Friday, June 2, 2017

गौ माता की आस्था

गौ माता की आस्था 


Image may contain: 3 people, horse, outdoor and natureभारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमे पशु पालन जंगल खेती के कारण हम हजारों साल बचे रहे हैं।  टिकाऊ जीवन पद्धति में गाय का विशेष महत्व रहा है।  बेलों से जहां ऊर्जा मिलती थी वहीं गाय के दूध से स्वास्थ जुड़ा है। गोबर गोंजन को खेतों में खाद के लिए बहुत उपयोगी माना गया है।

यही कारण है आज भी हमारे देश में गाय को माता  मान कर उसकी पूजा होती है। प्राचीन देशी खेती किसानी हजारों साल टिकाऊ रही है। यह भारत की संस्कृति का आधार है।

किन्तु जबसे हमारे देश में गहरी जुताई रसायनो  और मशीनों से खेती का चलन शुरू हुआ है तब से हमारी संस्कृति और गौ माता की आस्था को भारी  धक्का लगा है। पहले हर किसान अपने घर में गाय को पालता था। गाय परिवार के सदस्य की तरह रहती थी। उसकी परवरिश भी माँ  की तरह की जाती थी। किन्तु अब लोग खेती किसानी से हट  कर शहरों में रहने लगे हैं जहां गायों को पालने की सुविधा नहीं है इसलिए लोग गोशालाओं पर निर्भर हो गए हैं।  पहले हर गाँव में चरोखर हुआ करते थे। गाँव में खुद के जंगल होते थे।  जहां दिन भर पशु कुदरती चारा चरते चरते थे। इसलिए उनका दूध कुदरती स्वास्थवर्धक होता था।

अब गौशालाओं में गायों को मुनाफे के लिए पाला जाता है।  उन्हें गैर  कुदरती आहार जैसे यूरिया का अनाज और भूसा ,पुआल खाने को दिया जाता है। खुला चरने की स्वतंत्रता नहीं है। गायों के बच्चों को भी पैदा होते मार दिया जाता है उनका मुखौटा बना कर गायों का दूध लगाया जाता है। इसके लिए गायों को ऑक्सीटोसीन के इंजेक्शन दिए जाते हैं जो बहुत जहरीले होते हैं इस से दूध भी जहरीला हो जाता है। अधिक से अधिक दूध मिले इसलिए अनेक प्रकार की दवाइयां गायों को दी जाती हैं। इसलिए अब गाय के दूध से भी कैंसर हो जाने का खतरा हो गया है।

खेतों में जुताई होने के कारण कुदरती घास  का एक तिनका नहीं रहने दिया जाता है। सारे  चरोखर और निजी जंगल अब जुताई के अनाजों के खेत बन गए हैं। यही कारण  है की अब गौमाता की तस्वीर लगाकर पूजा होती है। खेती किसानी से जुडी आस्था अब नहीं रही है।

अनेक लोग इस आस्था को अपने मतलब के लिए भुनाने  का काम कर रहे हैं। वो लोग गोबर और गौ मूत्र की दवाइयां बना  कर बेचने लगे हैं। अनेक कृषि वैज्ञानिक भी अब इस आस्था के नाम से अनेक प्रकार जैविक खेती की पद्धतियां बेच रहे हैं। किन्तु वे कुदरती चरोखरों और जंगलों को बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं।

हम पिछले 30 सालो से अधिक समय से बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं जिसमे पशु पालन भी जुड़ा है
हम चारे के लिए सुबबूल के पेड़ लगाते हैं। सुबबूल की पत्तियों में हाई प्रोटीन है।  यह उत्तम चारा है इसके जड़ें खेत में कुदरती यूरिया बनाने का काम करती हैं जिनके सहारे गेंहूं चावल की खेती भी आधुनिक खेती से अच्छी हो जाती है। कुदरती हरे और सूखे चारे की कोई कमी नहीं रहती है। कोई भी दुधारू पशु सुबबूल के सहारे  आसानी से पल जाता है।

किन्तु यह तभी संभव जब हम बिना जुताई ,बिना खाद और बिना मानव निर्मित दवाइयों  का उपयोग करें।
सुबबूल पेड़ है इसलिए पेड़ों से मिलने वाले सभी फायदे भी मिलते रहते हैं। अनाजों  की फसलों में आधुनिक  खेती के बराबर उत्पादन मिलता है वहीं सुबबूल से चारा ,लकड़ी और पशुओं की आमदनी से करीब एक लाख रूपये प्रति एकड़ आमदनी अतिरिक्त है। 

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