Tuesday, December 29, 2015

धान की खेती में पानी खड़ा रखना हानि कारक है।

कृषक आराधना के लिए ऋषि खेती का लेख दिनांक २५ दिसंबर २०१५

 

धान की खेती में पानी खड़ा रखना हानि कारक है। 

धिकर लोग धान की खेती में पानी को खड़ा रखने के लिए खेत में मेड बनाते हैं ,उसमे खूब जुताई करते हैं फिर कीचड़ मचाते हैं जिस से बरसात का या सिंचाई का पानी जमीन के भीतर नहीं जाये। यह गेरकुदरती काम है। ऐसा करने से खेत कमजोर हो जाते हैं। खेत सूख जाते हैं।
ऋषि खेती में धान के खेत (आगे वाले ) जिनमे  नालियां बनाई गयी हैं
 पीछे वाले खेत पडोसी किसानो के हैं
जहाँ मेड बनाई गयी हैं।  
खेतों में पानी खड़ा रखने के   पीछे खरपतवार को रोकना मात्र उदेश्य रहता है  खेतों में पानी खड़ा रहता है तो उसकी जैव -विवधता मर जाती है। यह जैव विविधता ही असली खाद का काम करती है। जमीन की जैविकता को जिन्दा रखने के लिए हम कुदरती खेती में पानी को रोकने केके लिए मेड  नहीं बनाते वरन पानी की निकासी के लिए नालियां बनाते हैं। नालियां  हमे केवल एक बार बनानी पड़ता है जबकि मेड  को हर साल बनाना पड़ता है या सुधारना पड़ता है।  हमने यह पाया है जरा सी  भी मेड  खराब हो जाती  है तो सब पानी निकल जाता है इसलिए  किसान को पानी भरने के लिए  पूरे मौसम पम्प को चलाते रहना पड़ता है। इस से अत्यधिक ऊर्जा का खर्च लगता है और फसल घाटे  का सौदा बन जाती है।

हमारे खेत हमारे शरीर के माफिक जीवित रहते हैं जब हम उन्हें पानी में डुबा  देते हैं तो वे हवा की कमी के कारण मर जाते हैं। पानी से भरे खेतों में जो धान की फसल बनती है उसमे अधिक पुआल और कम धान रहती है जबकि बिना भरे खेतों में धान के पौधों में कम पुआल और अधिक धान लगती है।  ऐसा असामन्य पौधों की बढ़वार के कारण होता है।

अधिकर किसानो को नहीं मालूम है की खेतों में पानी खड़ा रखने से  खेतों की जल धारण शक्ति नस्ट हो जाती है  पानी सूखते ही फसल भी सूख जाती है। खेत की जल धारण शक्ति खेत की जैविकता पर निर्भर रहती है ,जैविकता को जीवित रहने के लिए प्राण वायु की जरूरत रहती है।

 धान के पौधों में अच्छी पैदावार के लिए पौधों की जड़ों का घना और गहराई तक जाना जरूरी रहता है यह पानी भरे बिना ही संभव रहता है डूबे  खेतों में जड़ें उथली होती हैं जिस से उन्हें भरपूर पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं इसलिए पैदावार में कमी आ जाती है।

कुदरती धान की खेती में खरपतवार नियंत्रण  के लिए पिछली फसल की नरवाई को खेतों में आड़ा तिरछा फैला दिया जाता है जिस से खरपतवारों का  नियंत्रण हो जाता है और नमी का भी संरक्षण हो जाता है। नरवाई की ढकावन  में फसल में लगने वाले कीड़ों का भी नियंत्रण हो जाता है हवा,  नमीऔर रौशनी में बीमारी के कीड़ों को खाने वाले कीड़े पनप जाते हैं और केंचुए जमीन को अंदर तक पोरस बना देते हैं जिस से खेत बरसात का पानी सोख लेते हैं।

कुदरती खेती में सीधे बीजों को फेंक कर उगाया जाता है इसमें रोपा बनाना ,कीचड़ मचाने जमीन की जुताई करने की कोई जरूरत नहीं रहती है। पानी खड़ा नहीं रखने के कारण ऊर्जा की भारी  बचत रहती है जिस से धान की गुणवत्ता और उत्पादकता में भारी  इजाफा रहता है जिस से धान की खेती लाभप्रद बन जाती है।




Saturday, December 12, 2015

जैविक खाद का पनपता गोरख धंधा !

जैविक खाद का पनपता गोरख धंधा !


दि हम मिटटी के एक कण को सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखें तो हम पाएंगे की हमारी मिट्टी  जैव -विवधता का समूह है। यह खुद अपने आप में सर्वोत्तम जैविक खाद है। जुताई  करने से मिट्टी की जैविकता मर जाती है। इसलिए खाद की जरूरत महसूस होती है।
गेंहूँ और राइ की नरवाई  के ढकाव से झांकते धान के नन्हे पौधे 

हम अपने खेतों में पिछले ३० सालो से बिना जुताई की जैविक खेती (ऋषि खेती ) कर रहे हैं।  इन तीस सालो  में हमने कभी भी जमीन की जुताई नहीं की है ना ही उसमे किसी भी प्रकार का कोई भी मानव निर्मित खाद बना कर या खरीद कर डाला है।
असल में जुताई करने से बरसात में बखरी बारीक मिट्टी कीचड में तब्दील हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है पानी तेजी से बहता है अपने साथ मिटटी (जैविक खाद ) को बहा  कर ले जाता है।  जुताई नहीं करने से  जैविक खाद का बहना रुक जाता है। हम अपने खेतों से निकलने वाले  हर अवशेषों जैसे नरवाई ,पुआल ,गोबर /गोंजन ,पत्तियां ,टहनियां आदि को जहाँ का तहाँ वापस फैला देते हैं। जो सड़  कर उत्तम जैविक खाद में बदल जाता है।

जब से रासायनिक खेती के नुक्सान नजर आने लगे हैं तब से जैविक खेती का हल्ला बहुत सुनायी देने लगा है।  अनेक प्रकार की जैविक खाद बनाने के तरीके बताये जा रहे है ,अनेक प्रकार के बायो  खाद  बाज़ार में बिकने लगे हैं। गोबर /गोमूत्र की भी बहुत चर्चा हो रही है। किन्तु ये सब डाक्टरी फिजूल है यदि हम अपने खेती की जैविक खाद को बहने से रोक लेते हैं।

एक बार की जुताई से खेत  की आधी जैविक खाद बह जाती है जो करीब 5  टन  से 15  टन प्रति एकड़   तक हो सकती है।  इसे हम बेफ़कूफी ही कहेंगे की पहले हम अपनी खेत की कीमती कुदरती जैविक खाद को बहा दें फिर बाज़ार से महंगी जैविक खाद ख़रीद कर लाएं या कमर तोड़ महंत कर खाद को बनाये।
इसका  यह मतलब नहीं  है की फसलों  के उत्पादन में जैविक खाद का कोई महत्व  नहीं है हमारा यह कहना है अपनी जैविक खाद को हम आसानी से जुताई को बंद कर बचा सकते हैं  तमाम अवशेषों को जहाँ तहाँ वापस लोटा देने से से हमे जैविक खाद की कोई जरूरत नहीं रहती है।

अधिकतर लोगों का कहना है की रसायनो के कारण खेतों की जैविकता नस्ट हो रही है किन्तु हमने यह पाया है कि जुताई से सबसे अधिक जैविकता का नुक्सान हो रहा है। इसलिए जुताई आधारित जैविक और रासायनिक खेती में कोई अंतर नहीं है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं।

आजकल अनेक किसान बिना जुताई की बोने  की मशीन से बुआई करने लगे हैं वे बधाई के पात्र हैं किन्तु वे नरवाई और पुआल को खेतों में वापस नहीं लोटा  रहे हैं इसलिए उन्हें खाद की जरूरत महसूस होती है यदि वे पिछली फसल की नरवाई को वापस खेतो में डालने लगे तो वे रसायन और खाद मुक्त हो सकते हैं।




Tuesday, December 1, 2015

गोबरधन पूजा और ऋषि खेती



गोबरधन पूजा और ऋषि खेती 

चारे के पेड़ों से अनाज और पशुपालन 

मारे देश की संस्कृति ऋषि मुनियो की संस्कृति है जिसमे गोबरधन का खेती किसानी में विशेष महत्व है इसलिए हम यह त्यौहार मनाते हैं। खेती किसानी का पशुपालन के साथ चोली और दामन का साथ है। किसान पशुपालन के सहारे टिकाऊ खेती कर रहे थे,  किन्तु इसे आधुनिक वैज्ञानिक खेती की "हरित क्रांति " ने मात्र कुछ सालो में मिटा कर रख दिया है। इसलिए खेती किसानी अब लाभ का धंदा नहीं रही है। अनेक  किसान खेती छोड़ रहे हैं अनेक किसान आत्म हत्या जैसे जघन्य अपराध को करने  लगे हैं।
हाई प्रोटीन दलहन(नत्रजन ) जाती के चारे के पेड़ों के साथ गेंहूँ की ऋषि खेती

उन दिनों जब बिजली ,पेट्रोलियम पदार्थ  नहीं थे मशीने भी नहीं थी इसलिए किसान पशु पालते थे जिस से दूध ,गोबर  ,ऊर्जा,चमड़ा और मांस आदि मिल जाया करता था। किसान जुताई के प्रति जागरूक रहते थे जुताई से कमजोर होते खेतों में जुताई को बंद कर उसमे पशु चराते थे जिस से खेत पुन : ताकतवर हो जाते थे और असंख्य हरे भरे पेड़ मिल जाते थे जिस से लकड़ियों का इंतजाम हो जाया करता था। किन्तु अब हमारी खेती पूरी तरह आयातित तेल की गुलाम हो गयी है पशुपालन की संस्कृति ख़त्म हो गयी है लोग शहरों में रहने लगे हैं। गोबरधन की पूजा बड़ी बड़ी गेरकुदरती गोशालों से लाये जा रहे गोबर से की जाती है। जिनका दूध भी दूषित है।


ऋषि खेती एक बिना जुताई की कुदरती खेती है इसमें पशु पालन कुदरती तरीके से किया जाता है पशुओं को कुदरती आहार खिलाया जाता है जिस से दूध और गोबर सब कुदरती रहता है इस से एक और जहाँ खेतों को कुदरती खाद मिल जाती है वही  कुदरती दूध मिलता है। ऋषि खेती में हम हाई प्रोटीन चारे के दलहनी  जाती के पेड़ लगाते हैं। जिनसे साल भर कुदरती हरा चारा मिलता रहता है। जुताई नहीं करने के कारण ऋषि खेत लगातार ताकतवर होते जाते हैं। जिस से भरपूर बंपर फसलें मिलती हैं।  बरसात का पानी पूरा जमीन के द्वारा सोख लिए जाता है सूखे की कोई समस्या कभी नहीं रहती है। कुदरती खान पान से कैंसर की बीमारी भी ठीक हो जाती है।  हमारे ऋषि खेत अब कुदरती अस्पताल में तब्दील हो गए हैं जिसमे यहां पैदा होने वाला अनाज ,सब्जियां दूध आदि दवाइयाँ हैं।
इसलिए हमारा  अनुरोध है की गोबरधन के महत्व को समझे और ऋषि खेती के माध्यम से कुदरत की ओर  वापस आएं और प्रदूषणकारी रासायनिक आहार और दवाइयों के प्रदूषण से बचें। 

Monday, November 30, 2015

यूरिया जहर है !

यूरिया जहर है !

म बिना जुताई की कुदरती  खेती करते हैं जिसमे हम किसी भी प्रकार की मानव निर्मित खाद और दवाई का उपयोग नहीं करते हैं। हमने यह पाया है की जब हमारे पडोसी अपने खेतों में यूरिया डालते हैं और सिंचाई करते हैं तो पानी यहां वहां डबरों में भर जाता है उस पानी से मेंढक ,मछलियाँ मर जाती हैं यदि उस पानी को मवेशी पी लेते हैं तो वो भी मर जाते हैं।  हमारे स्वम् के मवेशी भी अनेक बार मरे हैं।

मेरा सहयोगी शैलेन्द्र बता रहा था की जंगल के करीब रहने वाले अनेक शिकारी जंगली जानवरो का शिकार करने के लिए यूरिया का इस्तमाल करते हैं वो यूरिया को आटे  में मिला कर रख देते हैं उन्हें खाने वाले जानवर मर जाते हैं या बेहोश हो जाते हैं वो उन्हें पकड़ लेते हैं।

जंगलो के आस पास किसानो की फसलो को जब जंगली जानवर  खाने लगते हैं तो उन्हें यूरिया खिला कर मार डालते हैं। अनेक लोग यूरिया को नशे के लिए भी इस्तमाल करते हैं। जैसा की मालूम है हर नशा जहरीला होता है।  यूरिया को पानी में घोल कर पीने से नशा आ जाता है।

मेरा ये सब बताने का आशय यह है की जब यूरिया खेतों में डाला जाता है वह असंख्य धरती माँ की जैव-विविधताओं को मार देता है जो की हमारी फसलों के लिए बहुत जरूरी हैं जैसे केंचुए आदि। दूसरा यह यूरिया हमारी फसलों के खून में मिल कर हमारी रोटी में भी आ रहा है जिस से हम स्लो जहर के शिकार हो रहे हैं।
यूरिया डालने से जमीन की नत्रजन गैस बन कर उड़ जाती है जिस से ग्रीन हॉउस गैस बनती है जो हमारे वायु मंडल में कम्बल की तरह आवरण बना लेती है जिस से ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की समस्या उत्पन्न होती है।

किसानो को भले इन सब बांतो से कोई सरोकार नहीं हो किन्तु उसे यह मालूम होना चाहिए की उसक जेब का पैसा जब यूरिया के माध्यम से मात्र कुछ मिनटों में गैस बन कर उड़ जाता है यानि आपने जब १०००  रु का यूरिया डाला तो ७०० रु उसको डालते ही उड़ जाते हैं।

हम जानते हैं की नत्रजन फसलों के लिए जरूरी है जो हमे अपने आप वातावरण से मिल जाती है कुदरत यह काम खुद करती है। इसे बचाने की जरूरत है जब जमीन की जताई की जाती है तो हर बार की जुताई से जमीन की अधि नत्रजन उड़ जाती है।

इस प्रकार हमारी खरीदी यूरिया और कुदरत की बनाई यूरिया दोनों गैस बन  कर उड़ रही और हमारी रोटी जहरीली हो रही है।  इस लिए दोस्तों से आग्रह है की किसानो को यूरिया जहर को नहीं डालने हेतु प्रेरित करें। rajuktitus@gmail.com


Sunday, November 29, 2015

ऋषि खेती रोटी बचाओ आंदोलन है।

ऋषि खेती रोटी बचाओ आंदोलन है। 


ले आज आम आदमी को ऋषि खेती की चिंता नहीं है वह टीवी,मोबाइल ,बंगलो और  कार  में मशगूल हैकिन्तु जब उसे पता  चलेगा की यह आधुनिक वैज्ञानिक रोटी कैसे पैदा हो रही है तो उसके नीचे से जमीन खिसक गयी होगी।
 वह पैसा लेके यहां वहां भागेगा किन्तु उसे एक रोटी नहीं मिलेगी।
किसान सबसे पहले हरयाली जो हमे हवा देती है ,जो हमे पानी देती है ,जो गर्मी ,ठण्ड ओर बरसात को नियंत्रित करती है उसे मार डालता है। फिर धरती माँ जो असंख्य जैव-विवधताओं की पालन हार है हमे रोटी खिलाती है को मार डालता है। फिर उसमे असंख्य जहरीले जहर डालकर रोटी पैदा करता है।  जिस से यह रोटी इतनी जहरीली हो जाती है की उसे जानवर भी नहीं खाते हैं । क्योंकि यह रोटी जहरीली है। इस रोटी को खाने से अनेक जानलेवा बीमारिया हो रही है इस को खाने से असंख्य लोग मर रहे हैं।
ऋषि खेती हरियाली और धरती माँ की रक्षा करती है जिस से धरती माँ अपने बच्चों को रोटी खिला सके। 

Saturday, November 28, 2015

कुछ मत करो चिकित्सा



Do Nothing 

कुछ मत करो चिकित्सा


मेरी उम्र ७० साल है मेरा वजन बहुत है चलने में परेशानी होती है। मुझे दो बार शुगर की वजह से हार्ट अटैक आ चुका  है।  चिन्नई के अपोलो में मझे स्टंट लगा दिया है। मेरी दोनों आँखों में मोतिया बिन्द  के कारण लेंस लग गए हैं। शुगर के कारण मेरी जिंदगी बेकार समझ  में आने लगी थी। मेने हर प्रकार के इलाज रासायनिक ,आयुर्वेदिक  ,होम्योपैथिक ,कुदरती सब कुछ कराया किन्तु मुझे लाभ नहीं मिला।
मेरी पत्नी जी को भी शुगर और बी पी की शिकायत है वे भी रासायनिक दवाओं के भरोसे जिंदगी जी रही है।
हम दोनों शहरो में पढ़े लिखे हैं मेरी पत्नी ग्रहणी हैं। मै  सरकारी सेवा में कार्यरत रहा। उसी दौरान मुझे अटैक आये थे।  लाखों रूपये इलाज में खर्च किए। किन्तु कोई फायदा नहीं मिला।

कुछ साल तो में गोलियां खाता रहा बाद में बंद कर दिया इन्तु शुगर और बी पी की समस्या जहाँ कि तहां रही मेरी पत्नी शालिनी जी को भी अनेक बार इलाज के लिए डाक्टरों के पास ले जाना पड़ा था।

हम पिछले 30 सालो से" Do Nothing " सिद्धांत पर आधारित ऋषि खेती का अभ्यास और प्रचार प्रसार कर रहे है। अपने को खान पान से नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे है। उस से हम अभी तक बचे रहे। किन्तु बीमारी बनी रही।

जैसा की मेरे FB दोस्तों को पता है की में समय समय पर लिखता रहता हूँ मेरी दोस्ती विपिन गुप्ताजी  से हुई वे
फार्माश्यूटिकल के विशेषज्ञ है।  वे अनेक साल मेडिकल कालेज में पढ़ाते  रहे किन्तु अब उन्होंने नौकरी को छोड़ कर "दवा कम " विषय पर काम करना शुरू किया है। वे भोपाल में रहते है मधु मेह ,मोटापा और थायरोड के इलाज हेतु  "दवा कम " कर कुछ मत करो विधि से इलाज करते हैं।

वे ऋषि खेती फार्म देखने अपनी पत्नी और दोस्त के साथ पधारे थे।  फार्म को देख कर बहुत खुश  हुए। हमने उन्हें इस फार्म में  शिविर लगाने हेतु निवेदन किया  जिसे उन्होंने  स्वीकार कर लिया , बांतो बांतो में मेने मेरी और अपनी पत्नी की व्यथा का जिक्र किया उन्होंने हमे "कुछ मत करो " पद्धति से इलाज बताया चूंकि हम इस विधि से खेती कर रहे रहे थे हमे पूरा विश्वाश हो गया कि इस से हम स्वस्थ हो सकते हैं तथा और लोगों को भी स्वस्थ कर सकते हैं।

शालिनी जी की तबियत मात्र एक दिन में नियंत्रित हो गयी मुझे करीब एक सप्ताह में आराम लग गया है। अब विपिनजी ने हमे उनके बताए अनुसार रहने की सलाह दी है। जो बहत आसान है।  मुझे ऐसा लग रहा है की मुझे एक नयी जिंदगी मिल गयी है।
मेरा तमाम मेरे FB दोस्तों से गुजारिश है की वे अपनी बीमारियों के लिए विपिन गुप्तजी सम्पर्क कर सकते हैं उनका तरीका हम सब को चिकत्सा के छेत्र में हो रही धोकाधडी से बचा सकता है। 

Thursday, November 26, 2015

नेचरल जैविक खेती


नेचरल जैविक खेती 
ऋषि खेती 
जकल जब से रासयनिक खेती के नुकसान नजर आने लगा हैं जैविक खेती की बात की जाने लगी है।  अधिकतर लोग यह समझते हैं कि रासयनिक उर्वरकों की जगह जैविक खाद डालने से खेती जैविक हो जाती है। असली जैविक खेती का मतलब है खेतों की जैव-विविधताओं को बचा कर जीवित खेती करना है। इसलिए कोई भी कृषि कार्य ऐसा नहीं होना चाहिए  जिस से जमीन की जैव-विवधताओं की हिंसा होती है।  
इस वीडियो में दिखाया गया है की जुताई वाली अजैविक मिटटी  और बिना जुताई वाली जैविक मिटटी में क्या अंतर है। 
जैसे जमीन की जुताई ,जहरीले रसायनो का उपयोग आदि।  अधिकतर लोग यह समझते हैं की जमीन की जुताई करने से कोई नुक्सान नहीं होता है यह गलत है सबसे अधिक जैव-विविधताओं की हिंसा जमीन की जुताई से होती है। ,

परमपरागत  जुताई आधारित जैविक खेती में जुताई के रहते बहुत अधिक जैव- विविधताओं की हिंसा होती है। जापान के कुदरती कृषि के वैज्ञानिक और कुदरती खेती के किसान स्व.मस्नोबू फुकूओकाजी का कहना है की एक बार की जुताई से जमीन की आधी जैविक खाद बह जाती है। इस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान में यह पाया है की  जुताई करने से करीब १५ टन जैविक खाद बह जाती है। इस खाद को सूक्ष्म दर्शी यंत्र से देखने पर इसमें असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओ के अलावा कुछ अजैविक नहीं होता है। यह जैविकता यदि बचा ली जाये तो खेत में खाद की कोई जरूरत  नहीं रहती है।

अनेक कृषि वैज्ञानिक यह कहते हैं फसलें पोषक तत्व खाती हैं इसलिए खाद ,उर्वरक आदि की जरूरत रहती है यह भ्रम है असल खेत में खाद और उर्वरकों की मांग जुताई के कारण जैविक खाद के बह जाने के कारण है।
हम पिछले ३० सालो से बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं जिसे ऋषि खेती के नाम से जाना जाता है इसमें जुताई नहीं करने के कारण विगत ३० सालो  में हमे फसलोत्पादन में किसी भी प्रकार की खाद की जरूरत नहीं हुई है।  खेत में जब पर्याप्त जैविकता रहती है तो फसलों में बीमारियां भी नहीं लगती हैं।  उत्पादन भी सामान्य मिलता है।

हमारा कहना है जुताई एक हिंसात्मक उपाय है इसके रहते खेतों की जैविकता को बचा पाना असम्भव है इसलिए बिना जुताई की जैविक खेती अपनाये।  अनेक किसान आजकल बिना जुताई की खेती करने लगे हैं किन्तु वे जहरीले नींदा नाशक और कीड़ामार जहरों का उपयोग करते हैं जो उचित नहीं है। 

ऋषि खेती असली जैविक खेती है।

ऋषि खेती असली जैविक खेती है 

जुताई करने से हर साल कई टन जैविक खाद बह जाती है। 
जकल जब से रासयनिक खेती के नुकसान नजर आने लगा हैं जैविक खेती की बात की जाने लगी है।  अधिकतर लोग यह समझते हैं कि रासयनिक उर्वरकों की जगह जैविक खाद डालने से खेती जैविक हो जाती है। असली जैविक खेती का मतलब है खेतों की जैव-विविधताओं को बचा कर जीवित खेती करना है। इसलिए कोई भी कृषि कार्य ऐसा नहीं होना चाहिए  जिस से जमीन की जैव-विवधताओं की हिंसा होती है।  
इस वीडियो में जैविक और अजैविक मिट्टी की पहचान करने का
सरल तरीका दिखाया गया है जिसको इस URL से खोज सकते हैं।

 https://youtu.be/XSJdyQ_Yymk

जैसे जमीन की जुताई ,जहरीले रसायनो का उपयोग आदि।  अधिकतर लोग यह समझते हैं की जमीन की जुताई करने से कोई नुक्सान नहीं होता है यह गलत है सबसे अधिक जैव-विविधताओं की हिंसा जमीन की जुताई से होती है। ,

परमपरागत  जुताई आधारित जैविक खेती में जुताई के रहते बहुत अधिक जैव- विविधताओं की हिंसा होती है। जापान के कुदरती कृषि के वैज्ञानिक और कुदरती खेती के किसान स्व.मस्नोबू फुकूओकाजी का कहना है की एक बार की जुताई से जमीन की आधी जैविक खाद बह जाती है। इस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान में यह पाया है की  जुताई करने से करीब १५ टन जैविक खाद बह जाती है। इस खाद को सूक्ष्म दर्शी यंत्र से देखने पर इसमें असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओ के अलावा कुछ अजैविक नहीं होता है। यह जैविकता यदि बचा ली जाये तो खेत में खाद की कोई जरूरत  नहीं रहती है।

अनेक कृषि वैज्ञानिक यह कहते हैं फसलें पोषक तत्व खाती हैं इसलिए खाद ,उर्वरक आदि की जरूरत रहती है यह भ्रम है असल खेत में खाद और उर्वरकों की मांग जुताई के कारण जैविक खाद के बह जाने के कारण है।
हम पिछले ३० सालो से बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं जिसे ऋषि खेती के नाम से जाना जाता है इसमें जुताई नहीं करने के कारण विगत ३० सालो  में हमे फसलोत्पादन में किसी भी प्रकार की खाद की जरूरत नहीं हुई है।  खेत में जब पर्याप्त जैविकता रहती है तो फसलों में बीमारियां भी नहीं लगती हैं।  उत्पादन भी सामान्य मिलता है।

हमारा कहना है जुताई एक हिंसात्मक उपाय है इसके रहते खेतों की जैविकता को बचा पाना असम्भव है इसलिए बिना जुताई की जैविक खेती अपनाये।  अनेक किसान आजकल बिना जुताई की खेती करने लगे हैं किन्तु वे जहरीले नींदा नाशक और कीड़ामार जहरों का उपयोग करते हैं जो उचित नहीं है। 

Wednesday, November 25, 2015

जलवायु का प्रबंधन

जलवायु का प्रबंधन 

ऋषि खेती से रोकें ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन  

विगत दिनों मुझे भोपाल में ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के राष्ट्रीय सम्मलेन में  बोलने का अवसर मिला।  जैसा की मित्र जानते हैं की हम पिछले तीस सालो से ऋषि खेती कर रहे है।  यह बिना जुताई की खेती के नाम से भी जानी जाती है। यह सम्मलेन म. प्र. सरकार की और  स्व. सेवी संस्थाओं की सहायता से आयोजित किया गया था।

असल में इस सम्मेलन का आयोजन मूलत : 2015 के पेरिस सम्मलेन और 2016  के कुम्भ के आयोजन की पृष्ठ भूमि में भी देखा जा रहा है। किन्तु असल में इस सम्मेलन का अधिक मतलब म. प्र. की खेती किसानी की बिगड़ती हालत को सुधारने के लिए आयामो को खोजने के लिए था। जिसमे अनेक पर्यावरणीय खेती करने वाले किसान आमंत्रित किए गए थे।सम्मेलन के अद्यक्ष माननीय लोक सभा संसद श्री अनिल माधव द्वेजी थे ,उद्घाटन श्री श्री रविशंकरजी ने किया था ,माननीय शिवराज सिंघजी ने अपने उद्भोदन में बताया की म. प. में सूखा पड़ा है और तमिलनाडु में बाढ़ आ रही है।  इसमें कोई शक नहीं है की हमने गलतियां की हैं जिसे हमे ठीक करना है।
 ऋषि खेती विषय पर बोलते हुए हमने बताया की ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज का मूल कारण धरती पर हरियाली की कमी का होना है। यह कमी मूलत: खेती में चल रही जमीन की जुताई के कारण है। जमीन की जुताई इस धरती पर सब से बड़ी हिंसात्मक प्रक्रिया है। इस से हरयाली नस्ट होती है रेगिस्तान पनपते हैं।
किन्तु जब हम जुताई बंद  कर खेती करने लगते हैं तो इसके विपरीत परिणाम आते हैं हमने बोलते वक्त सेटेलाइट से ली गयी हमारे फार्म की तस्वीर को भी दिखाया की किस प्रकार ऋषि खेती करने के कारण हमारे खेत पूरे बड़े बड़े पेड़ों की हरियाली से ढंक गए हैं।
जुताई करने से खेत की जैविक खाद (कार्बन ) गैस में तब्दील हो जाती है जो आसमान  में एक कम्बल की तरह आवरण बना  लेती है जिस से सूर्य की गर्मी धरती पर प्रवेश तो कर लेती है किन्तु वापस नहीं जाती है जिस से गर्मी बढ़ती जाती है। दूसरा एक ओर  नुक्सान है वह है भूमि छरण होता यह है जुताई के कारण  बखरी हुई मिट्टी कीचड में तब्दील हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है वह तेजी से बहता है अपने साथ जैविक खाद को भी बहा  कर ले जाता है।
किन्तु जब बिना जुताई की खेती की जाती है तो जैविक खाद का बहना और गैस बन कर उड़ना रुक  जाता है जिस से हरियाली तेजी से पनपने लगती है।
यह हरियाली एक  ओर   बरसात को आकर्शित  करती है वहीं  वर्षा के जल को हार्वेस्ट भी करती है। गर्मी को रोकती है ग्रीन हॉउस गैस को सोख कर उसे जैविक खाद में तब्दील कर देती है जिस से जलवायु का प्रबंधन हो जाता है।



Do Nothing .(कुछ मत करो )

भारतीय संस्कृति कुदरती संस्कृति है !

ऋषि खेती अपनी संस्कृति की और लोटने  का जरिया है.

जल वायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से मिलेगी सीख 

सीमेंट कंक्रीट ,पेट्रोलियम ,बिजली पर आधारित विकास नहीं वरन विनाश है।
आने वाले कुम्भ 2016 उज्जैन से लिए गया चित्र 
हमारी संस्कृति को पश्चिमी संस्कृति ने बहुत नुक्सान पहुँचाया है। इस संस्कृति को खेती किसानी ने हजारों साल बचा कर रखा किन्तु मात्र कुछ वर्षों की पश्चिमी विज्ञान पर आधारित खेती "हरित क्रांति " से यह मरणासन्न अवस्था में पहुँच गयी है। जिसे हमे  जीवित करना है। ऋषि खेती ,ऋषि मुनियों की संस्कृति "कुछ मत करो " (Do nothing ) के सिद्धांत पर आधारित है। जुताई करना ,रासायनिक उर्वरकों ,कीट और खरपतवार नाशकों का उपयोग ,कम्पोस्ट बनाना ,बायो और GM बीजों का उपयोग इसमें वर्जित है।इस से हरियाली नस्ट हो रही है।

ये खेती ,कुदरती वनो आधारित है। वनो में जिस प्रकार जैव-विविधतायें पनपती हैं उसी प्रकार यह खेती होती है। इसमें नहीं के बराबर मशीनो से काम होता है।  इसका मूल मन्त्र यह है की हर कोई अपनी पसंद से अपना खाना पैदा करे।  यह नहीं कि सब  गेंहूँ और चावल पैदा करें और केवल वही खाएं।  इसके कारण कुदरत का और किसानो का बहुत शोषण होता है।
गैर कुदरती खेती के कारण हमारे खेत रेगिस्तान में तब्दील हो रहे हैं और हम लोग बीमार हो रहे है किसान आत्म  हत्या कर रहे हैं. हम भारत वासी बात अपनी संस्कृति की करते हैं किन्तु अपनाते विदेशी संस्कृति है।
ऋषि मुनियों ने जो हमे ज्ञान दिया है उस से हम आज तक बचे हैं।  किन्तु अब जलवायु परिवर्तन और बढ़ती
गर्मी ने हमे  अपनी संस्कृति की और लोटने  पर बाध्य कर दिया है।
दुनिया में किसी के पास इस से बचने का कोई रास्ता नहीं है किन्तु हमारे पास अभी भी अपनी संस्कृति है जिस से हम बच सकते हैं।  गीताजी में लिखा है "अकर्म " (Do Nothing ) कुदरत के साथ जीने का तरीका है।


Monday, November 23, 2015

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मलेन : समाधान की ओर

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन
दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मलेन : समाधान की ओर 

 विधान सभा भोपाल
21 -22 नवम्बर 



सरकार ने माना की गलती हुई है जिसे हमे ही ठीक करना है। 

ऋषि खेती से होगा समाधान 

रती पर गर्मी बढ़ रही मौसम गड़बड़ाने लगा है कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा पड़ रहा है। फसलें हर मौसम खराब होने लगी हैं खेती किसानी मरने लगी है।  ये सब घरती पर हरियाली की कमी के कारण हो रहा है। हरियाली के नहीं रहने के कारण है।  विषय को समझने और इसके समाधान की खोज के लिए म. प्र. सरकार के पर्यावरण विभाग ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन पर दो दिवसीय कार्य शाला का आयोजन भोपाल  विधान सभा में आयोजित किआ था जिसमे उन तमाम हस्तियों को बुलाया गया था जो इस समस्या को रोकने के लिए कार्य कर रहे हैं। जिसमे अधिकतर किसान , पर्यावरण विद आदि थे।  इसमें होशंगाबाद की ऋषि खेती के श्री राजू टाइटस को भी बुलाया गया था।  जैसा की विदित है जहाँ जुताई आधारित खेती करने की विधियों से खेत  मरुस्थल में बदल रहे वहीँ बिना जुताई की ऋषि खेती से मरूस्थल हरियाली में बदल रहे है।  होशंगाबाद के ऋषि खेत पूरे हरियाली से ढके रहते है जिसमे बंपर  फसलें पैदा हो रही हैं। Displaying IMG-20151122-WA0001.jpg
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इस सम्मलेन का उद्घाटन श्री श्री जी से माननीय मुख्यमंत्री जी ने करवाया था प्रारंभिक जानकारी का भाषण लोकसभा संसद श्री अनिल माधव द्वे जी ने और विषय की जानकारी का भाषण श्री शरदजोशी जी जो जयपुर की सहयोगी संस्था के निदेशक हैं ने दिया था।
माननीय मुख्य मंत्री जी शिवराज  सिंह जी ने कहा हमारा तीज त्यौहार हमारी संस्कृति के अनुरूप है जो खेती किसानी की देन है। जिस से हम हजारों साल आत्म निर्भर रहे हैं। कभी हमे जलवायु और गर्मी की समस्या नहीं रही है।  अब तो देखो बेमौसम बरसात हो रही है हमारे यहां सूखा पड़ा है तो तमिलनाडु में बाढ़  आ रही है लोग मर रहे हैं। यह समस्या कुदरती नहीं है इसे हमने बनाया है जिसे हमे ठीक करना होगा।
उन्होंने बताया की हमने अपनी गलतियों को सुधारने  के लिए इस सम्मेलन में पूरे देश से इस समस्या से लड़ने के लिए कार्य कर रहे ज्ञानी लोगों को बुलाया है। जो वो बताएंगे हम उसके अनुरूप भविष्य की कार्य योजना बनाकर उसका अमल करेंगे।

इस सम्मेलन में  उत्तराखंड के बारह अनाजी विशेषज्ञ श्री विजय जड़धारी जी ,नागालैंड के झूम खेती विशेषज्ञ श्री माइकल , सतना से आये देशी परंपरागत खेती के विशेषज्ञ श्री बाबूलाल दहिया और होशंगाबाद की ऋषि खेती के जानकार श्री राजू टाइटस जी की प्रस्तुति अपनाने लायक पाई गयी है।
बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़  रहा है कि कोई भी वैज्ञानिक खेती किसानी और पर्यावरण से जुडी समस्याओं
के समाधान हेतु कारगर योजना प्रस्तुत कर सका है।
ऋषि खेती एक ओर  जहाँ विश्व में अपना पहला स्थान बनाये  हुए है वहीं   भारत की "जिओ और जीनो दो "
'सत्य और अहिंसा पर आधारित ' भारतीय संस्कृति से निकली पर्या -मित्र खेती है।


 विधानसभा भवन में ऋषि खेती की प्रस्तुति करते श्री राजू टाइटस 



Sunday, November 22, 2015

Letter to Shri Anil Madhav Dave M.P. Lok sabha

 सिहस्थ मेला अप्रैल 2016 "कुम्भ " उज्जैन 

सन्दर्भ :-  ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन दो दिवसीय सम्मेलन 21 -22 नवंबर भोपाल 

ऋषि खेती योजना  

प्रति ,
माननीय अनिल माधव दवे सांसद 

आदरणीय महोदय ,
सब से पहले हम आपको इस अति महत्वपूर्ण सम्मलेन के सफल आयोजन के लिए बधाई देते हैं और  फिर इस आयोजन में  ऋषि खेती को प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करने मौका देकर आपने  ऋषि खेती जो गौरव प्रदान किया है उसके लिए हम आपके बहुत आभारी है।
इस सम्मलेन से हमे पूरा विश्वाश हो गया है कि हमारा प्रदेश कुम्भ के माध्य्म से न केवल भारत को वरन पूरे विश्व को इस संकट से उबरने में नेतृत्व प्रदान करने  में सक्षम है क्योंकि उसके पास इस संकट को खड़ा करने वाली गैर कुदरती खेती को बंद कर ग्लोबल वार्मिंग और जल वायु परिवर्तन को थामने वाली विश्व में प्रथम योजना "ऋषि खेती " है। यह असली जैविक खेती है। यह बात इस सम्मेलन से उभर कर सामने आई है। 

जैसा की हम सभी जानते हैं की "कुम्भ " हमारे पर्यावरण को संरक्षण प्रदान करने वाला पर्व  है।  इसमें करोड़ों विश्वाशी इस आशय से सम्मलित होते हैं कि उन्हें एक ऐसी जीवन दायनी  डुबकी लगाने का अबसर मिलेगा जिस से उनके अंदर की तमाम गंदगी समाप्त  हो जाये । इसलिए हम प्रदेश वासियों का यह परम  कर्तव्य है कि उम उनके इस इस विश्वाश पर खरे उतरे इसलिए हमे अपनी पवित्र नदियों की रक्षा करे करने का संकल्प लेना होगा।

हमारी पवित्र नदियां तब  पवित्र होंगी  जब हम उनको जीवन देने वाली सहायक नदियों नालों को पवित्र रखेंगे। यह तब ही सम्भव है जब हम इन नदी नालो को जल प्रदान करने वाले कैचमेंट एरिया को पवित्र रखेंगे।
यह एरिया अधिकांश हमारे खेतों का है जिन्हे पवित्र होना बहुत जरूरी है क्योंकि ये खेत केवल अन्न पैदा करने का नहीं करते है ये बरसात के जल को सोख कर नदियों का पेट भरते हैं। किन्तु दुर्भाग्य से ये ऐसा नही कर पा रहे हैं उसका मूल कारण जमीन की जुताई है।

जुताई एक अजैविक हिंसात्मक प्रक्रिया इस से खेतों की जल को सोखने की शक्ति नस्ट हो जाती है बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है वह अपने साथ खेत की जैविक  खाद को भी बहा कर  ले जाता है। इसलिए खेत भूखे और नदियां प्यासी रह जाती है। इसी कारण खेत और किसान मर रहे हैं।

इसलिए हमे सर्व प्रथम खेत और किसानो  को बचाने की जरूरत है जिसे हम बिना लागत के बचा सकते हैं। इसके लिए हमे फसलोत्पादन के लिए जमीन की जा रही जमीन की जुताई को बंद करने की जरूरत है। जुताई को बंद करने से अपने आप खेतों में कुदरती खाद जमा होने लगती है खेत बरसात के जल को सोखने लगते हैं। जिसके कारण प्रदूषण कारी कृत्रिम खादों की जरूरत नहीं रहती है खेत ताकतवर हो जाते हैं वे कुदरती जल ,हवा और फसलों को पैदा करें वाले बन जाते  हैं, खेती लाभप्रद हो जाती है किसानो का घाटा  रुक जाता है इस से उनका पलायन रुक जाता है। नदियों को साल भर कुदरती जल मिलता है।

इन दिनों बिना जुताई करने की वैज्ञानिक तकनीकें उपलब्ध हैं जिसमे जीरो टिलेज कृषि सब से अधिक प्रचलन में है। जिसके बहुत अच्छे परिणाम आ रहे है। इसमें कृषि लागत ८०% कम हो जाती है सिंचाई  की मांग भी ५०% कम  जाती है। किन्तु इसकी जानकारी किसानो को नहीं कृषि वैज्ञानिको को भी नहीं है।  असली जैविक खेती बिना जुताई पर आधारित है।  बिना जुताई हर कृषि को हम "ऋषि खेती " मानते है।

ऋषि खेती शब्द बिनोबा भावे जी का दिया है। जब गांधीजी नहीं रहे थे और देश के टिकाऊ विकास का प्रश्न आया था तब विनोबाजी तीन कृषि विधियों का तुलनात्मक अध्यन कर ऋषि खेती को सबसे उत्तम पाया था।  उन्होंने बेलों से जुताई कर की जाने वाली खेती को ऋषब खेती  नाम दिया था तथा रासयनिक खेती को उन्होंने इंजिन खेती नाम दिया था।  ऋषि खेती वे उस खेती को कहते थे जो किसी भी बाहरी  बल के बिना आसानी से  की जा सके।  इसका उदेश्य सब अपना खाना स्व. अपने हाथों से उगाये हर हाथ को काम मिले। उन्होंने ऋषि खेती को "गांधी खेती " कहकर गाँवो के विकास की प्रथम कड़ी के रूप में स्थापित किया था। किन्तु सरकारों ने आयातित तेल पर आधारित खेती इंजिन खेती को ही बढ़ावा दिया जिसका  खामयाजा आज हम भुगत रहे है.

सन १९८४ -८५ में हम "हरित क्रांति " से हार गए थे हमारे पास भी आत्महत्या जैसा कोई कदम उठाने के सिवाय  कोई उपाय नहीं बचा था किन्तु उसी समय जापान के विश्व विख्यात ऋषि खेती के जानकार फुकूओकाजी के अनुभवों  की किताब "The One Straw Revolution " पढ़ने को मिली जिस से हमें पता चला की समस्या की जड़ में जमीन की जुताई है तब से लेकर आज तक हमने मुड़  कर नहीं देखा है।  अब हम नहीं हमारे ऋषि खेत बोलते हैं  हजारों लोग देश विदेश से इसे देखने आते हैं।

आज हमारा ऋषि खेत फार्म पूरी दुनिया में एक माडल बन कर खेत और किसानो को बचाने का काम कर रहा है।जिसका स्थान पहले नंबर पर है।
हमारी प्राचीन खेती किसानी हजारो साल टिकाऊ रही किन्तु "हरित क्रांति " ने इसे बर्बाद कर दिया है। इस लिए हम जैविक खेती ला रहे हैं।  किन्तु जुताई आधारित  जैविक खादों  और जैविक दवाइयों पर आधारित "जैविक खेती "  ऐसा है जैसे "आसमान से गिरे खजूर में लटके " पशु पालन खेती की रीढ़ है।
 जुताई करने और नरवाई को जलाने से पशु चारा  नस्ट हो जाता है। जुताई नहीं करने से फसलों पर छाया का असर नहीं होता है इसलिए चारे के पेड़ लगाये जाते हैं जिनसे ईंधन भी मिल जाता है।

महोदय  पर्यवरण की समस्या से निजात पाने के लिए बिना जुताई की खेती सर्वोत्तम उपाय है इसे हम ऋषि खेती कह सकते है।  यह शब्द सर्व मान्य है सबको अच्छा लगता है। हमारी संस्कृति और  परम्परा और ऋषि मुनियो की विरासत से जुडी है ।  ऋषि खेती से एक और जहाँ जलवायु संकट से लड़ सकते वहीँ यह आतंकवाद को भी खतम करने की ताकत रखती है क्योंकि  अन्न वैसा होय मन !

इसलिए कुम्भ की सफलता तब ही सम्भव है जब हम ऋषि खेती करें।

धन्यवाद
राजू टाइटस  rajuktitus @ gmail.com


Monday, November 16, 2015

वंशानुगत बीजों(GM ) का विरोध घड़ियाली आंसू है !

वंशानुगत बीजों(GM ) का विरोध 

घड़ियाली आंसू है !

पिछले अनेक वर्षों से जब से रासायनिक खेती सवालों के घेरे में आई है तबसे "जैविक " खेती की बात की जा रही है।
जब हमने १९९९ में गांधी आश्रम में  फुकूओकाजी से इस बारे में पुछा तो उन्होंने बताया कि "जैविक " खेती और रासायनिक खेती एक सिक्के के दो पहलू हैं। उन्होंने अपने इस तर्क को विस्तार से समझते हुए बताया की जैसे जब अनेक लोग गरीब बनते हैं तब एक राजा बन जाता है।  इसी प्रकार बहुत बड़े छेत्र से इकठे किए जाने वाले जैविक खाद को जब एक छोटे जमीन के टुकड़े पर डाला जाता है उसे जैविक खेती कहा जाता है। इस से बहुत अधिक जमीन खराब होती है और थोड़ी सी जमीन पर खेती होती है। यह शोषण की प्रक्रिया है। बिना जुताई की कुदरती खेती या बिना जुताई की जैविक खेती में ऐसा  नहीं होता है पूरी  जमीन एक साथ  समृद्ध होती है।
इसलिए हम जुताई आधारित किसी भी  खेती को जैविक या कुदरती खेती नहीं मानते है। 
कल हमारे यहां जिले के खेती के बड़े अधिकारीजी पधारे थे हमने  उनसे पुछा की अपने जिले में "जैविक खेती " का क्या ?  हाल है तो उन्होंने बताया जितना हल्ला हो रहा है उसके मुकाबले नहीं के बराबर प्रगति है। उसका मूल   कारण उत्पादन और लागत  में बहुत फर्क है।
एक और जहाँ जैविक लाबी रासायनिक खेती को नहीं रोक  पा रही है वह अब GM के विरोध में आवाज उठा रहे हैं। GM भी बहुत हानिकारक हैं।  किन्तु सवाल यह उठता है की हम जैविक में पीछे क्यों हैं ? क्यों हम GM को नहीं रोक पा रहे हैं उसका  सीधा सच्चा जवाब है।  जैविक वाले जुताई को हानिकारक नहीं मानते है।  जबकि जमीन की जुताई कृषि रसायनो और GM के मुकाबले १००% नुक्सान दायक है।
जमीन की जुताई ? जब तक नहीं रुकेगी तब तक कोई भी कृषि रसायनो  और GM को नहीं रोक सकता है।
सारा विरोध घड़ियाली आंसू हैं। 

Saturday, November 14, 2015

Climate change क्या है ?



Climate change  क्या है ? 

मय पर बरसात ,ठण्ड और गर्मी के नहीं और बेमौसम होने को Climate change ( जलवायु परिवर्तन )कहा जा रहा है।  इस शब्द की शुरुवाद अमेरिका से हुई है। ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज दोनों एक सिक्के  के दो पहलू हैं। इन दिनों हम अपने देश में सबसे अधिक इस  समस्या से ग्रस्त है। बरसात समय पर नहीं हुई है, हुई है तो बहुत कम है गर्मी अभी तक पीछा नहीं छोड़ रही है।

जलवायु परिवर्तन की समस्या का मूल कारण हरियाली का निरंतर कम होते जाना है जिसके पीछे सबसे अधिक हाथ खेती का है।  परम्परगत खेती किसानी में खेतों को वृक्ष विहीन रखा जाता है किसानो और कृषि वैज्ञानिकों की यह मान्यता है पेड़ के नीचे फैसले पैदा नहीं होती है इसलिए मीलो तक किसान पेड़ नहीं रखते है। यह हाल हर जगह है।
दूसरा अनेक इस विषय से जुड़े वैज्ञानिको का यह मानना है की फसलों को पैदा करने के लिए खेतों की जुताई से खेत की जैविक खाद (कार्बन )  गैस में तब्दील हो जाती है। जो आसमान में एक कम्बल की तरह आवरण बना लेती है जिस सूर्य  की गर्मी धरती में प्रवेश तो करती है किन्तु वह वापस नहीं जा पाती है।  इस लिए धरती  का तापमान बढ़ जाता है और मौसम गड़बड़ा जाता है।
यही कारण है की आजकल बिना जुताई की खेती को बढ़ावा दिया जाने लगा है जिसमे जापान के स्व  मस्नोबू फुकूओकाजी की नेचरल फार्मिंग (ऋषि खेती ) का भी बहुत योगदान है।
हम पिछले ३० सालो ऋषि खेती कर रहे हैं हमारे १००% खेत साल भर हरियाली से ढके रहते हैं। इस संकट से निपटने का यह सब से सरल सस्ता और टिकाऊ उपाय है। 

Friday, November 6, 2015

पुआल नहीं जलाएं !



पुआल नहीं जलाएं !

कैसे करें धान के पुआल से गेंहूँ की ऋषि खेती 

धान के पुआल के ढकाव से झांकते गेहूं के नन्हे पौधे 
न दिनों किसान अपने खेतों में धान की कटाई और गहाई  में व्यस्त हैं।  उन्हें धान के पुआल की चिंता रहती है इसके रहते  खेतों में जुताई नहीं कर पाते हैं उन्हें मजबूरी में उसे जलाना पड़ता है। दूसरा धान के खेतों की मिट्टी जुताई ,कीचड मचाने और  पानी भर कर रखने से बहुत सख्त हो जाती है जिसे आसानी से जोता नहीं जा सकता है। धान के ठूंठ भी किसान की नाक में दम  कर देते हैं।

ऐसी परिस्थिती में धान की ऋषि खेती बहुत फायदे मंद रहती है।  जिसमे जुताई ,खाद और दवाइयों की कोई जरूरत नहीं रहती है। किसान को केवल खेतों में गेंहूँ के बीजों के साथ बरसीम या राय के बीज  खेतों में फेंकने भर की जरूरत है। जिसमे प्रति एकड़ ४० किलो गेंहूँ के बीज के साथ  दो किलो बरसीम या राय छिड़कने की जरूरत है। बरसीम या राय दलहन जाती के बीज हैं जो उगने के बाद अपनी छाया की गोलाई में  लगातार नत्रजन (यूरिया ) सप्लाई करने का काम करते हैं। इन बीजों के ऊपर धान की पुआल को आडा  तिरछा  तिरछा इस प्रकार फैला दिया जाता है जिस से सूर्य की रौशनी बीजों तक आती रहे।  पानी सामान्य तरीके से जो भी  साधन उपलब्ध से दिया जाता है।

 इस तरीके से गेंहूँ की पैदावार प्रति एकड़ २० क्विंटल तक आसानी से मिल जाती है बरसीम या राय की पैदावार अतिरिक्त रहती है और अजैविक गेंहूँ कुदरती गेंहूँ में तब्दील जाता है जिसके कारण गेंहूँ की कीमत ५ -६ हजार रु प्रति क्विंटल से ऊपर चली जाती है। जिसमे किसी भी पमाण पत्र  की जरूरत नहीं रहती है ,केवल किसान को बोनी  से लेकर गहाई  तक के फोटो खींच कर रखने की जरूरत है।

ऋषि खेती के कुदरती गेंहूँ में कैंसर जैसी बीमारी को ठीक करने की ताकत रहती है। इसकी लकड़ी के चूल्हे में बनी रोटी बड़ी से बड़ी बीमारी को दूर कर देती  है। रासायनिक खेती के गेंहूँ से आजकल कुपोषण ,रक्त की कमी ,
मधुमेह, रक्तचाप ,नवजात बच्चों की मौत के अनेक मामले आ रहे हैं। इसका मूल कारण जमीन की जुताई और कृषि रसायनो का उपयोग है।  

पुआल के ढकाव से अनेक फायदे हैं जैसे खरपतवार नियंत्रण ,नमी का संरक्षण ,फसलों में बीमारी का नियंत्रण, मिट्टी को  भुरभुरा बनाना  और पुआल सड़कर अगली फसल के लिए पर्याप्त पोषक  तत्व प्रदान करती है।  इसलिए पुआल नहीं जलाएं !

Monday, October 26, 2015

बिना जुताई की खेती के भिन्न २ तरीके

बिना जुताई की खेती के भिन्न २ तरीके 

कुदरती खेती Natural Farming 

इस खेती का आविष्कार जापान के जग प्रसिद्ध कुदरती खेती के किसान स्व मस्नोबू फुकोकजी ने किया है जिसे पूरी दुनिया में "The One Straw REvolution " किताब जिसे फुकूओकाजी ने लिखा है तथा जिसे लारीकॉर्न ने अनुवादित किया है के माध्यम से जान रहे हैं और कर रहे हैं।

ऋषि खेती (Natural Farming )

यह विधि टाइटस नैचरल फार्म होशंगाबाद में राजू एवं शालिनी टाइटस के द्वारा फुकूओकाजी की नेचरल फार्मिंग के आधार पर भारत में करने लायक बनाई है जिसे वे पिछले ३० सालो से सफलता पूर्वक कर रहे हैं। 

जीरो टिलेज एग्रीकल्चर (zero Tillage agriculture) 

इस विधि को भारत ,पाकिस्तान और बांग्ला देश में CYMMIT नाम की संस्था के द्वारा सरकार के साथ मिल कर किया जा रहा है जिसमे ट्रैक्टर के पीछे बिना जुताई की मशीन लगी होती है जिस से बिना जुताई करे बीज बो दिए जाते हैं। 

नो टिल  कन्सर्वेटिवे फार्मिंग (No Till conservative farming 

यह खेती अधिकतर अमेरिका में की जा रही है इसमें खरपतवार नाशकों के उपयोग के साथ कृषि रसायनो  का भी उपयोग होता है बीजों को बिना जुताई की बोन वाली मशीनो से बो दिया जाता है। इस खेती को पर्या  मित्र  कर मान कर सरकार का समर्थन है। 

बिना जुताई की जैविक खेती (No Till organic farming )

इस खेती को भी अमेरिका में रोडलस इंस्टिट्यूट ने विकसित किया है जिसे छोटे ट्रैक्टरों के माध्यम  से किया जाता है जिसमे एक क्रिम्पर रोलर और जीरो टिलेज सीड ड्रिल लगी रहती है।  रोलर खरपतवारों को जमीन पर सुला देता है और ड्रिल बीजों को बो देती है।  यह असिंचित खेती में बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। 

अधिक जानकारी के लिए गूगल सर्च करें।

Sunday, October 25, 2015

जुताई का क्या नुक्सान है ?

जुताई का क्या नुक्सान है ?


मिट्टी जिसे हम  निर्जीव समझते हैं उसे सूक्ष्म दर्शी यंत्री यंत्र से देखने पर पता चलता है की यह असंख्य सूख्स्म जीवाणुओं का समूह है है जिसमे निर्जीव कुछ भी नहीं है। यह इस बात घोतक है की मिट्टी में भी हमारे शरीर के माफिक जान होती है ,वह भी साँस लेती है ,पानी पीती  है  तथा खाना खाती है। मिट्टी की जैविकता जितनी समृद्ध रहती है मिट्टी उतनी ताकतवर रहती है उसमे ताकतवर फसलें पैदा होती हैं।


एक बार जंगल की बिना जुताई वाली जमीन को जब हम साफ करते हैं उसमे हल चला देते हैं तो उसकी आधी  जैविकता नस्ट हो जाती है और यही क्रम हर बार की जुताई के कारण रहता है। जुताई से जमीन लगातार कमजोर होते जाती है। जुताई के कारण जुती  हुई बारीक मिट्टी कीचड में तब्दील हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन के भीतर नहीं जाने देती है जिस से पानी तेजी से बहता है अपने साथ मिट्टी को भी बहा कर ले जाता है। इस से एक और जहाँ बाढ़ आ जाती है वहीं सूखा पड़  जाता है। करीब १५ टन जैविक खाद हर साल एक एकड़ से बह कर खेत से बाहर चली जाती है।


कुछ वैज्ञानिकों का कहना है की जमीन की जुताई करने से जमीन का कार्बन (जैविक खाद ) ,गैस बन कर उड़ जाता है यह अतिरिक्त नुक्सान इसे ग्रीन गैसों का उत्सर्जन कहा जाता है जिसका सम्बन्ध ग्लोबल वार्मिंग ,क्लाईमेट चेंज से है जिसके कारण अनेक प्रकार की समस्याएं निर्मित हो रही हैं।

जब तेज हवा चलती है तब खेतों की जुती बारीक मिट्टी हवा के साथ उड़ जाती है। इस प्रकार कमजोर होती जमीन में कृषि कार्य बहुत कहीं हो जाता है उसमे अनेक प्रकार खादों क डालना  पड़ता है। जमीन की कमजोरी के कारण कमजोर फसलें पैदा होती हैं जिनमे अनेक प्रकार की बीमारियां लगती है।
हवा से उड़ती मिट्टी 

कुदरत अपनी जमीन को हरियाली से ढंकने का काम करती है किन्तु जुताई कर हरियाली को लगातार मारते रहते हैं इस कारण कठिन वनस्पतियां उत्पन्न हो जाती है जिन्हे हम खरपतवार कहते है। किन्तु जुताई नहीं करने से खादों की कोई कमी नहीं रहती है फसलों में भी कोई बीमारी नहीं आती है। 

Saturday, October 24, 2015

दीमक दोस्त है उसे नहीं मारें !

 दीमक दोस्त है उसे नहीं मारें !

ज हमारे  मित्र जो अनार आदि की बागवानी करते हैं उनका फ़ोन आया वे पूछ रहे थे की हमारे बगीचे में दीमक का प्रकोप हो रहा है क्या करें ?

मेने उन्हें बताया की दीमक एक केंचुओं की तरह एक लाभ प्रद कीट है वह सूखे कचरे जैसे पत्तियां ,टहनियां ,पुआल ,नरवाई आदि को जैविक खाद में बदल देता है। जब हम बगीचे में नींदों को मारने के लिए जुताई करते हैं और निंदाई  गुड़ाई करते रहते है तब बगीचे में सूखे कचरों की कमी हो जाती है इसलिए दीमक हमारे हरे भरे पेड़ों की सूखी छाल को खाने लगती है।  यदि हम अपने बगीचे में जुताई ,निंदाई ,गुड़ाई नहीं करते है और कचरों को जहाँ का तहाँ सड़ने देते हैं तो यह दीमक का आहार रहता है दीमक पेड़ों से उत्तर कर इस कचरों को खाने लगती है तथा उसे बेहतरीन जैविक खाद में बदल देती है।

ऋषि खेती करने से पहले हमारे बगीचे में भी दीमक का बहुत प्रकोप था हमारे  घर का फर्नीचर खिड़की दरवाजे ,किताबे सब में दीमक लग जाती थी किन्तु अब हमे ढूंढने से भी दीमक नहीं मिलती है। इसलिए हमारी सलाह है की दीमक ना मरे वरन उसे बचाये जिस से बगीचा जैविकता से भर जायेगा  हो जायेगा। 

Friday, October 23, 2015

पढ़ना लिखना छोड़ो ,कुदरती खेती करना सीखो ओ पढ़ने लिखने वालो

पढ़ना लिखना छोड़ो ,कुदरती खेती करना सीखो ओ पढ़ने लिखने वालो 

ब में छोटा था मुझे स्कूल जाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। मुझे मार मार कर स्कूल भेजा जाता था। इसलिए में अपना बस्ता लेकर मेरे दादाजी के कुदरती बगीचे में चला जाता था , जहाँ दादाजी एक छोटी सी झोपडी में रहते थे।  मुझे देख कर वो बहुत खुश हो जाते थे वो कभी नहीं पूछते  की तुम स्कूल क्यों नहीं गए।  

उनके बगीचे में रंग बिरंगी तितलियाँ अनेको चिड़ियाँ रहती थीं वे चिड़ियों को दाना ओर पानी देकर आकर्षित किया करते थे। उनके बगीचे में तरह तरह के फल सब्जियां और उनकी खुशबू  मुझे आज तक याद है। मै दिन भर दादाजी के बगीचे में खूब खेलता दादाजी मुझे कुछ न कुछ नया नया खाने को देते रहते थे। 

किन्तु जब शाम हो जाती और स्कूल की छुट्टी होने लगती मुझे घर जाकर पिताजी की मार का डर  सताने लगता था। दादाजी मेरी मन: स्थिति भांप जाते और अपने संरक्षण में घर तक छोड़ने आते थे जैसे ही पिताजी को देखते वो डांट  कर उन्हें चुप करा देते थे और में डांट मार से बच जाता था। 

अब क्या था मुझे स्कूल से बचने का रास्ता मिल गया में रोज यही ही करने लगा किन्तु एक दिन भी दादाजी ने मुझे इस काम के लिए नहीं डांटा ,वे स्वं  भी कभी स्कूल नहीं गए थे।  उनकी जीवन कहानी भी अजीब है। वो जब छोटे थे जंगलों में अकेला भटकते अंग्रेज शिकारियों को मिले थे उन दिनों प्लेग  फैला था  पूरा गाँव पलायन कर गया था उनके माता पिता और एक बहन का देहांत हो गया था। अंग्रेजो ने उन्हें होशंगाबाद स्थित  क्वेकर अनाथ आश्रम में डाल  दिया था। जहाँ उन्हें पढ़ाने की बहुत कोशिश हुई किन्तु वे नहीं पढ़ सके और एक अच्छे कुक बन गए। उसके बाद उन्होंने कुदरती  शुरू कर दिया था। 

वे जंगलों और नदी के करीब जमीनो को किराये से लेकर उसमे कुदरती खेती करते थे जिसे  देख और सीख कर में बड़ा हुआ किन्तु विडंबना यह है की स्कूल आज कल हमारा पीछा नहीं छोड़ता  है हम भी डांट  मार खाते स्कूल कालेज से आखिर फेल अधिक पास कम होते हुए निकल गए ,किन्तु पढ़ लिख जाना  भी एक अभिशाप है आप को कुछ न कुछ करना पड़ता है। नौकरी दूसरी गुलामी है जिसने ३० साल और घसीटा रिटायर होने के बाद ऐसा लगा कि  हम बहुत बड़ी गुलाम नींद से जगे है। 

उसके बाद हम फुल  टाइम कुदरती किसान बन गए और आज हम दिन में आराम से अपने कुदरती खेतों में तमाम हरियाली ,पेड़ पौधों ,रंग बिरंगी तितलियों ,चिड़ियों के बीच दिन में सोते हुए कुदरती खेतों का मजा ले रहे हैं।  

कुदरती खेती एक "कुछ मत करो " सिद्धांत पर आधारित है। इसमें जुताई ,खाद ,दवाइयों और मशीनो की कोई जरूरत नहीं है। कुदरती खेत एक प्रकार का जंगल है। जिसमे हम आसानी से जिंदगी बसर कर सकते है। 
इसलिए हम कहते हैं "ओ पढ़ने लिखने वालो पढ़ना लिखना छोड़ो और कुदरती खेती करना सीखो "


Monday, October 12, 2015

बड़े किसानो की हालत भी अब खराब होने लगी है।

बड़े किसानो की हालत भी अब खराब होने लगी है। 

पटेलजी ऋषि खेत में  
श्री पटेल हमारे पडोसी बड़े किसान हैं बता रहे थे की हमे हर फसल के बाद लोन पटाने की चिंता रहती है। हर फसल की आमदनी का करीब 90 % हमे कर्जे में देने पड़ता है बचा 10 % +अतिरक्त लोन से अगली फसल की  बोनी होती है।  श्री पटेल करीब १०० एकड़ में खेती करते हैं और तीन फसलें लेते हैं। देखने में ऐसा लगता है की वे बड़े मालदार हो रहे है किन्तु अंदरूनी हालत बताती है की वे सिर  से लेकर पांव तक कर्जे के मकड़ जाल में फंसे हैं। ऐसा नहीं की यह हाल केवल हमारे मित्र पटेलजी का है सभी किसानो की यही हालत है।

असल में सरकार ,कृषि वैज्ञानिक और खेती के सामानो को बेचने वाली कंपनियां मिल कर खेत और किसानो का शोषण कर रही हैं, कहने को सरकार बिना ब्याज का कर्ज दे रही है किन्तु उसका लाभ कंपनिया उठा रही है। 

Saturday, October 10, 2015

Farmers Suicides



क्या ऋषि खेती एक लाभ का धंधा बन सकती है ?

क्या ऋषि खेती एक लाभ का धंधा बन सकती है ?

ऋषि खेती के प्रणेता फुकूओकाजी ने कहा था कि भारत को "अमेरिका, जापानऔर जर्मनी " आदि के  विकास की नकल नहीं करना चाहिए क्योंकि वो स्वम् "हिंसात्मक  " विकास  के कारण पिछड़ते जा रहे हैं। 


ज हमारे फेस बुक मित्र हमारे फार्म पर पधारे वो यह जानना चाह  रहे थे की क्या ऋषि खेती एक लाभ का धंधा बन सकती है?  उन्हें ऋषि खेती के विषय में youtube के  विडिओ से जानकारी मिली थी।  ऋषि खेतों के पूरे भ्रमण और अच्छी खासी चर्चा के उपरांत हमारे मेहमानो ने इसे हरी झंडी दिखा दी है।



आज जब पढ़े लिखे लोगों के सामने रोजगार का भारी संकट खड़ा है और उधोगों में तरक्की रुक गयी है और खेती एक घाटे का सौदा बन रही है ,सरकारें विकास के लिए विदेशों की ओर टकटकी लगा रही हैं   ऐसे में इन साहसी लोगों का हम सम्मान करते  हैं।  जिन्होंने ऋषि खेती को एक उधोग के रूप करने का फैसला ले लिया है।
हमारे ये मेहमान जो की उधोगों में अपनी किस्मत आजमा रहे का ऋषि खेती की और मुड़ना ऋषि खेती के अच्छे भविष्य  की और इशारा कर रहा है। 

Wednesday, October 7, 2015

मेहनत करना सीखो ओ पढ़ने वालो

मेहनत  करना सीखो ओ पढ़ने वालो !


.आज किसान मर रहे हैं कल हम मरने वाले हैं।

वैज्ञानिक खेती जिस के बल पर देश की खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण  की जिम्मेवारी है उसका यह हाल है। 

बिना जुताई की कुदरती को हम पिछले ३० सालो से  करते हुए खेत और किसानो को बचाने  के लिए निजी स्तर पर कार्य कर रहे हैं। हमारे खेतों का सम्बन्ध केवल अनाज पैदा करना नहीं है इनका बहुत बड़ा योगदान हमारे पर्यावरण  को बचाने का भी है  यह बेरोजगारी को दूर करने महामारियों को रोकने का जरिया है फिर क्यों उपेक्षित है ?

आज किसान मर रहे हैं कल हम मरने वाले हैं। 

Monday, October 5, 2015

मेगी से अधिक जहर अपनी रोटी में

मेगी से अधिक जहर अपनी रोटी में


आज के दैनिकभास्कर   भोपाल में यह खबर छपी है असल में हमारे खाने में इन दिनों जहर की मात्रा  बहुत तेजी से बढ़ रही है ,ऐसा जुताई आधारित जैविक और अजैविक दोनों खेती के कारण है।



Saturday, October 3, 2015

कुदरती आहार में भ्रम की स्थिती Confusion about Food .

कुदरती आहार में भ्रम की स्थित

फुकुओका (एक तिनका क्रांति )

इंटरनेट से लिया गया चित्र  
हां उस पहाड़ी पर बनी झोपडि़यों में आकर तीन साल तक रहे एक युवक ने एक मरतबा मुझसे कहा था, ‘आपको पता है, जब लोग प्राकृतिक खाद्यों की बात करते हैं तो मैं नहीं जानता कि, तब उससे उनका मतलब क्या होता है।’

जरा सोचने पर पता लगता है कि, ‘प्राकृतिक खाद्य’ शब्दों से तो हर कोई परिचित है, लेकिन वह वास्तव में क्या होता है, इसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं। ऐसे कई लोग हैं जो मानते हैं कि, प्राकृतिक आहार ऐसी चीजें खाना है, जिनमें कोई कृत्रिम रसायन या अतिरिक्त चीज न मिली हो। कुछ अन्य का कुछ ऐसा अस्पष्ट सा सोच होता है कि खाद्यों को वैसा खा लेना जैसा कि वे प्रकृति में मिलते हैं, यही प्राकृतिक आहार होता है।
यदि आप किसी से  पूछें कि, खाना पकाने में नमक और आग का प्रयोग प्राकृतिक है या अप्राकृतिक तो,
' इसका जवाब दोनों रूप में प्राप्त हो सकता है।
यदि आदि  मानव का आहार , जिसमें जंगलों में रहने वाले प्राणी तथा पौधे  ही होते थे, ही प्राकृतिक हैं तो नमक और आग के प्रयोग पर आधारित  आहार को प्राकृतिक नहीं कहा जा सकता।
मगर यह दलील दी जाती है कि अग्नि और नमक के उपयोग की जिस जानकारी को मानव ने आदि काल में ही प्राप्त कर लिया था वह उसकी कुदरती नियती ही थी तो उस ढंग से तैयार भोजन पूरी तरह से प्राकृतिक ही माना जाएगा।
 अच्छा खाना कौन सा है? वे जंगली पदार्थ जो प्रकृति में जैसे हैं वैसे के वैसे ही खाए जाएं या वह भोजन किया जाए जिसे तैयार करने में मानवी
तकनीकों का उपयोग किया गया हो? क्या जुताई करके उगाई हुई फसलों को प्राकृतिक कहा जा सकता है? आखिर प्राकृतिक और अप्राकृतिक के बीच सीमा-रेखा आप कहां खींचते हैं।

 Confusion about Food

Fukuoka (The one straw revolution )

A young fellow who had stayed three years in one of the huts on the mountain said one day, "You know, when people say 'natural food' I don't know what they mean any more." When you think about it, everybody is familiar with the words "natural food," but it is not clearly understood what natural food actually is. There are many who feel that eating food, which contains no artificial chemicals or additives, is a natural diet, and there are others who think vaguely that a natural diet is eating foods just as they are found in nature. If you ask whether the use of fire and salt in cooking is natural or unnatural, one could answer either way. If the diet of the people of primitive times, eating only plants and animals living in their wild state, is "natural," then a diet which uses salt and fire cannot be called natural. But if it is argued that the knowledge acquired in ancient times of using fire and salt was humanity's natural destiny, then food prepared accordingly is perfectly natural. Is food to which human techniques of preparation have been applied good, or should wild foods just as they are in nature be considered good? Can cultivated crops be said to be natural? Where do you draw the line between natural and unnatural?

Friday, October 2, 2015

पुआल मिट्टी को उर्वर बनाता है। Straw Enriches the Earth

पुआल मिट्टी  को उर्वर बनाता है। 

फुकुओका (एक तिनका क्रांति )


पुआल,नरवाई आदि जिन्हे किसान जला  देते हैं या खेतों से बाहर कर देते हैं को वापस खेतों में जहाँ से लिया है वहीं वापस फेलाने  से मिट्टी की संरचना में सुधार आता है  है और मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है उससे तैयार किए गए उर्वरकों की जरूरत नहीं रह जाती। मगर, बेशक इसका उपयोग बिना-जुताई वाली खेती में ही फलदायी होगा। केवल मेरे खेत ही सारे जापान में ऐसे हैं, जिनमें बीस साल से भी ज्यादा समय से हल-बखर नहीं चलाया गया है, और हर मौसम के साथ उनकी गुणवत्ता में सुधर आया है। मेरा अनुमान है कि इन बीस बरसों में मिट्टी  की ऊपरी सतह, कोई चार इंच की गहराई तक, जैविक खाद से समृद्ध हो गई है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इन खेतों में जो कुछ उगा वह अनाज को छोड़कर, सब-का-सब, खेतों को ही लौटा दिया गया है।


Straw Enriches the Earth

Fukuoka ( The one straw revolution )

 Scattering straw maintains soil structure and enriches the earth so that prepared fertilizer becomes unnecessary. This, of course, is connected with non -cultivation. My fields may be the only ones in Japan, which have not been ploughed for over twenty years, and the quality of the soil improves with each season. I would estimate that the surface layer, rich in humus, has become enriched to a depth of more than four inches during these years. This is largely the result of returning to the soil everything grown in the field but the grain itself.

Ground cover crop (भूमी ढकाव की फसल)



Ground cover crop

भूमी  ढकाव की फसल 

राइ( Mustered ) का उपयोग 



राइ की भूमि ढकाव की फसल 
ब हम अपनी जमीन को उसके हाल पर छोड़ देते हैं तो कुदरत उस जमीन को ढंकने के लिए अनेक प्रकार की वनसस्पतियां वहां पैदा कर उस जमीन को ढँक लेती है। इन वनस्पतियों को Ground cover crop या भूमि ढकाव की फसल कहते हैं। ये फसलें जमीन से जुडी तमाम जैव विविधताओं  का घर रहती हैं,  जिसके  नीचे असंख्य कीड़े मकोड़े ,जीवजन्तु, केंचुए सूक्ष्म जीवाणु निवास करते है।  इनकी गतिविधी  के कारण जमीन गहराई तक छिद्रित हो जाती है।  इसे कुदरती जुताई  भी कह  सकते हैं आज तक ऐसी मशीन नहीं बनी है जो इस कुदरती जुताई  की बराबरी कर सके।



इस वानस्पतिक ढकाव और जैवविवधताओं के जीवन चक्र से जमीन में उन तमाम पोषक तत्वों का निर्माण होजाता है जिनकी फसलों को जरूरत  रहती है. आजतक ऐसी कोई खाद नहीं बनी  है जो  इस खाद का मुकाबला कर सके।

इस जैविविधता के कारण जमीन गहरई तक बरसात के पानी को सोखने में सक्षम हो जाती है इसलिए जमीन में भरपूर पानी जमा हो जाता है जो बेमौसम वास्प बन जल की आपूर्ति में सहयोग करता है। इसके कारण ही पहाड़ की छोटी पर झरने चलते हैं और नदियों में  जल की आपूर्ती होती है।

किन्तु दुर्भाग्य की बात हैं की कृषि वैज्ञानिक इसे खरपतवार कहते हैं। इसलिए किसान हर मौसम खेतों की जुताई करते हैं जिस से जमीन की यह जैव विविधतायें मर जाती हैं और उनके घर भी मिट जाते हैं जिसके कारण  बरसात का जल जमीन में नहीं जाता है वह बहता और अपने साथ खेतों की जैविक खाद को भी बहा
कर ले जाता है। इसलिए खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे है।

ऋषि खेती में गेंहूँ और धान की फसलों को पैदा करने से पहले जमीन को दलहन जाती के भूमि ढकाव से ढकना जरूरी रहता है। इसके लिए हम आजकल राइ का उपयोग करने लगे है। राय एक और जहाँ जमीन की नत्रजन की आपूर्ति कर देती है  वहीं  यह घास जाती की वनस्पति को भी नियंत्रित कर लेती है। इसे हम गेंहूँ  के बीज छिड़कने के करीब एक माह पहले छिड़क देते हैं। बाद में गेंहूँ  के बीज छिड़क देते हैं। इस से हमे दो फसलें  मिल जाती है।  राय एक तिलहन बीज है जिसका तेल स्वास्थवर्धक तेलों की श्रेणी में आता है।

गेंहूँकी कटाई गहाई के उपरांत हम गेंहूँ की नरवाई और राय की नरवाई को जहाँ का तहाँ वापस खेतों में डाल देते हैं जहाँ हम बरसात की बरसात की फसलों के बीजों का छिड़काव कर सकते हैं। नरवाई का ढकाव एक और जहाँ खरपतवार नियंत्रण में सहयोग करता है वहीँ सड  कर अतिरिक्त जैविक खाद दे देता है।

Wednesday, September 30, 2015

NATURAL SOIL TESTING

NATURAL SOIL TESTING
ऋषि खेती मृदा परिक्षण 

म अपने खेतों में मिट्टी की जांच वहां उपस्थित केंचुओं की संख्या से करते हैं। केंचुए जमीन के अंदर रहते है वे जमीन को बहुत गहराई तक छिद्रित बना देते हैं। उन्हें हम सीधे गिन  नहीं सकते हैं किन्तु हम उनके घरों को गिन  सकते हैं। प्रति मीटर छेत्र में केंचुओं के घरों को गिन  कर हम अपनी मिट्टी का परिक्षण कर लेते हैं। जितने अधिक केंचुए के घर रहते है उतने अधिक केंचुए वहां रहते है।  इस से जमीन में जैविकता पता चल जाती है। इस जैविकता के अनुसार ही हम फसलों का चुनाव करते हैं।
No of clodes shows house of earthworms per square meter
is proof of rich soil.
वैज्ञानिक मृदा परिक्षण में खेतों में उपस्थित जैविकता ,का पता नहीं चलता है। वैज्ञानिक यह बताने में असमर्थ रहते हैं की प्रति मीटर हमारे खेतों में कितने केंचुए आदि है जो हमारे खेतों को उर्वरक और पानी   दार बनाते है।
यह विधि बहुत आसान है इसे एक साधारण किसान आसानी  से परख सकता है। केंचुए के घर बरसात के पानी को जमीन की गहराई तक ले जाने में बहुत सहयोग करते हैं। वे कुदरती टिलर हैं।
मशीनी जुताई करने से ये केंचुओं घर टूट जाते हैं इसलिए खेतों में बरसात का पानी नहीं समाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेत की उपजाऊ मिट्टी को भी बहा  कर ले जाता है।
हम पिछले ३० सालो से बिना जुताई की ऋषि खेती कर रहे हैं हमारे खेत में एक भी मीटर जगह नहीं है जहाँ केंचुओं के घर  नहीं हों किन्तु जब हम जुताई करते थे एक भी मीटर ऐसी जगह नहीं थी जहाँ केंचुए रहते हों।
जमीन जुताई बहुत हिंसात्मक रहती है यही कारण है की किसान आत्महत्या कर रहे हैं।



Tuesday, September 22, 2015

Berseem

Berseem (Trifolium alexandrinum)
Local name: Egyptian clover
Berseem is one of the most important fodder crops and has been rightly described as the king of fodders. It  is  highly  esteemed fodder  which  has a special place in animal husbandry programmes throughout the country. Though a migrant from Egypt, it has established in this region for the last 60 years and may well be considered as a native of India. It has many desirable qualities. Ten to fifteen kg of fodder alone with straw constitutes a maintenance ration. It can support growth and milk production on ad lib feeding, balanced by straws.
It does not tolerate acidic soils but grows in other kinds of soils except usar lands. The crop is sown from middle of September to end of October in plains and from middle of August to first week of September in hills. This crop requires a thorough preparation of land. Berseem is now available in another form called Giant berseem. The advantage of giant berseem is that lesser irrigation is required. While the seed rate of ordinary diploid berseem is 20-25 kg that of giant berseem is 30-35 kg per hectare.
The crop is ready in 55-60 days after sowing for the first cutting. Subsequent cuttings are taken at 30 days interval during winter and spring. In all 5-6 cuttings can be obtained up to middle of May. The total yield obtained may vary between 500-600 quintals/ hectare. For taking the seeds, plots are left uncut after February and in that case 4-5 quintals seeds per hectare may be obtained. Tetraploid berseem has been considered as high yielding variety.
Ordinary diploid and tetraploid or giant berseem are the varieties of the berseem. Amongst the various strains of giant berseem, strain 526 has shown the better result.
Nutritive value
Berseem is highly  palatable fodder and it  contains 17% crude protein and 25.9% crude fibre. The total digestible nutrients content is 60-65%. Berseem contains saponins, if fed in high quantity to ruminants leads to bloat.
Varieties
Mescawi, Varda, JB-1, 2 and 3, UPB 103, Pusa giant, Khadarvi, Chindwara

किसानो की आत्महत्याओं की खबरें

किसानो की आत्महत्याओं की खबरें 


ज हर कोई किसानो के द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की अनदेखी कर रहा है किन्तु कल निश्चित हर किसी को इस पर ध्यान देना लाजमी हो जाएगा ।  क्योंकि आत्महत्याओं के पीछे धरती माँ की बीमारी है वह खेती करने की गैर कुदरती तकनीक  के कारण बीमार होकर बेहोश हो गयी है। जो जहर आज किसान गटक कर मर रहे हैं वह जहर हमारी रोटी में भी तेजी से घुल रहा है। पंजाब जिसे देश का सबसे उन्नत प्रदेश माना जा रहा है वहां हर घर में कैंसर का खतरा मंडरा रहा है।  इसका मूल कारण रासायनिक जहर हैं जो खेतों में डाले जा रहे हैं।
मध्य भारत भी इस से अछूता नहीं सोयाबीन ,उड़द ,मूंग धान आदि फसलें नस्ट हो गयी हैं।  अनेक किसानो केआत्महत्याएं करने मामले अब यहां  भी सुनायी देने लगे हैं। आमआदमी इसलिए इसलिए आँख और कान बंद कर रहा है क्योंकि वह सोचता है की में किसान नहीं हूँ। किन्तु जब यह जहर हमारे खून में पाया जाने लगेगा और डाक्टर कहेगा की आप को कैंसर है  तब बहुत देर हो चुकी होगी। इसलिए हमे उन प्रयासों में सहयोग करने की जरूरत है जिनसे खेत और किसान की मौत रुके।

हम विगत ३० सालो  से आत्मनिर्भर कुदरती खेती कर रहे हैं हमारी धरती माँ भी जुताई और रासायनिक जहरों के कारण मरणावस्था में पहुँच चुकी थीं किन्तु कुदरती खेती के ज्ञान ने हमारे खेतों और हमको  को बचा लिया है हम चाहते हैं आमआदमी जो रोटी खाता  है वह इस हकीकत को समझे इस से मुंह न मोड़े। 

Monday, September 21, 2015

कुदरती खेती

कुदरती खेती

खेती करने का यह तरीका आधुनिक वैज्ञानिक  कृषि की तकनीकों के सर्वथा विपरीत है। यह वैज्ञानिक जानकारी तथा परम्परागत कृषि विधियों दोनों को बेकार सिद्ध कर देता है। खेती के इस तरीके, जिसमें कोई मशीनों , जैविक  खादों तथा रसायनों का उपयोग नहीं होता  के द्वारा भी औसत जापानी खेतों के बराबर या कई बार उससे भी ज्यादा पैदावार हासिल करना संभव है। इसका प्रमाण यहां आपकी आंखों के सामने है।
फुकुओका

धान की खड़ी फसल में क्लोवर और गेंहूँ की इंटरक्रॉपिंग (फुकुओका फार्म )

धान की खड़ी  फसल में क्लोवर और गेंहूँ की इंटरक्रॉपिंग (फुकुओका फार्म )





Thursday, September 17, 2015

ऋषि पंचमी का महत्व

ऋषि पंचमी का महत्व 

ज ऋषि पंचमी है।  इस पर्व में महिलाएं बिना जुताई के अनाज का सेवन करती है इसमें कांस घास (खरपतवार ) की पूजा होती है और आधा झड़ा (खरपतवार ) की दान्तोन  बनाई जाती है जिस से अनेक बार दांत  साफ़ किए जाते है। इन सब बांतों का खेती किसानी आधारित जीवन संस्कृति में बहुत महत्व है।  यह पर्व हमे बताता हैं की जब हम जमीन की जुताई करते है उस से धरती से जुडी असंख्य जैव विविधताओं की हिंसा होती है। कांस घास खेतों का मरू होने का प्रतीक है। वह बताती है की जुताई करने के कारण बरसात का जल जमीन में नहीं जाता है वह बह जाता है।  कांस की जड़ २५-३० फ़ीट नीचे से पानी ऊपर लाने  का काम करती है। 

खेती  करने के लिए जमीन की जुताई खरपतवारों को मारने  के लिए की जाती है इस से असंख्य जीव जंतुओं और सूक्ष्म जीवाणुओं की हत्या हो जाती  है यह परमाणु बम से होने वाली हिंसा से भी बड़ी हिंसा है। बिना जुताई का अनाज कुदरती अनाज होता है। हमारे इलाके में कुदरती धान बहुत होती थी उसे कोई बोता नहीं था यह आज भी कहीं कहीं मिल जाती है। इसके  भात को कच्चे दूध के साथ सेवन किया जाता है। यदि इसे नियमित रूप से सेवन  किया जाये तो कैंसर जैसे असाध्य रोग भी ठीक हो जाते है।


जमीन की जुताई करने से जमीन का कार्बन (जैविक खाद ) गैस बन कर उड़ जाता है जो ऊपर कम्बल की तरह आवरण बन कर धरती को गर्म कर देता है.जिसके कारण जलवायु परिवर्तन की गंभीर  समस्या उत्पन्न हो रही  है।  गैर कुदरती खान पान के कारण ही अनेक प्रकार की बीमारियां जन्म ले रही है।

हम विगत ३० साल से बिना जुताई की कुदरती खेती (ऋषि खेती )कर रहे हैं हमारे खेत कांस घास से भरे थे जुताई बंद कर देने से वह खतम हो गयी है अमेरिका में भी तीन चौथाई जमीन कान्स  में घास में दब गयी है यह पनपते मरुस्थल की निशानी है। हमारे देश में पनपते मरुस्थल ,जलवायु परवर्तन, किसानो की आत्महत्या का केवल एक कारण  है वह है जमीन की जुताई जो हमे आज का पर्व बताता है। 

संजीव त्रिपाठी जी का उदाहरण


ऋषि खेती 

संजीव त्रिपाठी जी का उदाहरण 

जब हम अपने खेतों को अपने हाल पर छोड़ देते हैं तो वे अपने आप "ऋषि खेतों "  में तब्दील हो जाते   हैं। ऐसा ही संजीव भाई के खेतों में हुआ है।  इन खेतों में परंपरागत खेती होती थी किन्तु जुताई के कारण खेत मरने लगे थे।  इसलिए यहां खेती बंद हो गयी थी।


Displaying IMG_20150913_083352.jpgभारतीय परंपरागत खेती  किसानी में जुताई के कारण मर रहे खेतों में किसान जुताई  बंद कर उन्हें कुदरत के भरोसे  छोड़  देते थे। ऐसा करने से खेत पुन : जीवित हो जाते थे उनमे फिर से फसलों का अच्छा उत्पादन होने लगता था।

जुताई करने से बरसात का पानी जमीन के द्वारा सोखा नहीं जाता  है वह तेजी से बहता है अपने साथ खाद को भी बहा कर  जाता है। इस कारण सूखे और गीले खेतों की समस्या निर्मित हो जाती है। संजीव भाई  के खेतों में कांस घास है जो इस  इस बात की पुस्टी करती   है।  कांस घास की जड़ बहुत गहराई तक जाती हैं (25 -30 फ़ीट ) तक।  हमारे पूर्वज बताते हैं  कांस खेतों में  फूलने लगे इसका मतलब है पानी बहुत नीचे चला गया है।

Displaying IMG_20150913_110549.jpgहमारे प्रदेश में ऋषि पंचमी के पर्व में कांस घास की पूजा  होती है। जिसमे फलहार रूप में बिना जुताई के कुदरती अनाजों के सेवन की सलाह दी जाती है।  इसका आशय यह है जुताई हानिकारक है। जताई नहीं करने से खेतों की जलधारण शक्ति वापस आ जाती है और कांस गायब होने लगती है।  ऐसा कुछ संजीवजी के खेतों को देख कर लग रहा है। कांस घास जा रही है और अच्छी वनस्पतियां आ रही हैं।

फुकूओकाजी अनेक बार अपनी कुदरती खेती को "कुछ मत करो " खेती कहते हैं।  उनका मतलब यह है जब हम कुदरत के भरोसे खेती को छोड़ देते हैं तो अपने आप खेती हो जाती है।

कुदरती खेती करने से पहले हमारे खेत भी कांस घास से भर गए थे जुताई बंद करने से वो अपने आप ताकतवर और पानीदार हो गए है।

कांस घास में खेती करना बहुत आसान है बीजों को सीधे या बीज गोलियां बना कर कांस घास के ढकाव में बिखरा दिया जाता है। उसे काट काटकर आड़ा तिरछा फेला दिया जाता  है।  फसलें उगकर कटे घास के ढकाव के ऊपर  आ कर सामान्य  उत्पादन देती हैं।  जैसा की नीचे चित्र में दिखाया गया है।
गेंहूँ की नरवाई के ढकाव से निकलते मूंग के नन्हे पौधे 
यह ढकाव खरपतवार नियंत्रण करता है ,फसलों के रोग को दूर करता है नमी को संरक्षित करता है और जैविक खाद बनता है। इस ढकाव के नीचे केंचुए सहित असंख्य लाभकारी जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े रहते हैं जो फसलों के सभी पोषक तत्वों की  आपूर्ति कर देते है।   जब खेत अच्छे हो जाते हैं कांस गायब हो जाती है। हमारे खेतों में जहाँ कांस  सिवाय कुछ नजर नहीं आता था वहां अब कांस का एक तिनका भी नजर नहीं आता है। जब हम ऋषि खेती के  तीसरे साल में थे जापान के ऋषि खेती के प्रणेता फुकूओकाजी हमारे खेतों में पधारे थे  हमारी खेती  को उन्होंने  नम्बर वन का खिताब दया था। उनका कहना था मै अभी अमेरिका से  आ रहा हूँ। जमीन की जुताई  के कारण अमेरिका तीन चौथाई से अधिक मरुस्थल में तब्दील हो गया है। उसकी निशानी कांस घास है। उन्हें नहीं मालूम है  कांस घास में खेती कैसे करें पर आपने वह कर दिखाया है इसलिए हम आपको नंबर वन दे रहे हैं।



Saturday, September 12, 2015

Friday, September 4, 2015

तवा कमांड मरुस्थल में तब्दील हो रहा है !

 तवा कमांड मरुस्थल में तब्दील हो गया  है !

ऋषि खेती से ठीक करें। 

हरियाली है जहाँ खुशहाली है वहां 

The One Straw Revolution (एक तिनका क्रांति )
होशंगाबाद के तवा बांध के सिंचित खेत आम आदमी की नजर में बहुत विकसित नजर आते हैं,किन्तु हकीकत यह है की इन खेतों की उर्वरकता और जलधारण  छमता खत्म हो गयी है।  इनमे रासायनिक जहरों का बहुत अधिक प्रदूषण हो गया है। पोषक तत्व नस्ट हो गए हैं। 

ये खेत अब रसायनो और बाँध के पानी पर पूरी तरह आश्रित हो गए है।  एक समय था जब इन खेतों में ७ से लेकर १२ अनाजों की कुदरती खेती होती थीअब केवल गेंहू ही ऐसी फसल है जो  हो रही है जिसमे उत्पादन हर साल घट रहा है। ये वैज्ञानिक खेती का नमूना है।

ऐसा वैज्ञानिक खेती के कारण हुआ है। जिसमे पेड़ों को काटना , गहरी जुताई ,अंधाधुन्द रसायनो का उपयोग, भारी  सिंचाई, नरवाई पुआल आदि को जलाना प्रमुख है। 

जब खेतों को मशीनो से गहरा जोता  जाता है तब बरसात का पानी जमीन में नहीं सोखा जाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेत की खाद को बहा  कर ले जाता है। इस से खेत मुरदार हो कर सूख जाते है वे मरुस्थल में तब्दील हो जाते हैं। ऐसा ही यहां हुआ है। 

हम पिछले तीस साल से बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे है जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं।  इस खेती में जमीन की जुताई नहीं की जाती है इस कारण बरसात का पूरा पानी जमीन के द्वारा सोख लिए जाता है पानी के बह  कर बाहर नहीं जाने के कारण खेतों की खाद का बहना रुक जाता है। इस से अपने आप खेत खतोड़े  और पानीदार हो गए हैं। इस से खेतों में साल भर हरियाली रहती है जिसके कारण खेत असंख्य जैवविविधताओं से भर गए है जो खेतों में पोषक तत्वों की आपूर्ति कर देते हैं।  हमारे खेतों की मिट्टी में असंख्य नत्रजन तथा अन्य पोषक तत्वों को प्रदान करने वाले सूख्स्म जीवाणु हैं जो लगातार खेतों को खतोड़ा बना  रहे हैं। 

हम खरपतवारों को मारते  नहीं है तथा पुआल और नरवाई आदि को जहां का तहाँ पड़ा रहने देते हैं जिस से खेतों को अतिरिक्त खाद मिल जाती है। जिस से हमे फसलों में बहुत अच्छा उत्पादन मिलता है। चारे के पेड़ों की हरयाली और पशु पालन  इसमें चार चाँद लगा रहे हैं।  

ऋषि खेती करने से पहले हम भी वैज्ञानिक खेती करते थे जिस से हमारे खेत मरू हो गए थे जो अब सुधर गए हैं। हमारे देश में खेती किसानी में घट रही आमदनी का मूल कारण जमीन की जमीन की जुताई है इसे बंद कर हम खेतों की खोयी ताकत बिना लागत के  से वापस ला सकते हैं। 






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