो हम इस पर काबू पा सकते हैं. अनेक देशों में अब किसान बिना जुताई  की खेती करने लगे हैं. अमेरिका में ४० % किसान नो टिल  फार्मिंग कर रहे हैं. उन्हें सरकार और उनकी समिति अतिरक्त आर्थिक लाभ देते हैं.ये किसान वंहा समाज में सम्मान पाते हैं. जबकि वे मशीनो और रसायनों का इस्तमाल करते हैं. किन्तु हमारे यंहा बिना जुताई की रसायन और मशीनो के बिना की जाने वाली खेती को भी सरकार ने अभी तक मान्यता प्रदान नहीं की है.
   इस सेमिनार  में मैसूर  से पधारे श्री क्रिश्नामुर्तिजी  ने भी अपने उदगार रखे वे अनेक  सालों से कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं. यंहा पर आये अनेक लोगों ने बाजारू जैविक खेतीके पनप रहे गोरखधंदे  पर प्रश्न चिन्ह लगये. हमने कहा की जब हमारे कृषि उत्पाद में लागत कम है तो वे हर हाल में सस्ते  रहना चहिये किन्तु बिचोलिये उन्हें महंगा कर बेचते हैं ये ठीक नहीं है. इस लिए हर किसी को अपना कुदरती आहार पैदा करने के बारे सोचना चाहिए. वे इस छुट्टियों में भी कर सकते हैं.
  मुझे बड़ी प्रसन्नता जब मिली जब मेरे  द्वारा बोले गए को  बगलोर के आईटी भाई शशी ने अनुवाद किया वे बगलोर से ९० km दूर कुदरती खेती कर रहे हैं. कुल मिलाकर सेमिनार बहुत सफल रहा .
राजू टाइटस