Tuesday, January 9, 2018

कर्ज के चक्रव्यूह में फंसे किसान




जंगली खेती ने खोले द्वार 

हरित क्रांति का विकल्प 
ह सही है की हरित क्रांति के आने के बाद किसानो में एक आशा की किरण का जन्म हुआ था किन्तु गहरी जुताई ,मशीनों और रसायनों के भारी  भरकम उपयोग के कारण इसका असर हमारे पर्यावरण पर बहुत अधिक पड़ा है जिसके कारण  खेत अब मरुस्थल में तब्दील हो गए हैंऔर किसान कर्जों में फंस गए हैं।

सरकार ने इन किसानो की आमदनी बढ़ाने के लिए तीन फसली कार्यक्रम बनाया है जिसके कारण  कर्ज अब तीन गुना रफ्तार से बढ़ने लगा है। एक फसल का कर्ज चुकता नहीं  है की दूसरी और तीसरी फसल का कर्ज लद  जाता है। यह एक चक्रव्यूह है।  बेचारा किसान एक कोल्हू के बैल  की तरह कर्ज के चक्रव्यूह से बाहर  निकलने के लिए तड़फ रहा है किन्तु घूम घूम कर वह अपने को जहां का तहाँ खड़ा पाता  है।

सुबबूल के पेड़ों के साथ गेंहू की बंपर फसल 
किंतु अफ़सोस  की बात है की  सरकार  और कृषि योजनाकारों के पास  इस समस्या से निपटने का कोई भी उपाय नहीं है। सरकार अपनी तरफ से भले बिना ब्याज का कर्ज ,अनुदान और मुआवजा दे रही है किन्तु इस समस्या का कोई अंत नजर नहीं आ रहा है


अनेक कमीशन बने किन्तु सब बेकार ही सिद्ध हुए हैं ,अनेक किसान आंदोलन हो रहे हैं पर कोई उपाय निकलता नजर नहीं आ रहा है। एक कर्ज माफ़ी ही उपाय बचा है किन्तुउसके बाद भी किसान कर्ज मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। सरकारें भी अब इस चक्रव्यूह में फंस रही हैं। बेरोजगारी और मंदीबाड़ा बढ़ता जा रहा है।


असल में समस्या के पीछे रोटी  का सवाल है रोटी सब को चाहिए और रोटी हमारे पर्यावरण की समृद्धि के बिना अब पैदा करना कठिन हो गया है। हरित क्रांति का आधार भारी  सिंचाई  है किन्तु हरियाली की कमी के कारण  हमारे जल के स्रोत भी सूखने लगे हैं। इसलिए यह समस्या अब विकराल रूप  धारण करने लगी है। किसानो के सामने आगे खाई है तो पीछे समुन्द्र है।


असल में हमे रोटी के लिए यूरिया की जरूरत है जो जमीन में अपने आप द्विदल  पौधों से मिलती है किन्तु जुताई करने से यह गैस बन कर उड़ जाती  है। हम जितना जुताई करते हैं उतनी यूरिया की मांग बढ़ती जाती है जिसकी आपूर्ति पेट्रोल से बनी गैरकुदरती यूरिया से की जाती है। जिसकी भी एक सीमा है दूसरा खेत जो एक जीवित अंश है पेट्रोल की यूरिया को पसंद नहीं है इसलिए खेत इस यूरिया की उलटी कर देते हैं जिस से खेत के पेट का सब खाना बहार निकल जाता है। खेत भूखे के भूखे रहते हैं। भूखे  खेतों से भूखी  फसले पैदा हो रही हैं जो अनेक प्रकार की बीमारियां पैदा कर रही हैं जिनमे  कैंसर प्रमुख है।

इसलिए हमे अब एक ऐसी खेती करने की जरूरत है जो हमारी इन तमाम खेती किसानी से जुडी समस्याओं का अंत कर  दे। हम पिछले अनेक सालो से अपने पारिवारिक खेतों पर हरित क्रांति के विकल्प की खोज में लगे हैं। जैसा की विदित है हरित क्रांति गेंहू और चावल पर आधारित है और ये अनाज की फसलें  यूरिया पर आधारित हैं। यूरिया नहीं तो ये फसले नहीं। हमने पाया है की द्विदल पौधे या पेड़ अपनी छाया के छेत्र में लगातार कुदरती यूरिया बनाने का का काम करते हैं। जुताई नहीं करने से ये यूरिया गैस बन कर उड़ता नहीं है।

अधिकतर यह यूरिया खेतों में अपने आप पैदा होने वाली वनस्पतियों से मिलता है किन्तु जुताई करने से और इन वनस्पतियों को मार  देने से हमे पेट्रोल से बनी यूरिया की जरूरत होती है। इस से किसान के ऊपर जुताई ,यूरिया ,निंदाई ,सिंचाई ,कीट और नींदा मार  उपायों का बहुत अधिक खर्च बढ़ते क्रम में बढ़ रहा है जिसकी आपूर्ति के लिए उसे कर्ज लेना पड़  रहा है। जिसे  चुकाने में अब असमर्थ हो रहा है।

हमने यह पाया की सुबबूल के पेड़ जो द्विदल  के रहते है जबरदस्त खेत में कुदरती यूरिया प्रदान करते हैं जुताई नहीं करने से इनकी छाया का असर नहीं होता बल्कि फायदा होता है जिसमे गेंहू और चावल का उत्पादन पेट्रोल वाली यूरिया से अधिक मिलता है और उत्पादकता /गुणवत्ता भी बहुत अधिक रहती है। इसलिए हम बिना जुताई करे सीधे बीजों को फेंक कर सुबबूल  के पेड़ों के नीचे गेंहू और चावल पैदा कर  रहे हैं। इसमें एक ओर जहां पेट्रोल की जरूरत नहीं है वही मानवीय श्रम की भी बचत है सुबबूल  के कारण जलप्रबंधन और बिमारियों का नियंत्रण भी अपने आप हो जाता है।

इसलिए फसलों के उत्पादन के लिए  किसी भी प्रकार के कर्ज ,अनुदान और मुआवजे की जरूरत नहीं रहती है। अनाजों की कीमत भी जंगली होने के कारण  बहुत ऊँची कीमत में माँगा जाता है किसी भी सरकारी सहायता की जरूरत नहीं है। जंगली खेती हरित क्रांति का विकल्प बन गयी है। इसका उपयोग कर किसान आसानी से कर्ज मुक्त हो कर आत्मनिर्भर होने  लगे है।





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