Thursday, September 18, 2014

ऋषि-खेती

ऋषि-खेती 
होशंगाबाद 
जापान मे जन्मे ,पढ़े और बढ़े तथा एक माइक्रोबायलाॅजिस्ट कृषि वैज्ञानिक के रुप मे ख्याति अर्जित करने के बाद एक कुदरति किसान के रुप मे खूब नाम कमा कर अब 95 वर्ष की उर्म मे मसनेबु फुकुओका ने अपना जीवन त्याग दिया(८अगस्त २००८)।
 फुकुओकाजी एक ऐसे कृषि वैज्ञानिक थे जिन्होने न सिर्फ आधुनिक वैज्ञानिक खेती को वरन् तमाम जुताई पर आधारित खेती करने के तरीकों को हमारे पर्यावरण ,स्वास्थ ,और खाद्य सुरक्षा के प्रतिकूल निरुपित कर दिया।
उन्होने बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना निन्दाई ,बिना दवाइयों से दुनिया भर मे सबसे अधिक उत्पादकता एवं गुणवत्ता वाली खेती की न सिर्फ खेाज की वरन् उसे लगातार पचास सालों तक स्वयं कर मौज़ूदा वैज्ञानिक खेती को कटघरे मे खड़ा कर दिया।उन्होने जापान मे उंची पहाडि़यों पर संतरों का कुदरति बगीचा बनाया जिसमे अनेक फलों के साथ साथ अनेक प्रकार की सब्जियां बिना कुछ किये मौसमी खरपतवारों की तरह पैदा होती हैं। पहाडि़यों के नीचे वे धान के खेतो मे बिना जुताई ,बिना खाद ,बिना रोपा लगाये ,बिना पानी भरे एक चैथाई एकड़ से एक टन चांवल आसानी से 50 सालों तक लेते रहे, इतना नहीं धान की खड़ी फसलों मे गेहूं के बीजों को छिटककर वे इतना गेहूं भी लेते रहे। उनके कुदरति अनाजों मे इतनी ताकत है कि इनके सेवन मात्र से केंसर भी ठीक हो जाता है।
गेंहूँ  फसल १किलो / १ वर्ग मीटर 

वे सच्चे अहिंसावादी थे। जिस समय वे एक सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक के रुप मे सूक्ष्मदर्शी यंत्रो का उपयोग कर धान के पौधों मे लगने वाली बीमारियों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्ंहे यह पता चला कि आज का विज्ञान बीमारियों की रोकथाम के लिये सूक्ष्मजीवाणुओं को दोषी मानकर उनकी अनावश्यक हत्या करता है। जबकि ये सूक्ष्मजीवाणु ही असली निर्माता हैं।उनकी बिना जुताई की कुंदरति खेती का यही आधार है।उन्होने मिटटी के एक कण को बहुत बड़ा कर देखकर यह पाया कि मिटटी अनेक सूक्ष्मजीवाणुओं का समूह है। इसे जोतने ,हांकने बखरने या ेंइसमे रासायनिक खादों को डालने ,खरपतवार नाशकों को डालने ,कीटनाशकों को छिड़कने या कीचड़ आदी मचाने से आंखों से दिखाई न देने वाले अंसख्य सूक्ष्मजीवों की हत्या होती है।यह सबसे बड़ी हिंसा है।
सन 1988 जनवरी जब वे हमारे खेतों मे पधारे थे तब उन्होने बताया था कि जमीन को बखरने से बखरी हुई बारीक उपरी सतह की मिटटी थोड़ी बरसात होने पर कीचड़ मे तब्दील हेा जाती है जो बरसात के पानी के पानी को भीतर नहीं जाने देती बरसात का पानी तेजी से बहने लगता है साथ मे बहुमूल्य उपरी सतह की मिटटी(खाद) को भी बहा ले जाता है।कृषि वैज्ञानिकों का यह कहना कि फसलें खाद खाती हैं अैार पानी पी जाती हैं यह भ्रान्ति है। जुताई के कारण होने वाले भू एवं जल क्षरण के कारण ही खेत खाद और पानी मांगते हैं।
फुकुओकी जी के 25 सालों के अनुभव की किताब ’ दि वन स्ट्रा रिवोलूशन ’ दुनिया भर मे बहुत पसदं की गई इस किताब को अनेक भाषाओं मे छापा जा रहा है। ’स्ट्रा’ से उनका तात्पर्य मूलतः नरवाई या धान के पुआल से है। दुनिया भर मे अधिकतर किसान इसे जला देते हैं या खेतों से हटा देते हैं। उनका कहना है कि यदि इसे जलाने कि अपेक्षा किसान इसे खेतों मे जहां कि तहां फैला दें तो इसके अनेक लाभ हैं। पहला नरवाई के ढकाव के नीचे असंख्य केचुए आदी जमा हो जाते हैं जो बहुत गहराई तक भूमी को पोला कर देते हैं आज तक कोई भी ऐसी मशीन नहीं बनी है जो इस काम को कर सकती है।इसके दो फायदे हैं एक तो बरसात का पानी बह कर खेतों से बाहर नहीे निकलता है दूसरे फसलों की जड़ों को पसरने मे आसानी हाती है।दूसरा यह ढकाव सड़ कर खेतों को उत्तम जरुरी जैविक अशं दे देता है। तीसरा इसमे फसलों की बीमारियों के कीड़ों के दुश्मन रहते हैं जिससे फसलें बीमार नहीं पड़ती। चैथा ढकाव की छाया के कारण खरपतवारों के बीज अंकुरित नहीं होते जिससे खरपतवारों की कोई समस्या नहीे रहती है।निन्दाई गैर जरुरी हो जाती है।
जब वे हमारे खेतों पर पधारे थे उस समय हम नेचरल फार्मिंग के मात्र तीसरे बर्ष मे थे. और अब तक ’’दि.व.स्ट्रा.रि’’. के अलावा हमारा कोई गाइड नहीं था। वह तो बरसात के दिनों मे एक अनायास प्रयोग हमसे हो गया ।हमने सोयाबीन के कुछ दानों को जमीन पर छिटकर उस पर प्याल की मल्चिगं कर दी ,मात्र 4 दिनो बाद हमने देखा कि सोयाबीन बिलकुल बखरे खेतों के माफिक उग कर प्याल के उपर निकल आई है। बस हम खुशी से फूले नहीे समाये हमे बिना जुताई कुदरति खेती करने का तरीका मिल गया था। बिना जुताई की कुदरति खेती करने से पूर्व हम अपने खेतों मे गहरी जुताई ,भारी सिंचाई ,कृषि रसायनों पर आधारित खेती का अभ्यास करते थे, जिससे हमारे खेत मरुस्थल मे और हम कंगाली की कगार तक पहुंच गये थे। हमारे खेत कांस घांस से भर गये थे,कांस घांस एक ऐसी घास है जिसकी जड़ें 25 फीट से 30 फीट तक की गहराई तक फैल जाती हैं जिस के कारण कोई भी खेती करना मुश्किल रहता है।


हमने पहले बरसात मे कांस घास को बढ़ने दिया फिर ठण्ड के मौसम मे खडी घांस मे दलहन जाती के बीजों जैसे चना ,मसूर ,मटर ,तिवड़ा ,बरसीम आदी के बीजों को छिटकर ,घास को काटकर जहां का तहां आड़ा तिरछा फैला दिया और स्प्रिंकलर से सिंचाई कर दी। ठीक हमारे प्रयोग की तरह पूरा खेत फसलों से लहलहा उठा। हालाकि हम फुकुओका विधी से अभी काफी दूर थे इसलिये उनके आगमन से काफी डरे हुए थे। किन्तु जब उन्होंने हमारे खेत मे इस विधी से खेती करते देखा तो उन्होने कहा कि मै अभी अमेरिका से आ रहा हूं ,वहां की करीब तीन चैथाई भूमी मे यह घास छा गई है ,जिसमे अब खेती नहीं की जाती है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम है कि क्या करें? यह घास जुताई के कारण पनपते रेगीस्तानों की निशानी है। चूंकि आप यहां इस घास मे कुदरति खेती कर रहे हैं इसलिये हम आपको हमारे द्वारा दुनिया भर मे चल रहे प्रयोगों मे न. वन देते हैं, किन्तु अभी आपको केवल 60 प्रतिशत ही नम्बर मिलेंगे क्योंकि अभी आपको बहुत कुछ सीखने की जरुरत है। पर यदि आप ठीक ऐसा ही करते रहे तो आप आराम से बिना कुछ किये जीवन बिता सकते हैं।
और आज हमे अपने गुरु के वे शब्द याद आते हैं हमारे खेत पूरे हरे भरे घने पेड़ों से भर गये हैं। ये खेत नहीं रहे वरन वर्षा वन बन गये हैं।इससे हमे वह सब मिल रहा है जो जरुरी है।जैसे कुदरति हवा ,जल ,ईंधन ,आहार और आराम।
गेंहूँ की  खड़ी फसल में धान को बीज गोलिया डाल रहे हैं। 
आज की दुनिया मे हम भारी कुदरति कमि मे जीवन यापन कर रहे हैं। सूखा और बाढ़ आम हो गया है। केंसर जैसी अनेक लाइलाज बीमारियां बढ़ती जा रहीे हैं। धरती पर बढ़ती गर्मी और मौसम की बेरुखी से पूरी दुनिया परेशान है। गरीबी ,बेरोजगारी मुसीबत बन गये हैं। भारत मे हजारेंा किसान आत्म हत्या करने लगे हैं लोग खेती किसानी को छोड़ भाग रहे हैं। इन सब समस्याओं के पीछे खेती मे हो रही जमीन की जुताई का प्राथमिक दोष है। जुताई के कारण हरे भरे वन ,चारागाह ,बाग बगीचे सब अनाज के खेतों मे तब्दील हो रहे हैं ,तथा खेत मरुस्थल मे तब्दील हो रहे हैं। हरियाली गायब होती जा रही है। गरीबों को जलाने का ईधन और पीने का पानी नसीब नहीं हो रहा है।
ऐसे मे बिना जुताई की कुदरति खेती के अलावा हमारे पास और कोई उपाय नहीे है। अमेरिका मे अब बिना जुताई की कनज़र्वेटिव खेती और बिना जुताई की ’आरगेनिक’ खेती जड़ जमाने लगी है। 37 प्रतिशत से अधिक किसान इस खेती को करके खेती किसानी के व्यवसाय को बचाने मे अच्छा योगदान कर रहे हैं। यह सब फुकुओका की देन है। हमारे देश मे पशुपालन आधारित खेती हजारों साल स्थाई रही किन्तु जुताई के अनावश्यक कार्य के कारण बेलों की जगह ट्रेक्टरों ने ले ली इस कारण पालतू पशु और चारा लुप्त हो रहे हैं। किसान गेहूं की नरवाई और कीमती धान के पुआल को जला देते हैं। आधुनिक बिना जुताई की खेती पिछली फसल से बची खड़ी नरवाई मे सीधे बिना जुताई की सीड ड्रिल का उपयोग कर की जाती है। बिना जुताई की ’आरगेनिक खेती’ करने के लिये किसान खड़ी नरवाई या हरे मल्च को रोलर ड्रम की सहायता से मोड़ देते हैं।फिर उसमे बिना जुताई की सीड ड्रिल से बुआई कर देते हैं। ऐसा करने से जहां 80 प्रतिशत खर्च मे कमि आती है वहीं उत्पादन और गुणवत्ता मे भी लाभ होता है। आजकल बिना जुताई की खेती करने वाले किसानों को कार्बन के्रडिट के माध्यम से अनुदान भी मुहैया कराया जाने लगा है।
फुकुओका जी से हमारी आखिरी मुलाकात सन 1999 में  सेवाग्राम मे हुई थी वे वहां वे अपने सहयोगियों की सहायता से ’सीड बाल’ बनाकर बताते हुए अपनी बात कहते जा रहे थे उन्होने बताया कि तनज़ानिया के रेगिस्तानों को हरा भरा बनाने मे ये मिटटी की गोलियां बहुत उपयोगी सिघ्द हुईं हैं। आज यदि गांधी जी होते तो वे जरुर चरखे के साथ मिटटी की बीज गोलियों से खेती करते। एक ई-ेमंेल से पता चला है कि उनके अतिंम संस्कार के समय उनके पोते ने कहा कि उनके दादा ने लोगो के मनो मे ’सीड बाल’ बोने का काम कर दिया है बस उनके अंकुरित होने का इन्तजार है।
दुनिया भर मे आज हो रही हिसां के पीछे हमारी सभ्यताओं  का बहुत बड़ा हाथ है फुुकुओका जी का कहना है कि शांति का मार्ग ’’हरियाली ’’ के पास है। वे कुदरत को ही भगवान मानते थे। वे ’अकर्म’ (डू नथिंग) के अनुयाई थे।

शालिनी एवं राजू टाईटस
बिना जुताई की कुदरति खेती के किसान
ग्राम-खेाजनपुर ,होशंगाबाद ,म.प्र. 461001
(श्री अरुण डिके जी  के अनुरोध पर पुन : प्रकाशित किया गया है
नए चित्र डाले गए हैं  )

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