जल ,जंगल और जमीन
कुदरत की और वापसी का मार्ग
बिना जुताई की कुदरती खेती एक मात्र उपाय है।
जब से भारत आज़ाद हुआ तब से जल ,जंगल और जमीन की लगातार अवहेलना हो रही है। यही कारण है की मौसम अनियमित हो गया है सूखा और बाढ़ मुसीबत बनते जा रहे है। सबसे विकसित कहे जाने वाले प्रदेश भी पानी पानी चिल्ला रहे हैं। बादल फटने और ज्वार भाटों की समस्या आम हो गयी है। जंगल दिन प्रति दिन घट ते जा रहे हैं जंगलों में रहने वाले लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है उनकी आजीविका का खतरा उत्पन्न हो गया है। खेत बंजर होते जा रहे किसान आत्महत्या करने लगे हैं।
इसके विपरीत शहरीकरण चरम सीमा पर है। जिस की आजीविका गैर शहरी छेत्रों पर टिकी है। जिसे विकास कहा जा रहा है। असल में यह विकास नहीं वरन जल ,जंगल और जमीन का शोषण है। २०% आबादी के लिए ८० % कुदरती संसाधन उपयोग किया जा रहा है। यह २० % आबादी जिसे विकसित कहा जाता है पेट्रोल और बिजली की गुलाम हो गयी है। विकास की धुरी इन्ही चीजों की आपूर्ति के इर्द गिर्द घूम रही है इसे ही विकास कहा जा रहा है।
विगत दिनों केंद्र की सरकार का चयन भी विकास के नाम पर हुआ है जिसमे २४ घंटे बजली मूल मुद्दा था इसी प्रकार हाल ही में दिल्ली की सरकार का चयन भी बिजली पानी जैसे मुख्य मुद्दों पर हुआ है। इस से सिद्ध हो गया है आजादी के बाद से सबसे विकसित कहे जाने प्रदेश भी आज जल ,जंगल और जमीन की अवहेलना के शिकार हैं उनके पास कोई सोच नहीं है।
हम सब जानते हैं की देश का स्वतंत्रता संग्राम "सत्य और अहिंसा "के मार्ग से लड़ा गया था जिसमे भारत की जल ,जंगल और जमीन पर आश्रित आबादी ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। आज़ादी के बाद जब देश के जल ,जंगल और जमीन के विकास का प्रश्न सामने आया तो विकास का प्रश्न सामने आया तो उस समय आंदोलन के मुखिया गांधीजी नहीं रहे थे तो "सत्य और अहिंसा " के मार्ग के अनुरूप जल ,जंगल और जमीन के विकास का भार गांधीजी के परम शिष्य आचार्य विनोबा भावे जी ने उठा लिया था।
विनोबाजी का कहना था की देश का स्थाई विकास जल,जंगल और जमीन के विकास के बिना संभव नहीं है उस समय उन्होंने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए स्थाई खेती विषय पर शोध कर ऋषि खेती की तकनीक को सर्वोत्तम पाया था। उनका कहना था अधिकतर आबादी खेती पर आश्रित है , जिसका आधार जल ,जंगल और जमीन है। ऋषि खेती "सत्य और अहिंसा " पर आधारित खेती है जिस से हर हाथ को काम मिलने की गारंटी के साथ साथ कुदरत का शोषण और प्रदूषण शून्य है.
किन्तु अफ़सोस की बात है उस समय के लोकतान्त्रिक नेताओं से लेकर आज तक नेताओं ने इस बात को नहीं माना और देश पुन : कंपनियों का गुलाम हो कर रह गया है। हम अपने खेतों में पिछले २८ सालो से बिना जुताई की कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती कहते कर रहे हैं। इस खेती का सिद्धांत जल ,जंगल और जमीन का शोषण किए बगैर अपनी आजीविका चलाना है। जिसमे आयातित तेल ,भारी मशीनो, पशु बल और जहरीले रसायनो का कोई उपयोग नहीं है।
ऋषि खेती एक कुदरत की और वापसी का मार्ग है यह असली स्थाई विकास की पहली सीढ़ी है। देश में असली धन हमारे जंगल ,नदियां और खेत हैं। जिनका विकास करने के लिए धन की जरूरत नहीं है। ऋषि खेती को कर हम आसानी से खेती किसानी और जंगलों को बचाने के लिए लगने वाले धन को बचा सकते हैं। स्वास्थ सेवाओं पर लगने वाला खर्च भी इस से बच सकता है।
कुदरत की और वापसी का मार्ग
बिना जुताई की कुदरती खेती एक मात्र उपाय है।
जब से भारत आज़ाद हुआ तब से जल ,जंगल और जमीन की लगातार अवहेलना हो रही है। यही कारण है की मौसम अनियमित हो गया है सूखा और बाढ़ मुसीबत बनते जा रहे है। सबसे विकसित कहे जाने वाले प्रदेश भी पानी पानी चिल्ला रहे हैं। बादल फटने और ज्वार भाटों की समस्या आम हो गयी है। जंगल दिन प्रति दिन घट ते जा रहे हैं जंगलों में रहने वाले लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है उनकी आजीविका का खतरा उत्पन्न हो गया है। खेत बंजर होते जा रहे किसान आत्महत्या करने लगे हैं।
इसके विपरीत शहरीकरण चरम सीमा पर है। जिस की आजीविका गैर शहरी छेत्रों पर टिकी है। जिसे विकास कहा जा रहा है। असल में यह विकास नहीं वरन जल ,जंगल और जमीन का शोषण है। २०% आबादी के लिए ८० % कुदरती संसाधन उपयोग किया जा रहा है। यह २० % आबादी जिसे विकसित कहा जाता है पेट्रोल और बिजली की गुलाम हो गयी है। विकास की धुरी इन्ही चीजों की आपूर्ति के इर्द गिर्द घूम रही है इसे ही विकास कहा जा रहा है।
विगत दिनों केंद्र की सरकार का चयन भी विकास के नाम पर हुआ है जिसमे २४ घंटे बजली मूल मुद्दा था इसी प्रकार हाल ही में दिल्ली की सरकार का चयन भी बिजली पानी जैसे मुख्य मुद्दों पर हुआ है। इस से सिद्ध हो गया है आजादी के बाद से सबसे विकसित कहे जाने प्रदेश भी आज जल ,जंगल और जमीन की अवहेलना के शिकार हैं उनके पास कोई सोच नहीं है।
हम सब जानते हैं की देश का स्वतंत्रता संग्राम "सत्य और अहिंसा "के मार्ग से लड़ा गया था जिसमे भारत की जल ,जंगल और जमीन पर आश्रित आबादी ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। आज़ादी के बाद जब देश के जल ,जंगल और जमीन के विकास का प्रश्न सामने आया तो विकास का प्रश्न सामने आया तो उस समय आंदोलन के मुखिया गांधीजी नहीं रहे थे तो "सत्य और अहिंसा " के मार्ग के अनुरूप जल ,जंगल और जमीन के विकास का भार गांधीजी के परम शिष्य आचार्य विनोबा भावे जी ने उठा लिया था।
विनोबाजी का कहना था की देश का स्थाई विकास जल,जंगल और जमीन के विकास के बिना संभव नहीं है उस समय उन्होंने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए स्थाई खेती विषय पर शोध कर ऋषि खेती की तकनीक को सर्वोत्तम पाया था। उनका कहना था अधिकतर आबादी खेती पर आश्रित है , जिसका आधार जल ,जंगल और जमीन है। ऋषि खेती "सत्य और अहिंसा " पर आधारित खेती है जिस से हर हाथ को काम मिलने की गारंटी के साथ साथ कुदरत का शोषण और प्रदूषण शून्य है.
किन्तु अफ़सोस की बात है उस समय के लोकतान्त्रिक नेताओं से लेकर आज तक नेताओं ने इस बात को नहीं माना और देश पुन : कंपनियों का गुलाम हो कर रह गया है। हम अपने खेतों में पिछले २८ सालो से बिना जुताई की कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती कहते कर रहे हैं। इस खेती का सिद्धांत जल ,जंगल और जमीन का शोषण किए बगैर अपनी आजीविका चलाना है। जिसमे आयातित तेल ,भारी मशीनो, पशु बल और जहरीले रसायनो का कोई उपयोग नहीं है।
ऋषि खेती एक कुदरत की और वापसी का मार्ग है यह असली स्थाई विकास की पहली सीढ़ी है। देश में असली धन हमारे जंगल ,नदियां और खेत हैं। जिनका विकास करने के लिए धन की जरूरत नहीं है। ऋषि खेती को कर हम आसानी से खेती किसानी और जंगलों को बचाने के लिए लगने वाले धन को बचा सकते हैं। स्वास्थ सेवाओं पर लगने वाला खर्च भी इस से बच सकता है।
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