Monday, August 27, 2018

धान गेंहूं की असिंचित जंगली खेती

धान गेंहूं की असिंचित जंगली खेत

जुताई ,खाद ,सिंचाई नहीं  


बरसाती हरा भूमि ढकाव 
ब हम जुताई नहीं करते हैं हमारे खेत अपने आप असंख्य भूमि ढकाव की फसलों से ढँक जाते हैं जिन्हे हम खरपतवार समझ कर जुताई कर मार देते हैं। जबकि भूमि ढकाव की फसलें  जहां  बरसात के पानी को सहजने का काम करती हैं वरन ठण्ड की फसलों के लिए पर्याप्त नमि को भी  बचा कर रखती हैं।
गेंहू के बीज 

अल्फ़ा अल्फ़ा के बीज 
 भूमि ढकाव में हम बरसात के अंत में जब ये फसलें पूरी तरह बढ़ जाती हैं  उसमे 2 से 4  किलो प्रति एकड़ की दर  से अल्फ़ा अल्फ़ा जो रिजका या लूसर्न के नाम से भी जाना जाता है  बाजार में पशु चारे के लिए बोया जाता है के बीजों को छिड़क देते हैं। उसके बाद गेंहू के बीजों को भी छिड़क देते हैं। जो बरसाती नमि को पाकर उग आते हैं।

धान की बीज गोलियां 
धीरे धीर बरसाती भूमि ढकाव की फसल सूख कर नीचे बैठ जाती है और इसकी जगह अल्फ़ाअल्फ़ा और गेंहू ले लेता है। जिस से बरसाती नमि का संरक्षण हो जाता है। इसके बाद इसी समय  हम धान के बीजों की क्ले मिट्टी (कपा ,कीचड़ ) से बीज गोलियां बना कर जब गेंहू बढ़ जाता है उसके बीच बिखेर देते हैं। गेंहू के पकने के बाद गेंहु को आधा ऊपर से काट लिया जाता है है के बाद उसके भूसे को भी खेत में बिखरा दिया जाता है। अल्फ़ा अल्फ़ा भी पकने के बाद अपने बीज खेतों में बिखेर हैं।

धान ऊपर नीचे अल्फ़ा अल्फ़ा और अन्य हरा कवर (फोटो फुकुओका फ़ार्म )
जब बरसात आती है तो धान ,हरी भूमि ढकाव की घास  अल्फ़ा अल्फ़ा उग आते हैं धान सबसे तेज ऊपर चलती है किसी भी प्रकार का आपस में टकराव नहीं होता है जब धान बड़ी हो जाती है बरसात खतम हो जाती है यह चक्र दोबारा चल जाता है जिसमे हमे धान भी मिलने लगती है।


Tuesday, August 21, 2018

ग्राउंड कवर क्रॉप (भूमि ढकाव की फसल )



पवार के कवर में गेंहू की जंगली खेती 


ने पेड़ों का  जंगल एक ग्राउंड कवर है .यह धरती का पोषण करता है जिस से उस में  रहने वाली तमाम जेव्-विविधताएँ मानव सहित का पोषण होता है .किन्तु पिछले अनेक सालों से हमने इन कुदरती भूमि ढकाव के साधनों को नस्ट कर उन्हें अनाज के खेतों में बदल दिया है जिस से सभी जैव -विविधताओं के लिए कुदरती आहार ,जल और हवा का संकट खड़ा हो गया है .
जहाँ घने जंगल हुआ करते थे वहां अब मरुस्थल बन गये है .बरसात नही हो रही है ,खाने को आहार नही है ,पशुओं के लिए चारा नही है .तमाम वैज्ञानिक उपाय यहाँ फैल हैं .इसलिए अब जंगलों की और लोटने का सिल सिला चालू हो रहा है .
जंगली खेती जो विश्व में नेचरल फार्मिंग के नाम से जानी जाती है जिसकी खोज जापान के जग प्रसिद्ध क्रषि वैज्ञानिक स्व. मस्नोबू फुकुकाजी ने की है की जाने लगी है .
इस खेती में जुताई ,खाद और जहरों का उपयोग नही किया जाता है. जंगलों की तरह पेड़ों ,झाड़ियों .और भूमि ढकाव की वनस्पतियों को बचाया जाता है .जिस से हरियाली बनी रहती है बरसात होती रहती है और भूमि के अंदर तालाब बन जाते हैं . गहरी जड़ वाले पेड़ पौधे बरसात के जल को  जमीन में ले जाते हैं और जब बरसात नही होती है तो नीचे  से पानी खींच कर ऊपर कुदरती सिंचाई  का काम करते हैं

जब हम जुताई वाली जमीन को जंगली खेती में बदलने का काम करते हैं तब हमारे खेत असंख्य घास ,क्लोवर ,अल्फ़ाअल्फ़ा ,पवार,ढेंचा ,सुबबूल  जैसी कुदरती वन्सपतियों से धक जाते हैं .जिन्हें  हम खरपतवार कहते हैं ये वनस्पतियाँ भी घने जंगलों की तरह बरसात को लाने ,जल प्रबंधन  करने का काम करते हैं

.हम इन वनस्पतियों को बचाते हुए आपने काम  की फसलें इनके सहारे उगा कर अपनी रोटी पैदा कर लेते हैं अनेक आदिवासी अंचलों में आदिवासी लोग इसी प्रकार हजारों सालों से अपनी आजीविका  चला रहे हैं. वे एक और जंगलों को बचाते हैं और अपनी रोटी भी पैदा करते हैं .

अब मान लीजिए पहले साल से हमारे खेतों में पवार का
ने एक ग्राउंड कवर बना कर रखा है तो हम आसानी से इसके ढकाव  में गेंहू की फसल ले सकते हैं.

यह कवर जमीन की गहरे तक जुताई कर देता है ,सभी अन्य वनस्पतियों जिन्हें हम खरपतवार कहते है का नियंत्रण कर देता है इसके नीचे असंख्य जमीन को पोषक तत्व  प्रदान करने वाले जीवजन्तु ,सूख्श्म जीवाणु रहते हैं यह नमी को संरक्षित रखता है .इसके अवशेष जैविक खाद देते हैं .

इसके ढकाव में बरसात के बाद गेंहू के बीजों को सीधा नंगा ही छिडक देने से गेंहू की फसल पक  जाती है एक एकड़ में 40 किलो बीज की जरूरत है .गेंहू के बीजों को पवार की फसल पकने के करीब 25 दिन पहले डालना चाहिए जब गेंहू को उगने के लिए पर्याप्त नमी रहती है .

इसके बाद पवार की जब फलियाँ पकने लगती है उन्हें काट लिया जाता है  उसके बीज अलग कर लिए जाते हैं जो अनेक काम में आते हैं .कुछ बीजों को कवर क्रोप के लिए खेत में ही छोड़ दिया जाता है .

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Wednesday, August 8, 2018

जंगली खेती धान -गेंहू -मूंग चक्र

जंगली खेती 

धान -गेंहू -मूंग चक्र

जुताई नहीं ,खाद नहीं ,जहर नहीं , जल भराव नहीं ,रोपा नहीं  

विश्व प्रसिद्ध जापान के कृषि वैज्ञानिक मसानोबू फुकुओका की विधि का टाइटस नेचरल फार्म होशंगाबाद में भारतीयकरण। 31 साल का अनुभव। 

धुनिक वैज्ञानिक खेती में आज कल यह चक्र बहुत प्रचलित है किन्तु इसमें जुताई ,खाद ,जहरों ,रोपाई ,निंदाई ने किसानो की कमर तोड़ दी है। इस से खेत मरुस्थल और आहार जहरीला हो रहा है। इसे आसानी से जंगली खेती में बदला जा सकता है जिसमे जुताई ,खाद ,जहर ,रोपाई ,निंदाई की जरूरत नहीं है सिंचाई भी धीरे धीरे बंद हो जाती है।

धान को हार्वेस्टर से काटने के बाद सीधे गेंहूं के बीज बिखरा दिए जाते हैं साथ में 2 किलो प्रति एकड़ के हिसाब से रिजका (अल्फ़ा अल्फ़ा ) के बीज भी बिखरा दिए जाते हैं। ऊपर से धान का पुआल आड़ा  तिरछा फैला दिया जाता है। सिंचाई कर दी जाती है।
धान के पुआल में से गेंहू निकल रहा है। 
गेंहू की फसल में धान की बीज गोलियां
डाली जा रही हैं। 


गेंहू की नरवाई में से निकलती मुंग की फसल 
गेंहू उग कर ऊपर आ जाता है रिजका भी उग जाता है रिजका एक तो नत्रजन देने का काम करता है साथ में यह घासों को रोक देता है नमि को भी संरक्षित करता है। उत्पादन भी सामान्य मिलता है।
 जब गेंहू में बालें निकल आती हैं उसमे धान के बीजों की बीज गोलियां बना कर डाल  दिया जाता है जो वहां सुप्त अवस्था में सुरक्षित पड़ी रहती हैं। इसी समय यहां मुंग के बीजों को भी सीधा बिखरा दिया जाता है। गेंहू को हार्वेस्टर से काटने के बाद नरवाई को पेठा चला कर वहीं सुला दिया जाता है। इसके बाद सिंचाई कर दी जाती है। जिस से मुंग उग  आती है रिजका वहां घासों को रोकने के लिए हाजिर रहता है।
रिजका के साथ धान की फसल 

धान की खड़ी फसल में गेंहू बोया जा रहा है 

जब मुंग की हार्वेस्टिंग हो जाती है उस समय धान भी उग आती है साथ में रिजका वहां घास रोकने और  धान के लिए नत्रजन देने के लिए हाजिर रहता है। मुंग के टाटरे  को भी उगती धान के ऊपर  फेंक दिया जाता है। जब धान में बाली  निकल आती हैं तब उसमे गेंहू और रिजका के बीज भी पुन : डाल  दिए जाते हैं। यह चक्र साल दर साल चलता रहता है। इसमें बीच बीच में पेड़/सब्जियां  भी लगा  सकते हैं।

Saturday, July 14, 2018

रासायनिक खेतों को जंगली खेत में बदलना

जन्तर (ढ़ेंचे ) का उपयोग करके रासायनिक खेत को 
जंगली खेत में बदलें

मारे खेतों को वैज्ञानिकों की अज्ञानता के कारण हरित क्रांति बनाम मरुस्थलीकरण कर बर्बाद कर दिया है। खेत रेगिस्थान में बदल गए हैं ,भूमिगत जल १००० फीट पर भी नही मिल रहा है रासायनिक जहरों के कारण हर तीसरे आदमी को केंसर का खतरा बन गया है। हर रोज किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हर किसान गले तक कर्ज में फंसा है।


किन्तु अब घबराने की जरूरत नही है जन्तर जिसे ढेंचा कहा जाता है बिना जुताई की जंगली खेती (फुकुओका विधि ) के माध्यम से एक साल में ठीक करने का वायदा कर रहा है। जन्तर सामान्यतय हरी खाद के नाम से जाना जाता है। इसे जब हम बरसात के मोसम में खेतों में बिना जुताई करे छिड़क देते हैं यह तेजी से उग कर पूरे खेत को धक् लेता है जो जुताई के कारण पैदा होने वाली कठोर घासों को भी मार देता है ,खेत को अपनी गहरी जड़ों के मध्यम से भीतर तक जुताई कर देता है जो काम मशीन नही कर  सकती है. दूसरा यह अपनी जड़ों के माध्यम से कुदरती यूरिया का संचार कर देता है जो गेंहूँ और धान के लिए जरुरी है।

बरसात में मात्र  कुछ दिनों में ४-5 फीट का हो जाता है इसकी छाँव में  धान की बीज गोलियोंको फेंक दिया जाता है जब वो उगने लगती हैं जन्तर को मोड़ कर सुला दिया जाता है या काट कर वहीं फेला दिया जाता है।  धान उग कर बाहर निकल आती है। जिस में पानी भर कर रखने की कोई जरूरत  नही है।

उपरोक्त विडियो में जुताई करना बताया है और रसायनों का इस्तमाल बताया है जो गलत है .ढेंचा सीधे फेंकने से बरसात में उग आता है .इसे जुताई खाद की कोई जरूरत नही है .
दूसरा जन्तर की फसल ली जाती है जिसका बीज इन दिनों बहुत मांग में है। इसको हार्वेस्ट करने से पूर्व ठण्ड के मोसम में इसकी छाँव  में सीधे गेंहू के बीज छिड़क कर उगा लिया जाता है बाद में जन्तर को काटकर गहाई  करने के उपरांत समस्त अवशेषों  को उगते गेंहू पर फेला दिया जाता है दिया जाता है जिस से गेंहू की फसल तैयार हो जाती


जब गेंहू की फसल कटने वाली होती है इस खड़ी फसल में धान की बीज गोलियों  को डाल दिया जाता है जो बरसात में अपने मोसम में उग आती है। सभी अवशेषों को जैसे धान की पुआल या गेंहू की नरवाई को खेतों में जहाँ से लिया जाता है वहीं  वापस डाल दिया जाता.
राजू टाइटस
9179738049, wa 7470402776


Tuesday, July 10, 2018

अफ्रीका के दस हजार एकड़ में होगी जंगली खेती

आयातित वैज्ञानिक खेती ने भारत को ही नही पूरी दुनिया को मरुस्थल बनाया है। 

फुकुओका जंगली खेती वाट्स एप ग्रुप के अरविन्द भाई अब अफ्रीका में उनके दस हजार एकड़ को सुधारने जा रहे हैं। 
बहुत बधाई और शुभ कामना 

रविन्द जी गुजरात के रहने वाले हैं अफ्रीका में गन्ना और शुगर मिल के मालिक हैं। उनके पास अफ्रीका में दस हजार एकड़ के खेत हैं।  फुकुओका जंगली खेती के जागरूक मित्र हैं। बहुत दिनों से वे खेती विषय में जानकारी इकठा कर रहे थे वो भारत से खेती की सभी विधियों  पर निगाह रखे थे।  बता रहे थे की सभी विधियों में उन्हें जंगली खेती आसान और टिकाऊ लगी है। उन्हें पूरा भरोसा है की यदि भारत में बिना जुताई की खेती होने लगे तो किसानो की और हमारे पर्यावरण की समस्या का अंत हो सकता है।


१९९९ में फुकुओका जी जापान से  सेवाग्राम में पधारे थे बता रहे थे की अनेक विदेशियों ने अफ्रीका में जंगलों को काट कर बेच दिया  था और वैज्ञानिक खेती की थी जिस से बहुत बड़ा इलाका मरुस्थल में तब्दील हो गया है वहां अनेक लोग वर्षों से खेती और ग्रामविकास की योजना चला रहे हैं किन्तु कोई लाभ नही मिल रहा है। इसलिए वे भी बहुत दूर के इलाके में चले गए  जहाँ  पहले कोई नही पहुंचा था।  वहां बारिश नही हो रही थी लोगों और पशुओं को खाने को नही था वहां उन्होंने किसानो को सीड बाल बनाना सिखाया वहां दीमक की मिटटी मिलती थी उस से बड़े मजबूत सीड बाल बनते थे। बच्चे बच्चे सीड बाल  बनाकर गुलेल से सीड बाल फेंकना सीख गए थे.

जब पांच  साल बाद फुकुओका जी वहां गए तो देख कर अचंभित हो गए। मरुस्थल हरियाली में बदल गया था। बारिश होने लगी थी भुखमरी सब ख़तम हो गई थी।  और सभी लोग  सीड बनाकर फेंक कर पर जंगली  कर रहे थे।  सभी के जीवन खुश हाली से भर गए थे। हमसे कह रहे थे की आज अमेरिका ,जापान जैसे देश भले आपने को विकसित बताते हैं किन्तु वे हमसे भी गरीब हैं क्योंकि उनके पास जंगल नही है।

हम जंगली खेती ग्रुप की ओर से उन्हें शुभकामना देते हैं  और बधाई देते हैं।



Thursday, June 28, 2018

असिंचित धान की जंगली खेती

दाल भात का जंगल 

सुबबूल पेड़ों के साथ 

धान की खेती के लिए सामान्यत: किसान पहले खेतों को समतल बना कर किनारों पर पानी को रोकने के लिए मेढ़ बनाते हैं फिर गहरी जुताई करके पानी भरा जाता है उसके बाद ट्रेक्टर या पशुओं  की मदद से कीचड मचाई जाती है। यह काम इसलिए किया जाता है जिस से बरसात का पानी या नलकूपों से दिया गया पानी जमीन में नहीं सोखा जा सके दूसरा कोई अन्य खरपतवार नहीं उगे। इसके बाद किसान पहले से तैयार किए गए रोपों को कीचड में लगते हैं।  इसके बाद हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं की भरा पानी निकल ना जाए। अनेको बार केकड़े ,चूहे आदि मेड में छेद कर देते हैं जिस से पानी निकल जाता है और उनकी फसल खराब हो जाती इसलिए वो पूरी बरसात पानी को भरते रहते हैं। इसमें बार रासायनिक खादों ,कीट नाशकों ,और खरपतवार नाशकों का उपयोग किया जाता है।


कुल मिला कर यह खेती बहुत महनत और खर्च वाली होती है जिस से एक और किसान को बहुत आर्थिक हानि होती है और खेत का पर्यावरण नस्ट हो जाता है। चावल जहरीला हो जाता है और वह अपनी कुदरती खुशबु भी खो देता है। जहरों  का उपयोग करने से खेत की समस्त जैवविवधताएँ मर जाती हैं। जहरीला चावल खाने से अनेक प्रकार की बीमारियां जन्म लेती है।

इसके विपरीत जंगली धान  की खेती है जिसमे यह कुछ नहीं करना होता है  केवल धान के बीजों को बीज गोलिया बना कर खेतों में बिखरा दिया जाता है साथ में हम तुअर के बीज भी गोलियाँ बना कर बिखरा देते जो अपने मौसम में अपने आप खरपतवारों की तरह ,खरपतवारों के साथ उग आती है। जो विपुल उत्पादन के साथ साथ हमारे पर्यावरण को भी भी संरक्षित करती है।




Sunday, June 10, 2018

जंगली खेती कैसे करें ?

जंगली खेती कैसे करें ?

जंगली खेती जिसे नेचरल फार्मिंग कहा  जाता है जिसकी खोज जापान के जाने माने  कृषि वैज्ञानिक श्री मस्नोबू फुकुओका जी ने की है। इस खेति में जुताई ,यूरिया ,कम्पोस्ट,जीवामृत  और कोई भी कीट नाशक या खरपतवार नाशक का उपयोग नहीं किया जाता है। यह शतप्रतिशत पर्यावरणीय खेती  है। 

इसको करने के लिए बीजों की बीज गोलियां बनाई जाती हैं। बीज गोलियों को बनाने के लिए क्ले मिट्टी का उपयोग किया जाता है। यह मिट्टी बिना जुताई वाले उपजाऊ इलाके में मिलती है जिसे नदी नालों की कगारों या तालाब के नीचे से भी इकठ्ठा किया जाता है यह वही  मिटटी है जिस से मिटटी के बर्तन बनते हैं। इसको परखने के लिए इस विडिओ को देखें।बरसात में जब सूखी मिटटी नहीं मिलती है तो सूखे  गोबर (उपलों ) का पाउडर भी इस्तमाल किया जा सकता है। इसमें थोड़ी क्ले  भी मिलाने से जीवाणुओं का संचार हो जाता है।   
हम हमेशा  मिश्रित असिंचित खेती करने की सलाह देते हैं तथा अपने दोस्तों को मिश्रित खेती करने के लिए श्री विजय जरदारी जी के द्वारा की जा रही " बारह अनाजी खेती " का नमूना बताते हैं। इस विडिओ को भी देखें 



जब बीजों का चुनाव हो जाता है तब हम बीज गोलियों को बनाने के लिए इस वीडियो को बताते हैं यह वीडियो श्री फुकुओकाजी ने   स्व तैयार किया है जिसे हमने हिंदी में आवाज देकर किसानो के समझने लायक बनाया है।
यदि सूखी मिट्टी नहीं मिले तो कोई भी गोबर गीला या सूखा मिला ने से भी सुरक्षा मिल जाती है। किन्तु  क्ले मिट्टी से बनी मजबूत बीज गोलियों से सही परिणाम मिलते हैं।  
जब बीज गोलियां बन जाती है उन्हें बरसात आने तक सुरक्षित रखा जा सकता है जब खेतों में बरसात हो जाती है पर्याप्त नमि रहती है थोड़ी हरयाली भी उग आती है तब इन गोलियों को फेंका जाता है। इन्हे पहले भी फेंक सकते हैं किन्तु बीच में बरसात आकर रुक जाने से बीज ख़राब हो जाते हैं इसलिए हमारी सलाह है इन्हे हरयाली के बीच बरसात में ही फेंका जाए।           
हरियाली के बीच बीज गोलियों को बिखराने  से वो और अधिक सुरक्षित हो जाती है। खरपतवारों से डरने की जरूरत नहीं है वो तो आती  और जाती रहती हैं। खेत को अतिरिक्त उपजाऊ और पानीदार बना देती हैं। 
अधिक जानकारी हेतु ++7470402776 पर वाटस एप्प कर  सकते हैं।
धान की बीज गोलियां बनाना 
 
मुंग की बीज गोलियां बनाना 

विनय ओझा जी बीज गोलियां बनाना और उगाना 

बीज गोलियां डाल कर उपर पुआल फेला दिया है। 






सुबबूल के पेड़ों के नीचे धान और तुअर की असिंचित जंगली खेती 



धन्यवाद 
राजू टाइटस 
टाइटस फार्म 
होशंगाबाद म प 
461001 

Tuesday, March 27, 2018

हरित क्रांति बनाम जंगली खेती

हरित क्रांति बनाम जंगली खेती 

मारे देश में आज़ादी  के बाद जब देश आज़ाद  गया था तब देश के सामने स्थाई विकास का बड़ा मसला था। उन दिनों अधिकतर लोग गांव में रहते थे जो खेती किसानी पर आश्रित थे। इसलिए सरकार ने खेती किसानी को विकास का प्रमुख मुद्दा बना कर उस पर काम करना शुरू किया था।

हमेशा से हमारे देश में  विकास ,विकसित देशों की नकल से होता रहा है इसी आधार पर खेती की तकनीक भी विदेशों से भारत में लाई गई तकनीक जो ट्रैक्टर से होने वाली गहरी जुताई , बड़े बांधों से की जाने वाली भारी  सिंचाई ,यूरिया और हाइब्रिड बीजों पर आधारित है। जिसे हरित क्रांति नाम दिया गया।


हम भी सत्तर के दशक में इस सरकारी खेती के जाल में फंस गए थे। हमने कुआ खुदवाया ,लम्बी  बिजली की लाइन लाकर मोटर पम्प लगाकर हरित क्रांति का अभ्यास शुरू किया।

उन दिनों भी हमे गांव के किसानो से विरोध का समना करना पड़ता था। क्यों की किसान आसानी से बेलों से खेत बखर कर अनाज की खेती कर संतुस्ट थे। वे अपने खेतों अनाज , दालें ,तिलहन ,चारा सब आसानी से पैदा कर लेते थे। बरसात आधारित खेती होती थी। हमने भी अपने खेतों में हरित क्रांति के पूर्व परम्परगत देशी खेती का करीब ५ साल अभ्यास किया था। कोई कमी नहीं थी।


जब हमने हरित क्रांति का अभ्यास शुरू किया पहले साल फसलों को देखने गांव के लोग इकट्ठे हो गए थे। हमारे गांव में हमने इस खेती की शुरुवाद  की थी। पहले किसान इसका विरोध करते थे बाद में धीरे धीरे सभी सरकारी मदद से इसके चंगुल  में फंसते चले गए।

हरितक्रांति में हमने यह पाया  की इसमें खर्च अधिक  और लाभ कम था। इस से हमारी लागत में यदि हम अपनी महनत ,खेत की लागत को जोड़ दें और पर्यावरणीय हानि को घटा देते हैं तो हमे  पहले साल से घाटा  दिखाई देता है। पहले साल उत्पादन अधिक दिखाई देता है किन्तु कुल मिलकार घाटा ही रहता है।

हमने १५ साल बड़ी लगन और महनत के साथ हरित क्रांति की खेती में ताकत लगाई किन्तु हार गए। हमारे खेत कांस से भर गए थे। लागत बढ़ती जा रही थी हमारी हालत एक जुआरी  और शराबी के माफिक हो गयी थी। हमारे सामने खेती छोड़ने के आलावा कोई उपाय नहीं बचा था। ऐसे में में हमे The one straw revolution  पढ़ने को मिली।


यह किताब जापान के जाने माने कृषि वैज्ञानिक श्री मासानोबू फुकुओकाजी के अनुभवों पर आधारित है। यह कुदरती खेती (जंगली खेती ) पर आधारित है।  इसने हमे अपनी गलतियां जो हमने हरित क्रांति में की  थी का अहसास दिला दिया हमने तुरंत हरित क्रांति को छोड़ दिया। इस किताब से हमे पता चला की जुताई करने से बरसात का पानी खेत में नहीं जाता है  वह बह  जाता है अपने साथ खेत की मिटटी (जैविक खाद ) को भी  बहा  कर ले जाता है। इससे एक बार की जुताई से खेत की आधा ताकत बह जाती है। इसलिए उत्पादन घटता जाता है  लागत बढ़ती जाती है और घाटा बढ़ता जाता है।

हरित क्रांति से हमारे उथले कुए सूख गए थे खेत रेगिस्तान बन गए थे। हमे बहुतआर्थिक हानि  हुई थी हमारी कीमती जमीन (शहरी प्लाट ) बिक चुकी थी। किन्तु जैसे ही हमने  जंगली खेती का अभ्यास शुरू किया हमे सुकून मिल गया.

जुताई ,खाद ,सिंचाई ,कीट और खरपतवार नाशकों का खर्च खत्म हो गया केवल बीज फेंकने और फसल काटने का ही खर्च बच गया था। जब हम जंगली खेती के तीसरे साल में थे जापान से फुकुओका जी हमारे खेतों पर आये थे। उन्हें भारत के भूतपूर्व प्र्धान मंत्री स्व राजीव गांधीजी ने देशिकोत्तम से सम्मानित किया था। उन्होंने हमे दुनिया भर में जंगली खेती के चल रहे कामों में न. वन दिया था।


जंगली खेती करने से सबसे बड़ा फायदा पानी का होता है हमारे सूखे गए देशी कुए पानी से भर गए दूसरा फायदा खेत हरियाली से भर जाते हैं जिसेसे  चारा ,हवा ,जलाऊ ईंधन मिलने लगता है तीसरा हमे जंगली रोटी मिलने लगती है जो अनेक बिमारियों को ठीक करने की ताकत रखती है।

जंगली खेती करना बहुत आसान है एक बार बरसात से पूर्व अनेक बीजों को मिलकर उन्हें क्ले (कीचड ) से बीज गोलिया बना कर खेतों में बिखेर दिया जाता है। फिर एक के बाद एक  फसल को पकने के बाद काट लिया जाता है और कृषि अवशेषों को वापस खेतों में फेंक दिया जाता है। अनेक बीजों में जंगली ,अर्ध जंगली फलों ,सब्जियों अनाजों ,दालों ,चारे के सभी बीज सम्मलित रहते हैं।

हरित क्रांति बहुत बड़ा धोखा है इस से एक और जहां सूखा बाढ़  मुसीबत बने हैं नदियां सूख रही हैं। वहीं किसानो की आत्म हत्याएं रुकने का नाम नहीं ले रही है। जुताई के कारण  खेत खोखले हो गए हैं उनमे खोखली फसले पैदा हो रही हैं जिस से नवजात बच्चों की मौत ,कुपोषण ,मोटापा ,मधुमेह ,कैंसर आम होते जा रहा है।
असल में हरित क्रांति का अनाज खाद्य समस्या को कम नहीं वरन बढ़ा रहा है यह खोखला है। इसमें पोषण नहीं है। जबकि जंगली अनाज इसके विपरीत स्वास्थवर्धक ,स्वादिस्ट ,रोग निरोग शक्ति देने वाला है।

जंगली खेती का उत्पादन ,उत्पादकता और गुणवत्ता का मुकाबला कोई भी जुताई से होने वाली खेती नहीं कर सकती है। यह सरल ,सूंदर और टिकाऊ है।

Friday, February 2, 2018


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Wednesday, January 10, 2018

रोजगार की समस्या

रोजगार की समस्या

जंगली गेंहू उगाएं 

जंगली गेंहू आठ गुना अधिक कीमत में माँगा जा रहा है। 

न दिनों ओधोगिक मंदी की समस्या जोरों पर है। कल कारखानों से कामगारों को हटाया जा रहा है।काम नही है इसलिए रोजगार नही हैं। किन्तु अब जब से जंगली खेती का  चलन शुरू हुआ है तब से खेतों में सोना पैदा होने लगा है। उदाहरण ठीक आपकी आँखों के सामने है। एक और जहां जुताई आधारित गेंहू जिसमे अनेक प्रकार के रसायन ,खाद और दवाओं का इस्तमाल हो रहा है। बेसुवाद और बीमारियां पैदा करने वाले हो गए हैं जिन्हे ग्राहक पसंद नहीं कर रहे हैं। विदेशों में इन उत्पादों को भेजने पर रोक लग गई है।

यही कारण  है की अनेक लोग विदेशों से नौकरी छोड़ कर अपने गांवों में वापस आ रहे हैं और जंगली खेती अपना रहे हैं।  जहां जुताई आधारित खेती करना बहुत कठिन और नुकसान दायक है वहीँ जंगली खेती सरल और बहुत लाभप्रद बन गई है जिसे कोई भी आसानी से कर सकता है।
जंगली गेंहू की फसल 
जुताई करने से खेत की कुदरती ताकत एक बार में आधी ख़तम हो जाती है जो हर बार कम होती जाती  है। दूसरा जुताई करने से बरसात का पानी खेतों में नहीं सोखा जाताहै वह तेजी से बहता है अपने साथ कुदरती खादों को भी बहा  कर ले जाता है।  कारण खेत भूखे और प्यासे हो जाते हैं उनमे भूखी फसले पैदा होती हैं। भूखी फसले अनेक बिमारियों का कारण  बन रहीं है। जिनमे कैंसर प्रमुख है।

जंगली फसलों को पैदा करना बहुत आसान है जुताई करे बिना बीजों को सीधा फेंक दिया जाता है जरूरत पड़ने पर बीजों को क्ले मिटटी से कोटिंग कर फेंक देते हैं और ये अपने आप बरसात में अनेक खरपतवारों की तरह उनके साथ उग आते हैं। बेमौसम थोड़ी बहुत सिंचाई की जा सकती है।

जंगली फसलों में जुताई नहीं करने के कारण और खरपतवारोंकी  मौजूदगी में असंख्य जीवजंतु कीड़े मकोड़े ,केंचुए ,चींटी और असंख्य आँखों से न दिखाई देने वाले सूक्ष्म जीवाणु पैदा हो जाते हैं जो खेत को कुदरती खाद से भर देते हैं जिसके कारण फसले भी पोषक  तत्वों से भरी पैदा होती हैं। जो अनेक बिमारियों   लिए दवाई का काम करती हैं।  जंगली गेंहू की लकड़ी के चूल्हे  पर बनी रोटी कैंसर की बीमारी को भी ठीक कर  देती है। यही कारण  है की यह गेंहू बहुत ऊँची कीमत में माँगा जा रहा है और इसने रोजगार के नए  दरवाजे खोल दिए हैं।





Tuesday, January 9, 2018

कर्ज के चक्रव्यूह में फंसे किसान




जंगली खेती ने खोले द्वार 

हरित क्रांति का विकल्प 
ह सही है की हरित क्रांति के आने के बाद किसानो में एक आशा की किरण का जन्म हुआ था किन्तु गहरी जुताई ,मशीनों और रसायनों के भारी  भरकम उपयोग के कारण इसका असर हमारे पर्यावरण पर बहुत अधिक पड़ा है जिसके कारण  खेत अब मरुस्थल में तब्दील हो गए हैंऔर किसान कर्जों में फंस गए हैं।

सरकार ने इन किसानो की आमदनी बढ़ाने के लिए तीन फसली कार्यक्रम बनाया है जिसके कारण  कर्ज अब तीन गुना रफ्तार से बढ़ने लगा है। एक फसल का कर्ज चुकता नहीं  है की दूसरी और तीसरी फसल का कर्ज लद  जाता है। यह एक चक्रव्यूह है।  बेचारा किसान एक कोल्हू के बैल  की तरह कर्ज के चक्रव्यूह से बाहर  निकलने के लिए तड़फ रहा है किन्तु घूम घूम कर वह अपने को जहां का तहाँ खड़ा पाता  है।

सुबबूल के पेड़ों के साथ गेंहू की बंपर फसल 
किंतु अफ़सोस  की बात है की  सरकार  और कृषि योजनाकारों के पास  इस समस्या से निपटने का कोई भी उपाय नहीं है। सरकार अपनी तरफ से भले बिना ब्याज का कर्ज ,अनुदान और मुआवजा दे रही है किन्तु इस समस्या का कोई अंत नजर नहीं आ रहा है


अनेक कमीशन बने किन्तु सब बेकार ही सिद्ध हुए हैं ,अनेक किसान आंदोलन हो रहे हैं पर कोई उपाय निकलता नजर नहीं आ रहा है। एक कर्ज माफ़ी ही उपाय बचा है किन्तुउसके बाद भी किसान कर्ज मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। सरकारें भी अब इस चक्रव्यूह में फंस रही हैं। बेरोजगारी और मंदीबाड़ा बढ़ता जा रहा है।


असल में समस्या के पीछे रोटी  का सवाल है रोटी सब को चाहिए और रोटी हमारे पर्यावरण की समृद्धि के बिना अब पैदा करना कठिन हो गया है। हरित क्रांति का आधार भारी  सिंचाई  है किन्तु हरियाली की कमी के कारण  हमारे जल के स्रोत भी सूखने लगे हैं। इसलिए यह समस्या अब विकराल रूप  धारण करने लगी है। किसानो के सामने आगे खाई है तो पीछे समुन्द्र है।


असल में हमे रोटी के लिए यूरिया की जरूरत है जो जमीन में अपने आप द्विदल  पौधों से मिलती है किन्तु जुताई करने से यह गैस बन कर उड़ जाती  है। हम जितना जुताई करते हैं उतनी यूरिया की मांग बढ़ती जाती है जिसकी आपूर्ति पेट्रोल से बनी गैरकुदरती यूरिया से की जाती है। जिसकी भी एक सीमा है दूसरा खेत जो एक जीवित अंश है पेट्रोल की यूरिया को पसंद नहीं है इसलिए खेत इस यूरिया की उलटी कर देते हैं जिस से खेत के पेट का सब खाना बहार निकल जाता है। खेत भूखे के भूखे रहते हैं। भूखे  खेतों से भूखी  फसले पैदा हो रही हैं जो अनेक प्रकार की बीमारियां पैदा कर रही हैं जिनमे  कैंसर प्रमुख है।

इसलिए हमे अब एक ऐसी खेती करने की जरूरत है जो हमारी इन तमाम खेती किसानी से जुडी समस्याओं का अंत कर  दे। हम पिछले अनेक सालो से अपने पारिवारिक खेतों पर हरित क्रांति के विकल्प की खोज में लगे हैं। जैसा की विदित है हरित क्रांति गेंहू और चावल पर आधारित है और ये अनाज की फसलें  यूरिया पर आधारित हैं। यूरिया नहीं तो ये फसले नहीं। हमने पाया है की द्विदल पौधे या पेड़ अपनी छाया के छेत्र में लगातार कुदरती यूरिया बनाने का का काम करते हैं। जुताई नहीं करने से ये यूरिया गैस बन कर उड़ता नहीं है।

अधिकतर यह यूरिया खेतों में अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों से मिलता है किन्तु जुताई करने से और इन वनस्पतियों को मार  देने से हमे पेट्रोल से बनी यूरिया की जरूरत होती है। इस से किसान के ऊपर जुताई ,यूरिया ,निंदाई ,सिंचाई ,कीट और नींदा मार  उपायों का बहुत अधिक खर्च बढ़ते क्रम में बढ़ रहा है जिसकी आपूर्ति के लिए उसे कर्ज लेना पड़  रहा है। जिसे  चुकाने में अब असमर्थ हो रहा है।

हमने यह पाया की सुबबूल के पेड़ जो द्विदल  के रहते है जबरदस्त खेत में कुदरती यूरिया प्रदान करते हैं जुताई नहीं करने से इनकी छाया का असर नहीं होता बल्कि फायदा होता है जिसमे गेंहू और चावल का उत्पादन पेट्रोल वाली यूरिया से अधिक मिलता है और उत्पादकता /गुणवत्ता भी बहुत अधिक रहती है। इसलिए हम बिना जुताई करे सीधे बीजों को फेंक कर सुबबूल  के पेड़ों के नीचे गेंहू और चावल पैदा कर  रहे हैं। इसमें एक ओर जहां पेट्रोल की जरूरत नहीं है वही मानवीय श्रम की भी बचत है सुबबूल  के कारण जलप्रबंधन और बिमारियों का नियंत्रण भी अपने आप हो जाता है।

इसलिए फसलों के उत्पादन के लिए  किसी भी प्रकार के कर्ज ,अनुदान और मुआवजे की जरूरत नहीं रहती है। अनाजों की कीमत भी जंगली होने के कारण  बहुत ऊँची कीमत में माँगा जाता है किसी भी सरकारी सहायता की जरूरत नहीं है। जंगली खेती हरित क्रांति का विकल्प बन गयी है। इसका उपयोग कर किसान आसानी से कर्ज मुक्त हो कर आत्मनिर्भर होने  लगे है।





Monday, January 8, 2018

जलवायु परिवर्तन और जंगली खेती

जलवायु परिवर्तन और जंगली खेती 


मित्रो आज  केवल हमारे देश में ही नहीं वरन पूरी दुनिया में  मौसम में बड़ी तेजी से बदलाव देखा जा रहा है। एक ओर  जहां धरती गरम हो रही है वहीँ ठण्ड भी बहुत बढ़ रही है और बरसात में भी अनेक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। बाढ़  और सूखा दोनों मुसीबत बने हुए हैं। इसी प्रकार समुद्री ज्वारभाटों  की संख्या भी बढ़ती जा रही है। भू स्खलन और भूकम्पों में भी बढ़ोतरी हुई है।


जैसा कि  हम सभी जानते हैं की यह समस्या धरती पर निरन्तर घट रही हरियाली के कारण  है। हरियाली दूषित हवा को सोखकर उसे जैविक खाद में बदलती है जिस से हरयाली के साथ साथ अन्य जैव विवधताओं का पालन पोषण होता है।

इसलिए यह जरुरी हो गया है की हम देखें की आखिर हरियाली का तेजी से क्यों हनन हो रहा है तब हम पाएंगे की यह हनन सर्वाधिक हमारी रोटी के कारण  हो रहा है। समान्यत: रोटी के लिए हरियाली को नस्ट किया जाता है। यह माना  जाता है की हरियाली चाहे वह  पेड़ों ,झाड़ियों  या खरपतवारों के रूप में रहती है वह हमारी फसलों का खाना खा लेती है.दूसरा किसानो को इस बात का डर रहता है की पेड़ों की छाया के कारण फसले ठीक नहीं होती हैं। इसलिए खरपतवारों ,झाड़ियों और पेड़ों को लगातार काटा जा रहा है।

हम पिछले 50 सालो से अपने पारिवारिक खेतों में स्थाई टिकाऊ खेती के लिए प्रयास रत हैं। शुरू में हमने 5  साल परम्परागत देशी खेती किसानी का अभ्यास किया उसके बाद करीब 15  साल हरित क्रांति में गवाएं इसके बाद के 30 सालों से हम अब बिना जुताई की क़ुदरती खेती जिसे जंगली खेती भी कहते हैं का अभ्यास  कर रहे हैं। इस खेती में हम खरपतवारों और पेड़ों को बचाते  हुए खेती करते हैं।

इसमें जुताई ,खाद और दवाइयों की जरूरत नहीं रहती है और फसले इनके साथ अच्छी पनपती हैं। हमने  पाया है की जुताई नहीं करने से एक और जहां हमारे  खेत साल भर हरियाली से भरे रहते हैं वहीं हमारे देशी उथले कुए भी साल भर भरे रहते हैं। हरियाली एक और जहां बरसात को आकर्षित करती है वहीं वह पानी के अवशोषण में भी सहायता करती है। फसलों में कुदरती संतुलन के कारण बीमारियां नहीं लगती है। जुताई नहीं करने के कारण  खेत मे नत्रजन की कमी नहीं होती है। दलहन जाती के वृक्ष और सहयोगी  फसलों के  कारण फसलों को लगातार नत्रजन और तमाम जैविक खाद बढ़ते क्रम में मिलती है जिस से उत्पादन और उत्पादकता और गुणवत्ता भी बढ़ते  क्रम में रहती है।

इसलिए हमारा मानना है की यदि हमे  जलवायु परिवर्तन की समस्या से निजात पाना है और पर्यावरण प्रदुषण के संकट से उबरना है तो हमे हर हाल में बिना जुताई की जंगली खेती को अपनाना होगा इसमें कोई विशेष तकनीकी ज्ञान और पैसे की जरूरत नहीं है जरूरत है तो केवल जाग्रति की है।
धन्यवाद
 राजू टाइटस (9179738049)