ऋषि खेती
ऋषि खेत एक ओर जहाँ भरपूर कुदरती आहार, ईंधन,आमदनी का स्रोत है ये बरसात के पानी को बहने नहीं देते हैं उसे जहाँ का तहां सोख लेते हैं जिस से हमारे कुए साल भर लबा लब रहते हैं। ऐसा खेतों में रहने वाली अनेक जैव-विविधताओं जैसे केंचुए,चूहों आदि के घरों के कारण होता है जबकि जुताई वाले खेतों में इसके विपरीत पानी को सोखने वाले मुहाने बारीक बखरी मिट्टी से बंद हो जाते हैं बरसात का पानी जमीन में ना जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है खेत भूके और प्यासे रहते हैं उनकी खाद और पानी की मांग बढती जाती है उत्पादन ओर गुणवत्ता घटते क्रम में रहता है।
ऋषि खेती से मिलने वाला आहार, हवा और पानी दवाई का काम करता बड़ी से बड़ी बीमारी इस से ठीक हो जाती है। इस लिए ऋषि खेती उत्पाद ऊँची कीमतों पर मांगे जाते हैं। जबकि इस के विपरीत जुताई ,खाद ओर दवाओं के बल पर बेस्वाद और जहरीले उत्पाद मिलते हैं जिस से बीमारियाँ पनप रही हैं जिनकी कीमत लागत की तुलना में बहुत कम होने से किसानो को घाटा होता है।
असल में हमारे देश में पर्यावरण और खेती की योजना एक दुसरे के विपरीत है। इस लिए गांवों का विकास नहीं हो रहा है। पर्यावरण विभाग पेड़ लगाने की सलाह देता है तो कृषि विभाग उन्हें कटवा देता है। ऐसा छाया के डर के कारण होता है। किन्तु ऋषि खेती में ठीक इस के विपरीत पेड़ों की हलकी छाया में फसलें अच्छी पनपती हैं।
जुताई करने से खेत कमजोर हो जाते हैं। उनमे कमजोर फसल पनपती है। थोड़ी भी रोशनी कम होने से फसल पैदा नहीं होती है।
असल में खेती के वैज्ञानिक केवल जमीन के ऊपर ऊपर ही देखते हैं जबकि फसलों की खाद और पानी की आपूर्ति जमीन के नीचे से होती है। जितनी अधिक जमीन में गहराई तक और घना जड़ों का जाल होगा जमीन उतनी अधिक उपजाऊ और पानीदार होगी उसमे उतना अधिक उत्पादन मिलता है।
ऋषि खेती में खरपतवारों का विशेष महत्व रहता है। हम इन्हें भूमि घकाव की फसल कहते हैं। हरे भूमि ढकाव के कारण असंख्य जमीन में रहने वाले जीव जंतु,कीड़े मकोड़े और सूख्स्म जीवाणु तेजी से पनपते हैं जिनके जीवन चक्र और मल मूत्र से खेतों में पोषक तत्वों और नमी का संचार होता है। हर पेड़ की छाया के छेत्र में रहने वाली वानस्पतिक और जैव-विवधताओं का बहुत महत्त्व रहता है ये पेड़ की हर प्रकार से सहायता करती हैं। खाद,पानी ,बीमारियों की रोकथाम सब कुछ इनसे मिलता है। गेर कुदरती खेती में यह धारणा रहती है की मूल फसल या पेड़ के पास जितने अन्य पौधे रहते है वे खाना चुरा लेते हैं इस लिए इन्हें खरपतवार या नींदा कहा जाता है और मारा या निकाला जाता है।ये धारणा गलत है । जेवविविध्ताओं की कमी और पर्यावरण विनाश के पीछे गेर-कुदरती खेती का बहुत बड़ा हाथ है।
ऋषि खेती सब से पहले दिमाग से शुरू होती जब भी कोई ऋषि खेती करना चाहता है उसे सब से पहले ये समझने की जरुरत रहती है की तमाम खेती-किसानी में किये जा रहे गेर कुदरती काम जमीन के लिए हानि कारक है। उन्हें छोड़ भर देने से जमीन का सुधार होने लगता है। कुदरत कभी भी अपनी जमीन को खाली नहीं रहने देती है। उसे वह हरियाली से ढँक देती है जिसमे में असंख्य जीवजन्तु कीड़े मकोड़े काम करने लगते हैं इस से फसलोत्पादन के लिए जमीन तयार हो जाती है। इस ढकाव में फसलों के बीजों को छिड़ककर हरे ढकाव को जहाँ का तहां सुला दिया जाता है जिस से बीज सुरक्षित हो जाते हैं वे अंकुरित हो जाते हैं जड़ें जमीन में चली जाती हैं और पत्तियां ढकाव से ऊपर निकल आती है। जैसा जंगलों में होता है।
जुताई नहीं करने से भूमि,जल और जैव-विविधताओं का छरन रुकने से खेत ताकतवर हो जाते हैं। उनमे ताकतवर फसलें पैदा होती हैं। जिनमे रोगों का कोई प्रकोप नहीं रहता है। कुदरती आहार को खाने से बड़े से बड़े रोग जैसे केंसर भी ठीक हो जाते है। जबकि जुताई और रसायनों से की जाने वाली खेती के कारण खेत हर मोसम कमजोर होते जाते हैं। कमजोर खेतों में कमजोर फसलें पैदा होती हैं जिनमे कीड़े लगते हैं जिन्हें मारने के लिए अनेक प्रकार के जहर डाले जाते हैं। जिन से फसलें जहरीली हो जाती हैं जिन्हें खाने से बीमारियाँ पनपती हैं। महिलाओं में खून की कमी, नवजात बच्चों की मौत ,केंसर आदि बीमारियों का यही मूल कारण है।
एक कहावत है "हरियाली है जहा खुशहाली है वहां " गेर-कुदरती खेती में कोई भी किसान हरयाली के देवता पेड़ों को अपने खेतो में होने नहीं देते है। इस लिए धरती मां नग्न हो गयी हैं। सभी हरे भरे वन ,बाग़-बगीचे ,चारागाह अब जुताई और रसायनों के खेतों में तब्दील हो रहे हैं इस लिए मोसम परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्याएँ पनप रही हैं।
एक और कहावत है की "जैसा खाएं अन्न वैसा होय मन जुताई और रसायनों के कारण कमजोर और जहरीली फसलें अब हमारी थाली में दिन प्रति दिन बढती जा रही हैं। जिस से हमारे खून में जहर घुलने लगा है। सब से बड़ी समस्या दूध पिलाने वाली माताओं की है उनके दूध से जहर बच्चों में पहुँचने लगा है। इस कारण नवजात बच्चों में केंसर और अपंगता पनप रही है। जहरीला भोजन ,हवा और पानी के कारन अनेक प्रकार के समाज में दुष्कर्म देखें जा रहे है। समाज में हिंसा चरम सीमा पर है। सबसे गंभीर समस्या जाती ,धर्म, छेत्रियता के कारण पनप रही लडाइयों की है। परिवारों में आपसी प्रेम घटने लगा है।
असली भारत गांवों में बसता है पर्यावरणीय ,आत्म निर्भर खेती-किसानी उनकी आजीविका का साधन है। किन्तु जमीन की जुताई और रसायनों से होने वाली गेर कुदरती खेती के कारण अब आत्म निर्भरता ख़तम हो रही है। इस लिए गांवों का विकास रुक गया है। इस कारण गांवों से शहरों की ओर पलायन और तेज हो गया है। शहरों का भी विकास थम गया है। इस लिए जब तक खेती-किसानी आत्म निर्भर नहीं होती न तो गांवों का कोई विकास होगा और न ही शहरों के उधोगों का , लगातार वर्षों से चल रही आर्थिक मंदी इस बात का गवाह है।
ऋषि-खेती शत-प्रतिशत आत्म निर्भर खेती है सभी साधू संतों ,मोलवी , पादरियों ,शिक्षाविदों ,वैज्ञानिको, पूँजी-पतियों और राज नेताओं को इस पर ध्यान देने की जरुरत है। विकास की सम्पूर्ण अवधारणा को धरती से जोड़ने की जरुरत है। जब ही हम अपनी थाली से जहर हटा सकते हैं और असली स्थाई विकास को प्राप्त कर सकते है।
शालिनी एवं राजू टाइटस
Raju Titus.Natural farm.Hoshangabad. M.P. 461001.
rajuktitus@gmail.com. +919179738049.
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नेचरल फार्मिंग
पर्या -मित्र स्थाई ग्राम विकास योजना
थाली में जहर
हमारे इन ऋषि खेतों पर निगाह डालें। हरे भरे सुबबूल के पेडों के साथ साथ गेंहूं की फसल पक रही है। इन खेतों को पिछले 27 सालों से जोता नहीं गया है ना ही इस में कोई भी मानव निर्मित खाद और दवा का उपयोग किया गया है। इन खेतों से हमारे इलाके के सब से अधिक आधुनिक खेती के उत्पादक खेतों के बराबर उत्पादन मिलता है, जहाँ अनेक बार खेतों को ट्रेक्टर से जोता और बखरा जाता है, अनेक प्रकार की खाद और दवा का उपयोग किया जाता है।
सुबबूल के पेड़ एक ओर जहाँ गेंहू की फसल के लिए भरपूर नत्रजन देने का काम करते हैं, वहीं ये दुधारू पशु के लिए उत्तम चारा और जलाऊ लकड़ी देने का काम करते हैं। गोबर से बायो गेस ओर जैविक खाद मिलती है। सुबबूल के पेड़ों के साथ साथ अनेक फलों के पेड़ जैसे आम, अमरुद ,नीबू ,सीताफल ,कबीट ,इमली,बेल आदि भी यहाँ खूब पनप रहे हैं। अनेक प्रकार की सब्जियां जैसे आलू, टमाटर,बेंगन ,हरी भाजियां,मिर्च आदि भी यहाँ से मिल जाती है। अनेक प्रकार के जंगली जानवर जैसे मोर,बाज,उल्लू, सांप यहाँ दोस्तों की तरह रहते हैं। इनके रहने से हमारी फसलों पर कीड़ों ,चूहों आदि का कोई प्रकोप नहीं रहता है।ऋषि खेत एक ओर जहाँ भरपूर कुदरती आहार, ईंधन,आमदनी का स्रोत है ये बरसात के पानी को बहने नहीं देते हैं उसे जहाँ का तहां सोख लेते हैं जिस से हमारे कुए साल भर लबा लब रहते हैं। ऐसा खेतों में रहने वाली अनेक जैव-विविधताओं जैसे केंचुए,चूहों आदि के घरों के कारण होता है जबकि जुताई वाले खेतों में इसके विपरीत पानी को सोखने वाले मुहाने बारीक बखरी मिट्टी से बंद हो जाते हैं बरसात का पानी जमीन में ना जाकर तेजी से बहता है वह अपने साथ जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है खेत भूके और प्यासे रहते हैं उनकी खाद और पानी की मांग बढती जाती है उत्पादन ओर गुणवत्ता घटते क्रम में रहता है।
ऋषि खेती से मिलने वाला आहार, हवा और पानी दवाई का काम करता बड़ी से बड़ी बीमारी इस से ठीक हो जाती है। इस लिए ऋषि खेती उत्पाद ऊँची कीमतों पर मांगे जाते हैं। जबकि इस के विपरीत जुताई ,खाद ओर दवाओं के बल पर बेस्वाद और जहरीले उत्पाद मिलते हैं जिस से बीमारियाँ पनप रही हैं जिनकी कीमत लागत की तुलना में बहुत कम होने से किसानो को घाटा होता है।
असल में हमारे देश में पर्यावरण और खेती की योजना एक दुसरे के विपरीत है। इस लिए गांवों का विकास नहीं हो रहा है। पर्यावरण विभाग पेड़ लगाने की सलाह देता है तो कृषि विभाग उन्हें कटवा देता है। ऐसा छाया के डर के कारण होता है। किन्तु ऋषि खेती में ठीक इस के विपरीत पेड़ों की हलकी छाया में फसलें अच्छी पनपती हैं।
जुताई करने से खेत कमजोर हो जाते हैं। उनमे कमजोर फसल पनपती है। थोड़ी भी रोशनी कम होने से फसल पैदा नहीं होती है।
असल में खेती के वैज्ञानिक केवल जमीन के ऊपर ऊपर ही देखते हैं जबकि फसलों की खाद और पानी की आपूर्ति जमीन के नीचे से होती है। जितनी अधिक जमीन में गहराई तक और घना जड़ों का जाल होगा जमीन उतनी अधिक उपजाऊ और पानीदार होगी उसमे उतना अधिक उत्पादन मिलता है।
ऋषि खेती में खरपतवारों का विशेष महत्व रहता है। हम इन्हें भूमि घकाव की फसल कहते हैं। हरे भूमि ढकाव के कारण असंख्य जमीन में रहने वाले जीव जंतु,कीड़े मकोड़े और सूख्स्म जीवाणु तेजी से पनपते हैं जिनके जीवन चक्र और मल मूत्र से खेतों में पोषक तत्वों और नमी का संचार होता है। हर पेड़ की छाया के छेत्र में रहने वाली वानस्पतिक और जैव-विवधताओं का बहुत महत्त्व रहता है ये पेड़ की हर प्रकार से सहायता करती हैं। खाद,पानी ,बीमारियों की रोकथाम सब कुछ इनसे मिलता है। गेर कुदरती खेती में यह धारणा रहती है की मूल फसल या पेड़ के पास जितने अन्य पौधे रहते है वे खाना चुरा लेते हैं इस लिए इन्हें खरपतवार या नींदा कहा जाता है और मारा या निकाला जाता है।ये धारणा गलत है । जेवविविध्ताओं की कमी और पर्यावरण विनाश के पीछे गेर-कुदरती खेती का बहुत बड़ा हाथ है।
ऋषि खेती सब से पहले दिमाग से शुरू होती जब भी कोई ऋषि खेती करना चाहता है उसे सब से पहले ये समझने की जरुरत रहती है की तमाम खेती-किसानी में किये जा रहे गेर कुदरती काम जमीन के लिए हानि कारक है। उन्हें छोड़ भर देने से जमीन का सुधार होने लगता है। कुदरत कभी भी अपनी जमीन को खाली नहीं रहने देती है। उसे वह हरियाली से ढँक देती है जिसमे में असंख्य जीवजन्तु कीड़े मकोड़े काम करने लगते हैं इस से फसलोत्पादन के लिए जमीन तयार हो जाती है। इस ढकाव में फसलों के बीजों को छिड़ककर हरे ढकाव को जहाँ का तहां सुला दिया जाता है जिस से बीज सुरक्षित हो जाते हैं वे अंकुरित हो जाते हैं जड़ें जमीन में चली जाती हैं और पत्तियां ढकाव से ऊपर निकल आती है। जैसा जंगलों में होता है।
जुताई नहीं करने से भूमि,जल और जैव-विविधताओं का छरन रुकने से खेत ताकतवर हो जाते हैं। उनमे ताकतवर फसलें पैदा होती हैं। जिनमे रोगों का कोई प्रकोप नहीं रहता है। कुदरती आहार को खाने से बड़े से बड़े रोग जैसे केंसर भी ठीक हो जाते है। जबकि जुताई और रसायनों से की जाने वाली खेती के कारण खेत हर मोसम कमजोर होते जाते हैं। कमजोर खेतों में कमजोर फसलें पैदा होती हैं जिनमे कीड़े लगते हैं जिन्हें मारने के लिए अनेक प्रकार के जहर डाले जाते हैं। जिन से फसलें जहरीली हो जाती हैं जिन्हें खाने से बीमारियाँ पनपती हैं। महिलाओं में खून की कमी, नवजात बच्चों की मौत ,केंसर आदि बीमारियों का यही मूल कारण है।
एक कहावत है "हरियाली है जहा खुशहाली है वहां " गेर-कुदरती खेती में कोई भी किसान हरयाली के देवता पेड़ों को अपने खेतो में होने नहीं देते है। इस लिए धरती मां नग्न हो गयी हैं। सभी हरे भरे वन ,बाग़-बगीचे ,चारागाह अब जुताई और रसायनों के खेतों में तब्दील हो रहे हैं इस लिए मोसम परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्याएँ पनप रही हैं।
एक और कहावत है की "जैसा खाएं अन्न वैसा होय मन जुताई और रसायनों के कारण कमजोर और जहरीली फसलें अब हमारी थाली में दिन प्रति दिन बढती जा रही हैं। जिस से हमारे खून में जहर घुलने लगा है। सब से बड़ी समस्या दूध पिलाने वाली माताओं की है उनके दूध से जहर बच्चों में पहुँचने लगा है। इस कारण नवजात बच्चों में केंसर और अपंगता पनप रही है। जहरीला भोजन ,हवा और पानी के कारन अनेक प्रकार के समाज में दुष्कर्म देखें जा रहे है। समाज में हिंसा चरम सीमा पर है। सबसे गंभीर समस्या जाती ,धर्म, छेत्रियता के कारण पनप रही लडाइयों की है। परिवारों में आपसी प्रेम घटने लगा है।
असली भारत गांवों में बसता है पर्यावरणीय ,आत्म निर्भर खेती-किसानी उनकी आजीविका का साधन है। किन्तु जमीन की जुताई और रसायनों से होने वाली गेर कुदरती खेती के कारण अब आत्म निर्भरता ख़तम हो रही है। इस लिए गांवों का विकास रुक गया है। इस कारण गांवों से शहरों की ओर पलायन और तेज हो गया है। शहरों का भी विकास थम गया है। इस लिए जब तक खेती-किसानी आत्म निर्भर नहीं होती न तो गांवों का कोई विकास होगा और न ही शहरों के उधोगों का , लगातार वर्षों से चल रही आर्थिक मंदी इस बात का गवाह है।
ऋषि-खेती शत-प्रतिशत आत्म निर्भर खेती है सभी साधू संतों ,मोलवी , पादरियों ,शिक्षाविदों ,वैज्ञानिको, पूँजी-पतियों और राज नेताओं को इस पर ध्यान देने की जरुरत है। विकास की सम्पूर्ण अवधारणा को धरती से जोड़ने की जरुरत है। जब ही हम अपनी थाली से जहर हटा सकते हैं और असली स्थाई विकास को प्राप्त कर सकते है।
शालिनी एवं राजू टाइटस
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1 comment:
Sir,
Great & informative article.
keep publishing.
Thank you very much.
Regards,
Hetal
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