Friday, June 9, 2017

खरपतवारें बहुत उपयोगी हैं !

खरपतवारें  बहुत उपयोगी हैं !

रपतवारों को मारते समय  इन महत्वपूर्ण बिंदुओं को याद रखना उचित होगा।
जैसे ही भूमि की जुताई करना बंद कर दिया जाता है, खरपतवार की मात्रा बहुत घट जाती हैं कहीं तो वो बहुत कम हो जाती हैं।
पिछली फसल को काटने के पूर्व ही यदि नई फसल के बीज बो दिए जायेंगे तो इस फसल के बीज खरपतवार के पहले अंकुरित हो जाएंगे।
 रबी  की खरपतवारों  के बीज खरीफ की चावल की फसल के काटने  के बाद ही अंकुरित होते हैं , लेकिन तब तक रबी  की गेंहूँ /सरसों  काफी बढ़ जाती है।
इसी प्रकार गर्मी की  खरपतवार गेंहूँ  और सरसों की फसले कटने के बाद अंकुरित होती  है, लेकिन उस समय तक अगली  फसल काफी  बढ़ चुकी होती है । बीजों की बोनी इस ढंग से करें कि दोनों फसलों के बीच के अंतर न रहे। इससे अनाज के बीजों को खरपतवार से पहले ही अंकुरित हो, बढ़ने का मौका मिल जाता है।
फसल कटनी के तुरंत बाद खेतों में पुआल/नरवाई आदि को फैला देने से खरपतवार का अंकुरण बीच में ही रुक जाता है। अनाज के साथ ही भूमि आवरण के रूप में सफेद क्लोवर  भी बो देने से खरपतवार को नियंत्रित रखने में मदद मिलती है।
खरपतवार की समस्या से निपटने का प्रचलित तरीका मिट्टी को जोतने। खोदने  का है, लेकिन जब हम ऐसा करते हैं तो मिट्टी के भीतर  गहरे बैठे हुए, वे बीज, जो वैसे अंकुरित नहीं हुए होते, सजग होकर अंकुरित हो उठते हैं। साथ ही तेजी से बढ़ने वाली किस्मों का इन परिस्थितियों में बढ़ने का बेहतर मौका मिल जाता है। अतः आप कह सकते हैं कि जो किसान जमीन की गहरी जुताई  करके खरपतवार को काबू में लाने का प्रयत्न करता है, वह वास्तव में अपनी मुसीबत के  बीज बो रहा होता है।
जहरीले कीटनाशकों का उपयोग
मेरे ख्याल में अब भी कुछ लोग ऐसे होंगे जो सोचते हैं कि यदि उन्होंने रसायनों का उपयोग नहीं किया तो उनके फल वृक्ष तथा फसलें,  देखते-देखते मर  जाएगी। जब कि सच्चाई यह है कि इन रसायनों का ‘उपयोग करके ही’ वे ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर लेते हैं  कि उनका  भय साकार हो जाता है।
हाल ही में जापान में लाल देवदार वृक्षों की छाल को घुन लगने से भारी क्षति पहुंची रही हैै। वन अधिकारी  इन्हें काबू में लाने के लिए हेलिकाप्टरों के जरिए दवाओं का छिड़काव कर रहे हैं। मैं यह नहीं कहता कि अल्प समय के  लिए इसका सकारात्मक असर नहीं होगा। मगर मैं जानता हूं कि इस समस्या से निपटने के लिए एक और भी तरीका है।
आधुनिक शोध  के मुताबिक घुन का संक्रमण प्रत्यक्ष न होकर मध्यवर्ती गोल-कृमियों के बाद ही होता है। गोलकृमि तने में पैदा होकर, पोषक तत्वों व पानी के बहाव को रोकते हैं, और उसीसे देवदार मुरझा कर सूख जाता है। बेशक, इसका असली कारण अब तक अज्ञात है।
गोल कृमियों का पोषण वृक्ष के तने के भीतर लगी फफूंद से होता है। आखिर पेड़ के भीतर यह फफूंद इतनी ज्यादा कैसे फैल गई? क्या इस फफूंद का बढ़ना, गोल कृमियों के वहां आने के बाद शुरू हुआ? या गोल कृमि वहां इसलिए आए कि वहां फफूंद पहले से थी? यानी असली ससवाल  घूम-पिफरकर यहीं आकर ठहरता है कि पहले क्या आया? गोल कृमि या फफूंद?
एक और भी ऐसा सूक्ष्म जीवाणु है, जिसके बारे में हम बहुत कम जानकारी रखते हैं, और जो हमेशा फफूंद के साथ ही आता है, और वह फफूंद के लिए जहर का काम भी करता है। हर कोण से प्रभावों
और गलत प्रभावों का अध्ययन करने के बाद निश्चयपूर्वक केवल एक यही बात कही जा सकती है कि देवदार के वृक्ष असाधरण संख्या में सूखते जा रहे हैं।
लोग न तो यह जान सकते हैं कि देवदार की इस बीमारी का असली कारण क्या है, और न उन्हें यह पता है कि उनके ‘इलाज’ के अंतिम परिणाम क्या होंगे। यदि आप बिना सोचे-समझे प्रणाली से छेड़-छाड़ करेंगे तो आप भविष्य की किसी अन्य विपदा के बीज बो रहे होंगे।
  मुझे अपने इस ज्ञान से कोई खुशी नहीं होगी कि गोल कृमियों से होनेवाली तात्कालिक हानि को रासायनिक छिड़काव के जरिए कम कर दिया गया है। इस तरह की समस्याओं को, कृषि रसायनों का उपयोग करते हुए हल करने का यह तरीका बहुत ही गलत  हैं इससे भविष्य में समस्याएं और भी विकट रूप ले लेेंगी।
प्राकृतिक कृषि के ये चार सिद्धांत जुताई नहीं ,निंदाई नहीं, कोई रासायनिक उर्वरक या तैयार की हुई खाद नहीं, रसीनो का कोई उपयोग नहीं  प्रकृति के आदेशों का पालन करते हैं तथा कुदरती सम्पदाओं की रक्षा करते हैं।मेरी कुदरती खेती का यही मूल मन्त्र है । अनाज, सब्जियों और फलों की खेती  सार यही है।

खरपतवारों के संग  गेंहूँ /सरसों /चावल और फलों की खेती 
इन खेतों में अनाज और क्लोवर   के साथ कई विभिन्न प्रकार के खरपतवार भी उग रहे हैं। खेतों में जो धान  का पुआल पिछली पतझड़ के मौसम में बिछाया गया था, वह सड़कर अब बढि़या जैविक खाद  में बदल गया है। पैदावार प्रति चैथाई एकड़ एक टन (एक किलो / वर्ग मीटर ) होने की संभावना है।
घास के  विशेषज्ञ प्रोफेसर कावासे तथा प्राचीन पौध  पर शोध् कर रहे प्रोफेसर  ने कल जब मेरे खेतों में गेंहूँ  और हरे खाद की महीन चादर बिछी देखी तो उसे उन्होंने कलाकारी का एक खूबसूरत नमूना कहा। एक स्थानीय किसान, जिसने मेरे खेतों में खूब सारी खरपतवार देखने की उम्मीद की थी, उसे यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि कई अन्य तरह के पौधें के बीच गेंहूँ  और सरसों  खूब तेजी के साथ बढ़ रही है । अनेक  विशेषज्ञ भी यहां आए हैं और उन्होंने भी खरपतवार देखी, चारों ओर उगती क्लोवर  और खरपतवारों को देखा  और अचरज से मुंडी  हिलाते हुए यहां से चल दिए।
बीस साल पहले जब मैं अपने फल-बागों में स्थाई भूमि आवरण उगाने में लगा था, तब देश के किसी भी खेत या फल-बाग में घास का एक तिनका भी नजर नहीं आता था। मेरे जैसे बागानों को देखने के बाद ही लोगों की समझ में आया कि फलों के पेड़, घास और खरपतवार के बीच भी बढ़ सकते हैं। आज, नीचे घास उगे हुए फलबाग आपको जापान में हर कहीं नजर आ जाएंगे तथा बिना घास-आवरण के बागान अब दुर्लभ हो गए हैं।
यही बात अनाज के खेतों पर भी लागू होती है। चावल, गेंहूँ  तथा सरसों  को, सारे साल भर, क्लोवर  और खरपतवार से ढंके खेतों में भी मजे से उगाया जा सकता है।
इन खेतों में बोनी और कटनी की कार्यक्रम सूची की मैं जरा विस्तार से समीक्षा करना चाहूंगा। अक्टूबर के प्रारम्भ में, कटनी से पहले क्लोवर और तेजी से बढ़ने वाली गेंहूँ /सरसों  की फसल के बीज धान  की पक रही फसल के बीच ही बिखेर दिए जाते हैं।
गेंहू या सरसों  और क्लोवर  के पौधे जब  एक-दो इंच उपर तक आ जातें हैं तब  तक चावल भी पक कर कटने योग्य हो जाता है। चावल की फसल काटते समय क्लोवर  और गेंहूँ  के नन्हे पौधे  किसानों के पैरों तले कुचले जाते हैं, लेकिन उन्हें फिर  से पनपने में ज्यादा समय नहीं लगता। धान  की गहाई पूरी हो जाने के बाद उसकी  पुआल को खेत पर फैला दिया जाता है।
यदि धान  शुरू बरसात  में सीधा बोया  गया हो और बीजों को ढंका न गया हो तो बीजों को अक्सर चूहे या परिंदे खा जाते हैं, या वे जमीन में ही सड़ जाते हैं। इससे बचने के लिए में धान  के बीजों को बोने से पहले मिट्टी की गोलियों में लपेट देता हूं। बीजों को एक टोकरी या चपटे बरतन में गोल-गोल और आगे-पीछे हिलाया जाता है। इसके बाद उन पर महीन क्ले मिट्टी  छिड़क दी जाती है, और बीच-बीच में उन पर पानी का ‘हल्का’ सा छिड़काव भी किया जाता है। इस के करीब आध इंच व्यास की गोलियां बन जाती हैं।
गोलियां बनाने का एक और तरीका भी है। पहलेधान के बीजों को कुछ घंटों तक पानी में  डुबो दिया जाता है। फिर  धान को गीली मिट्टी में हाथों या पैरों से गूंध् लिया जाता है। इसके बाद तार की मुर्गा जाली में से इस मिट्टी  को दबाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल दिया जाता है  को एक-दो दिनों तक थोड़ा सूखने दिया जाता है ताकि हथेलियों से उनकी गोलियां बनाई जा सकेें। सबसे अच्छा तो यह होगा कि हर गोली में एक ही बीज हो। एक दिन में इतनी गोलियां बन जाएंगी, जिनसे कई एकड़ में बुआई की हो सकती है।
परिस्थितियों के मुताबिक कभी-कभी मैं इन गोलियों को बोने के पहले उनमें अन्य अनाजों या सब्जियों के बीज भी रख देता हूं।
मध्य नवम्बर से मध्य दिसंबर के बीच कीअवधि  मैं धान  की बीजों वाली इन गोलियों को गेंहूँ या सरसों  की नई फसल के बीच बिखेर देता हूं। ये बीज बरसात  में भी बोए जा सकते हैं।
फसल को सड़ाने के लिए खेत पर कुक्कट खाद की एक पतली परत भी फैला दी जाती है। इस तरह पूरे साल की बोनी पूरी होती है।
मई में रबी  के अनाज की फसल काट ली जाती है। उसकी गहाई के बाद उसका पुआल भी खेत में बिखेर दिया जाता है।
इसके बाद खेत में एक हफ्रते या दस दिन तक पानी बना रहने दिया जाता है। इससे क्लोवर  और खरपतवार कमजोर पड़ जाती है, और चावल को गेंहूँ /सरसों की नरवाई  में से अंकुरित हो कर बाहर आने का मौका मिल जाता है। जून और जुलाई में बारिश का पानी ही पौधें के लिए पर्याप्त होता है। अगस्त महीने में खेतों में से ताजा पानी सिर्फ  बहाया जाता है, उसे वहां रुकने  नहीं दिया जाता है। ऐसा हफ्ते  में एक बार किया जाता है। इस समय तक  कटनी का समय हो जाता है।
 कुदरती तरीके  से  चावल और गेंहूँ / के अनाज की खेती का वार्षिक चक्र ऐसे चलता है। बोनी और कटनी का यह तरीका  इतने करीब से प्राकृतिक क्रम की नकल करता है कि उसे कोई कृषि तकनीक कहने की बजाए प्राकृतिक कहना ही उचित होगा।
चैथाई एकड़ के खेत में बीज बोने या पुआल फैलाने में किसान को एक या दो घंटे से ज्यादा का समय नहीं लगता। कटनी के काम को छोड़कर, गेंहूँ  की फसल को अकेला किसान भी मजे से उगा सकता है। एक खेत में चावल की खेती का जरूरी काम भी दो या तीन लोग ही परम्परागत जापानी औजारों की मदद से निपटा लेते हैं। अनाज उगाने की इससे सरल तरीका  और कोई नहीं हो सकता  है। इस तरीके से  बीज बोने तथा पुआल फैलाने के अलावा खास कुछ भी नहीं करना पड़ता, लेकिन इस सीधी -सादी तकनीक तक  पहुंचने में मुझे तीस बरस का समय लग गया।
खेती का यह तरीका जापान की प्राकृतिक स्थितियों के अनुसार विकसित हुआ है, लेकिन मैं सोचता हूं कि प्राकृतिक खेती को अन्य क्षेत्रों में अन्य देसी फसलें उगाने के लिए भी अपनाया जा सकता है। मसलन जिन इलाकों में पानी इतनी आसानी से उपलब्ध् नहीं होता, वहां पहाड़ी चावल, ज्वार, बाजरा या कुटकी को उगाया जा सकता है। वहां क्लोवर  की जगह अन्य दलहन  की किस्मों का जैसे  बरसीम ,रिजका ,मेथी  मोठ खेतों को ढंकने के लिए ज्यादा अच्छे उपयोगी साबित हो सकते हैं। प्राकृतिक कृषि उस इलाके की विशिष्ट परिस्थितियों के मुताबिक अपना अलग रूप धरण कर लेती है, जहां उसका उपयोग किया जा रहा हो।
इस प्रकार की खेती की शुरुवाद  करने से पूर्व कुछ थोड़ी निंदाई, छंटाई या खाद बनाने की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन बाद में हर साल इसमें क्रमशः कमी लाई जा सकती है। आखिर में जाकर सबसे महत्वपूर्ण चीज कृषि
करने के सोच पर निर्भर है। 

2 comments:

RAJENDRA SINGH RATLAM WALA said...

आदरणीय राजू टाइटस जी,
आपके ज्ञानवर्धक लेख व अनुभव की जानकारी पढ़ कर मन श्रद्धा से भर गया है।
मुझे ऐसा लगता है कि इंदौर में स्तिथ मेरा खेत पूर्णतः आपके स्वयं के देखरेख व सतत निगरानी में हो सके तो ज्यादा अच्छा रहेगा।
क्योंकि उसको वास्तिवक रूप से देख कर इस क्षेत्र के किसान व अन्य लोग भी ऋषि खेती की तरफ अपने कदम बढ़ायेंगे।
स्वंय रोग मुक्त होंगे।
समाज को भी अपने अनाज से रोग नही देंगे।
कर्ज मुक्त होंगे।

RAJENDRA SINGH RATLAM WALA said...

ऐसा इसलिये भी क्योंकि इस पर अभी किसी भी प्रकार की बुवाई नही की गई है। व कुछ सीडबॉल बनाये गये है।