जुताई ,खाद ,दवाई ,निदाई नहीं ! Zero tilage, No Chemicals , No weeding
Shalini and Raju Titus. Hoshangabad. M.P. 461001.rajuktitus@gmail.com
M-09179738049.
रसायन नहीं ,गोबर नहीं ,कीट और खरपत-मारक नहीं ,मशीन नहीं
जब से भारत में "हरित क्रांति " के नाम से गहरी जुताई ,जहरीले रसायनों ,भारी सिंचाई ,और मशीनों से खेती की जा रही है तब से एक ओर जमीन बंजर हो रही हैं और किसान गरीब होते जा रहे हैं।
फलदार पेड़ों के साथ गेंहू की खेती
ऋषि खेती बिना जुताई ,बिना खाद और दवाइयों से की जाने वाली खेती है इसमें भारी सिंचाई और मशीनों की भी जरूरत नहीं है। इस खेती का आविष्कार जापान के जग प्रसिद्ध सूक्ष्म जीवाणु के जानकार और कुदरती खेती के किसान ने किया है। पूरे विश्व में कुदरती खेती ( नेचुरल फार्मिंग ) के नाम से है।
भारत में हमे इस खेती को करते करीब तीस साल हो गए हैं। इन तीस सालों में हमने कभी भी जुताई नहीं की है ना ही कोई जहरीला रसायन डाला है ना ही हमने जैविक खाद का कोई उपयोग किया है। असल में ऋषि खेती कुदरती रूप से पैदा होने वाली वनस्पतियों के साथ और उनके तरीके से की जाती है। जैसे कुदरती वनों और चरोखरों में देखने को मिलता है।
कुदरती वनों में बीज जमीन पर पड़े रहते हैं जो अपने आप सुरक्षित और जमीन की ऊपरी सतह अनुकूल मौसम आने पर ऊग आते हैं इसी प्रकार हम सीधे बीजों को फेंक कर या क्ले ( खेतों और जंगलों से बह कर निकलने वाली चिकनी मिटटी जिस से मिटटी बर्तन बनाये जाते है। ) में कोटिंग कर सीड बाल बना कर बिखराते देते हैं। यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार जंगली बीज गिर जाते हैं। सीड बाल से बीजों की सुरक्षा हो जाती है जो मौसम आने पर ऊग आते हैं।
आल इन वन
हम खरपतवारों को मारते नहीं है यह जमीन के सुधार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इनके साथ अनेक कुदरती जैव-विविधताएं रहती है जो जमीन में जल का प्रबन्ध करती हैं ,फसलों की रक्षा करती हैं और पोषक तत्व प्रदान करने का काम करती है।
इस कुदरती प्रबंध के कारण खेत बहुत ताकतवर हो जाते हैं उनमे ताकतवर फसलें पनपती है जिनमे कोई रोग नहीं लगता है। इस कारण किसान को लागत और श्रम का बहुत लाभ मिलता है और बम्पर फसलें उतरती हैं।
कुदरती खेती में सुबबूल और बकरी पालन का विशेष महत्व है। दोनों एक दुसरे के पूरक और पर्यावरण को बचाने का काम करते हैं। साथ में ईंधन भी मिलता है।
खरपतवार जिन्हें किसान दुश्मन मानते हैं कुदरती खेती का मूल तत्व हैं इन्हें हम मरते नहीं वरन बचाते हैं। गाजर घास बहुत ग्राउंड कवर के लिए बहुत उपयोगी है।
नरवाई और पुआल जिन्हें किसान जला देते हैं कुदरती खेती में बहुत काम करती है।
हजारो सालो से जब से मानव ने जुताई आधारित खेती को करना सीखा है तब से किसानों और खरपतवारो के मध्य दुश्मनी चल रही है।
अधिकतर किसान और कृषि वैज्ञानिक यह मानते हैं की खरपतवारें हमारी फसलों का खाना खा लेती हैं इसलिए पैदावार प्रभावित होती है इसलिए वो चुन चुन कर उन्हें निकालते रहते हैं।
जबकि कुदरती सत्य यह है की खरपतवारें (ग्राउंड कवर क्रॉप ) जमीन का सुरक्षा कवच है। इसलिए हम धरती माता की पूजा करते हैं इसके पीछे सत्य यह है की धरती माता हमारे शरीर के माफिक जीवित है वह हमारे शरीर की तरह खाती पीती है और साँस लेती है।
जापान के मस्नोबू फुकुओका जी द्वारा लिखी उनके अनुभवो पर आधारित किताब
खरपतवारें धरती माता को हरियाली से ढांक लेती हैं जिस से धरती की समस्त जैव -विविधताएं सुरक्षित होकर तेजी से पनपती है जो धरती को पोषकता प्रदान करते हुए उसे उर्वरक और पानीदार बना देती है। इस ढकावन के कारण धरती धूप ,ठण्ड , बरसात और तेज हवाओं से सुरक्षित हो जाती है।
किन्तु जब किसान खरपतवारों को दुश्मन समझ कर जमीन को खूब जोतता और बखरता है तो भूमि कणो का आपसी सम्बन्ध टूट जाता है वे बिखर जाते हैं जो हवा और पानी से बह और उड़ जाते हैं। इस से जमीन की आधी ताकत एक बार की जुताई से नस्ट हो जाती है और खेत मरुस्थल में तब्दील हो जाते है।
मरुस्थली खेत में बिना सिंचाई ,उर्वरक खाद के फसलों का उत्पादन नहीं होता है और और जो होता है वह प्रदूषित रहता है।
जुताई के कारण बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड में तब्दील हो जाती है जिसके कारण बरसात का पानी जमीन में सोखा नहीं जाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ मिट्टी (जैविक खाद ) को भी बहा कर ले जाता है।
मरुस्थली जमीन में गैर-कुदरती ,बे स्वाद ,रोग पैदा करने वाली फसलें पैदा होती हैं। आज जितने भी हम वृक्ष विहीन रेगिस्तान देख रहे है वो सभी जमीन की जुताई आधारित खरपतवारों को मारकर की जाने वाली खेती के कारण है।
यही कारण है की आज कल बिना जुताई की खेती का चलन शुरू हो गया है। जिसमे बिना जुताई की कुदरती खेती का पहला स्थान है।
हमारे पैदा होते ही हम पर अनेक प्रकार के बंधन डलने लगते हैं जिसमे सब से बड़ा बंधन हमारी शिक्षा को लेकर होता है। माता पिता बच्चों के पैदा होते ही उसके भविष्य के प्रति चिंतित होने लगते हैं और उनके सामने स्कूल के आलावा कोई विकल्प नहीं रहता है इसलिए हमे मजबूरन स्कूलों के हवाले कर दिया जाता है और हम स्कूल के गुलाम हो जाते हैं।
महाराष्ट्र में 2014 में ८००० बच्चों ने आत्म हत्या कर ली है।
स्कूल चाहे कोई भी उसे भी अपने भविष्य की चिंता रहती है इसलिए वह भी स्कूली सिस्टम के गुलाम हो जाते हैं उन्हें वही पढ़ाना पड़ता है जिसे सिस्टम चाहता है। पढ़ाई के सिलेबस भी इस सिस्टम के अनुसार तय किए जाते हैं। अधिकतर यह सिस्टम पूंजीपति घरानो के अधीन रहता है। ये घराने हमेशा अपनी पूँजी बढ़ाने के लिए बाजार खोजते रहते हैं और एक दिन हमारी पढ़ाई का पूरा सिस्टम हमारे सहित इस बाजार की भेंट चढ़ जाता है।
बाजार में कोई यह नहीं देखता कि क्या सही है की क्या गलत है वहां तो खरीदने और बेचने के लिए कीमतों का खेल चलता है सस्ता खरीदो और महंगा बेचो। इस खेल का दबाव हमारे स्कूली बच्चों और पेरेंट्स पर आ जाता है।
पेरेंट्स महँगे और महंगे स्कूलों को हमारे बच्चों के भविष्य के खातिर ठीक समझते हुए उन्हें दाखिला दिलाते रहते हैं।
जितने महंगे स्कूल होते हैं उतनी महंगी पढ़ाई बन जाती है जिसको अधिक से अधिक नम्बरों की जरूरत रहती है। जो जितने अधिक नंबर लाएगा वही आगे जाता है।
इस प्रकार एक ओर पेरेंट्स और फीस के चक्कर में उलझ जाते हैं वहीं हमारे बच्चे और अधिक नंबर के चक्कर में उकझ जाते है। इसी दबाव के चलते बच्चों पर आत्म हत्या करने के के आलावा कोई रास्ता नहीं बचता है। ऐसा नहीं है की यह दवाब केवल बच्चों पर ही रहता है पेरेंट्स भी इसके शिकार हो जाते है। बच्चे अच्छे नम्बर नहीं ला पाये इस लिए अनेक पेरेंट्स भी आत्म हत्या कर लेते हैं।
किन्तु यदि हम हमारे समाज के सफल लोगों की तरफ देखें चाहे वे अच्छे खिलाडी बने है ,अच्छे कारोबारी बने हैं,अच्छे अभिनेता बने हैं ,अच्छे डॉ या वकील बने हैं किसान बने हैं। उनका आधार अच्छे नंबर नहीं रहा है वे सभी अपनी प्रतिभा के अनुसार अच्छे बने हैं। उनकी अच्छाई के पीछे उनकी सीखने की आज़ादी रही है।
सीखने की आज़ादी में बच्चा बेफिक्र होकर वह सब सीखता है जिसमे उसकी रूचि होती है यही उसकी असली पढ़ाई रहती है। रूचि जिसे हम पागलपन भी कह सकते। जब रूचि का चस्का लगता है वह बच्चा उठते बैठते सोते खाते पीते वही सोचता रहता है जिसकी रूचि उसमे है। इस पागलपन में वह सफल हो जाता है। कभी निराशा नहीं आती वह आत्म हत्या के बारे में कभी सोच ही नहीं सकता है। वरन वह यह सोचता है की मेरे काम जल्दी निपट जाये ऐसा न हो की में बूढा हो जाऊं और फिर इस काम को ना कर सकूँ।
इसलिए हमे हमारे बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए हमे उनको उनकी रूचि के अनुसार सीखने की आज़ादी के साथ साथ सहयोग करने की जरूरत है। इसमें शुरुवाद पेरेंट्स को करना चाहिए फिर हमारे स्कूलों को भी इसी प्रकार की शिक्षा और सिलेबस तैयार करना चाहिए जिसमे हमारे समाज को भी पूरा पूरा सहयोग करने की जरूरत है।
आजकल नो स्कूल या होम स्कूल की अवधारणा प्रबल हो रही है जिसमे बच्चों को अपने आप सीखने दिया जाता है। उन्हें कुछ सिखाने की कोशिश नहीं की जाती है किन्तु ऐसा नहीं है को बच्चों को इसमें लावारिश छोड़ दिया जाता है ,जब बच्चा कुछ पूछता है या सीख्नने लिए आग्रह करता है उस पेरेंट्स उसे मदद करते हैं जिसमे दबाव बिलकुल नहीं रहता है। उदाहरण के लिए जब बच्चा पूछता है की रेल कैसे चलती है तो हमे उसे रेल कैसे चलती है बताना जरूरी हो जाता है। इसके लिए यह जरूरी नहीं है हमे भी जाने की रेल कैसे चलती है। हमे उसे ऐसे स्कूल में ले जाने की जरूरत जहाँ से वह सीख सके की रेल कैसे चलती है। इस प्रकार अनेक आयाम हो सकते हैं।
तमाम परम्परगत स्कूल हमारे कुदरती ज्ञान प्राप्ति में बाधक है उनमे रहकर हमारे बच्चों का दिमाग खराब हो रहा है क्योंकि जो बच्चा सीखना चाहता है उसे वह नहीं सिखाया जाता है इसलिए उसका दिमाग खराब हो जाता है। वह गलत दिशा पकड़ लेता है जिसका आभास पेरेंट्स और टीचर दोनों को नहीं होता है।
इसलिए हम पेरेंट्स और बच्चों को सलाह देते हैं की वो जितनी जल्दी हो सके रूचि रहित शिक्षा से बाहर निकल लें और उन्हें रूचि सहित शिक्षा प्राप्त करें। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है किन्तु इसके लिए जरूरी है रूचि रहित स्कूलों को छोड़ने की, जब तक आप रूचि रहित स्कूल नहीं छोड़ेंगे आप रूचि सहित शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
आत्म-हत्या करने से अच्छा है बच्चे स्कूल छोड़ने का विकल्प चुने पेरेंट्स को बच्चों के इस निर्णय में सहयोग करने की जरूरत है।
धरती माता का लहू बह रहा है , खेत और किसान मर रहे हैं। बिना जुताई की कुदरती खेती अपनाये।
आज कल बरसात के दिन हैं सभी जगहों पर नदी नालो डबरों में मटमैला पानी नजर आ रहा है। पानी जो बरसता है बिलकुल साफ़ रहता पर यह मटमैला क्यों हो जाता है ? यह धरती माता के लहू के कारण हो जाता है जिसे हम क्ले (कीचड ) कहते हैं। यह क्ले असली "कुदरती खाद "है। जब हम इस क्ले का सूख्स्म अध्यन करते हैं तो हमे पता चलता है की इस में असंख्य जमीन को उर्वरकता प्रदान करने वाले सूक्ष्म जीवाणु है। आज तक किसी वैज्ञानिक ने क्ले के एक कण में कितने और कौन कौन से जीवाणु है का पता नहीं लगा पाया है।
जापान के जग प्रसिद्ध सूक्ष्म जीवाणु वैज्ञानिक और कुदरती खेती के किसान स्व. मस्नोबू फुकुओकाजी ने इसके महत्व को जान कर "बिना जुताई की कुदरती खेती "का आविष्कार किया है। जिसके कारण जुताई आधारित आधुनिक और देशी खेती करने की तकनीकें हमारे पर्यावरण के लिए बहुत घातक सिद्ध हो गयी हैं।
धरती माता का लहू बह रहा है।
बिना -जुताई की कुदरती खेती जिसे हम भारत में पिछले ३० सालो से कर रहे हैं। हम अपने खेतों में फसलों को उगाने के लिए अनेक बीजों को क्ले में मिलाकर करीब आधे इंच की व्यास की गोलियां बना लेते हैं। जिन्हें एक वर्ग मीटर में 10 गोलियों के हिसाब से बिखरा देते हैं।
सीड बॉल से ऊगता नन्हा पौधा
इस प्रकार धरती माता का लहू बहना रुक जाता है और खेत ताकतवर और पानीदार हो जाते है जिस से बिना खर्च और महनत के बम्पर फसल मिलती है।
जब से भारत में "हरित क्रांति " के नाम से गहरी जुताई ,जहरीले रसायनों ,भारी सिंचाई ,और मशीनों से खेती की जा रही है तब से एक ओर जमीन बंजर हो रही हैं और किसान गरीब होते जा रहे हैं।
ऋषि खेती बिना जुताई ,बिना खाद और दवाइयों से की जाने वाली खेती है इसमें भारी सिंचाई और मशीनों की भी जरूरत नहीं है। इस खेती का आविष्कार जापान के जग प्रसिद्ध सूक्ष्म जीवाणु के जानकार और कुदरती खेती के किसान ने किया है। पूरे विश्व में कुदरती खेती ( नेचुरल फार्मिंग ) के नाम से है।
भारत में हमे इस खेती को करते करीब तीस साल हो गए हैं। इन तीस सालों में हमने कभी भी जुताई नहीं की है ना ही कोई जहरीला रसायन डाला है ना ही हमने जैविक खाद का कोई उपयोग किया है। असल में ऋषि खेती कुदरती रूप से पैदा होने वाली वनस्पतियों के साथ और उनके तरीके से की जाती है। जैसे कुदरती वनों और चरोखरों में देखने को मिलता है।
कुदरती वनों में बीज जमीन पर पड़े रहते हैं जो अपने आप सुरक्षित और जमीन की ऊपरी सतह अनुकूल मौसम आने पर ऊग आते हैं इसी प्रकार हम सीधे बीजों को फेंक कर या क्ले ( खेतों और जंगलों से बह कर निकलने वाली चिकनी मिटटी जिस से मिटटी बर्तन बनाये जाते है। ) में कोटिंग कर सीड बाल बना कर बिखराते देते हैं। यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार जंगली बीज गिर जाते हैं। सीड बाल से बीजों की सुरक्षा हो जाती है जो मौसम आने पर ऊग आते हैं।
हम खरपतवारों को मारते नहीं है यह जमीन के सुधार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इनके साथ अनेक कुदरती जैव-विविधताएं रहती है जो जमीन में जल का प्रबन्ध करती हैं ,फसलों की रक्षा करती हैं और पोषक तत्व प्रदान करने का काम करती है।
बीन जुताई की सोयाबीन की फसल
इस कुदरती प्रबंध के कारण खेत बहुत ताकतवर हो जाते हैं उनमे ताकतवर फसलें पनपती है जिनमे कोई रोग नहीं लगता है। इस कारण किसान को लागत और श्रम का बहुत लाभ मिलता है और बम्पर फसलें उतरती हैं।
इसी लिए हम कहते है ऋषि खेती किसान का गोल्ड मैडल है।
घास आदि खरपतवारें जमीन के लिए वरदान हैं इन्हें नहीं मारें।
हमारे इन खेतों को देखिये अनेक प्रकार जंगली , अर्ध जंगली वनस्पतियां ,पेड़ झाड़ियां यहां ऐसी लगी जैसे कुदरती वनों में देखने मिलती हैं। यह वन नहीं है यह हमारा कुदरती खेत है। कुदरती खेती से पूर्व हम जुताई आधुनिक वैज्ञानिक खेती का अभ्यास करते थे जिसके कारण हमारे खेती मरुस्थल में तब्दील हो गए थे। इस कारण हमे खेती में बहुत घाटा हो रहा था। हम कर्ज में फंस गए थे। जैसे जुताई कुदरती खेती का पता चला जुताई ,गोबर की खाद और जहरीले रसायनों उपयोग बंद दिया। ऐसा करने से से खेत एक साल में हरियाली से ढँक गए थे।
क्ले (जैविक खाद ) से बीज गोलियां को बनाना
हम इस हरियाली के बीच बीज गोलिया बना कर या सीधे बीजों को फेंक कर हरियाली को काट कर वहीं बिछा देते थे। बिछावन इस प्रकार बिछाई जाती है की नीचे तक रौशनी रहे जिसके सहारे नन्हे पौधे बिछावन से बाहर निकल जाते हैं। धीरे इस हरियाली के मध्य से न जाने कितने पेड़ निकल आये और हमारे खेत घने ऊंचे पेड़ों से ढँक गए। जिनसे हमे हर प्रकार का फायदा मिलने लगा है।
यह खेती सब्जियों और दालों के लिए वरदान हैं हम बीजों को क्ले (जैविक खाद ) में मिला कर बीज गोलियां तैयार कर लेते हैं। जिन्हें खरपतवारों के बीच यहना वहां बिखरा देते हैं जरूरत पड़ने पर खरपतवारों को काट कर बीज गोलियों के ऊपर फेल देते हैं। इस प्रकार आसानी से बिना कुछ किये बुआई का काम बिना मशीन , जहरीले रसायनों और गोबर के हो जाता है।
बीज गोलियों को सूखे या गीले घास आदि से ढांकना
आजकल जैविक खेती का बहुत हल्ला है अनेक किसान जुताई कर रसायनों के बदले जैविक खाद बना कर डालते हैं अनेक प्रकार की जैविक खाद अब बाजार में मिलने लगी हैं किन्तु उन्हें मालूम नहीं है की जुताई करना
खेती में सबसे बड़ा घातक अजैविक काम है इसके चलते खेत और फसलें कभी जैविक नहीं बन सकते हैं।
बिना जुताई की कुदरती सब्जियां
खेतों में जैविक खाद बना कर डालना या खरीद कर डालना गैर जरूरी काम है जुताई नहीं करने से खेत का कीमती खाद का बहना रुक जाता है खरपतवारों को वापस जहां का तहाँ डाल भर देने से खाद की आपूर्ति हो जाती है और बरसात का जल खेतों में समा जाता हैं जिसके कारण सिंचाई भी गैर जरूरी हो जाती है भूमिगत जल स्तर में बहुत इजाफा होता है।
बिना जुताई की खेती के कारण खेत का पानी खेत के द्वारा सोख लिया जाता है वह बहता नहीं है इसलिए खेत की खाद और मिट्टी का बहना भी रुक जाता है।
गाजर घास की फसल
जब से खेती में की जा रही जमीन की जुताई और कृषि रसायनों के उपयोग को हमारे पर्यावरण के प्रतिकूल पाया गया है तब से बिना जुताई की खेती कर सीधी बुआई का चलन तेजी से होने लगा है। केवल दक्षिण अमेरिका में दो तिहाई से अधिक जमीन स्थाई तौर पर बिना -जुताई की खेती के आधीन आ चुकी है।
बिना -जुताई की खेती करने से एक और जहाँ लागत और श्रम में इजाफा होता है वहीँ बरसात का पानी जमीन में समा जाता है जिस से बाढ़ और सूखा दोनों में इजाफा होता है। भूमि और जल के छरण के रुक जाने से खेत ताकतवर और पानीदार हो जाते है।
क्ले से बनी बीज गोलियां
बिना-जुताई की खेती की तीन विधियां प्रचलन में हैं पहली बिना जुताई की संरक्षित खेती इसमें रसायनों का उपयोग जुताई वाली खेती की तरह ही किया जाता है। खरपतवारों को मारने के लिए ख़रपतवार नाशक जहरों का उपयोग होता है जो बहुत हानिकारक है। कृषि कार्य सब मशीनों से होता है।
बिना जुताई की संरक्षित खेती
दूसरी विधि जो बिना-जुताई की जैविक खेती के नाम से जानी जाती है जिसमे पहले खेत में भूमि ढकाव की फसल पैदा की जाती है जिसे क्रिम्पर रोलर की सहायता से सुला दिया है जिसमे जीरो टिलेज सीड ड्रिल की सहायता से बुआई कर दी जाती है।
बिना जुताई की जैविक खेती
तीसरी विधि जिसकी खोज जापान के फुकुओका गुरूजी ने की है जिसमे मशीनों ,रसायनों आदि की जरूरत नहीं रहती है जो दुनिया भर में नेचरल फार्मिंग के नाम से जानी जाती है जिसे हम पिछले तीस साल से अमल में ला रहे हैं जिसमे हम गाजर घास के भूमि ढकाव की फसल को बचा कर , उसमे हम क्ले से बनी बीज गोलियों को बिखरा देते है।
बिना जुताई की कुदरती खेती
इसमें हमने गाजर घास को बहुत सहयोगी पाया है गाजर घास का भूमि ढकाव जब बड़ा हो जाता है वह सभी वनस्पतियों को नियंत्रत कर लेता है इसके ढकाव में क्ले से बनी बीज गोलियों को छिड़क कर हम पांव से गाजर घास को सुला देते हैं। सोये हुए गाजर घास में एक ओर बीज गोलियां सुरक्षित हो जाती है वहीं वह सड़ कर उत्तम जैविक खाद में बदल जाता है। क्ले में असंख्य जमीन को उर्वरकता प्रदान करने वाले सूक्ष्म जीवाणु रहते हैं। जो गाजर घास के ढकाव में तेजी से पनपते हैं।
जैव -विविधताओं से फसलों के लिए पर्याप्त पोषक तत्वों की आपूर्ति हो जाती है।
फसले कुदरती पैदा होती हैं ,जिन का सेवन करने से एक और जहां कुपोषण खत्म हो जाता है वहीं केसर जैसे रोग भी ठीक किये जा रहे हैं। कुदरती अनाज ,फल ,सब्जियां आठ गुना अधिक कीमत रखती हैं घर बैठे बिक जाती हैं। इसे कहते हैं "आम के आम और गुठलियों के दाम " .
जंगल काट कर खेत बना दिए अब बरसात का पानी जमीन के अंदर नहीं जा रहा है इसलिए सूखा और बाढ़ दोनों कहर ढा रहे हैं।
बिना-जुताई बिना जल- भराई की खेती है समाधान।
जलभराव के कारण भूमिगत जल आ रही है।
मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालो से कृषि कर्मण्य पुरूस्कार मिल रहा है। इसका मतलब यह है। हम खाद्यानो में आत्म निर्भर हो गए हैं।
कल मेरे एक मित्र न कहा की हमने एक गढ्डे को पूरने के लिए अनेक गढ्डे बना दिए हैं।
जंगल काट कर खेत बनाना अब हमको बहुत महंगा पड़ने वाला है। पिछले हजारों सालो से हम हरियाली के कारण पर्यावरण में आत्म निर्भर थे ,हवा ,पानी और हमारी फसलों में कोई कमी नहीं थी। फिर भी हमने "हरित क्रांति " नामक औद्योगिक खेती को अपना कर हमे पर्यावरणीय भिखारी बना लिया है।
एक तो यह समस्या है कि बादल आ रहे हैं पर बरस नहीं रहे थे और जब बरसे तो दो दिन में इतना बरसे कि बाढ़ ने कहर ढा दिया। असल मे यह बरसात कोई काम की नहीं है पानी सब बह कर समुद्र में चला जाता है। इसका मूल सम्बन्ध खेती करने की गैर कुदरती तकनीकी है जो पेड़ों की कटाई ,जमीन की जुताई ,जल-भराई जहरीले रसायनों और भारी मशीनों से की जा रही है।
उथले कुओं का पानी स्वास्थ वर्धक रहता है।
परंपरागत भारतीय खेती किसानी में पहले हर किसान अपने खेतों में पेड़ रखता था जिस भूमिगत जल और बादलों के बीच सम्बन्ध स्थापित रहता था। जिस कुदरती जल चक्र बना रहता था। समय पर बरसात आती थी जो कम से कम चार माह तक रहती थी। किन्तु हरित क्रांति मात्र कुछ सालों में स्थिति इतनी गम्भीर हो जयेगी इसका अनुमान किसी ने नहीं लगाया था।
अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं हम अपने इलाके को लातूर और बुंदेलखंड बंनने से बचा सकते हैं हमे केवल बिना जुताई की खेती पर जोर देने की जरूरत है। बिना जुताई की खेती से खेत हरियाली से भर जाते और कृषि उत्पादन भी बढ़ता जाता है। इस से बरसात का पानी खेतों के द्वारा सोख लिया जाता है। भूमिगत जल का स्तर हर साल बढ़ता जाता है ,जिस से उथले कुएं लबालब हो जाते हैं।
"बिना -जुताई ,बिना -खाद ,बिना -रसायनो ,बिना -निंदाई से होने वाली खेती "
सीड बॉल क्या है ?
बीजों को जब क्ले मिटटी की परत से १/२ इंच से लेकर १ इंच तक की गोल गोल गोलियां से सुरक्षित कर लिया जाता है उसे सीड बॉल कहते हैं। सीड बॉल का क्या उपयोग है ?
सीड बाल का उपयोग बिना जुताई ,बिना जहरीले रसायनों और बिना गोबर के कुदरती खेती करने और मरुस्थलों को हरियाली में बदलने के लिए उपयोग में लाया जाता है। जुताई से क्या नुक्सान है ?
जुताई करने से बरसात का पानी जमीन के अंदर नहीं जाता है वह तेजी से बहता है। खेतकी खाद /मिट्टी को बहा कर ले जाता है इस कारण खेत कमजोर हो जाते हैं। सूखा और बाढ़ का यही मूल कारण है।
क्ले क्या है ?
क्ले मिटटी है जो मिटटी के बर्तन और मूर्ती आदि को बनने में उपयोग में लाई जाती है। जो तालाब की तलहटी ,नदी ,नालों के किनारे जमा पाई जाती है।
तालाब की चिकनी मिट्टी (क्ले )
क्ले की क्या खूबी है ? यह सर्वोत्तम खाद होती है। यह बहुत महीन ,चिकनी होती है। इसकी गोली बहुत कड़क मजबूत बनती है। जिसे चूहा ,चिड़िया तोड़ नहीं सकता है। इसमें बीज पूरी तरह सुरक्षित हो जाता है। इस मिट्टी में असंख्य जमीन को उर्वरता और नमी प्रदान करने वाले सूख्स्म जीवाणु रहते हैं। इसके एक कण को सूख्स्म दर्शी यंत्र से देखने पर इसमें सूख्स्म जीवाणुओं आलावा निर्जीव कुछ भी नहीं रहता है।
बरसात के लिए सूखी क्ले पाउडर जमा कल लेना चाहिए। सीड बॉल को हमेशा सूखा कर ही डालना चाहिए अनेक बार देखा गया है की गीली सीड बॉल को आसानी से चूहे आदि तोड़ लेते हैं। इसलिए जहां तक संभव हो गर्मियों में सीड बॉल बना कर सूखा कर रख लेना चाहिए या खेत में बिखरा देना चाहिए। गीली सीड बाल को चूहों से बचाने के लिए ओपरी सतह पर लाल मिर्च की कोटिंग करने से वो सुरक्षित हो जाती हैं।
क्ले की क्या पहचान है ?
जब हम इस मिटटी की बनी सूखी या गीली गोली को पानी में डालते हैं यह दूसरी मिटटी की तरह बिखरती नहीं है।
क्ले से बनी सीड बॉल का क्या फायदा है ?
यह गोली आम जंगली बीजों की तरह जमीन पर पड़ी रहती है बरसात या अनुकूल मौसम आने पर ऊग आती है।
क्ले की जैविकता तेजी से पनप कर नन्हे पौधे को पर्याप्त पोषक तत्व प्रदान कर देती है। जिस से बंपर उत्पादन मिलता है।
सीड बॉल की खोज किसने की है ?
सीड बॉल की खोज जापान के सूख्स्म जीवाणु विशेषज्ञ स्व. मसनोबु फुकुोकजी ने की है वे अनेको साल इस से बिना जुताई की कुदरती खेती करते रहे हैं। उनकी पैदावार आधुनिक वैज्ञानिक खेती से बहुत अधिक उत्पादकता और गुवत्तावत्ता वाली पाई गयी है। इसके आलावा जहां वैज्ञानिक खेती से फसले ,मिटटी ,पानी और हवा में जहर घुलता है, और सूखा पड़ता है । कुदरती खेती में इसके विपरीत परिणाम आते हैं। जमीन उर्वरक, पानीदार और हरयाली से भर जाती है। भारत में इस तकनीक से कौन खेती कर रहा है ?
भारत में अनेक लोग इस विधि से खेती करते है किन्तु हमने इसे सबसे पहले अपनाया है इसलिए भारत में यह इस विधि का प्रणेता फार्म के रूप में जाना जाता है। हम इसे ऋषि खेती के नाम से करते हैं।
टाइटस फार्म होशंगाबाद म.प्र. पेड़ों और खरपतवारों के साथ
चावल की खेती
सीडबाल से फसलों को उगाने में क्या फायदा है ?
इसमें लागत और श्रम बहुत कम हो जाता है। इसे कोई भी महिला या बच्चा कर सकता है। फसल और खेत की गुणवत्ता में हर साल इजाफा होते जाता है। बरसात का पानी खेत के द्वारा सोख लिया जाता है।भूमि छरण ,जैव -विविधताओं का छरण रुक जाता है। मरुस्थल हरियाली में तब्दील हो जाते हैं। कुदरती फसलों का सेवन करने से कैंसर जैसी बीमारी भी ठीक हो जाती है।फसलों का स्वाद बहुत बढ़ जाता है। जुताई नहीं करने से नींदों की समस्या आएगी उसके लिए क्या करना है ?
हर वनस्पति जो कुदरत उगाती है वह काम की रहती है। उसे मारने से वह उग्र रूप धारण कर लेती है नहीं मारने से वह नियंत्रित हो जाती है और फसलों की दोस्त बन जाती है। कोई भी वनस्पति कुछ लेती नहीं है वरन देती है। भूमि सुधार के लिए खरपतवारों का होना जरूरी है। खरपतवारों के ढकाव में असंख्य जीव जंतु ,कीड़े ,मकोड़े ,केंचुए आदि रहते हैं जिनके निवास से भूमि की उर्वरता और नमी में जबरदस्त इजाफा होता है। किसी भी प्रकार की खाद की जरूरत नहीं रहती है।
क्ले के साथ यदि हम यूरिया और गोबर को मिला दें तो ताकत और बढ़ जाएगी या नहीं ?
क्ले को कुदरत ने बनाया है यूरिया और गोबर की खाद मानव निर्मित है जो कुदरत बनाती है वह मानव नहीं बना सकता है। इसलिए ताकत कम हो जाती है।
फसलों पर जब बीमारिया आती है तो क्या करते हैं ?
जुताई करने से जुती बखरी बारीक मिटटी कीचड़ में तब्दील हो जाती है इसलिए बरसात का पानी खेत के द्वारा
सोखा नहीं जाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेत की खाद को भी बहा कर ले जाता है। इसलिए खेत कमजोर हो जाते हैं ,कमजोर खेत में कमजोर फसलें पैदा होती है। इसलिए बीमारियां लग जाती है। दवाइयों के उपयोग से बीमारियां बहुत बढ़ जाती है जैसे कैंसर किन्तु जुताई नहीं करने के कारण खेत ताकतवर हो जाते है उनमे ताकतवर फसलें पैदा होती है। इसलिए रोग नहीं लगते हैं और यदि कोई रोग आता है तो वह कुदरती ताकत से ठीक हो जाता है। नींदे भी बीमारियों रोकने में सहायक रहते हैं।
सीडबॉल से कौन कौन सी फसल/पेड़ आदि ऊगा सकते हैं ?
सीडबाल से जंगली पेड़,अर्धजंगली पेड़ ,फलदार पेड़,चारे के पेड़ ,अनाज सब्जियां आदि सब एक साथ ऊगा सकते हैं। इस तकनीक में फसलों पर छाया का असर नहीं होता है। इस प्रकार बहुत कम जगह से बहुत अधिक
पैदावार ली जा सकती है। क्या इस तकनीक से रेगिस्तानों को हरा भरा बनाया जा सकता है ?
फुकुोकजी ने ऐसे प्रयोग किये हैं सीड बॉल से जहां बारिश होना बंद हो गयी थी चारा और खाने को नहीं था को हरा भरा बना दिया जिस से बारिश भी होने लगी है। वो कहते हैं यदि हमे जल्दी अपने रेगिस्तानों को हरा भरा बनाना है तो हम हवाई जहाज से सीडबाल का छिड़काव कर सकते हैं।
क्या हम छतों पर या अपनी आँगन बाड़ी में सीडबाल का उपयोग कर सकते हैं ?
समान्यत: आंगनबाड़ी या छतों पर फसलों को उगाने के लिए मानव निर्मित खादों का उपयोग किया जाता है जिस के कारण बहुत बीमारियां आती है यदि इसमें क्ले की बनी सीड बाल का उपयोग किया जाता है और अनेक वनस्पतियों को एक साथ उगाया जाता है तो बीमारियां नहीं लगाएंगी और हमे कुदरती आहार मिल जायेगा।
मुर्गा जाली का उपयोग करना
सीडबाल को बड़े पैमाने पर बनाने के लिए क्या करना चाहिए ?
गोल तगाड़ी में गोल गोल घुमा कर बनाना
बड़े पैमाने पर हम सीड बॉल को बनाने के लिए मुर्गा जाली का इस्तमाल करते हैं। बीज और क्ले को पांवों से गूथ कर मुर्गा जाली से उसके छोटे छोटे टुकड़े गिरा लेते हैं जिन्हे थोड़ा फरका होने देते हैं फिर गोल बड़े बर्तन में गोल गोल घुमा लेते है जिस से गोलियां बन जाती है। और बड़े पैमाने पर हम कंक्रीट मिक्सर का उपयोग कर असंख्य गोलिया मिनटों में बना सकते है। क्या सीड बाल को बनाना प्रतिदिन की पूजा पाठ ,व्यायाम ,योगा की तरह है ?
जी हाँ बल्कि उस से भी अच्छा है इसे हर कोई घर में प्रति दिन की गतिविधि बना सकता है यह भी पूजा पाठ ,योग और व्यायाम की तरह है। क्ले मिटटी को हाथ लगाना बहुत अच्छी गतिविधि है इस से पूरा शरीर लाभान्वित हो जाता है। प्रतिदिन घर में आने वाली सब्जियों में बहुत बीज रहते है उन्हें इकट्ठा करके हम बीज गोलियां बनाते रहे और सुखा कर स्टोर कर लें जब मौसम आये तो उन्हें बगीचे में बिखरा भर देने से फसलों का उत्पादन हो जाता है।
क्ले कहां से मिलेगी ?
पुराने तालाब से जब पानी सूख जाता है, नदी ,नालों की कगार से।
सीडबाल कैसे बनाए ?
बड़े पैमाने पर सीड बाल बनाने के लिए सूखी क्ले को बारीक कर उसमे बीज मिला ले आटे की तरह पाँव से गूंथ ले फिर एक मुर्गा जाली की फ्रेम बनाकर छोटे छोटे टुकड़े काट लें फिर जब वो फर्के हो जाएँ उन्हें हाथों से गोल करले। ध्यान ये रहे की एक १/२ इंच व्यास गोली में एक दो ही बीज रहे।
छोटे पैमाने पर तो यह अच्छा रहता है की क्ले को बारीक कर आटे की वाली छलनी से छान कर रख लें फिर जितने बीज हों उनके 7 भाग मिटटी को आंटे को मिलाकर गूंथ लें फिर हाथ से गोलिया बनाकर सुखा कर रखले
जब अच्छी बारिश हो जए तब उन्हें बिखरा दें एक वर्ग मीटर में करीब १० गोली का हिसाब थी रहता है। बरसात में सीधे गीली गोलियों को बिखराया जा सकता है।बहुत बड़े पैमाने पर कांक्रीट मिक्सर का भी इस्तमाल किया जाता है।
यह भी तरीका है। --वीडियो
१-दाल जाती के बीजों की सीड बॉल बनाते वक्त बीज फूलने के कारण सीड बॉल फुट जाती हैं इसलिए उन्हें पानी में कुछ समय भीगा कर पहले फुला लेना चाहिए और तुरंत धूप में सुखा लेना चाहिए यदि मौसम सही है तो सीधे फेक लेने चाहिए।
२-कभी कभी ऊगते समय जब सीड बॉल से बीज अंकुरित होने लगते हैं उन्हें चींटी आदि खा लेती हैं ऐसी परिस्थिति में हम सीड बॉल बनाते समय गाजर घास की पत्तियों को पीस कर मिला देते हैं। जिस से चीटियां नहीं खाती हैं। अन्य कोई देशी स्थानीय उपाय भी किया जा सकता है। एक बार तेज बारिश होने पर चींटी आदि नहीं रहते हैं।
३-सीड बॉल उगाते समय पिछली फसल का स्ट्रॉ बहुत सहायक रहता है। नीचे सीड बॉल ऊपर स्ट्रॉ कवर सबसे उत्तम उपाय है। यदि नहीं है तो ग्राउंड कवर को ऊगने देना चाहिए फिर इस कवर में सीड बॉल डाल दिया जा सकता है।
4- बनाते समय गोली का साइज बीज के अनुसार बड़ा होना चाहिए मसलन गोली के ऊपर बीज नहीं दिखने चाहिए और गोली चिकनी ,मजबूत बनना चाहिए।
५ -कुदरती खेती में खरपतवार कोई समस्या नहीं रहती है इसलिए सीड बॉल बनाकर डालना एक मात्र काम रह जाता है।
रबी की फसल की नरवाई से ऊगती धान की सीड बाल
सीड बॉल के फेल हो जाने के कारण
१- सही क्ले का नहीं होना।
२- बीजों में अंकुरण छमता नहीं रहने के कारण
३- सही मौसम का नहीं होने
४-सीड बाल की सुरक्षा में कमी यानि हरे या सूखे मल्च के ढकाव की कमी
५- सीड बॉल के दो बड़े दुश्मन है पहला कुतरकर खाने वाले जानवर जैसे चूहे, गिलहरी और कीड़े आदि सीड बॉल फेल होने से कैसे बचें
१- गोली बड़ी और गोल तथा चिकनी होना चाहिए।
२ -गोली को हवादार स्ट्रा पिछली फसल नरवाई या पुआल से ढका होना चाहिए यदि नहीं है आपातकालीन परिस्थिति में गोली को थोड़ा डिबल भी किया जा सकता है ,या किसी कुदरती अवरोधक जैसे गाजर घास या नीम आदि का भी उपयोग सकता है।
३- बारीक बीजों जैसे क्लोवर ,राजगीर (Amranth ) ,गाजर घास आदि ऊगा कर हरा मल्च तैयार किया जा सकता है।
लाल मिर्ची के पाउडर से गोलियों
का बचाव
४- बड़े हरियाली के ढकाव जैसे घास ,गाजर घास आदि के अंदर सीड बाल फेंक कर घास की ऊंचाई और फसल की ऊंचाई के अनुसार कतई की जा सकती है। कटे घास आदि से मल्च बनता है जिस से सीड बाल की सुरक्षा हो जाती है। पिछली फसल की नरवाई /पुआल आदि गोलियों को चिडयों से बचाने में सहयोग करते हैं।
५ - स्तनधारी जैसे चूहे ,गिलहरी ,सुअर को जब पता चल जाता है की बीज गोलियों में बीज हैं तब वे गोलियों को को बहुत नुक्सान पहुंचाते हैं इन से बचाने के लिए गोलियों की ऊपरी सतह पर लाल मिर्ची के पाउडर की परत लगा देने से वो गोलियों को नुक्सान नहीं करते हैं। गोबर ,गोमूत्र बकरी। गाय भैंस किसी का भी मिलाने से भी बॉस आ जाने से सीड बाल की सुरक्षा हो जाती है।
धान की पुआल से ऊगती रबी की फसल
सीड बॉल ही क्यों जरूरी है।
१-जो बीज जमीन की ऊपरी सतह से ऊगता है जहां हवा, पोषकता, नमी और पर्याप्त सूर्य की रौशनी रहती है वह शुरू से ताकतवर रहता है। इसलिए जमीन की ऊपरी सतह को खराब नहीं करना चाहिए।
२- जमीन की ऊपरी सतह हमारे पर्यावरण के संवर्धन के लिए बहुत उपयोगी रहती है।
३-कृषि में महनत और लागत को कम करने के लिए।
४- हर हाथ को काम और आराम के लिए।
5- हरियाली ,गरीबी और बीमारीओं को कम करने के लिए।
6-पनपते मरुस्थलों को थामने और पुराने मरुस्थलों को हरा भरा बनाने के लिए।
७ -आत्म -निर्भरता के लिए।
नोट :-
जो किसान भाई अभी अभी जुड़े हैं और वो ऋषि खेती करना चाहते हैं कृपया इस लेख को पढ़ कर जो सवाल बनता है उसे कर सकते हैं उसके लिए मुझे मिस्ड कॉल भी कर सकते हैं मेरा मो न 917 973 8049 है। शुरू करने के लिए खेत की सुरक्षा जरूरी है तथा कोई भी भूमि का कार्य नहीं करना है। बॉल बनाना सीखना सबसे जरूरी है। पहले हाथों से सीड बॉल बनाये फिर मुर्गा जाली का उपयोग कर बनाये बड़े पैमाने पर हम कंक्रीट मिक्सर का उपयोग कर सीड बॉल बना सकते हैं। जहां सुरक्षा जरूरी नहीं है वहां सीधे बीज भी फेंके जा सकते हैं। फलदार पेड़ों के लिए तैयार पेड़ भी लगाए जा सकते हैं। पशुपालन भी अपनी और खेत के पर्यावरण के अनुसार किया जा सकता है।
सवा एकड़ में बनाए अपना कुदरती आशियाना महानगरीय माचिस की डिब्बी की तरह घर रहने लायक नहीं है।
हमे खुद अपने कुदरती आहार ,हवा और पानी को पैदा करने की जरूरत है।
जब हम अपने खेतों से पेड़ों काट कर जमीन को खूब जोत कर उसमे अनेक आर्गेनिक और इनओर्गनिक जहर डाल कर फसलें बोते हैं तो खेत कमजोर हो जाते हैं उसमे कमजोर फसलें पनपती है जिसमे अनेक बीमारियां लग जाती हैं। जिसके लिए अनेक कीड़ों का दोष माना जाता है। इसलिए कीड़ामार जहरों का उपयोग किया जाता है जिसके कारण बीमारी और बढ़ जाती है। कैंसर जैसी बीमारी इसका उदाहरण है।
इसके साथ साथ हमारा पर्यावरण भी खराब हो जाता है हम कुदरती हवा ,पानी और भोजन से महरूम हो जाते हैं। इसलिए आजकल बीमारियों और डाकटरी का बोल बाला है। जहरीली दवाओं के नुक्सान को देखते अनेक लोग गैर -रासायनिक दवाओं की बात करने लगे हैं।
किन्तु जबसे हमने कुदरती खेती को अमल में लाया है हमने अपनी फसलों में किसी भी प्रकार की बीमारी नहीं देखी है इसलिए दवा की जरूरत ही महसूस नहीं होती है। किन्तु ऐसा नहीं है की बीमारियां बिलकुल आती ही नहीं है यदि वो आती हैं तो अपने आप कुदरती ठीक हो जाती है।
इसी आधार पर हम अपने परिवार में बीमारियों के आने पर डाक़्टर और अस्प्ताल जाने के लिए मना करते हैं। हमने देखा जब हम किसी भी प्रकार की दवाई का उपयोग नहीं करते हैं ,बीमारी अपने आप हमारी फसलों की तरह ठीक हो जाती हैं।
इसलिए यदि हम चाहते हैं की हम और हमारे परिवार के सदस्य सदैव स्वस्थ रहे तो उन्हें अपने पर्यावरण को कुदरती रूप से स्वस्थ रखते हुए आजकल के नीम हकीमो और जहरीली दवाओं के पक्षधर डाक़्टर और अस्प्तालों से दूर रहने की जरूरत है।
फुकुओका जी कुदरती खेती और जीवन शैली के प्रणेता
इसका बहुत सीधा सादा तरीका यह की हम अपने परिवार की खुशहाली के लिए महानगरीय व्यवस्था से हटकर एक छोटा सा कम से कम सवा एकड़ का कुदरती खेत बना ले उसमे अपना फार्म हाउस भी रहेगा ,आराम रहेगा और पर्यावरणीय कुदरती सुख भी नसीब हो सकेगा।
एक व्यक्ति के लिए एक चौथाई एकड़ और एक ५ सदस्यीय परिवार के लिए सवा एकड़ जमीन पर्याप्त है जिसमे परिवार के एक सदस्य को एक घंटा प्रतिदिन से अधिक काम की जरूरत नहीं है बाकी समय हम अपने समाज और देश को दे सकते हैं।
क्ले (कीचड़ ) मुफ्त में मिलने वाला सर्वोत्तम कुदरती खाद है।
बाज़ारू डिब्बा बंद /बोतल बंद खाद और दवाओं से बचें।
आजकल बाजार में अनेको गैर जरूरी बोतल बंद जैविक और अजैविक खाद दवाओं की बाढ़ आ गई है। जब से वैज्ञानिक खेती सवालों के घेरे में आयी है। जैविक खेती का हल्ला जोरों पर है। इसलिए अनेक जैविक /बायो उत्पाद बाज़ार में आ रहे हैं। जिनको किसानो के अनुदान पर दिया जा रहा है। बेचारे किसान इन्हे मजबूरन ले रहे हैं क्योंकि इसके साथ बीज आदि जरूरी उत्पादों का पैकेज है। किसान इन्हे कूड़े दान में फेंकने पर मजबूर हैं क्योंकि इनसे उनकी फसलों पर कोई भी लाभ नजर नहीं आ रहा है।
असल में खेतों में खाद की कमी का मूल कारण जमीन की जुताई है। जमीन की जुताई करने से हर साल कई टन असली खाद बह जाती है। बारीक बखरी मिटटी बरसात के पानी जमीन के अंदर जाने नहीं देती है इसलिए वह तेजी से बहता है अपने साथ खाद को भी बहा कर ले जाता है। इसलिए खेत मरुस्थल में तब्दील हो जाते हैं।
क्ले में असंख्य केंचुओं आदि के अंडे रहते हैं।
हम अपने खेतों तीस साल से जुताई नहीं करते हैं ना ही किसी भी पकार के मानव निर्मित खाद और दवा का इस्तमाल करते हैं। हम फसलों के उत्पादन के बीजों को क्ले (कीचड ) से कोटिंग कर बीज गोलियां बना कर खेतों में बिखरा देते हैं।
क्ले एक चिकनी मिट्टी है जिस से मिट्टी के बर्तन बनते है। यह अधिकतर नलो.नदी के किनारे या तालाब की तलहटी में मिलती है। क्ले मिट्टी के एक सूख्स्म कण को जब हम सूख्स्म दर्शी यंत्र से देखते हैं तो हमे असंख्य असंख्य जमीन को और फसल को उर्वरता प्रदान करने वाले सूख्स्म जीवाणु ,केंचुओं ,और अनेक लाभप्रद जैव-विविधताओं के बीज दिखाई देते हैं।
क्ले में नत्रजन फिक्स करने वाले सूख्स्म जीवाणु रहते है
जो पौधों की जड़ों में घर बना कर रहते है।
क्ले कोटिंग से बीज सुरक्षित हो जाते हैं
और जैविक खाद की आपूर्ति भी हो जाती है.
जब यह मिट्टी बीज के साथ अपने खेत में पहुँचती है तो पूरे खेत को खतोडा बना देती है। यह प्रक्रिया ठीक दूध में दही का जामन डालने जैसा ही है। जुताई नहीं करने के कारण खेतों में खाद की मात्रा लगातार बढ़ती जाती है।
जुताई करने से एक और जहां जैविक खाद बह जाती है वहीं नत्रजन गैस बन उड़ जाती है। धरती माँ हमारे शरीर के माफिक जीवित है जब हमारे शरीर में कोई विष जाता है तो हमारा शरीर बीमार हो जाता है जो विष को बाहर निकाल देता है। उसी प्रकार खेतों में जब हम बोतल बंद /डिब्बा बंद अनावशयक जैविक या अजैविक रसायनों को डालते हैं हमारे खेत बीमार हो जाते हैं वो पूरी ताकत लगाकर विषों को बाहर निकलने लगते हैं इस प्रक्रिया अनेक लाभप्रद कुदरती रसायन भी गैस बन कर उड़ जाते हैं।
इस प्रकार किसान का और सरकार का हजारो ,लाखो और करोडो रुपए बर्बाद हो रहा है।
एन्जिल मेरी नातिन जिसकी उम्र १४ साल की है अच्छे भले खेलते खेलते बुखार गया वह हमेशा की तरह चुप चाप बिस्तर में जाकर लेट गयी। उसी समय उसकी मम्मी को केरल जाना था रिज़र्वेशन हो गया था। 'वह चिंता करने लगी कि जाऊं कि नहीं ' मेने कहा "बेटा चिंता करने की जरूरत नहीं है। वह हमेशा की तरह अपने आप को बुखार से ठीक कर लेगी। "
अब हमे बंदर की अक्ल से चलने की जरूरत है।
बचपन से वह बुखार आने पर खाना पीना छोड़ कर केवल सोती रहती है कितना भी बोला जाये वह दवाई लेना पसंद नहीं करती है यदि कोई बुखार उतरने की गोली दी जाती भी है तो वह उलटी कर देती रही है। 104 बुखार उसको आ जाना मामूली बात है। इस लिए हमे उसके बुखार से डर लगा।
हमेशा की तरह बुखार 104 पर चढ़ कर रुक गया। जो तीन दिन तक रहा फिर वह कम होने लगा किन्तु स्थाई नहीं था कम ज्यादह हो रहा था। इस दौरान उसने कुछ भी नहीं खाया केवल बहुत थोड़ा वह पानी बहुत मनाने पर पी लेती थी। इसलिए हमे चिंता होने लगी।
हम शहर से दूर अपने फार्म हॉउस में रहते हैं और पिछले तीस सालो से " डू नथिंग फार्मिंग " कर रहे हैं। जो जापान के विश्व विख्यात कृषि वैज्ञानिक स्व. श्री मस्नोबु फुकुोकजी की खोज है और दुनिया भर में कुदरती खेती के नाम से मशहूर है। भारत में हम इसे "ऋषि खेती " कहते हैं। इस आधार पर हमे कुदरती इलाज पर भरोसा है फिर भी हम इंसान है। सलाह देना बहुत आसान होता है किन्तु उसे अपने और अपने परिवार में अमल में लाना बहुत कठिन होता है।
धीरे धीरे समय गुजरता गया बुखार फिर से १०३ पर पहुँच गया और हमारा धैर्य भी टूटने लगा एन्जिल भी बुखार से बहुत थक गई थी वह भी दवाई मांगने लगी थी। उसकी नानी रोने लगी थी और कह रही थी इसे अस्पताल ले चलो। असल में चिंता बुखार की नहीं थी चिंता उसके बिलकुल नहीं खाने पीने की थी। वह जरूरत से अधिक कमजोर दिखने लगी थी। केरल से उसकी माँ बार बार फोन कर एन्जिल के हाल पूछ कर चिंता और डर के मारे बेहाल हो रही थी।
बुखार के दुसरे दिन हमारे साले साहब और भाभीजी भी पधारी थीं उनका भी चिंता के मारे बुरा हाल था वह भी अस्प्ताल ले जाने की सलाह दे रहे थे। ऐसे में हमे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो कुदरती इलाज का जानकार हो इसलिए हमने नेचर क्योर ग्रुप का सहारा लिए तुरंत ग्रुप में खबर डाल दी।
नेचर क्योर का यह अंतरास्ट्रीय ग्रुप है। इसमें खबर आते ही अनेक दोस्तों ने संपर्क कर हमारी हिम्मत को बहुत बढ़ा दिया। सबने कहा की एन्जिल जिस तरीके से बिना कुछ खाये और पिए खूब सोकर अपने शरीर को बीमारी से लड़ने की ताकत दे रही है यही कुदरती इलाज है। जब उसकी बीमारी ठीक हो जाएगी वह अपने आप खाना और पीना शुरू कर देगी।
और यही हुआ आखरी रात को उसको बहुत पसीना निकला और दुसरे दिन उसका बुखार उतर गया किन्तु उसने खाना पीना नहीं शुरू किया। यह एक और चिंता / डर का सबब बन गया की इतने दिनों से भूखा प्यासा , बीमारी की हालत हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दे सकती है। किन्तु जब हमने इस खबर को अपने ग्रुप में डाला तो हमे मालूम हुआ की बुखार उतर जाना बीमारी के ठीक हो जाने का संकेत नहीं है जब एन्जिल को भूख लगने लगेगी वह स्वम् कुछ खाने या पीने को मंगेगी समझो को अब बीमारी ठीक हो रही है।
और इस तरीके से एन्जिल अब ठीक से खाने और पीने लगी है वह ठीक हो गई है किन्तु उसने न केवल हमारे परिवार को वरन हम सबको एक सबक सिखा दिया है कि जिस प्रकार "डू नथिंग " फार्मिंग है उसी प्रकार "डू नथिंग इलाज " भी है।
मित्रो एन्जिल की यह कहानी मेरे परिवार की कहानी है "डू नथिंग " इलाज हमारे देश में उपवास के नाम से बहुत प्रचलित है किन्तु इसमें भी बहुत ध्यान देने की जरूरत है इसलिए हर किसी को सलाह है कि बुखार आने पर
डरना नहीं चाहिए जहां तक सम्भव हो अपने को "रासायनिक बाजारू जहरों " से बचाने पर बल देना चाहए।
अनेक बार कहा जाता है की "नीम हकीमो और झोला छाप डाकटरों से बचें " ये बीमारियों को कैंसर तक पहुंचा देते हैं। बात सही है। आज विज्ञान भी अंधविश्वाश बनने लगा है हमे अब बंदर की अक्ल से चलने की जरूरत है।
हमे आज़ाद हुए अनेक वर्ष हो गए हैं और हमे यह समझ में नहीं आ रहा की हम किधर जाएँ जंगलों की ओर जाएँ या जंगलों को नस्ट कर खेती करें। जब से मेनका जी ने अपनी खुद की सरकार के पर्यावरण मंत्रालय पर प्रश्न सिंह लगा दिया है यह विषय वाकई में सोचने लायक बन गया है की हम कहां जाये ?
बिहार में करीब 250 नील गायों को मार दिया गया है।
हमने गैर पर्यावरण खेती करके अपने पर्यावरण को इस हद तक बर्बाद कर दिया है किअब खेती करने के लिए न तो मौसम साथ दे रहा है न ही सिंचाई के लिए पानी बचा है। खेती किसानी घाटे का सौदा बन गयी है किसान खेती छोड़ रहे हैं अनेक किसान आत्म - हत्या करने लगे हैं।
यही कारण है कि भारत सरकार ने अब अपने पर्यावरण मंत्रालय के माध्यम से हर प्रदेश में टाइगर प्रोजेक्ट के आधीन पर्यावरण को बचाने की मुहिम चलायी है। इस प्रोजेक्ट में शेरों के साथ साथ अनेक विलुप्त हो रहे जंगली जानवरों ,पेड़ पौधे ,वनस्पतियों आदि को बचाया जा रहा है। जिसमे पर्यावरण मंत्रालय और वर्ल्ड बैंक करोड़ों रूपये खर्च कर रहा है।
इसी संरक्षण की योजना के तहत अनेक जंगली जानवर जैसे हाथी ,शेर ,हिरण , नील गाय आदि को जब जंगलों में आहार ,पानी नहीं मिलता है तो ये जंगलों को छोड़कर खेतों में आ जाते हैं। जिसके कारण किसानो की फसल का नुक्सान होता है।
इस समस्या से निपटने के लिए जब राज्य सरकारें पर्यावरण मंत्रालय से शिकायत करती हैं तो पर्यावरण मंत्रालय जानवरों को मारने की अनुमति दे देता है। इसके कारण असंख्य बेजान जंगली जानवर मौत के घाट उतार दिए जा रहे हैं। यह गलत है। क्योंकि भारत सरकार का पर्यावरण मंत्रालय "जिओ और जीनो दो पर आधारित है "
ऋषि खेती का "आल इन वन " फार्म
इस समस्या में सारा दोष गैर पर्यावरणीय कृषि का है। जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। आज दुनिया भर में जितना भी पर्यावरण का नुक्सान हुआ है उसमे जंगलों को काटकर ,खेतों को खूब जोतकर ,उसमे अनेको रासायनिक जहर डाल कर खेती करने वाले किसानो का हाथ है।
हरित क्रांति आने से पहले भारतीय खेती किसानी में प्राय हर किसान अपने खेतों में स्थाई जंगल और चरोखर रखते थे। किन्तु हरित क्रांति के बाद निजी जंगल और चरोखर सब मोटे अनाजों के खेत में तब्दील हो गए। जंगल सरकारी हो गए चरोखर खेत बन गए इसलिए खेती और जंगल में लड़ाई छिड़ गयी है।
यदि हमे इस समस्या से निजात पाना है तो हमे अपने खेतों को ही जंगल जैसा बनाने की जरूरत है। वह तब संभव है जब हम बिना जुताई ,रसायनों ,मशीनों से की जाने वाली ऋषि खेती का अभ्यास करें। जैसा हम पिछले तीस सालो से अपने पारिवारिक खेतों में कर रहे हैं। हमारे खेत वर्षा वनों की तरह काम कर रहे हैं।
ऋषि खेतों में जंगल और अनाज के खेत अलग नहीं रहते हैं। हरे भरे पेड़ोंके साथ फल , अनाज ,सब्जिओं की खेती होती है। हमारे ऋषि खेतों को हम "आल इन वन " कहते हैं यानि अनाज ,पशुपालन ,जंगल सब एक साथ। यदि हर कोई ऐसी खेती करता है तो अलग से सरकार को जंगल और जंगली जानवरों को बचाने की जरूरत नहीं रहेगी।
Natural Farming "All in One Garden " Video youtube
सब लोग अपनी पसंद से अपनी फसलों और पशु पालन का चुनाव कर अपने पर्यावरण का संरक्षण कर सकते हैं। अपने अच्छे पर्यावरण में हम हाथी ,नील गाय ,शेर आदि जो भी हो हमारी इच्छा के अनुसार पाल सकते हैं।
ऐसे अनेक किसान है जो अपनी जमीन में जंगल बना और बचा रहे हैं हम उनको सलाम करते हैं। जब तक किसान अपनी खेती किसानी को बचाने के लिए अपने पर्यावरण को नहीं बचाता है वह भी नहीं बच पयेगा।
मेनका जी का कहना सही है की जब हमने जंगलों और जैव-विवधताओं के संरक्षण के लिए जंगलों से गैर पर्यावरणीय खेती करने वालों को हटाया है तब हम क्यों उन जानवरों को मरवा रहे हैं। पर्यावरण मंत्रालय को चाहिए की वो जंगलों में रहने वाले और जंगलों से सटे गांवों में रहने वाले किसानो को ऋषि खेती करने के लिए बाध्य करें जब जाकर जंगल और खेती की लड़ाई खत्म होगी।
मशीन नहीं ,रासायनिक जहर नहीं ,गोबर ,गोमूत्र नहीं !
किसानों की आमदनी को दस गुना बढ़ाने और लागत/श्रम को शून्य करने की योजना।
एक समय था जब म प्र को सोयाबीन की खेती के लिए सराहा जाता था। यहां पहले काले सोयाबीन की बहुत अच्छी खेती होती थी एक एकड़ से 20 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती थी। सोयाबीन की फसल तेल और दाल दोनों में उपयोग आने वाली फसल है इसका खलचूरा बहुत पोस्टिक माना जाता है। चूंकि यह दलहन जाती का पौधा है यह अपनी छाया के छेत्र नत्रजन फिक्स करने का काम करता है।
सोयाबीन का पौधा
बाद में धीरे उत्पादन घटने लगा अनेक प्रकार की किस्में, रासायनिक दवाएं और खादों का इस्तमाल किया पर उत्पादन नहीं बढ़ा बल्कि वह गिरता ही गया , अब इसकी फसल लुप्त प्राय हो गयी है। शुरू शुरू में इसके उत्पादन के बल पर न केवल किसानो के जीवन स्तर में भारी परिवर्तन आ गया था वरन किसानो की आमदनी बढ़ने के कारण गाँव और नगर बाज़ारों में रौनक आ गयी थी। अनेक सोयाबीन के कारखाने खुल गए थे जो सोयाबीन का तेल निकालने के बाद खलचूरे का निर्यात कर दिया करते थे।
किन्तु सोयाबीन के प्रति एकड़ उत्पादन घटने के कारण किसानो ने अब इसे बौना बंद कर दिया है। कृषि वैज्ञानिकों के पास इस समस्या का कोई जवाब नहीं है। सवाल सोयाबीन के केवल उत्पादन घटने का नहीं है साड़ी फसलें वो चाहे खरीफ की हों या रबी की प्रति एकड़ उत्पादन तेजी से गिर रहा है यही कारण है की किसान खेती करने छोड़ने लगे हैं। घाटे के कारण अनेक किसान आत्म -हत्या भी करने लगे हैं।
असल में यह समस्या जमीन की जुताई के कारण आ रहा है। पहले जुताई बैलों से की जाती थी इसमें इतना अधिक नुक्सान नहीं होता था जितना अब ट्रेकटर की जुताई के कारण होने लगा है।
गेंहूं की नरवाई में बिना जुताई करे सोयाबीन की फसल
बहुत कम लोग यह जानते हैं की जमीन की जुताई हानिकारक है। जुताई करने से बरसात का पानी जमीन के द्वारा सोखा नहीं जाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेत की उपजाऊ मिटटी को भी बहा कर ले जाता है।
एक बार की जुताई से इस प्रकार आधी ताकत नस्ट हो जाती है।
अमेरिका अब बिना जुताई की सोयाबीन की खेती बहुत पनप रही है। एक एकड़ से आसानी से २० क्विंटल से अधिक पैदावार मिल रही है। जिसमे तेल और प्रोटीन की मात्रा भारत की सोयाबीन से बहुत अधिक है इस कारण भारत के खल चूरे की मांग भी घट गयी है।
यदि हमे अपने प्रदेश को फिर से सोयाबीन की फसल का वही पुराना उत्पादन चाहिए तो हमे बिना जुताई ,खाद ,रासायनिक जहरों के सोयाबीन की खेती ऋषि खेती करने की जरूरत है। जो बहुत आसान है इसमें जहां प्रति एकड़ उत्पादन की गारंटी है वहीं प्रति एकड़ खर्च भी ८० % कम हो जाता है।
सोयाबीन बौने के लिए जरूरी है पिछली फसल की नरवाई जिसे आम किसान जला देते हैं या खेत में जुताई कर मिला देते हैं। यह नहीं करना चाहए। पिछली फसल की नरवाई का ढकाव रहने से खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है ,फसल में बीमारी के कीड़े नहीं लगते हैं उनके दुश्मन नरवाई में छुपे रहते हैं , यह धकावन पानी कम रहने पर नमि को संरक्षित करता है ,इसके अंदर असंख्य जीव ,जन्तु कंचे आदि निवास करते हैं जो पोषक तत्वों की आपूर्ति कर देते हैं। इसमें जब हम बीज डालते हैं वे भी चिड़ियों और चूहों से सुरक्षित हो जाते हैं।
बीज गोलियों को बनाने के लिए छोटे टुकड़ों
को काटने के मुर्गा जाली का उपयोग।
हम सोयाबीन के बीजों को क्ले (कपे वाली मिटटी ) के साथ मिलाकर बीज गोलियां बना लेते हैं। इन्हे एक वर्ग मीटर में १० गोलियां के हिसाब से डाल देते हैं। एक किसान परिवार जिसमे ५ सदस्य हैं गर्मियों में आसानी से घर बैठकर सवा एकड़ खेत के लिए आसानी से गोलिया बना लेते हैं जिसमे एक दिन से अधिक समय नहीं लगता है।
क्ले वह मिटटी है जो जुताई करने से अपने खेतों से बह जाती है जो आसानी से गाँव में मिल जाती है जिस से कुम्हार मिटटी के बर्तन बनाते हैं। इस मिट्टी में असंख्य मिटटी को उर्वरकता प्रदान करने वाले सूख्स्म जीवाणु रहते हैं जो खेत को उर्वरक बना देते हैं। इसके रहने से किसी भी प्रकार रासायनिक /गोबर ,गोमूत्र से बनी खाद,दवाई की जरूरत नहीं रहती है.
टुकड़ों को हाथों से गोल कर लिया जाता है।
सीड बाल बनने के लिए हम एक भाग बीज में करीब सात भाग बारीक ,छनि क्ले मिटटी को मिलकर आटे की तरह गूंथ लेते है फिर मुर्गा जाली की फ्रेम बनाकर उसमे से छोटे छोटे टुकड़े काट लेते हैं। उन्हें तगाड़ी में गोल गोल घुमा कर गोल कर लेते हैं। ध्यान यह रखने की जरूरत है की गोली करीब छोटे कंचे से बड़ी ना हो और एक गोली में एक बीज ही रहे।
सोयाबीन की फसल गेंहूं की खेती के लिए खेतों को नींदा रहित नत्रजन से भरपूर खेत बना देती है जिसमे केवल गेंहूं के बीजों को फेंककर आसानी से गेंहूं की फसल लेली जाती है। किन्तु जुताई करने से खेत की नत्रजन गैस बन कर उड़ जाती है खेत खरपतवारों से भर जाते हैं।
जब से हमने ऋषि खेती को करना शुरू किया है तब से हमे एक सवाल का बार बार जवाब देना पड़ता है वह है गौ संवर्धन का सवाल। इस लिए हमने १९९९ में जब फुकुओका जी सेवाग्राम में पधारे थे हमने भी यह प्रश्न उन पर दाग दिया था।
गौ माता
हमने उनसे कहा की भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमे गौ संवर्धन हमारी आस्था और धार्मिक भावना से जुड़ा है। यहां प्राचीन काल से गौ को माता के रूप में पूजा जाता है। उसका कारण यह है की हमे गौ से दूध मिलता है ,गौ से हमे बैल मिलते हैं जिनका उपयोग हम ऊर्जा के लिए करते हैं। गौ वंश से हमे गोबर मिलता है जिसका उपयोग खाद के रूप में और ईंधन के लिए किया जाता है। गौ वंश के मरने के बाद चमड़े और हड्डियों का भी उपयोग उद्योगों में किया जाता है। अधिकतर किसान गौवंश को खिलाने के लिए चारे के खेत भी रखते हैं किन्तु अब उनके लुप्त हो जाने से किसान कृषि अवशेषों को जैसे नरवाई ,पुआल आदि को चारे के लिए उपयोग में लाते हैं।
हमारा प्रश्न यह है की ऋषि खेती जिसमे जुताई नहीं की जाती है और तमाम कृषि अवशेषों को वापस खेतो में डालने की सलाह दी जाती है ऐसे में हमारे पास गोवंश को खिलाने के लिए चारे की गम्भीर समस्या बन जाती है कृपया बताएं की हम क्या करें ?
उन्होंने कहा की ऋषि खेती करने का मतलब यह नहीं है की किसान गौवंश को ना पाले जबकि ऐसे पर्यावरण का निर्माण करें जिसमे हमारे पास चारे की कोई कमी नहीं रहे और हम हाथी भी पाल सकें। इसलिए हमे चारे के पेड़ लगाना चाहिए। घास की चरोखरों में पेड़ नहीं रखे जा सकते हैं क्योंकि पेड़ों की छाया से घास की पैदावार घट जाती है।
सुबबूल उत्तम चारे के पेड़
हम बहुतायत से गौवंश का पालन कर रहे थे और हमने अपने खेतों में चारे के लिए सुबबूल के पेड़ लगाए थे जिन्हे हम फसलों के लिए काट दिया करते थे किन्तु इस सलाह के बाद हमने सुबबूल को काटना बंद कर दिया और उनकी पत्तियों को चारे के लिए इस्तमाल करने लगे इस से हमारे दुधारू पशुओं को बहु लाभ मिला एक और जहाँ उनका स्वस्थ अच्छा हो गया दूध भी बहुत बढ़ गया और हमे नरवाई और पुआल को खेतों को वापस लौटाने में भी कोई समस्या नहीं रही।
यह अनुभव हमको सिखाता की हमे पशु पालन में धार्मिक और वैज्ञानिक दोंनो सोच के समन्वय की जरूरत है एक और जहां गौ हमारी मां है वहीं धरती भी हमारी मां है। धरती मां की सेवा के बिना हम गौ माँ की सेवा नहीं कर सकते हैं। जुताई नहीं करते हुए खेतों में चारे के पेड़ों को रखने से एक और जहां हमे भरपूर चार मिल जाता है वही हमारे ऋषि खेत वर्षावनों की तरह काम करने लगते है। सुबबूल के पेड़ दलहनी होने के कारण खेत को जहां भरपूर नत्रजन देते हैं वहीं चारा ,जलाऊ लकड़ी का भी स्रोत हैं इनकी गहरी जड़ों से भूमिगत जल ऊपर आ जाता है ये वर्षा को आकर्षित करने का काम करते हैं।
आजकल जब से रासायनिक खेती पर सवाल उठने लगे हैं किसानो का आकर्षण पुन : गौ संवर्धन की और मुड़ा है। ऐसी परिस्थिति में अनेक किसान गौ तो पाल रहे हैं किन्तु जमीन की जुताई को बंद नहीं कर रहे हैं इस कारण गौ संवर्धन बहुत बाधित हो रहा है। खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं और बरसात का पानी जमीन के द्वारा सोखा नहीं जा रहा है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेत की खाद और मिटटी को भी बहा कर ले जाता है।
इसलिए हमे अब गौ संवर्धन के असली महत्व को समझने की जरूरत है गौ माता केवल फोटो लगाकर पूजने के लिए नहीं है यह खेती किसानी को टिकाऊ बनाने की परम्परा है। आजकल जैविक खेती और जीरो बजट खेती की बहुत चर्चा हो रही है किन्तु जमीन की जुताई को बंद कर चारे के पेड़ लगाने की को बात नहीं है यह एक अधूरा ज्ञान है।
जब से हमने चारे के पेड़ लगाकर जुताई बंद कर ऋषि खेती करने शुरू किया तबसे हमारे खेत चारे ,जैविक खाद और भूमिगत जल से भर गए हैं। ऋषि खेती धर्म ,पर्यावरण और विज्ञान का संगम है। इसे अपना कर हमे अपने देश और लोगों ओ बचा सकते हैं।
मै ' काम 'नाम को पसंद नहीं करता हूँ। दुनिया में हम ही ऐसे जानवर जो काम काम करते हैं और बहुत ही हस्यास्पद् बात है। दुनिया के और भी जानवर हैं जो जीने के लिए जीवन जीते हैं पर हम लोग पागलों के माफिक बस काम करते जाते हैं,सोचते हैं की हमे जिन्दा रहने के लिए यही आदेश है। जितना बड़ा काम होगा उतना बड़ी चुनौती होगी और उतना ही यह उत्तम होगा। इस से अच्छा यह होगा की हम सरलता और इत्मीनान की आरामदायक जिंदगी बिताएं। जैसा की जंगल में जानवर सुबह शाम बस खाने के लिए निकलते हैं दोपहर में आराम से सोते हैं और यही उनकी अतिउत्तम जिंदगी है। हम लोगों के लिए यह ठीक होगा हम ऐसी साधारण जिंदगी को जियें जहां अपनी जरूरतों को हम सीधे प्राप्त कर सकें ,जिसमे में काम वैसा नहीं रहेगा जैसा सब सोचते हैं बल्कि वह जिंदगी का एक जरूरी कुदरती नियम बन जायेगा। -- फुकुओकान जोड़ें
हम अपने पर्यावरण को हरा भरा बनाने के लिए क्या करें ?
विश्व पर्यावरण दिवस 2016
आज जब हमारे देश में पर्यावरण अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया है , नदियां सूख रहीं है ,पीने का पानी नहीं मिल रहा है ,खेत और किसान मर रहे हैं ,प्रदूषित खान पान और हवा के कारण कैंसर जैसी बीमारिया आम हो गयी हैं। उद्योगधंदे खत्म होते जा रहे हैं ,बेरोजगारी बहुत बड़ी समस्या बन गयी है पढ़े लिखे नवजवान चपरासी की नौकरी के लिए तरस रहे हैं। ऐसे में हमारा हमारे पर्यावरण के लिए क्या योगदान होना चाहिए ? यह सोच हम सब के मन में जरूर आता है किन्तु हमे मार्ग नहीं मिलता है इस कारण हम कुछ भी कर नहीं पा रहे हैं।
क्ले से बनी सीड बाल
जैसा की हम जानते हैं हमारे पर्यावरण से तात्पर्य हरियाली है इस लिए यह कहा जाता है की" हरियाली है जहाँ खुशहाली है वहां " इसलिए हमे हमारे आस पास हरियाली बढ़ाने पर जोर देने की जरूरत है। उसके लिए जरूरी है कि हम बीजों का संग्रह करें हर पौधा पर्यावरण को समृद्ध करता है। इसलिए बिना सोचे समझे हम बीजों का संग्रह करें और उन बीजों को क्ले (कीचड ) मिटटी से कोटिंग कर सुखाकर यहां वहां बरसात के मौसम में फेंकते जाएँ। एक व्यक्ति भी ऐसा करता है तो असंख्य पेड़ लग जाते हैं फिर पूरा परिवार और मोहल्ला यह काम करता है तो देखते देखते हम अपने गाँव और शहर को हरा भरा बना सकते हैं।
क्ले मिटटी जिस से मिटटी के बर्तन बनते है से सीड बाल बनने
की आसान विधि का वीडियो। (Masnobu Fukuoka Makes seed balls .youtube)
क्ले जिसे हम कीचड कहते हैं जिस से मिटटी के बर्तन बनते है में तमाम आँखों से दिखने वाले असंख्य सूख्स्म जीवाणु ,जीव ,जंतु आदि से सम्पन्न बहुत ताकतवर जैव -विवधताओं से भरपूर खाद है इस से अच्छी सरलता से उपलब्ध कोई भी खाद नहीं रहती है। इसमें कुछ भी मिलाने की जरूरत नहीं है। इसकी कोटिंग से बीज सुरक्षित हो जाते हैं उन्हें कोई चिड़िया ,चूहे आदि नहीं खा सकते हैं। यह मिटटी जहां भी गिरती है वहां आस पास जमीन को तेजी से उर्वरक बना देती है। हरियाली पनप जाती है बरसात होने लगती है।
मै एक उदाहरण बताना चाहता हूँ तंजानिया में भयंकर सूखा पड़ा था खाने ,पीने के लाले पड़े थे ,हरियाली नहीं होने के कारण पशु मर गए थे ,बारिश होना भी बंद हो गई थी ऐसी हालत में दुनिया के जाने माने कुदरती खेती के किसान और पर्यावरणविद जापान के मस्नोबु फुकुोकाजी वहां के एक दूर दराज गाँव में पहुंचे जहां पहले कोई नहीं गया था वहां उन्होंने हर प्रकार के बीजों को स्थानीय स्तर पर इकठा कर बीज गोलिया बनाना सिखाया और यहां वह फेंकने का काम सिखाया।
जब वे दूसरी बार मात्र कुछ सालों में दुबारा पहुंचे तो उन्होंने देखा की बच्चा बच्चा सीड बाल बना रहा है और गुलेल से यहां वहां फेंक रहा है ऐसा करने से पूरा छेत्र हरियाली से भर गया ,बारिश भी होने लगी खेती जो बंद हो गयी थी बहुत अच्छी होने लगी ,पशुओं का चारा और दूध की भरमार हो गया है।