जुताई ,खाद ,दवाई ,निदाई नहीं ! Zero tilage, No Chemicals , No weeding
Shalini and Raju Titus. Hoshangabad. M.P. 461001.rajuktitus@gmail.com
M-09179738049.
सन एक उत्तम कुदरती यूरिया बनाने वाली फसल है इसको किसान हरी खाद के लिए बोते हैं। वो सन को खेत में जुताई कर मिट्टी में मिला देते हैं यह बहुत गलत तरीका है इस से सन के द्वारा बनाई गई कुदरती यूरिया गैस बन कर उड़ जाती है। और सन की फसल भी नहीं मिलती है। हमारी सलाह है की इसमें सन की फसल लेना चाहिए और फसल पकने से पहले सन की खड़ी में जब नमि रहती है खड़ी फसल के बीच गेंहूं के बीजों को छिड़क देना चाहिए बाद में जब सन की फसल पक जाती है उसे काट कर गहाई करने के बाद सन का स्ट्रॉ पनपते गेंहू ऊपर फेंक देना चाहिए।
कवर क्रॉप हम सब उन वनस्पतियों को कहते है जो कुदरती अपने आप हमारे खेतों में उगती हैं।सामान्य भाषा में इन्हे कचरा कहा जाता है जिन्हे मिटाने के लिए किसान वर्षों से इन से लड़ाई कर रहा है। पर ये ख़तम होने का नाम नहीं ले रही हैंवरन और जिद्दी हो रही है
जब यह कचरा कवर बना लेता है उसके नीचे असंख्य जीव जंतु कीड़े मकोड़े सूक्ष्मजीवनु पैदा हो जाते है जो खेत को गहराई तक बखर देते हैं ,खेत को खटोडा बना देते हैं और नमि को भी संरक्षित कर लेते हैं,बीमारी के कीड़ों से फसल को बचते है ,नींदो का नियंत्रण कर लेते हैं। अंत में सड़ कर खेत को अतरिक्त जैविक खाद दे देते हैं।
यानि कचरा ट्रेक्टर ,खाद ,रासायनिक उर्वरक ,कीट /नींद नाशकों आदि सबका काम यह कचरा कर लेता है। गाजर घास इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसे कोई जानवर नहीं खाता है इसलिए इसकी सुरक्षा के लिए फेंसिंग की जरूरत नहीं रहती है दूसरा यह आज कल सब जगह मिलता है। आसानी से इसके बीजों को खेतों में छिड़क कर इसका लाभ उठाया जा सकता है। इसके बीजों को खरीदने की जरूरत नहीं है.
हम बरसात में कवर क्रॉप को पहले स्य्रक्षा प्रदान करते हैं फिर उसके ढकाव में मौसमानुसार फसल के बीजों को फेंक कर कर कवर को पांव से चलने वाले "फुट क्रिम्पर " से दबा कर हरा का हरा सुला देते हैं। हरा कवर इस प्रकार मरता नहीं है वरन हमारी फसलों के बीजों को सुरक्षित कर लेता है जो उग कर बाहर आ जाती है।
हरा कवर पुन : सीधा होने के चक्कर में तेजी से खेत से पोषक तत्व और पानी को खींचता है जो हमारी फसल को मिलता है जिस से हमे बंपर उत्पादन मिलता है। जबकि जुताई ,खाद जैविक और अजैविक जहरों के उपयोग के कारण फसलों का उत्पादन घटता जाता है।
हमे एक नेचर स्कूल की शुरुवाद करने की जरुरत है। जिसमे हम बच्चों को सबसे पहले अपनी जरुरत की खाने के अनाज ,सब्जियां और फल पैदा करना सिखाना चाहिए। जब हम राजेंद्र सिंह जी के खेत में गए वहां गाँव के बच्चे भी थे जो हमे ऋषि खेती करने सिखाने लगे जैसे हम कचरों को मोड़ने के लिए ट्रेक्टर के उपयोग की बात कर रहे थे बच्चे बोले हम तो खुद दौड़ कर यह काम कर देंगे यह बात बेहद गौर करने की है की हमारे पास बच्चों की बहुत बड़ो फौज तैयार है जिसे हम अनावशयक परंपरागत स्कूल में झोंक कर उनकी कुशलता को कुचल रहे हैं।
हमारा नेचर स्कूल दो काम एक साथ करेगा एक तो वह बच्चों की खो रही प्रतिभा का संरक्षण करेगा और उन्हें वैकल्पिक ऋषि खेती की शिक्षा, स्वास्थ से तैयार करेगा जिस से हमारे बच्चे आगे चल कर देश के लिए मैडल ला सकें।
इसके लिए जरूरी है की हमारे पास एक कुदरती खेत हो जैसा राजेंद्र सिंह जी के पास है उन्होंने तो इस काम को शुरू कर दिया है। पहले उन्होंने "सीड बाल "" बनाना सीखा अब वो अनाज सब्जियां फल आदि पैदा करना सीख रहे हैं। इन बच्चोंको राजेंद्र जी ने जैविक सेतु से जोड़ कर उन्हें दिखा दिया है की हम जहां अपने खाने के लिए कुदरती खाना पैदा कर सकते हैं वहीँ हम इस से पैसे भी कमा सकते है।
मै साहसिक शुरुवाद के लिए राजेंद्र सिंहजी और उनके परिवार को बहुत बधाई देता हूँ और वायदा करता हूँ की जब भी जैसी भी उन्हें इस काम के लिए मेरी जरूरत पड़ेगी मै हाजिर रहूंगा।
मै चाहता हूँ की हमे इन्दौर में राजेन्द्रजी के गाँव से इस योजना को शुरू मान लेना चाहिए इसके लिए यदि राजेन्द्रजी यदि सहमत हैं तो इसकी एक फॉर्मल कमेटी बना कर युद्ध स्तर पर
भूमि ढकाव की फसले जिन्हे हम नींदा या खरपतवार समझ कर चुन चुन कर निकलते और मारते रहते हैं ये असली हमारी फसलें होती हैं जो हमारे खेत को कुदरती हवा ,पानी, जैविक खाद और बीमारियों से सुरक्षित कर देती हैं।
इस ढकाव के नीचे असंख्य जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े और सूक्ष्म जीवाणु काम करने लगते हैं जो खेत को पोषक तत्वों और नमि से सरोबार कर देते हैं। इस ढकाव के कारण फसलों में बीमारियां नहीं लगती हैं। यह बात जो अधिकतर किसान और खेती के डाक्टर कहते हैं की ये फसलों का खाना खा लेती हैं गलत बात है।
इस गलत धारणा के कारण किसान इस हरियाली को वर्षों से नस्ट करते आ रहा है जुताई करने का भी यही कारण है जबकि ये जैव विविधताएं खेत को इतना अच्छा बखर देती है जितना कोई मशीन नहीं बखर सकती हैं और खेत को बहुत अच्छे से खड़ौदा बना देती हैं।
जब हमारे खेत में नमि ,खाद और छिद्रियता का काम हो जाता है फिर खेत की जुताई करने से खेत मर जाते हैं जो एक गैर जरूरी काम है। जुताई करने से बारीक बखरी बारीक मिट्टी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड़ में तब्दील हो जाती है जो पानी को खेत में जाने से रोक देती जिस से पानी तेजी से बहता है साथ में खेत की जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है इस प्रकार एक बार की जुताई से खेत की आधी जैविक खाद बह हो जाती है।
हम इस ढकाव में फसल के बीजों को सीधे या क्ले की सीड बॉल बना कर फेंक देते हैं और इस हरियाली के ढकाव को जहां का तहाँ हरा का हरा सुला देते हैं जिस से यह मरता नहीं है और हमारे बीजों को सुरक्षित कर लेता है जो उग कर इस ढकाव से बाहर निकल आते हैं। इस दौरान ढकाव की फसल का कार्यकाल पूरा हो जाता है वह सूख जाता है जो सड़ कर उत्तम जैविक खाद बना देते है।
नोट : कुछ भूमि ढकाव की फसले जिनका कार्यकाल बरसात के साथ ही खतम हो जाता है उन्हें सुलाने की भी जरूरत नहीं है जैसे गाजर घास , समेल घास आदि।वो अपने आप नीचे गिर जाती हैं।
बिना जुताई ,खाद ,रसायन और निंदाई की गेंहूं और धान की खेती सच पूछिए तो किसानो की जिंदगी में एक नया सबेरा लाने वाली है। गेंहू और चावल अब हमारे खाने में जरूरी हो गया है जो जुताई और रसायनो के कारण अब खाने लायक नहीं रहा है तथा इनके उत्पाद में अब किसानो को भारी घाटा होने लगा है इस से वे एक ओर जहाँ कर्जे में फंसते जा रहे हैं वहीं उनके खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं। इस कारण आने वाले समय में भारी खाद्य संकट दिखयी दे रहा है।
हम विगत तीस साल से भी अधिक समय से बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं जिसे जापान के विश्व विख्यात वैज्ञानिक श्री मस्नोबू फुकुओकाजी ने खोजा है। जिसे हम ऋषि खेती के नाम से बुलाते है। इस विधि से एक और किसान अपना खोया सम्मान वापस पाते हैं वहीं खाने की उत्पादकता और गुणवत्ता में जबरदस्त सुधार आता है। आज का खाना जहां कैंसर जनित है वहीं ये कैंसर को ठीक करने वाला बन जाता है। लागत और श्रम की कमी के कारण किसान लाभ में आ जाता है उसके खेत खदोड़े और पानीदार बन जाते हैं जिनमे उत्पादन बढ़ते क्रम में मिलता है।
फुकुओका जी गेंहू की खड़ी फसल में धान की सीड बाल फेंक रहे हैं।
इस खेती को करने के लिए गेंहूं की खड़ी फसल में समयपूर्व ही धान के बीजों की क्ले (कपे वाली मिट्टी ) से बनी बीज गोलियों को खेत में बिखरा दिया जाता है जो अपने मौसम में अपने आप उग जाती हैं। इसमें खेतों में जुताई करना ,कीचड मचाना , रोपे बनाना लगाने की कोई जरूरत नहीं रहती है वरन यह हानिकर रहता है। इसमें खेतों में पानी को भरने के लिए मेड बनाने की जरूरत नहीं रहती है वरन पानी की अच्छे से निकासी का प्रबंध किया जाता है जैसा गेंहूं में होता है।
धान की फसल को काटने से पूर्व करीब दो सप्ताह पहले गेंहूं की फसल के बीज सीधे खेतो में बिखरा दिए जाते हैं। उसके बाद जब गेंहूं उग आता है धान की फसल को काट लिया जाता है और धान की गहाई के उपरांत बचे पुआल को वापस उगते हुए गेंहूं पर आड़ा तिरछा फेंक दिया जाता है।
फुकुओकाजी धान की खड़ी फसल में गेंहूं के बीज सीधे फेंक रहे है।
उगते गेंहू के ऊपर पुआल
उगते धान के ऊपर नरवाई
इसी प्रकार गेंहूं की नरवाई को भी खेतों में वापस छोड़ दिया जाता है। पुआल और नरवाई गेंहूं और धान की फसल के लिए उत्तम जैविक खाद बना देते हैं जिस से उत्पादन बढ़ते क्रम में मिलता है। धान और गेंहूं के साथ एक दलहन फसल को भी बोना जरूरी रहता है जिस के कारण दाल की फसल भी मिल जाती है और गेंहूं चावल के लिए पर्याप्त कुदरती यूरिया की आपूर्ति हो जाती है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है और रहेगा इस में कोई संदेह नहीं है। विगत कुछ सालों से आयी आयातित गहरी जुताई ,रासायनिक उर्वरक ,भारी सिंचाई और मशीनों के कारण हमारे देश पर कृषि के अस्तित्व का भारी संकट आ गया है। खेत मरुस्थल में तब्दील होते जा रहे हैं और किसान खेती छोड़ रहे हैं। खेती किसानी के संकट के कारण उद्योग धंदे भी मंदी की चपेट में है। पर्यावरण नस्ट होते जा रहा है इस कारण महामारियां अपने चरम पर पहुँच रही है।
हम सब जानते हैं की हमारी खेती किसानी हमारे पशुधन से जुडी है किन्तु अब पशुओं के लिए चारे का गंभीर संकट आ गया है इस कारण पशुधन भी लुप्तप्राय होने लगा है। एक और हमारे पालनहार अनाज ,फल सब्जियां प्रदूषित हो गए हैं वहीँ अच्छा दूध ,अंडे मांस भी अब उपलब्ध नहीं है। इसलिए अब हम बड़े खाद्य संकट में फंस गए हैं।
वैज्ञानिक खेती के कारण हमारा पालनहार कार्बो आहार इतना खराब हो गया है की हर दसवा इंसान मधुमेह , मोटापे और कैंसर जैसी घातक बीमारी के चंगुल में फंसते जा रहा है। दालें जिन्हे हमारे पूर्वज बच्चे पाल कहते थे लुप्त होती जा रही हैं। उनमे भी आवशयक पोषक तत्व नदारत हैं। समस्या यह आ गयी है की आखिर हम क्या खाएं क्या नहीं खाये।
youtube- Natural Farming : Wheat under Subabul trees Raju Titus
हम विगत तीस साल से अपने पारिवारिक खेतों में टिकाऊ खेती को भारत में किसानो के करने लायक बनाने में कार्यरत है । जिसे हम ऋषि खेती (बिना जुताई की कुदरती खेती )कहते है। हमने यह पाया है की बिना जुताई करे दालों को पैदा करने में तो कोई समस्या नहीं किन्तु कार्बो फसलें जैसे गेंहूं , चावल ,मक्का ,ज्वार बाजार आदि में जबरदस्त यूरिया की मांग रहती है। जिसकी आपूर्ति हम दलहनी फसलों से कर लेते है। हर दलहनी फसल का पौधा या पेड़ जितना जमीन से ऊपर रहता है अपनी छाया के छेत्र में यूरिया की मांग की आपूर्ति कर देता है।
इसलिए हम अपने खेतों में सुबबूल के पेड़ लगाते है सुबबूल के पेड़ एक और जहां हमारी कार्बो फसलों के लिए पर्याप्त यूरिया की सप्लाई कर देते हैं तथा हमारे पशुओं के लिए चारा और जलाऊ लकड़ी का भी इंतज़ाम कर देते हैं। हमने यह पाया है की यदि हम एक एकड़ में कम से कम 100 पेड़ सुबबूल के रखते हैं तो हम इनके सहारे आसानी से कार्बो फसले ले सकते हैं तथा पशु पालन भी हम कर सकते हैं जिस से हमे दूध आदि सब मिल जाता है।
सुबबूल की यह खासियत है की यह एक साल में बिजली के खम्बे के बराबर हो जाता है और बीज फेंकने लगता है इसके बीज जमीन पर सुरक्षित पड़े रहते हैं जो बारिश आने पर उग जाते हैं। इसकी लकड़ी पेपर बनाने के भी काम में आती है। एक एकड़ से करीब 5 साल में एक किसान चार लाख रु की लकड़ी बेच सकता है इसलिए यह अनेक प्रकार से लाभ देने वाला पेड़ है।
गेंहू रबी के मौसम में बोया जाता है। इस मौसम में नींदो की कोई समस्या नहीं रहती है इसलिए जुताई करने का कोई औचित्य नहीं है। गेंहूं को हम पिछले तीस साल से अधिक समय से सीधे फेंक कर ऊगा रहे हैं जिस से एक ओर हमे उत्पादन सामान्य मिलता है और जुताई ,खाद ,दवाओं का कोई खर्च नहीं लगता है।
यदि गेंहू बिना जुताई किसी दलहन फसल के बाद बोया जाता है तो उसे कुदरती यूरिया का अतिरिक्त लाभ मिलता है। नहीं तो सीधे गेंहू को फेंकते समय साथ में एक किलो प्रति एकड़ बरसीम के बीजों को मिला देने से कुदरती यूरिया की मांग की आपूर्ति हो जाती है।
धान की फसल के बाद की गयी गेंहूं की खेती (चित्र श्री बेरवा फार्म मंडीदीप ) पैदावार दो टन प्रति एकड़
जुताई करना और रासायनिक यूरिया का उपयोग खेतों के लिए बहुत नुक्सान का है इस से एक ओर जहां आर्थिक नुक्सान होता है वहीं खेत की आधी ताकत एक बार की जुताई से नस्ट हो जाती है दूसरा रासयनिक यूरिया भी गैस बन कर उड़ जाती है बची यूरिया गेंहूं को मुर्दार बना देती है।
गेंहूं को यदि बरसाती फसल को काटने के पूर्व करीब दो सप्ताह पहले खड़ी फसल में उगाया जाता है तो काफी समय की बचत हो जाती है। गेंहूं जब खड़ी फसल के अंदर उग जाता है और फसल को काटा जाता है तो गेंहूं के नन्हे पौधे पांव से दबते हैं किन्तु उन्हें कोई नुक्सान भी नहीं होता है। सामन्य मिलती है।
इस प्रकार गेंहू की खेती करने में करीब 70 %खेती खर्च कम आता है और 50 % सिंचाई खर्च भी कम हो जाता है। जमीन की उर्वरकता का बढ़ने। फसल की गुणवत्ता से मिलने वाले लाभ अतिरिक्त है। यह गेंहूं कैंसर जैसी बीमारियों को भी ठीक करने की ताकत रखता है इसलिए ऊंची कीमतों पर माँगा जाता है।
70 % कृषि खर्च और 50 % सिंचाई खर्च कम , फसल कीमत आठ गुना अधिक
हम होशंगाबाद के तवा कमांड के छेत्र में रहते हैं। यहां पर जब सोयाबीन की फसल की शुरुवाद हुई थी किसान तन कर रहने लगा था। उसकी जेब में भरपूर पैसा रहता था। सोयाबीन एक द्विदल की तिलहनी फसल है इसमें प्रोटीन के साथ साथ पर्यात मात्रा में तेल भी रहता है। जब इसका तेल निकल लिया जाता है बचे खलचूरे में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है जो उत्तम पशुआहार के रूप में काम में आता है। तेल कम कोलेस्ट्रॉल युक्त लभप्रद होता है। सोयाबीन के खलचूरे को अनेक प्रकार के प्रोटीन युक्त व्यंजनों के लिए इस्तमाल किया जाता है। यह बच्चों और महिलाओं में कुपोषण को कम करने में बहुत उपयोगी है।
बिना जुताई की सोयाबीन (चित्र नेट से लिए है )
किन्तु दुर्भाग्य की बात है की सोयाबीन की फसल खेतों में होने वाले जुताई और यूरिया के इस्तमाल के कारण अब लुप्त प्राय : हो गई है इसके तेल के कारखाने बंद हो गए हैं। जिसके कारण अब किसान झुक कर चलने लगा है उसकी जेब खाली है ऊपर से वह भारी कर्जे में फंस गया है। इसलिए सोयाबीन की खेती को पुनर्जीवित करने का समय आ गया है। जिस से किसान फिर से अपना खोया सम्मान प्राप्त कर सके।
बिना जुताई गेंहूं की फसल (टाइटस फार्म )
हम पिछले तीस सालो से अधिक समय से बिना जुताई ,बिना खाद और रसायनो की खेती के अनुसंधान में लगे हैं जिसे हम ऋषि कहते हैं। हमने पाया है की जब खेत में बरसात में सोयाबीन को बिना जुताई करे बोया जाता है इसका बंपर उत्पादन मिलता है दूसरा यह इतना कुदरती यूरिया बना देती है जिस से अगली गेंहूं की फसल में यूरिया की कोई मांग नहीं रहती है। जुताई नहीं करने से और कृषि के तमाम अवशेषों को जहां का तहाँ डाल देने से सिंचाई की मांग में 50 % की कमी आती है जुताई और खाद के बिना खेती करने से 70 % अतिरिक्त खर्च कम हो जाता है। तीसरा उत्पादन जुताई और मानव निर्मित खाद के बिना होने के कारण आसानी से कैंसर और कुपोषण जैसी बीमारियों को ठीक काने की छमता वाले बन जाते हैं जो बाजार बहुत ऊंची कीमतों पर मांगे जाते हैं। जिसे किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं रहती है।
गाजर घास का भूमि ढकाव (चित्र राजेश जैन जी )
बिना जुताई की सोयाबीन /गेंहूं के फसल चक्र में गाजर घास जैसे कुदरती भूमि ढकाव का बहुत बड़ा योगदान है हम पहले गाजर घास को बरसात में बढ़ने देते हैं जब यह घास करीब एक डेड़ फीट का हो जाता है इसमें सोयाबीन के बीजों को सीधा या सीड बाल बना कर खेतों में एक वर्ग मीटर में 10 बीजों के हिसाब से फेंक दिया जाता है जो गाजर घास के भूमि ढकाव में जम जाते हैं। सोयाबीन आराम से गाजरघास के ढकाव में बढ़ती जाती है तो दूसरी और गाजर घास सूखने लगती है एक समय जहां गाजर घास दिख रही थी वहां सोयाबीन दिखने लगती है। गाजर घास को कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती है। वैसे तो अब हर खेत में गाजर घास होने लगी है जिस से अनावश्यक किसान डर रहे हैं किन्तु जहां नहीं होती है वहां उसके बीज छिड़के जा सकते हैं। गाजर घास की खासियत यह की यह खेत को नीचे से बिलकुल साफ़ कर देती है जहां सोया बीन आसानी से जम जाती है। फसल में कीट नाशकों और नींदा नाशको की भी जरूरत नहीं पड़ती है।
सोयाबीन की फसल काटने से करीब दो सप्ताह पहले गेंहूं के बीजों को सोयाबीन की खड़ी फसल में छिड़क दिया जाता है जब गेंहू जम जाता है सोयाबीन की फसल को काट लिया जाता है। सोयाबीन की गहाई के उपरान्त सोयाबीन के भूसे को भी वापस खेतों पर जहां का तहाँ फेंक दिया जाता है। इसी प्रकार गेंहूं की नरवाई भी खेतो में ही रहने दिया जाता है। कृषि अवशेषों को लगातार वापस डालते रहने से उत्पादन भी लगातार बढ़ते जाता है। खेत ताकतवर होते जाते हैं।