Monday, October 6, 2014

एक कचरा क्रांति

एक कचरा  क्रांति

कुदरती खेती 

वीड जिन्हे हम नींदा या खरपतवार कहते हैं या फसलों से निकलने वाले पुआल ,नरवाई आदि को किसान सामान्य बोलचाल की भाषा में कचरा कहते हैं। कचरा वह वस्तु  होती है जिसका  कोई उपयोग नहीं होता है।  किसान इस कचरे को हमेशा मारते  और  जलाते आये हैं।

किसान कचरों को इसलिए मारते रहते हैं क्योंकि वो ये सोचते हैं की ये कचरे रहेंगे तो हमारी मूल फसलें नहीं पनपेंगी उनका खाना ये फसलें खा लेंगी इसी प्रकार वे फसलों के अवषेशों जैसे नरवाई ,पुआल आदि को जला देते हैं,मेड़ों पर फेंक देते हैं  या पशुओं को खिला देते हैं। कचरे नहीं पनपें इस लिए किसान खेतों में हल और बखर चला कर खेतों के तमाम कचरों को मार देते हैं।
हरे कचरों के ढकाव में धरती ठंडी रहती है भूमिगत पानी
 की वास्प ओस बन सिंचाई का काम करती है। 

 अब आप हमारे इन खेतों पर  निगाह डालें ये हमारे आस पास के खेतों से बिलकुल भिन्न नजर आएगा ये कचरों से भरा खेत है। हर जगह कचरों की हरियाली नजर आएगी। जिसके साथ साथ फलदार वृक्ष ,अनाज ,सब्जियों और चारों की फसलें और उनके साथ विचरण करते मोर, बकरियां ,मुर्गियां आदि।

हमारे पड़ोसी किसान फसलों को बोने  से पहले पिछली फसल के कचरों को आग लगा कर जला देते हैं ,कई बार आयातित तेल से चलने वाली मशीनों से खेतों को खूब खोदते और बखरते हैं। कचरों को मारने के लिए जहर डालते रहते हैं।

जबकि हम " कुछ नहीं करते " पिछली फसल के कचरों को वहीं  पड़ा रहने देते हैं जो वहीँ सड़ कर जैविक खाद बन जाते हैं। खेत साल भर हरियाली से ढके रहते हैं इनके नीचे असंख्य जीव ,जंतु ,कीड़े मकोड़े ,केंचुए आदि पनपते हैं। जिनसे हमारे खेतों में पोषक तत्वों और नमी की कोई कमी नहीं रहती है।

अपनी फसलों को पैदा करने के लिए कचरों के बीच फसलों के बीजों को क्ले मिट्टी में मिलाकर  बीज गोलियां बनाकर फेंकते रहते हैं जो कचरों के साथ साथ कचरों की तरह कचरों से दोस्ती करती पनपती रहती है। इस खेती को हम कुदरती खेती  कहते हैं।

असल में किसान लोग बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं जो कचरों को मार या जला रहे हैं। इसलिए खेतों में पोषकता और नमी नहीं रही है वे मरुस्थल में तब्दील हो गए हैं। मरुस्थली खेतों में फसलों को पैदा करने के लिय अँधा धुंध जहरीले रसायन खेतों में डाले जा रहे हैं।  जिस से मिट्टी ,हवा ,पानी और फसलें सब जहरीली होती जा रहीं है।

अधिकतर लोग ये सोचते हैं हैं की बरसात आसमान से आती हैं किन्तु यह भ्रान्ति है बरसात तो अपने आप पनपने वालों हरे भरे कचरों से आती है।  कचरे आयातित तेल से उठने वाले जहरीले धुंए को सोख कर जैविक खाद में बदल देते  है।  गर्माती धरती को अपनी छाया से ठंडक प्रदान करते  है।  बरसात ,ठण्ड और गर्मी को नियंत्रित करते  है।

हम पिछले २८ सालों से कचरा खेती कर रहे हैं। इस से पहले हम भी जैविक और अजैविक वैज्ञानिक खेती करते थे  हमारे खेत बंजर हो गए थे। खेतों के कुए सूख गए थे। पशुओं के लिए चारा नहीं था।  हम कर्जों में फंस गए थे। किंतु जैसे ही हमे कचरा क्रांति का ज्ञान मिला हमारी दुनिया ही बदल गयी यह कचरे  क्रांति का ज्ञान हमे जापान के मस्नोबू फुकूओकाजी से मिला वे  एक उत्साहित कृषि वैज्ञानिक थे उन्होंने पाया की आज का कृषि विज्ञान जैव -विविधताओं की हिंसा पर टिका है ,सबको कचरा समझ कर मार रहा है। इसलिए आज खेत और किसान मरने लगे हैं। अमेरिका जैसे विकसित कहलाने वाले देश में मात्र दो प्रतिशत किसान  बचे हैं वहां  के तीन चौथाई खेत रेगिस्तान में तब्दील हो गए हैं।  जापान भी उसी की नक़ल कर रहा है। इसलिए भयंकर ज्वर भाटों से उजड़ रहा है।

हमारे  देश में लाखों किसान आत्म  हत्या कर रहे हैं अतिवर्षा और सूखे के कारण हा हा कार मचा है। हर घर  कैंसर जैसी बीमारियां की चपेट में आ रहा है। इस से निपटने के लिए हमे अब कचरों को बचाना ही होगा।
फसलोत्पादन के लिए की जा रही जमीन की जुताई से सबसे अधिक कचरो की हिंसा होती है उसे रोके बिना हम कचरों को नहीं बचा सकते है।

हमारा मानना  है की जुताई आधारित कोई भी खेती जैविक नहीं हो सकती इसी प्रकार कचरा मारक जहर डाल  कर की जाने वाली नो टिल फार्मिंग भी संरक्षक नहीं है।

राजू टाइटस








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