Monday, March 30, 2015

विकास के लिए भूमि सुधार जरूरी है

विकास के लिए भूमि सुधार जरूरी है 

खेती किसानी में  चल रही जमीन की जुताई से खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं


भूमि सुधार के लिए करें पेड़ों के साथ खेती


 हमारे इन कुदरती खेतों को देखें इनमे पक  रही गेंहूँ की फसल सामान्य है।  इन खेतों को पिछले 28 सालों से जोता नहीं गया है। जुताई करने से खेत की जैविकता नस्ट हो जाती है बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेत की जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है। 

अच्छी  जमीन वही है  जिसमे तमाम जैवविविधताएं रहती है जैसे पेड़ , जीव जंतु सूक्ष्मजीवाणु आदि। इसमें गहराई तक घनी जड़ों का जाल पाया जाता है। इसकी ऊपरी सतह  से नीचे तक हवा और पानी का संचार होता है। बरसात का पानी जमीन के द्वारा सोख लिया जाता है जो वास्प बन एक और सिंचाई का काम करता है और बादल  बन बरसात करवाता है।

अच्छी जमीनो में जैवविविधताएं खूब पनपती है, फसलें भी कुदरती उत्पन्न होती हैं।  यही असली विकास है। आजकल खेती किसानी के लिए जंगल काटे जा  हैं।  विकास के नाम पर कंक्रीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं। 
ऊर्जा के लिए ,सड़कों आदि के लिए जंगलों को तेजी साफ़ किया जा रहा है। खदाने खोदी जा रहीं हैं।  विकास विनाश है। 

इस विनाशकारी  विकास के कारण मौसम परिवर्तन की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी है।  जिसके कारण हमारी जमीने ,फसलें तेजी से नस्ट होने लगी हैं। हम अकाल की और बढ़ चले हैं। आज जब हम कुदरती हवा ,आहार और पानी के घरे संकट से गुजर रहे हैं वहीँ बिजली और पेट्रोल  की मांग तेजी से बढ़ रही  है जिससे  सांस लेने लायक हवा और पीने लायक पानी और जीने के लिए कुदरती आहार विलुप्ति की कगार पर है। 


एक ओर जहाँ सरकार की ऊर्जा और धन शहरी मांग को ही पूरा नहीं कर पा रहा है वहीँ इस मांग की आपूर्ति में गैरशहरी छेत्रों का भारी शोषण हो रहा है। जिसे से हरियाली ,हवा ,पानी और आहार के श्रोत समाप्त हो रहे हैं।  किसान खेती छोड़ने लगे हैं।  खेती किसानी में दी जाने वाली सरकारी सहायता ऊँट के मुंह में जीरे के समान है। 

इसलिए अब भूमि सुधार मानवीय हित में सर्वोपरि बन गया है।  भूमि सुधार के लिए जंगलों को संरक्षित किया जाना एक उपाय है किन्तु खेती किसानी में इसके विपरीत कार्य हो रहा है जिस से मरुस्थल तेजी से पनप  रहे हैं। इसलिए पेड़ों के साथ की जाने वाली बिना जुताई की खेती ही सर्वोत्तम उपाय है। 

अधिकतर खेती किसानी के विशेषज्ञ भी यह मानते है की मोटे अनाज की फसलें पेड़ों के साथ नहीं हो सकती है यह एक भ्रान्ति है।  उनका मानना है की छाया के कारण उत्पादन प्रभावित होता है किन्तु वे नहीं जानते हैं की उत्पादन की कमी जमीन की जुताई और पेड़ों की कमी के  कारण है।  

अब जबकि खेतों में पेड़ों की कमी ,जुताई आदि के कारण खेती किसानी संकट में पड़ने लगी है उसको सुधारने के बदले पढ़े लिखे नवजवानों की बेरोजगारी की समस्या बड़ा मुद्दा बन गया है इसके लिए उधोगों को बढ़ावा दिया जा रहा है जिस से भूमि के पूरीतरह बर्बाद होने के आसार बढ़ गए है।  अभी हम आयातित तेल के गुलाम हैं कल हमे खाने के लिए अनाज ,पानी हवा को आयात करना  पड़ सकता है। कोयला ,हवा ,पानी और फसलें सभी पेड़ों के उत्पाद हैं, जिन्हे हम आयात करने लगे हैं इस से खतरनाक बात और क्या हो सकती है। 

बिना जुताई की पेड़ों के साथ होने वाली खेती को हम ऋषि  हैं यह खेती कुदरती सत्य और अहिंसा पर आधारित है। ऋषि खेती नाम गांधी खेती के लिए आचार्य विनोबाजी ने दिया था किन्तु जापान के गांधी श्री मस्नोबू फुकूओकाजी ने इसे वैज्ञानिक सत्य और अहिंसा से जोड़ कर जो विकास का मार्ग प्रस्तुत किया है उसके आलावा अब हमारे पास बचने का की मार्ग नहीं बचा है।  इस मार्ग के कारण हम बचे है इसलिए हम चाहते है की देश भी बचे। 




Monday, March 23, 2015

पलायन करने से अच्छा है पलायन रोकना

छिंदवाड़ा वन ग्रामो के किसानो की आजीविका और जैवविविधता संरक्षण 

अधिकारियों और किसानो ने सीखा ऋषि खेती 

पलायन करने से अच्छा है पलायन रोकना 

जैव विविधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका सुधार  प्रशिक्षण
टाइटस ऋषि खेती फार्म होशंगाबाद। 
भारत सरकार के वन एवं जलवायु परवर्तन विभाग और मप वन विभाग के सहयोग से होशंगाबाद के सतपुरा टायगर रिज़र्व  ने आज कल जैव विविधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका की सुधार योजना को शुरू किया है। यह योजना सतपुरा -पेंच कॉरिडोर में लागू है।

इस योजना के तहत जल ,जंगल, जमीन और ग्रामीण आजीविका को सुधारने  का लक्ष्य है। यह योजना शहरी विकास की योजनाओं से अलग है। इसमें जंगल में रहने वाले लोगों को विस्थापित किए बिना ऐसी जीवन पद्धति  से जोड़ना है जिसमे लोग हजारों सालो से रहते रहे हैं किन्तु ऐसा तभी संभव है जब किसान अपनी आजीविका के लिए ऐसी खेती करने लगे जिसमे जल,जंगल का विनाश नो होकर वह और अधिक विकसित हो जाये।  आजकल हो ये रहा है है कि पर्यावरण के नाम पेड़ तो लगाये जा रहे हैं किन्तु खेती के लिए उन्हें उखाड़ या काट दिया जा रहा है। जमीनो को खूब जोत खोद कर उसे मुरदार  बना दिया जा रहा है। जिस से हरीभरी जमीने रेगिस्तान में तब्दील हो रही है।

ऋषि खेती ऐसी योजना हैं जिसमे खेती कुदरती वनो के अनुसार की जाती है जुताई ,खाद ,दवाई ,सिंचाई ,समतलीकरण ,कीचड मचाना ,फलदार पेड़ों की शाखाओं की छटायीं आदि कार्यों को नहीं किया जाता है। ये किसान अभी जंगलों में ही रहते है कुदरती खेती के बहुत करीब हैं। इसलिए इन्हे यहाँ सरकार की ओर  से प्रशिक्षण कराया जा रहा है। इनकी समस्याओं का समाधान केवल ऋषि खेती के पास है कोई भी आधुनिक वैज्ञानिक खेती का डाक्टर इनकी समस्याओं को ना तो समझ सकता है न ही वह उसका निवारण कर सकता है। जैसे एक किसान ने पुछा की हम लैंटाना से परेशान है , दुसरे ने पुछा की हमारी जमीन कंकरीली है क्या किया  जाये तीसरे ने कहा की बरसात तो होती है पर सूखा पड़ा है।

ऐसे अनेक सवाल हैं जिसका वैज्ञानिक कारण और निवारण ऋषि खेती के पास है क्योंकि यह खेती जापान के जाने माने वैज्ञानिक और कुदरती खेती के  किसान स्व श्री मस्नोबू फुकूओकाजी के  ८० साल के कुदरती खेती के अनुभवों पर आधारित है जिसे  टाइटस ऋषि खेती फार्म पिछले २८ सालो से कर रहा है।

हमारा पूरा विश्वाश  है की यदि इन किसानो ने ऋषि खेती को अपना लिया तो उन्हें जंगल छोड़ने की जरूरत नहीं रहेगी वरन  संरक्षण का काम वे स्वयं कर लेंगे। हम इस प्रयास के लिए सतपुरा टायगर रिज़र्व को सलाम करते हैं।


Saturday, March 21, 2015

ऋषि खेती तकनीक से जाने अपनी मिट्टी की जैविकता

जैविक (Organic) और अजैविक(Inorganic) खेती 

मिट्टी का परिक्षण 

ऋषि खेती तकनीक से जाने अपनी मिट्टी  की जैविकता 

ज कल हमारा देश खेती किसानी में चल रहे  तमाम संकटों के कारण बड़ी मुसीबत में फंस गया है।  एक और खेत पानी और खाद की कमी के कारण मरुस्थलों में तब्दील हो रहे हैं वहीँ असंख्य किसान घाटे  के कारण आत्म हत्या करने लगे हैं वे खेती से पलायन करने लगे हैं। मौसम बदलने लगा है ,बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती जा रही है। 

मरुस्थली खेतों में बीमार फसलें पक रही हैं जिस से हमारे शरीर भी कमजोर होने लगे हैं  नयी नयी बीमारियां जन्म ले रही हैं। एक और किसानो पर कर्ज चढ़ रहा है वहीं सरकारें भी विदेशी हो गयी है। इस समस्या का मूल कारण धरती माँ की मौत है। हमने खेती केनाम से अपनी धरती माँ को खूब जोत खोद कर इतना लहूलुहान कर दिया है की अब व मर गयी है।

 हर खेत में दो प्रकार की मिट्टी मिल जाती है एक बीच में जिस में हमेशा हल चलता रहता है दूसरी किनारो के मेढ़ों पर जहाँ हल नहीं चलता है। हमने यह पाया है की जहाँ हल नहीं चलता है वह मिट्टी जीवित रहती है जिसे हम जैविक कहते हैं दूसरी मिट्टी वह है जहाँ हमेशा हल चलता रहता है वह मरू मिट्टी रहती है जिसे हम अजैविक मिट्टी कहते हैं। 

अधिकतर  लोग ये समझते है की जुताई वाले चालू खेत अच्छे रहते हैं यह भ्रान्ति है। इसको परखने के लिए हमने बहुत ही सरल विधि विकसित की है जिसे आप निम्न वीडियो के माध्यम से देख सकते हैं। 

पहली विधि 


दूसरी विधि 

हमारे खेतों की  मिट्टी को जैविक बनाने के लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है वरन हम जो कर रहे हैं उसे बंद करने की जरूरत है। जब हम खेतों की जुताई को बंद कर देते हैं अपने आप सूक्ष्म जीवाणु ,कीड़े मकोड़े और,जीव जंतु और खरपतवारें पनप कर खेतों को जीवित कर देती हैं। सबसे महत्वपूर्ण काम खेतों में पनपने वाली खरपतवारें करती हैं जैसे   घास ,गाजर घास आदि,  इनके छाया में केंचुएं ,चींटे चीटियाँ ,जड़ें आदि पनप काट खेत को खतोड़ा और पानीदार बना देते हैं। 

Friday, March 20, 2015

ऋषि खेती और मनरेगा

ऋषि खेती और मनरेगा

महात्मागांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना और कुदरती खेती का परिचय 

एक पंथ दो काज 
पिछले दो दिनों से लोकसभा में देश में खेती किसानी की दशा के सम्बन्ध में चर्चा चल रही है। इस चर्चा में अधिकतर सांसदों ने देश के किसानो की दयनीय स्थति का जो वर्णन किया वह बहुत भयानक है।  आत्म निर्भर कृषि प्रधान देश अब कर्जदार देश बन गया है।
वनग्राम के किसान ऋषि खेती प्रशिक्षण में शामिल

 कोई भी सांसद इस समस्या का  कारण नहीं बता सका ना ही  किसी सांसद के पास इस समस्या के निवारण का कोई उपाय मिला हलाकि अभी चर्चा चल रही है किन्तु फिर भी कुछ सांसद ऐसे रहे जो यह बताने में कामयाब  रहे की जो लोग असली किसान हैं उनके पास खेत नहीं हैं। वे सब भूमि हीन  किसान है जो हमारे समाज का सबसे अधिक गरीब तबका है। पिछली सरकार ने  इस समस्या को पहचान कर इस तबके  की आजीविका के लिए "मनरेगा " योजना चलायी है।  जिसमे गांव के भूमि हीन किसान परिवारों के  एक सदस्य को १०० दिनों का रोजगार मिले जिस से वे अपनी आजीविका चला सकें।

यह योजना तो अच्छी है किन्तु इसको लागू करने में क्या काम गाँव में कराया जाये जिस से यह योजना नियमित चलती रहे में अनेक कठिनाई हैं। दूसरी ओर गाँवो में चल रही आधुनिक वैज्ञानिक खेती दम तोड़ने लगी है।  जिसका मूल कारण मशीनी जुताई है जिसके कारण बरसात का पानी जमीन में न समाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ खेत की खाद को भी बहा  कर ले जाता है।  जिस से खेत बंजर हो रहे हैं। किसान हाहा कार मचा रहे हैं।

ऋषि खेती एक ऐसी गाँधीवादी खेती है जिसमे जमीन की जुताई बिकुल नहीं होती है जिसके कारण  बंजर खेत ताकतवर बन जाते हैं भूमिगत जल का स्तर बढ़ जाता है। सूखा और बाढ़ का नियंत्रण हो जाता है। खेती की उत्पादकता और गुणवत्ता में बहुत फायदा होता है।  किन्तु इस खेती में  मशीनो का इस्तमाल नहीं है।  यह खेती बिना बिजली और पेट्रोल के हो जाती है। इसी प्रकार मनरेगा भी ऐसी योजना है जिसमे कोई भी काम में मशीनो का इस्तमाल करने की मनाई है।

इसलिए हमारी सलाह है की खेती किसानी की  दशा को सुधारने   के लिए आज ऋषि खेती से कोई उत्तम उपाय नहीं है यदि भूमिहीन खेती किसानो से ऋषि खेती करवाई जाये तो एक पंथ दो काज वाली कहावत सच हो जाएगी।

टाइटस ऋषि खेती फार्म इस खेती को करवाने में स्वैछिक स्तर पर ट्रेनिंग उपललब्ध करा रहा है। अभी यह योजना होशंगाबाद के सतपुरा नेशनल फार्म वन विभाग के सहयोग से  लागू की गयी है।  जिसमे जैव विवधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका को सुधारने  का कार्य किया जा रहा है।


Thursday, March 19, 2015

भारत में खेती किसानी की दशा

भारत में खेती किसानी की दशा 

 लोकसभा में चर्चा 

किसानो की आत्महत्या और सूखे का  मुद्दा गरमाया 


म विगत अनेक सालो से देश में खेती  किसानी की बदहाली की खबरें सुनते आ रहे हैं।  हमने स्व.  अपनी खेती किसानी में अनेक पड़ाव तय किये हैं।  सबसे पहले हम देशी परम्परागत खेती किसानी करते थे इसके बाद पंजाब की आधुनिक खेती को मार्ग दर्शक समझ उसे अपना लिया था। किन्तु मात्र १५ वर्षों में हमे उसे अलाभकारी परिणामो के चलते छोड़ना पड़ा था।  उन्ही दिनों हमे कुदरती खेती की जानकारी मिली जिसे हमने अपना लिया जिसे अब हम पिछले २८ सालो से कर रहे हैं।


वैसे तो हमारे लिए खेती किसानी की दशा सम्बन्धी हालात छुपे नहीं हैं फिर भी हम जब भी इस विषय पर संसद में चर्चा होती हम उसे ध्यान से सुनते रहे हैं। पिछले साल तक सरकारों के द्वारा खा जाता रहा है की हमने खेती किसानी में बहुत तरक्की कर ली है पहले हम विदेशों से अनाज बुलवाते थे अब हम विदेशों को भेज रहे हैं। किन्तु इस साल सरकार ने पहली बार यह माना की देश में खेती किसानी की हालत बहुत गंभीर है करोड़ों किसान खेती छोड़ चुके है और छोड़ने वाले हैं ,लाखों किसानो ने आत्महत्या कर ली है और  हर रोज करीब दो किसान आत्म हत्या कर रहे हैं।

अनेक सदस्यों ने इस बात को माना की रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों आदि के कारण मिट्टी ,जल ,आनाज प्रदूषित हो रहे हैं इस लिए बीमारियां फेल रही है। अनेक लोक सभा सदस्यों से यह स्वीकारा कि खेत बंजर हो गए हैं और भूमिगत जल पहुँच से नीचे चला गया है।


यह भी माना गया की अनेक १०० एकड़ से अधिक किसानो के पास भी अपनी आजीविका का खतरा उत्पन्न हो गया है जबकि ५ एकड़ से नीचे खेती वाले अनेक किसान अब भूखे मरने की कगार पर खड़े हैं। अनेक गाँव से बड़े लोग अपने बच्चों और बूढ़ों को छोड़ कर से पलायन कर गए हैं। सबसे बड़ी समस्या पानी की है। पीने के लिए पानी लेने के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है।

इस चर्चा में देश के सबसे विकसित कहे जाने वाले प्रदेशों जैसे हरयाणा ,पंजाब ,और गुजरात के सांसदों ने भी अपने प्रदेशों का यही हाल बयान किया और कर रहे हैं।

 किन्तु बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़  रहा है की किसी भी सांसद ने  गरीब किसान वर्ग के सबसे गरीब  "भूमि हीं किसानो " की  कोई चर्चा नहीं की। ना ही कोई भी सांसद यह बता सका की आखिर इन हालातों के लिए मूलत: क्या कारण है।

 किसी भी सांसद ने भूमि ,जल और जैव विविधताओं के छरण की कोई भी चर्चा नहीं की ,जबकि अनेक सांसद सीना थोक कर अपने को किसान बता रहे थे। अधिकतर संसद खेती किसानी में पानी की कमी को मूल मुद्दा बता रहे हैं। जिसके लिए बड़ी सिंचाई  योजना  और नदियों को जोड़ने की बात कर रहे हैं।

हम पिछले अनेक सालो से बिना जुताई की कुदरती खेती के अनुभवों को अनेक लोगों के साथ बाँट रहे है अनेक लेख ,मेग्ज़ीनो के माध्यम से इस बात को बताने का प्रयास कर रहे हैं की देश में जो आज खेती किसानी की हालत है उसके पीछे जमीन की जुताई का सबसे बड़ा हाथ है।  इसके कारण ही जमीने बंजर हो रही है ,भूमि गत जल का स्तर  बहुत नीचे चला गया है। हरियाली की कमी के कारण बरसात कम हो गयी है।  पानी जमीन में नहीं समाता है। इस कारण खेत बंजर हो रहे है और सूखा पड़ा है। इस कारण किसान अधिक लागत  के कारण घाटे  में पड़  जाते हैं फिर आत्म हत्या कर लेते हैं।

इस दशा की जानकारी के अभाव में अब अनेक सांसद यह कहने लगे हैं कि  किसानो को खेती छोड़ देना चाहिए उन्हें कोई व्यवसाय करने की जरूरत है। अभी लोक सभा में चर्चा जारी है देखना यह है की इस सभा में नयी सरकार के कृषि मंत्रीजी  क्या जवाब देते हैं ?




Wednesday, March 18, 2015

भूमि अधिग्रहण

भूमि अधिग्रहण

 प्रदूषण कारी स्मार्ट सिटी ,कलकरखाने और नौकरियां 

कुदरती आहार ,हवा और  पानी 

मारी जमीन सड़क के लिए सरकार ने ले कर हमे नहीं के बराबर मुआवजा दिया अब वह जमीन सड़क के दोनों ओर  हो गयी है जिसमे एक ओर  तो काम में आ रही है किन्तु जो दूसरी ओर  हो गयी है वह ५० सालो से बेकार पड़ी है।

कुदरती  स्मार्ट खेत 
मेने करीब  ३० साल एक केंद्रीय सरकारी कारखाने में नौकरी की है रिटायर होने के बाद अब मै  कुदरती खेती कर रहा हूँ। कुदरती खेती करने से मुझे  कुदरती खान पान  का जो आनंद मिल रहा है वह कभी नौकरी के दौरान नहीं मिला। मेरी माँ कहती थी की जिस प्रकार आधुनिक वैज्ञानिक खेती करने से खेत बंजर हो रहे हैं वैसे ही मेरा बेटा  कारखाने की नौकरी करने से बीमार और अधमरा हो गया है।

किसानो की जमीन कल कारखानो  के नाम से लेना विकास नहीं है बहुत बड़ा धोखा है।  असल में हमारी सरकार को किसानो की भलाई  के लिए सोचना चाहिए।  किसान आजकल खेती के व्यवसायीकरण  के कारण गरीब हो रहा है वह किसानो के प्रति  सरकारों के गैर जवाबदारना रवैये के कारण अब आत्महत्या करने लगा है।
प्रदूषित स्मार्ट सिटी 

सरकार को यह मालूम नहीं है की आज देश में जो उधोग धंदे चल रहे हैं और जो लोग बड़ी बड़ी तनख्वाह वाली नौकरियों के मजे लूट रहे हैं उसके पीछे खेती किसानी है यदि खेती किसानी  इसी प्रकार अपेक्षित रहती है तो ना उधोग  चलेंगे ना ही ये नौकरियां रहेंगी।

इसलिए असली सरकार वही  है जो खेती किसानी को उसका खोया सम्मान वापस दिलवाए  इस काम में सरकारें पूरी तरह फेल रही है हमे नयी  सरकार से बहुत उम्मीद थी  वह किसानो के भले के लिए कोई ठोश काम करेगी किन्तु वह भी खेती किसानी को छोड़कर अब उद्घोग धन्दों की बात करने लगी है इस से बहुत निराशा है।

असल में सरकारों का यह  मत की उधोग धंदे असली विकास है गलत है  इसी अवधारणा के कारण व्यावसायिक खेती आयी है।  इसने मात्र ५० सालो में उपजाऊ खेतों को रेगिस्तान बना दिया है जिस से उस पर आधारित सभी धंधे चोपट हो गए हैं।

 भारत की अहिंसात्मक आज़ादी की लड़ाई किसानो की लड़ाई थी उन दिनों भी अंग्रेजों ने कंपनी राज कायम करने की कोशिश की थी किसानो से जमीने छीनी जा रहीं थीं उन्हें नौकर बनाया जा रहा था।  आज भी वही  दशा निर्मित हो रही है।  किसानो को जहां आत्म निर्भर बनाना था उन्हें नौकरी के नाम पर कंपनियों का गुलाम बनाया जा रहा है।

असल में हमारे राजनेता लोग ईमानदारी और सच्चाई से कोसो दूर चले गए हैं वे सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता के मोह जाल में फंस गए हैं। इसमें आमआदमी बंदर बन गया है और राजनेता मदारी बन गए हैं। असल में वे यही नहीं जानते है की असली माँ धरती है जिसके बच्चे हम सब हैं। जो इन दिनों बीमार हो गयी है।

ऐसा लगता है हम अब अपनी धरती माँ को बचाने में नाकामयाब हो जायेंगे और सब स्मार्ट सिटी के चक्कर में अपनी बीमार धरती माँ को छोड़ कर स्मार्ट  घर में बस जायेंगे जहाँ २४ घंटे बिजली मिलेगी, कारें होंगी  किन्तु पीने के लिए कुदरती पानी  नहीं मिलेगा ,ना ही वहां हमे सांस लेने के लिए प्राण वायु मिलेगी ,कुदरती रोटी भी हमसे कोसों दूर हो जाएगी। हरयाली और तमाम जैवविविधतयों को देखने के लिए हमे चिड़िया घरों में जाना होगा। हरे भरे वन ,खेत और खलिहान और बाग़ बगीचों की प्रदर्शनियां  लगा करेंगी।

आजकल हम पिछले २८ सालों से कुदरती खेती कर रहे हैं इसके पहले हम आधुनिक वैज्ञानिक खेती करते थे हमारे खेत बंजर हो गए थे किन्तु जब से हमने कुदरती  अपनाया है।  हमारे खेत स्वर्ग बन गए हैं हम मरना  पसंद करेंगे पर अपने स्वर्ग को कभी नरक बनने के लिए नहीं देंगे।

हमारा मानना है की सरकार को अभी  खेतों खेती की जानकारी नहीं है यदि सरकार पूरे देश में कुदरती खेती करवाती है तो पूरा देश आज भी स्वर्ग में तब्दील हो जायेगा जिसमे जिसमे शून्य निवेश की जरूरत है वरन ८० % लागत बच जाएगी। कुदरती हवा ,खान पान के मिलने से अंग्रेजी स्कूलों,अस्पतालों की जरूरत पूरी तरह खतम हो जाएगी। इसलिए हमारा निवेदन है की प्रदूषणकरी स्मार्ट सिटी के बदले कुदरती स्मारक खेत बनाने पर बल देना चाहिए।




Tuesday, March 17, 2015

सेहरा वन ग्राम के किसानो ने सीखी ऋषि खेती

सेहरा वन ग्राम के किसानो ने सीखी ऋषि खेती


भारत एक कृषि प्रधान देश है। हजारों सालो से यहाँ के किसान टिकाऊ खेती कर अपनी आजीविका चला रहे हैं।   किन्तु अब कुछ सालो से किसानो को अपनी आजीविका  कठिनाई आ रही है। फसलें अब ठीक से पैदा नहीं होती हैं। खेत सूखने लगे हैं उनकी उर्वरकता बहुत घट गयी है। किसान अब खेती से निराश होने लगे हैं। मौसम परिवर्तन ,कीड़ों और खरपतवारों की समस्या ,पानी की कमी , जंगली जानवरों से नुक्सान आदि अनेक समस्याओं के कारण किसान अब खेती से पलायन करने लगे हैं।

ये समस्या वन ग्रामो के किसानो को और अधिक है क्योंकि उन्हें सिंचाई  है ,पानी है तो बिजली नहीं है ,बिजली है तो पानी नहीं है। खाद ,दवाइयाँ ,बीज और मशीने उपलब्ध नहीं हैं।  हैं,  भी तो उन्हें खरीदने की ताकत नहीं है।

अधिकतर वन ग्राम सरकार  आरक्षित छेत्रों में है जहाँ सरकार की जवाबदारी सभी जैवविविधताओं के साथ वहां रहने वाले लोगों की  आजीविका का ध्यान रखना है।  मप का  वन विभाग चाहता है की वनो में ग्रामीण जन  जीवन और जैवविवधताएं एक दुसरे के सहयोग से मित्रता पूर्ण जीवन जियें जिस से सम्पूर्ण पर्यावरण समृद्ध हो जाये।   

इसी तारतम्य में "जैवविविधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका सुधार योजना " को शुरू किया है। जिसमे मप होशंगाबाद की ऋषि खेती योजना को सबसे उत्तम तरीका माना गया है।
ऋषि खेती योजना में फसलोत्पादन के लिए वनो में जिस तरह कुदरती विविधतायें रहती है के अनुसार फसलों का उत्पादन किया जाता है। जिसमे सामान्य खेती की तरह जमीन की जुताई ,खाद ,उर्वरकों ,दवाइयों, मशीनो
आदि की जरूरत नहीं रहती है और फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता बहुत अधिक अधिक  है।

असल समस्या यह आधुनिक खेती किसानी में अनाजों का उत्पादन तो मिल जाता है किन्तु उसमे लागत ,श्रम बढ़ता जा रहा है और उत्पादन की कोई गारंटी नहीं रह गयी है।   इसका सबसे प्रमुख कारण जुताई है जिसके कारण एक और जहाँ हरियाली नस्ट हो  रही है वहीँ बरसात का पानी जमीन में ना जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ जैविक खाद (मिट्टी ) को भी बहा कर ले जाता है। इस कारण खेत भूखे और प्यासे रह जाते हैं। उनमे वंचित फसलों का  होता है।

जुताई नहीं करने से जैविक खाद और पानी का बहना रुक जाता है खेत वनो के माफिक खतोड़े और पानीदार बन जाते हैं।  जिनमे कुदरती गुणों से भरपूर फसलें पैदा होती  हैं जो स्वस्थवर्धक रहती है जिनकी कीमत  बाजार में बहुत अधिक हैं। इस प्रकार एक साथ अनेक लाभ प्राप्त होते हैं।

यह केवल ग्रामीण आजीविका के सुधार की योजना नहीं है वरन यह सम्पूर्ण मानव जीवन के कल्याण की योजना है। टाइटस ऋषि खेती फार्म इस योजना में सतपुरा नेशनल पार्क के साथ स्वैछिक सहयोग की भावना से  कार्यरत है।



Saturday, March 7, 2015

रासायनिक खेती और जैविक खेती (ORGANIC FARMING ) एक सिक्के के दो पहलू हैं !

रासायनिक खेती और जैविक  खेती (ORGANIC FARMING  ) एक सिक्के के दो पहलू हैं !


जुताई (PLOWING) सब से हानिकारक कार्य है।

 
बिना जुताई की कुदरती खेती या बिना जुताई की जैविक खेती करें। 

बसे "हरित क्रांति " जो एक आधुनिक खेती के रूप में जानी जाती ,जिसमे खेती मशीनी जुताई और रसायनो को बल पर की जाती है पर सवालिया निशाँन  लगे हैं तब से "जैविक खेती "का हल्ला  बहुत सुनायी देने लगा है।
इन दोनों में केवल  इतना अंतर बताया जा रहा है की किसान रसायनो के बदले गैर रासयनिक उर्वरकों , कीड़ामार और नींदामार  उपायों को अमल में लाते रहे हैं।

कुदरती खेती की जग प्रसिद्ध किताब 

भारतीय पम्परागत प्राचीन खेती किसानी में खेती बिना जुताई के की जाती थी। वह असली कुदरती खेती थी। आज कल भी अनेक आदिवासी अंचलों में इस खेती को देखा जा सकता है। झूम खेती ,बेगा खेती और बारह अनाजी खेती ,उतेरा  आदि खेती की ऐसी प्राचीन पद्धतियाँ आज भी देखि जा सकती हैं। ये खेती किसानो के द्वारा बचाये कुदरती बीजों से की जाती हैं जिसमे सिंचाई ,रसायनो और मशीनो का बिलकुल उपयोग नहीं है।

बिना जुताई की जैविक खेती की
जग प्रसिद्ध किताब 
इन  खेती की प्राचीन तकनीकों का मौजूदा रासायनिक और जैविक खेती की तकनीकों से तुलना करने पर पता चलता है कि इनकी उत्पादकता ,गुणवत्ता  यानी आर्थिक ,सामाजिक एवं पर्यावरणीय स्तर के अनुसार सबसे उत्तम है। यही कारण है आदिवासी लोग आज भी हम शहरों में रहने वाले लोगों से बहुत तंदरुस्त हैं।

एक और जहाँ जैविक और अजैविक खेती की पद्धतियाँ हरियाली को मार कर जमीन को खूब खोद और जोत कर हिंसात्मक तरीके से की जारही हैं जिस से  हमारा पर्यावरण  नस्ट हो रहा है ,जमीने बंजर हो रही हैं ,सूखा और बाढ़ समस्या बन गए हैं।  वहीं कुदरती खेती की सभी विधियां हरियाली और जमीन की उर्वरकता और जलग्रहण शक्ति को बचा कर की जाती हैं।  जिस से हमारा पर्यावरण स्वस्थ रहता है कुदरती आहार ,कुदरती जल,और कुदरती हवा मिलती है।

इसलिए हमारा कहना है की जब तक खेती में जुताई और रसायनो को बंद नहीं किया जाता है किसानो को और कुदरत को जो हमारी माँ है कोई लाभ नहीं है।

फसलों  के उत्पादन में किसानो को सबसे अधिक परेशानी खरपतवारों से आती है , असल में ये खरपतवारें कुदरत के द्वारा खेतों को उर्वरकता ,नमी और छिद्रियता प्रदान करती हैं इनमे असंख्य जीव,जंतु ,कीड़े मकोड़े रहते हैं जो जमीन में पोषक तत्त्वों की आपूर्ती कर देते हैं जमीन को गहराई तक छिद्रिय बना  देते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में समा जाता है।

किसान जुताई कर इन लाभकारी खरपतवारों को जुताई , खरपतवार नाशक जहरों से या गुड़ाई आदि से निकलते रहते हैं इसलिए खेत बंजर हो जाते हैं इनमे रासायनिक या जैविक खादों के बिना फसलों का उत्पादन नहीं मिलता है। जुताई नहीं करने और खरपतवारों नहीं मारने से जमीन की जैवविवधताएं सुरक्षित रहती हैं जिसके कारण रासयनिक और जैविक खाद और दवाओं की कोई जरूरत नहीं रहती है।

बिना जुताई की कुदरती खेती में फसलों का उत्पादन अपने आप पैदा होने वनस्पतियों के साथ किया जाता है वहीँ बिना जुताई जैविक खेती में खरपतवारों को जहाँ का तहाँ जीवित सुला कर खेती की जाती है। 





 

Thursday, March 5, 2015

कुदरती इलाज

 केजरीवालजी भी करा रहे कुदरती इलाज !


कुदरती खेती ,कुदरती आहार और कुदरती इलाज में कोई  फर्क नहीं है !

सत्य और अहिंसा का मार्ग 

विगत दिनों जब अन्नाजी अनशन कर रहे थे वे बहुत बीमार हो गए थे उनका इलाज एक बहुत  महंगे अस्पताल में रासायनिक दवाओं से किया जा रहा था किन्तु उनकी तबियत दिन प्रति  दिन बिगडती गयी इसके बाद अन्नाजी को स्व  इस बात का आभास हो गया की और उन्होंने रासायनिक दवाओं का इलाज बंद कर दिया और वे बेंगलुरु में जिंदल के कुदरती अस्पताल में चिकित्सा हेतु चले गए। 

सूक्ष्म जीवाणुओं की खोज करते गांधीजी   

उन्हें २० दिनों तक फलों के रस  पर रखा गया।  उनके पूरे बदन में सूजन आ गयी थी ये हाल उनका रासायनिक दवाओं के कारण हुआ था।  किन्तु ७४ साल की उम्र में वे मात्र २० दिनों में ठीक हो गए। असल में आज कल  बीमारियां रासायनिक दवाओं वाले अस्पतालों उत्पन्न हो रहीं हैं। अस्पतालों में हो रहीं अनेक मौतों के लिए भी इन दवाओं को दोषी  माना जा रहा है।

रासयनिक दवाएं शरीर को  और अधिक कमजोर कर देती हैं। जिस से बीमारियां लगातार बढ़ती जाती हैं जब बीमारियां ठीक नहीं होती है और दवाओं  की मात्रा  और अधिक कर दी जाती है जिसके दुश परिणामो के कारण अनेक लोग मर जाते हैं।  अन्नाजी जब कुदरती इलाज करवाने पहुंचे उनकी हालत बहुत खराब थी पूरे बदन में सूजन  आ गयी थी।  अन्नाजी ने बताया की सब से पहले कुदरती इलाज करने वाले डाक्टरों ने उनकी दवाएं पूरी तरह बंद कर दीं।  दूसरा उन्होंने उनका सामान्य भोजन जो दाल,रोटी सब्जी ,भात रहता है को बंद कर दिया ,उसके बाद उन्हें पानी और रसों के आधार पर उपवास करवाया गया यह उपवास करीब २० दिन तक चला इस से उनकी सेहत में सुधार आने लगा।  फिर उन्हें फलों के रसों के साथ थोड़ा थोड़ा सामान्य भोजन दिया गया जिस से वे पूरी तरह ठीक हो गए।

हमारा शरीर चारों तरफ से बीमारियों के कीटाणुओं से घिरा रहता है किन्तु रोग निरोग शक्ति के कारण हम बच जाते हैं।  रोग निरोग शक्ति के कारण जब हमारे शरीर में कोई बीमारी प्रवेश करती है हमारे शरीर की रक्षात्मक फौज उस से लड़ाई कर बीमारी को भगा देती है। हमारे  शरीर की रोग निरोग शक्ति तब कमजोर हो जाती है जब उसे कुदरती खान ,पान, हवा और कुदरती पर्यावरण नहीं मिलता है।

अन्नाजी एक गाँधीवादी व्यक्ति हैं। वो उपवास में बहुत विश्वाश करते हैं।  उपवास करना भी शरीर की रोग निरोग शक्ति को बढ़ाने में बहुत सहयोगी रहता है। किन्तु उपवास भी किसी जानकार के अनुसार होना चाहिए।
सामान्य उपवास तीन दिन का होता है जिसमे पानी लगातार लेने की सलाह दी जाती है उपवास के दौरान आराम जरूरी है। पानी के साथ हरी पत्तियों का रस जिन्हे बकरी और बंदर पसंद करते हैं लाभप्रद रहता है। फलों का रस ,अंकुरित अनाज ,आदि मन पसंद हलकी फुलकी आनंद दायक कसरत करने से अनेक बीमारियां ठीक हो जाती हैं।

हम अपने परिवार में पिछले २८ सालो से कुदरती खेती कर रहे हैं इस खेती में जमीन की जुताई , कृषि रसायनो और किसी भी प्रकार के  मानव निर्मित खाद और दवाइयों का उपयोग नहीं किया जाता है। इस से मिलने वाली हर अनाज ,सब्जी ,फल ,दूध ,अंडे आदि दवाई  की तरह काम करते हैं। हम सामन्यत : अपने परिवार में सामन्य बीमारियों के लिए रासायनिक दवाओं का इस्तमाल नहीं करते हैं। बुखार ,सर्दी जुकाम आदि होने पर उपवास के साथ पानी और हरी पत्तियों का रस पीते और पिलाते हैं।  कुछ समय बाद ये बीमारियां ठीक हो जाती हैं।

हमने पाया है की जब शरी
गांधीजी के परम शिष्य अन्नाजी और अन्नाजी के  शिष्य केजरीवालजी 
र को आराम ,कुदरती हवा और खान पान मिलता है उसकी बीमारी हट जाती है।  सामान्य परिस्थिती में इनका सेवन लाभदायक रहता है। इसमें पूरे भरोसे और धीरज  की जरूरत रहती है।

 कई बार डर के कारण हमे मजबूरी में रासायनिक दवा वाले डाक्टरों के पास जाना पड़ा है किन्तु हमने जल्दी दवाइयों को छोड़ कर स्वास्थ लाभ पाया है।

कुदरती इलाज सही मायने में कोई विशेष इलाज की तकनीक नहीं है यह " सत्य और अहिंसा " के अनुसार कुदरत के साथ रहने का तरीका है ।

  गेरकुदरती खान ,पान ,दवाइयों और क्रिया कलापों को छोड़ भर देने से इलाज हो जाता  है।  जब हम कुछ नहीं करते हैं हमारे शरीर में कुदरत काम करने लगती है। अपने आप कुदरती संतुलन स्थापित हो जाता है। बीमारियां ठीक हो जाती हैं।

रासयनिक दवाओं पर आधारित डाक्टरी हिंसा पर आधारित है। कोई भी बीमारी हो दोष  आँखों से नहीं दिखाई देने सूक्ष्म जीवाणुओ पर डाल  दिया जाता है फिर उनको मारने के लिए कई किस्म के रासायनिक जहरों को खोजा जाता है। ये जहर हमारे शरीर की रक्षात्मक फौज के जवानो जो असंख्य सूक्ष्म जीवाणु होते हैं को बहुत नुक्सान पहुंचाते हैं। जो इन जहरों के कारण मर जाते हैं जिस से हमारे  शरीर की रोग निरोग छमता पर गहरा विपरीत असर पड़ता है बीमारियां ठीक  होने के बदले और बढ़ जाती हैं।

यही हिसात्मक  डाक्टरी खेती में चल रही है जुताई करने से जमीन जो असंख्य सूख्स्म जीवाणुओं का समूह है मर जाती है उसमे रासायनिक जहर डालने से बचे कुचे  जीव भी मर जाते हैं खेत बंजर  हो जाते है बंजर खेतों में
भयानक रासायनिक जहर उंडेल  जाते हैं जिस से फसलें जहरीली हो जाती हैं जो हमारे  शरीर को भी कमजोर कर देती हैं कैंसर , स्वान फ्लू ,डेंगू  जैसी  अनेक महामारियों  का यही  मूल कारण है।

कुदरती इलाज के लिए कुदरती वातावरण की जरूरत होती है सही कुदरती वातावरण के लिए कुदरती खेतों की जरूरत है जिनसे हमे कुदरती फसलें ,कुदरती जल और कुदरती साँस लेने लायक हवा प्राप्त कर सकते हैं । महानगरों में कुदरती आवोहवा और पानी की बहुत कमी है। कुदरती इलाज भी अब महानगरों में फैशन बनने लगा है किन्तु सवाल ये है की क्या इन अस्पतालों में कुदरती वातावरण है ?






 

Sunday, March 1, 2015

जैवविविधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका सुधार योजना


 

जैवविविधता संरक्षण और ग्रामीण आजीविका सुधार योजना (BCRLIP) सतपुरा -पेंच कॉरिडोर 

TITUS NATURAL FARMING MODAL(RISHI KHETI )

 

 
 जकल आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियां जहाँ हमारे  जीवन को सुलभ बना  रही हैं वहीं इसका  विपरीत असर  हमारी जलवायु और  जैवविधताओं पर बहुत पड़ रहा है। जिसके कारण ग्रामीण आजीविका का संकट उत्पन्न हो गया है। 
  हम सब जानते हैं की देश 60 % आबादी अभी भी गांवों में रहती है। जो जल ,जंगल और जमीन पर आश्रित है। जिसका मूल व्यवसाय खेती है। ये सही है आधुनिक वैज्ञानिक खेती ने हमारे देश की खाद्य सुरक्षा में महत्व पूर्ण भूमिका निभायी है किन्तु इसके हानिकारक प्रभावों के चलते हमारे सामने जल ,जंगल और जमीन से जुडी जैव विवधताओं के लुप्त होने खतरा उत्पन्न हो गया है। इसलिए इनके संरक्षण की जरूरत आज की सबसे बड़ी मांग बन गयी है।
 
जंगली ,अर्ध जंगली और फलदार पेड़ों के साथ सब्जियों ,अनाज और चारे की खेती एक साथ
"आल इन वन क्वाटर एकड़ बगीचा "
भारत सरकार का पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग इस समस्या के प्रति जागरूक है। इसलिए जैव विविधता  ग्रामीण आजीविका सुधार की योजना "सतपुरा और पेंच कॉरिडोर के माध्यम से  म. प्र. सरकार द्वारा यहाँ कार्यरत है। इसका मूल उदेश्य ग्रामीण लोगों के साथ मिल कर पर्यावरण का संरक्षण करना है जिस से इस छेत्र की जलवायु और जैवविवधताएं संरक्षित रहें और ग्रामीणो को इसका लाभ मिले इसमें उनकी भागीदारी सुनश्चित की जा सके।

  अब हमे ऐसी खेती करने की जरूरत है जो हमारी लुप्त होती जैवविविधताओं को न सिर्फ थामे वरन फसलों की उत्पादकता और गुणवत्ता को भी बढ़ते क्रम में टिकाऊ बनाये।  बिना जुताई की कुदरती खेती जिसका आविष्कार जापान के जग प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक स्व मस्नोबू फुकुकाजी ने किया है। जिसे भारत  में किसानो के अपनाने लायक बनाने में टाइटस ऋषि खेती फार्म की अहम भूमिका रही है। इस फार्म ने फुकोओका  फार्मिंग  को जो नेचरल फार्मिग के नाम से विख्यात है को ऋषि खेती के नाम से दीर्घ कालीन अभ्यास कर प्रचारित करने भी बहुत बड़ा योगदान दिया है। 
 
यह खेती हमारे कुदरती वनो के सिद्धांतों पर आधारित है जैसे  वनो में जुताई ,खाद और दवाइयों की कोई जरूरत नहीं रहती है जिस के कारण जल ,जंगल और जमीन  की जैवविविधताये संरक्षित रहती हैं।  उसी प्रकार ऋषि खेती में जुताई ,खाद दवाइयों के बिना अनाजों,फलों , जंगली और अर्ध जंगली पेड़ों को एक साथ "आल इन वन " के आधार  पर फसलों का उत्पादन किया  जाता है। 
 
खरपतवारें जल जलवायु और  जैवविधताओं की माँ हैं। 
ऋषि खेती में कुदरती तरीके से अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों जिन्हे खरपतवार कहा जाता  है की अहम भूमिका रहती है।  ये  जमीन पर अपना घर  बनाकर अनेक जीव जंतु ,कीड़े मकोड़ों जैसे केंचुए ,चीटियाँ ,दीमक आदि को आश्रय प्रदान करती हैं। जिनके जीवन चक्र से जमीन बहुत नीचे तक उर्वरक ,छिद्रित और नम हो जाती है। इसके कारण बरसात का पानी जमीन के द्वारा सोख लिया जाता है जो साल भर इस जैवविविधता के काम आता जिस से आस पास की  तमाम फसलें झाड़ियाँ और पेड़ों को खाद और पानी लगातार मिलता रहता है। 


पेड़ों के साथ गेंहूँ की फसल उत्पादन ५०० ग्राम /वर्ग मीटर 
हम इन कुदरती वनस्पतयों में गेंहूँ ,चावल ,दालों ,सब्जियों और फलों की खेती करते हैं। इसे करने के लिए सीधे बीजों को या बीजों को क्ले (कप वाली मिट्टी ) की गोली में बंद कर फेंकते हैं ,जरूरत पड़ने पर  रोपे  भी लगाते  हैं।   हर वनस्पति एक दुसरे की पूरक रहती है जिसमे इनके सहारे  रहने वाले कीड़े मकोड़े ,जीव  जंतु भी और उनके दुश्मन भी परस्पर सहयोग से रहते हैं। इसे हम "आल इन वन " कहते हैं।
 
 
बिना टूटी नरवाई /पुआल और दाने अलग करने की पांव से चलने वाली मशीन 
पुआल के ढकाव से जैविक खाद बनती है. इस से  झांकते गेंहूँ के नन्हे पौधे 
 फसल पकने के बाद अनाज,सब्जी ,फल आदि तो हम ले लेते हैं किन्तु इनसे मिलने वाले तमाम अवशेषों जैसे पुआल ,नरवाई ,पत्तियां ,टहनियां आदि को जहाँ का तहाँ जमीन पर वापस डाल देते हैं जो एक ओर  जहाँ अनावशयक खरपतवारों को नियंत्रित करने में ,नमी के संरक्षण में ,हानिकारक कीड़ों के शिकारियों के छुपने में सहायता पहुंचाते हैं वहीं सड़ कर जैविक खाद बनते हैं। इसके लिए इस बात का ध्यान  रखने की जरूरत  है की धान की पुआल या गेंहूँ आदि की नरवाई भूसा नहीं बने  भूसा जमीन को चोक  कर देता है जिस से बीजों का अंकुरण प्रभावित होता है।

इसके लिए हम पांव से चलने वाले कटीले ड्रम का उपयोग करते हैं.  इस से अनाज के दाने अलग हो जाते हैं और पुआल तथा नरवाई बिना टूटे हुए अलग हो जाती है।

बिना टूटा हुआ पुआल /नरवाई  जमीन पर जहाँ का तंहा डालदेने से  बीज सुरक्षित हो जाते हैं जो उग कर बाहर निकल आते हैं। नन्हे पौधे ठीक जुते  हुए खेतों की तरह पनप  कर बम्बर फसल देते हैं। इस से एक और जहाँ ८०% खेती खर्च कम हो जाता है वहीं उत्पादों की गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है जिसे खाने से कैंसर जैसी बीमारी भी ठीक हो जाती है।

छिपकलियां और मेढक हानिकर कीड़ों को खा जाते हैं 
रात में उल्लू चूहे पकड़ लेते हैं 
इस खेती में फसलों में कोई बीमारी नहीं लगती है कुदरती संतुलन बना रहता है। छिपकलियां ,मेंढक आदि कीड़ों को खा लेते हैं। रात में पेड़ों पर उल्लू बैठते हैं जो चूहों के प्रकोप को खत्म कर देते हैं
 
 
 
 खेती में पम्परगत खेती की दो धारणाओं का पूरी तरह अंत हो जाता है पहला की खरपतवार फसलों का खाना  खा लेती है दूसरा छाया  में फसलें नहीं होती।  इस खेती का सबसे  बड़ा फायदा यह है की इसमें श्रम और लागत की भारी  कमी रहती है एक किसान परिवार जिसके परिवार में ५-६ सदस्य रहते हैं हर सदस्य को एक घंटे प्रति दिन से अधिक के समय की जरूरत  नहीं है। 

जल ,जंगल जैविविविधताओं के समन्वय से किसान की आजीविका हर हाल में सबसे अच्छी रहती है।