ऋषि खेती और गौ - संवर्धन
जबसे रासायनिक खेती पर सवाल उठने शुरू हुए हैं भारत में लोगों का ध्यान भारतीय परम्पागत देशी खेती किसानी पर केंद्रित हुआ है। भारतीय देशी खेती किसानी में पशु पालन का बड़ा महत्व रहा है जिसमे गाय,भेंस ,बकरियों,सूअर मुर्गियों के आलावा ऊँट, भेड़ आदि सम्मलित हैं। इन सबमे गाय का महत्व सबसे ऊपर है भारत में गाय की पूजा की जाती है। उसका मूल कारण गाय से दूध मिलता है ,बेलों का उपयोग खेतों को जोतने ,बखरने और ट्रांसपोर्ट के लिए काम में लाया जाता रहा है। गोबर और गोमूत्र को पवित्र माना जाता रहा है। उस से खाद और दवाइयाँ बनती हैं जिसका का फसलोत्पादन में विशेष महत्व देखा गया है।
देशी खेती किसानी में हरयाली और पशुपालन का समन्वय बड़ी बुद्धिमानी से किया जाता था। यह खेती झूम या बेगा लोगों के द्वारा की जाने वाली खेती से जरा भिन्न है झूम खेती जहाँ जुताई बिलकुल नहीं की जाती है वहीं देशी खेती किसानी में हलकी या कम से कम जुताई की परम्परा है किन्तु किसान जुताई से होने वाले भूछरण और जल के अपवाह से सचेत रहते थे। इसलिए वे जुताई के कारण मरू होते खेतों में जुताई बंद कर दिया करते थे उसमे पशु चराये जाते थे। खेत मात्र कुछ सालो में पुनर्जीवित हो जाते थे। जुताई करते समय भी किसान गर्मियों में जितना भी कूड़ा ,कचरा ,गोबर ,गोंजन रहता था उसे वे खेतों में वापस डाल दिया करते थे। पड़ती करना और गोबर ,गोंजन को खेतों में वापस डालने के आलावा किसान और कुछ नहीं करते थे। प्राचीन काल से किसानो को दलहन और बिना दलहन जाती की फसलों के चक्र के बारे में पता था इसलिए वे बदल बदल कर फसलें बोते थे। दलहन फसलें नत्रजन देने का काम करती हैं वहीं गैर दलहन फसलें नत्रजन खाने का काम करती हैं। हरेभरे चारागाहों और हरे भरे जंगलों के समन्वय से पशु पालन खेती में संतुलन बना रहता था। अधिकतर लोग गांवों में ही रहते थे इसलिए खेती ,पशुपालन और हम लोगों की जीवन पद्धति में भी समन्वय रहता था।
किन्तु आज़ादी के बाद के मात्र कुछ सालो ने इस जीवन पद्धति को मिटा कर रख दिया है। लोग गांवों की जगह शहरों में रहना पसंद करने लगे हैं बिजली और पेट्रोलियम के बिना उनका काम नहीं चलता है। किसान भारी मशीनो और ,रसायनो के सहारे खेती करने लगे हैं इस कारण हमारा पशु धन अब लुप्त प्राय हो रहा है। खेती पूरी तरह आयातित तेल की गुलाम हो गयी है। बड़े से बड़ा किसान कर्जदार हो गया है उसे कुदरती दूध और खान पान नसीब नहीं है।खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे है ,भूमिगत जल सूख गया है ,मौसम परिवर्तित हो रहा है धरती गर्म होने लगी है किसान आत्म हत्या करने लगे हैं ,हरघर में कैंसर जैसी बीमारी दस्तक दे रही है।
आर्गेनिक (जैविक ) खेती की खोज डॉ हॉवर्ड ने इंदौर म.प्र. में रासायनिक खेती के विकल्प के रूप में की थी यह पश्चिमी देशों में जहाँ डेयरी,पोल्ट्री ,पिगरी आदि के वेस्ट का प्रबंधन मुश्किल हो रहा है प्रदुषण फेल रहा है वहां बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है किन्तु इस से बहुत बड़े इलाके के ऑर्गेनिक पदार्थों का शोषण होता है जिसे बहुत छोटे सीमित इलाके में डाल कर जुताई कर खेती की जाती है। जुताई से होने वाले भूमिछरन और जल अप्रवाह के लिए ये विज्ञान चुप है। इसलिए यह देशी खेती किसानी की तरह टिकाऊ नहीं है। इसमें रासायनिक खादों की जगह कम्पोस्ट बनाकर डाला जाता है। इसके सामान ही जीरो बजट खेती है जिसमे जुताई कर गोबर++ से बने बायो फ़र्टिलाइज़र डालने की सलाह दी जाती है। इस खेती में जल अप्रवाह और भूमिछरन से होने वाले नुक्सान का कोई जिक्र नहीं हैं इसलिए यह भी टिकाऊ नहीं नहीं है।
उपरोक्त दोनों खेती करने में जुताई के कारण हरियाली का बहुत नुक्सान होता है इसलिए पशुपालन के लिए कुदरती चारा नहीं मिलता है पशुओं को गैर कुदरती अनाज,चारा और दवाइयाँ दी जाती हैं जिस से उनके दूध और गोबर पर विपरीत असर पड़ता है वो अपने कुदरती गुण खो देते हैं। भारतीय खेती किसानी में गौसंवर्धन बहुत जरुरी है कुदरती दूध हमारे आहार का प्रमुख अंग है। इसकी कमी से एक और जहाँ कैंसर जैसी बीमारियां पनपती हैं वहीँ गाय के कच्चे दूध से कैंसर भी ठीक हो जाता है।
ऋषि खेती जिसे जापान के जाने माने कृषि वैज्ञानिक मस्नोबू फुकुओका ने विकसित किया है इस समस्या का हल है। यह खेती " कुछ मत करो " के सिद्धांत पर आधारित है। यानि जुताई नहीं ,कम्पोस्ट नहीं ,कोई रसायन नहीं ,कोई जीवामृत ,अमृत मिट्टी पानी की जरुरत नहीं ,कोई बायो फ़र्टिलाइज़र की जरुरत नहीं। बस बीजों को सीधे या क्ले से बनी बीज गोलियों को फेंकने भर से यह खेती हो जाती है। इस खेती में धरती में पनपने वाली तमाम जैव विविधताओं की रक्षा हो जाती है। यह पूरी तरह अहिंसा पर आधारित खेती है। लुप्त होते गोवंश सहित अनेक पशुओं का असली आधार हरियाली है जुताई करने से हरियाली नस्ट हो जाती है इसलिए कुदरती पशु आहार नहीं मिलता है। कृत्रिम आहार से पशु बीमार हो जाते हैं उनके गोबर और दूध में वह ताकत नहीं रहती है जिसके लिए उन्हें पाला जाता है। ऋषि खेती करने से मात्र एक बरसात में खेत हरियाली से भर
जाते है। जैविक खाद और जैविक चारे की कोई कमी नहीं रहती है। भूछरण और जल अप्रवाह पूरी तरह रुक जाता है। खेत ताकतवर हो जाते हैं वे भरपूर कुदरती फसलें देने लगते हैं। देशी उथले कुए लबालब हो जाते हैं।
अधिकतर लोग कहते हैं की ऋषि खेती करने से पशु पालन प्रभावित होता है यह भ्रान्ति है हम पिछले २८ सालों से इस खेती को पशुपालन के साथ कर रहे हैं। यह एक मात्र ऐसी खेती है जिसमे हरियाली ,पशु पालन और फसलोत्पादन का समन्वय रहता है।
खेतों में हम सुबबूल लगाते हैं सुबबूल एक दलहनी पौधा है जो खेतों में नत्रजन सप्लाई करने में सबसे उत्तम है इसके भूमि ढकाव मे असंख्य जमीन को ताकतवर बनाने वाले जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े ,सूक्ष्म जीवाणु निवास करते हैं यह बरसात करवाने और बरसात के पानी को जमीन में सोखने मके लिए बहुत उपयोगी है। इसके रहते भूमि छरण (soil erosion) और जल अप्रवाह (Runoff ) बिलकुल रुक जाता है। सुबबूल की पत्तियों में भरपूर प्रोटीन रहता है अलग से किसी भी गेरकुदरती आहार को देने की जरुरत नहीं रहती है। दूध बहुत स्वादिस्ट और कुदरती रहता है गोबर से उत्तम जैविक खाद बनती है जिसे सीधे खेतों में डाल दिया जाता है। जल अपर्वाह और भूमि छरण नहीं होने के कारण जैविक खाद का बिलकुल छरण नहीं होता है।
जुताई नहीं करने के कारण ऋषि खेती एक मात्र असली कुदरती और जैविक खेती की श्रेणी में आती है जबकि जुताई आधारित जैविक और जीरो बजट खेती जमीन की जैविकता की हिंसा के कारण न तो कुदरती हैं ना ही ये जैविक हैं। जो इनके प्रचार कर रहे हैं उसका आधार असत्य और हिंसात्मक है। इनसे गौसंवर्धन का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है।
देशी खेती किसानी में हरयाली और पशुपालन का समन्वय बड़ी बुद्धिमानी से किया जाता था। यह खेती झूम या बेगा लोगों के द्वारा की जाने वाली खेती से जरा भिन्न है झूम खेती जहाँ जुताई बिलकुल नहीं की जाती है वहीं देशी खेती किसानी में हलकी या कम से कम जुताई की परम्परा है किन्तु किसान जुताई से होने वाले भूछरण और जल के अपवाह से सचेत रहते थे। इसलिए वे जुताई के कारण मरू होते खेतों में जुताई बंद कर दिया करते थे उसमे पशु चराये जाते थे। खेत मात्र कुछ सालो में पुनर्जीवित हो जाते थे। जुताई करते समय भी किसान गर्मियों में जितना भी कूड़ा ,कचरा ,गोबर ,गोंजन रहता था उसे वे खेतों में वापस डाल दिया करते थे। पड़ती करना और गोबर ,गोंजन को खेतों में वापस डालने के आलावा किसान और कुछ नहीं करते थे। प्राचीन काल से किसानो को दलहन और बिना दलहन जाती की फसलों के चक्र के बारे में पता था इसलिए वे बदल बदल कर फसलें बोते थे। दलहन फसलें नत्रजन देने का काम करती हैं वहीं गैर दलहन फसलें नत्रजन खाने का काम करती हैं। हरेभरे चारागाहों और हरे भरे जंगलों के समन्वय से पशु पालन खेती में संतुलन बना रहता था। अधिकतर लोग गांवों में ही रहते थे इसलिए खेती ,पशुपालन और हम लोगों की जीवन पद्धति में भी समन्वय रहता था।
गाय को परिवार के सदस्य की तरह प्यार करना चाहिए। |
किन्तु आज़ादी के बाद के मात्र कुछ सालो ने इस जीवन पद्धति को मिटा कर रख दिया है। लोग गांवों की जगह शहरों में रहना पसंद करने लगे हैं बिजली और पेट्रोलियम के बिना उनका काम नहीं चलता है। किसान भारी मशीनो और ,रसायनो के सहारे खेती करने लगे हैं इस कारण हमारा पशु धन अब लुप्त प्राय हो रहा है। खेती पूरी तरह आयातित तेल की गुलाम हो गयी है। बड़े से बड़ा किसान कर्जदार हो गया है उसे कुदरती दूध और खान पान नसीब नहीं है।खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे है ,भूमिगत जल सूख गया है ,मौसम परिवर्तित हो रहा है धरती गर्म होने लगी है किसान आत्म हत्या करने लगे हैं ,हरघर में कैंसर जैसी बीमारी दस्तक दे रही है।
मेरी बहन की देशी गाय |
आर्गेनिक (जैविक ) खेती की खोज डॉ हॉवर्ड ने इंदौर म.प्र. में रासायनिक खेती के विकल्प के रूप में की थी यह पश्चिमी देशों में जहाँ डेयरी,पोल्ट्री ,पिगरी आदि के वेस्ट का प्रबंधन मुश्किल हो रहा है प्रदुषण फेल रहा है वहां बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है किन्तु इस से बहुत बड़े इलाके के ऑर्गेनिक पदार्थों का शोषण होता है जिसे बहुत छोटे सीमित इलाके में डाल कर जुताई कर खेती की जाती है। जुताई से होने वाले भूमिछरन और जल अप्रवाह के लिए ये विज्ञान चुप है। इसलिए यह देशी खेती किसानी की तरह टिकाऊ नहीं है। इसमें रासायनिक खादों की जगह कम्पोस्ट बनाकर डाला जाता है। इसके सामान ही जीरो बजट खेती है जिसमे जुताई कर गोबर++ से बने बायो फ़र्टिलाइज़र डालने की सलाह दी जाती है। इस खेती में जल अप्रवाह और भूमिछरन से होने वाले नुक्सान का कोई जिक्र नहीं हैं इसलिए यह भी टिकाऊ नहीं नहीं है।
उपरोक्त दोनों खेती करने में जुताई के कारण हरियाली का बहुत नुक्सान होता है इसलिए पशुपालन के लिए कुदरती चारा नहीं मिलता है पशुओं को गैर कुदरती अनाज,चारा और दवाइयाँ दी जाती हैं जिस से उनके दूध और गोबर पर विपरीत असर पड़ता है वो अपने कुदरती गुण खो देते हैं। भारतीय खेती किसानी में गौसंवर्धन बहुत जरुरी है कुदरती दूध हमारे आहार का प्रमुख अंग है। इसकी कमी से एक और जहाँ कैंसर जैसी बीमारियां पनपती हैं वहीँ गाय के कच्चे दूध से कैंसर भी ठीक हो जाता है।
सुबबूल चारे के पेड़ |
ऋषि खेती जिसे जापान के जाने माने कृषि वैज्ञानिक मस्नोबू फुकुओका ने विकसित किया है इस समस्या का हल है। यह खेती " कुछ मत करो " के सिद्धांत पर आधारित है। यानि जुताई नहीं ,कम्पोस्ट नहीं ,कोई रसायन नहीं ,कोई जीवामृत ,अमृत मिट्टी पानी की जरुरत नहीं ,कोई बायो फ़र्टिलाइज़र की जरुरत नहीं। बस बीजों को सीधे या क्ले से बनी बीज गोलियों को फेंकने भर से यह खेती हो जाती है। इस खेती में धरती में पनपने वाली तमाम जैव विविधताओं की रक्षा हो जाती है। यह पूरी तरह अहिंसा पर आधारित खेती है। लुप्त होते गोवंश सहित अनेक पशुओं का असली आधार हरियाली है जुताई करने से हरियाली नस्ट हो जाती है इसलिए कुदरती पशु आहार नहीं मिलता है। कृत्रिम आहार से पशु बीमार हो जाते हैं उनके गोबर और दूध में वह ताकत नहीं रहती है जिसके लिए उन्हें पाला जाता है। ऋषि खेती करने से मात्र एक बरसात में खेत हरियाली से भर
जाते है। जैविक खाद और जैविक चारे की कोई कमी नहीं रहती है। भूछरण और जल अप्रवाह पूरी तरह रुक जाता है। खेत ताकतवर हो जाते हैं वे भरपूर कुदरती फसलें देने लगते हैं। देशी उथले कुए लबालब हो जाते हैं।
अधिकतर लोग कहते हैं की ऋषि खेती करने से पशु पालन प्रभावित होता है यह भ्रान्ति है हम पिछले २८ सालों से इस खेती को पशुपालन के साथ कर रहे हैं। यह एक मात्र ऐसी खेती है जिसमे हरियाली ,पशु पालन और फसलोत्पादन का समन्वय रहता है।
ऋषि खेती करने से खेत हरे कुदरती चारे से भर जाते हैं। |
जुताई नहीं करने के कारण ऋषि खेती एक मात्र असली कुदरती और जैविक खेती की श्रेणी में आती है जबकि जुताई आधारित जैविक और जीरो बजट खेती जमीन की जैविकता की हिंसा के कारण न तो कुदरती हैं ना ही ये जैविक हैं। जो इनके प्रचार कर रहे हैं उसका आधार असत्य और हिंसात्मक है। इनसे गौसंवर्धन का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है।
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