Saturday, April 30, 2016

बिना जुताई की जैविक खेती

बिना जुताई की बारानी जैविक खेती 

क्रिमपर रोलर और जीरो टिलेज सीड ड्रिल का उपयोग 
बिना जुताई की खेती ने पिछले दो दशकों में बहुत प्रसिद्धि पायी है। इस से समय ,पैसे ,मिट्टी और पानी  की बहुत बचत होती है। किन्तु जहरीले रसायनों  उपयोग के कारण यह खेती जैविक खेती की श्रेणी में नहीं आती है। 


इसलिए यह सवाल लाज़मी है कैसे हम बिना जुताई की खेती को जहरीले रसायनों से मुक्त जैविक बनाए ? जवाब बिना जुताई की जैविक खेती है। यह  शतप्रतिशत जैविक सिद्धांतो पर आधारित है इसमें यांत्रिक रोलर का उपयोग होता है जो हरे खरपतवारों को  जीवित जमीन पर सुला देता है।

हरा  भूमि ढकाव जमीन को ठंडा रखता है जिस से भूमिगत जल कर वास्प  बन फसलों को नमी  प्रदान करता रहता है। बाद में यह सड़कर उत्तम जैविक खाद में तब्दील हो जाता है। इस ढकाव के अंदर असंख्य उर्वरता प्रदान करने वाले कीड़े  मकोड़े,सूक्ष्म जीवाणु रहने लगते हैं जो फसलों के लिए आवष्यक पोषक तत्वों  की आपूर्ति कर देते है।  


वैसे तो बिना जुताई की कुदरती खेती जापान के जग प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक मसनोबु फुकुोकजी की देन है। किन्तु मशीनों से की जाने वाली आर्गेनिक नो टिल फार्मिंग का श्रेय अमेरिका की रोडल्स संस्था को जाता है। जैविक खेती में " भूमि ढकाव की फसलों " का महत्व है।  परम्परागत जुताई वाली जैविक खेती में किसान अनेक दलहन फसलों को ऊगा कर उनको "हरी खाद "  रूप में जुताई कर मिटटी में मिला देते हैं। जुताई करने से मिटटी की असंख्य जैव-विवधताओं की हत्या हो जाती है इसलिए यह  विधि जैविक नहीं रहती है। 
किन्तु बिना जुताई करे हरे भूमि ढकाव को जमीन पर जीवित सुला देने से खेती पूरी तरह जैविक बन जाती है।  हरे जीवित भूमि ढकाव के मैच मल्च से जमीन ठंडी बनी रहती है जिसके कारण जमीन से निकलने वाली वास्प फसलों में नमि बनाए रखती है जिसके कारण सिंचाई गैर जरूरी हो जाती है। इसके आलावा यह ढकाव खरपतवार और कीट नियंत्रण में अहम भूमिका निभाता है। क्रिम्पर रोलर आगे रहता है पीछे बिना जुताई बोने की मशीन रहती है इसलिए एक बार ट्रेकटर को  घुमाने से सब काम पूरा जाता है चकों से  मिटटी के दबने की समस्या भी नहीं रहती है। 

Saturday, April 23, 2016

सूखे के स्थाई समाधान हेतु करे बिना -जुताई खेती 

Permanent solution for drought.

 बूँद बूँद पानी से अधिक से अधिक फसलों का उत्पादन : बिना जुताई की कुदरती खेती 

Minimum water usage for maximum crop production.


बिना-जुताई कपास की फसल (फोटो Farms Reach के सौजन्य से )
Cotton natural crop photo from net .
जैसा की हम जानते है आज कल सूखा एक बड़ी मुसीबत बन गया है।  जिसके कारण एक और जहाँ पानी  का गम्भीर संकट खड़ा हो गया है वहीं खेती किसानी के बंद होने  से खाने की समस्या भी उत्पन्न होने लगी है। खेतों में नमी की कमी के कारण तैयार फसलों में आग लगने की भी गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गयी है।
Drought is big problem in India. No farming,no drinking water is available .

इसी सदर्भ में माननीय प्रधान मंत्री जी ने भी सूखे  के स्थाई प्रबंधन और बिना सिंचाई की खेती पर बल दिया है। समस्या यह है कि यदि बरसात नहीं होती है तो सिँचाई के लिए पानी कहाँ से आएगा। इसी लिए माननीय प्रधानमंत्रीजी बार बार बूँद बूँद पानी से अधिक अधिक फसलों के उत्पादन की बात करते हैं।
Due to this PM of India urged people to solve this problem permanently .
असिंचित बिना -जुताई धान की खेती
un- irrigated rice crop of Fukuoka farm

यह समस्या गैर -कुदरती खेती के कारण उत्पन्न हुई है। इसलिए इस समस्या का समाधान केवल कुदरती खेती से  ही संभव है। गैर -कुदरती खेती का मतलब है वो सब कृषि कार्य जो कुदरती नहीं को अमल में लाना जैसे ट्रेक्टेरों से की जाने वाली  जुताई , मानव निर्मित  रासायनिक  और गोबर /गोमूत्र से बनी खाद ,दवाई आदि।
This problem is directly related to unnatural way of farming.
Unnatural means tilling,heavy irrigation,use of man made fertilizers, medicine made by cow dung and cow urine etc.

फसलोत्पादन के लिए जब खेतों की बार बार जुताई की जाती है तो खेत सूख जाते हैं। हरियाली और उसके साथ जुडी जैव-विविधताएं नस्ट हो जाती हैं। खेत बंजर हो जाते हैं। किन्तु जब बिना जुताई  कर खेती की जाती है परिस्थिति में बदलाव आने लगता है। खेतों की नमी में इजाफा हो जाता है।
Tilling many times eroded soil and water.

जुताई नहीं करने से एक और जहाँ बरसात का पानी सब जमीन में सोख लिया जाता है जिसके कारण खेतों की जैविक खाद का बहना रुक जाता है। इस कारण खेत उर्वरक और पानीदार हो जाते है।  ताकतवर खेतों में ताकतवर फसलें पैदा होती है उनमे बीमारियां नहीं लगती है।
Due to tilling water is not absorbed by soil is running and taking soil away .

असिंचित बिना जुताई गेंहूं की कुदरती खेती
Natural Wheat crop of Fukuoka farm.
Photo from Larriy korn's album.  
कृषि के सभी अवशेषों को जहाँ का तहां पड़ा रहने दिया जाता है जिस से खरपतवारों का पूरा नियंत्रण हो जाता है। नमी भी संरक्षित हो जाती है। सूखे का पूरा समाधान हो जाता हैं। किन्तु देखा यह गया है की किसान बार बार गहरी जुताई करते हैं ,मिटटी को बहुत बारीक बना  देते है।  फसलों को काटने के बाद पुआल और नरवाई को जला  देते हैं। इसलिए बरसात का पानी खेतों में नहीं सोखा जाता है। वह बहता है अपने साथ बारीक मिटटी को भी बहा कर ले जाता है।
IN natural way of farming no tilling and fertilizers are required. Rain water absorbed by soil and returnable all straws is fulfill requirement of nutrients.

हम अपने पारिवारिक खेतों में पिछले तीस सालो बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं। जिसमे हम कोई भी रासायनिक या गोबर /गोमूत्र की खाद नहीं डालते हैं।  किन्तु सभी कृषि अवशेषों जैसे पुआल ,नरवाई ,गोबर ,गोंजन ,पत्तियां ,तिनके। आदि को जहाँ का तहां खेतों में वापस डाल  देते हैं।
We are practicing NF since  last 30 years rturnig all farm wast to land .






Thursday, April 21, 2016

कुदरती धान को उगाने का तरीका

कुदरती धान को उगाने का तरीका 



पानी की निकासी के लिए नालिया बनायें 
गेंहूं और चावल  बिना जुताई की कुदरती खेती में सबसे बड़ा काम  चावल को ऊगा भर लेना है इसके बाद कोई ऐसा काम नहीं रहता है जिसमे कोई कठिनाई आती है। इसलिए हम आपको सलाह देते हैं की आप धान के बीजों की गर्मी में ही क्ले से  गोलियां बना लें और उन्हें बरसात से पहले खेतों में बिखरा दें। बरसात आने पर  इन गोलियों के अंदर रखे धान के बीज उग आएंगे। धान  में पानी भरने की वजाय नलिया बना कर पानी की अच्छी निकासी बना ले। इन खेतों में बरसात मूंग और  जो भी आपको आसान लगे के बीजों को भी  छिड़क दे जिस से नत्रजन मिलने , खरपतवारों  नियंत्रण ,नमि संरक्षण  आदि  सहायता मिल जाएगी साथ में दाल की  प्राप्ति हो जायेगी।
बीज गोलियां बनने के लिए क्ले मिटटी लगेगी यह वह मिटटी होती है जिस से मिटटी  बर्तन बनाए जाते हैं।  बीजों पर बारीक छनि हुई क्ले छिड़कते जाएँ साथ में पानी को स्प्रे करते जाएँ। हाथों से मिलाते रहे। अधिक जानकारी के लिए इस वीडियो को देखें।

सूखे के स्थाई समाधान हेतु करे बिना -जुताई खेती 

 बूँद बूँद पानी से अधिक से अधिक फसलों का उत्पादन : बिना जुताई की कुदरती खेती 


बिना-जुताई कपास की फसल (फोटो Farms Reach के सौजन्य से )
जैसा की हम जानते है आज कल सूखा एक बड़ी मुसीबत बन गया है।  जिसके कारण एक और जहाँ पानी  का गम्भीर संकट खड़ा हो गया है वहीं खेती किसानी के बंद होने  से खाने की समस्या भी उत्पन्न होने लगी है। खेतों में नमी की कमी के कारण तैयार फसलों में आग लगने की भी गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गयी है।

इसी सदर्भ में माननीय प्रधान मंत्री जी ने भी सूखे  के स्थाई प्रबंधन और बिना सिंचाई की खेती पर बल दिया है। समस्या यह है कि यदि बरसात नहीं होती है तो सिँचाई के लिए पानी कहाँ से आएगा। इसी लिए माननीय प्रधानमंत्रीजी बार बार बूँद बूँद पानी से अधिक अधिक फसलों के उत्पादन की बात करते हैं।
असिंचित बिना -जुताई धान की खेती 

यह समस्या गैर -कुदरती खेती के कारण उत्पन्न हुई है। इसलिए इस समस्या का समाधान केवल कुदरती खेती से  ही संभव है। गैर -कुदरती खेती का मतलब है वो सब कृषि कार्य जो कुदरती नहीं को अमल में लाना जैसे ट्रेक्टेरों से की जाने वाली  जुताई , मानव निर्मित  रासायनिक  और गोबर /गोमूत्र से बनी खाद ,दवाई आदि।

फसलोत्पादन के लिए जब खेतों की बार बार जुताई की जाती है तो खेत सूख जाते हैं। हरियाली और उसके साथ जुडी जैव-विविधताएं नस्ट हो जाती हैं। खेत बंजर हो जाते हैं। किन्तु जब बिना जुताई  कर खेती की जाती है परिस्थिति में बदलाव आने लगता है। खेतों की नमी में इजाफा हो जाता है।

जुताई नहीं करने से एक और जहाँ बरसात का पानी सब जमीन में सोख लिया जाता है जिसके कारण खेतों की जैविक खाद का बहना रुक जाता है। इस कारण खेत उर्वरक और पानीदार हो जाते है।  ताकतवर खेतों में ताकतवर फसलें पैदा होती है उनमे बीमारियां नहीं लगती है।

असिंचित बिना जुताई गेंहूं की कुदरती खेती 
कृषि के सभी अवशेषों को जहाँ का तहां पड़ा रहने दिया जाता है जिस से खरपतवारों का पूरा नियंत्रण हो जाता है। नमी भी संरक्षित हो जाती है। सूखे का पूरा समाधान हो जाता हैं। किन्तु देखा यह गया है की किसान बार बार गहरी जुताई करते हैं ,मिटटी को बहुत बारीक बना  देते है।  फसलों को काटने के बाद पुआल और नरवाई को जला  देते हैं। इसलिए बरसात का पानी खेतों में नहीं सोखा जाता है। वह बहता है अपने साथ बारीक मिटटी को भी बहा कर ले जाता है।

हम अपने पारिवारिक खेतों में पिछले तीस सालो बिना जुताई की कुदरती खेती कर रहे हैं। जिसमे हम कोई भी रासायनिक या गोबर /गोमूत्र की खाद नहीं डालते हैं।  किन्तु सभी कृषि अवशेषों जैसे पुआल ,नरवाई ,गोबर ,गोंजन ,पत्तियां ,तिनके। आदि को जहाँ का तहां खेतों में वापस डाल  देते हैं।


Sunday, April 17, 2016

ट्रैकटर से की जाने वाली गहरी जुताई से की जाने वाली गेंहूं और चावल की खेती के कारण सूखा पड़ रहा है।



ट्रैकटर से की जाने वाली गहरी जुताई से की जाने वाली  गेंहूं और चावल की खेती के कारण सूखा पड़  रहा है। 




"हरित क्रांति " का आधार गैर -कुदरती गेंहूं और चावल की खेती है। यह खेती हरे-भरे पेड़ों को काट कर उनमे गहरी जुताई कर की जाती है।  इस खेती में पेड़ दुश्मन की तरह देखे जाते हैं। हर किसान अपने खेतों से अधिक से अधिक उत्पादन लेने की चाह में एक भी पेड़ अपने खेतों में क्या  मेड़ों पर भी नहीं रहने देता है।
  धान बरसात में लगाई जाती है जिसमे पहले किसान खेतों को खूब ट्रेक्टेरों से जोतता है फिर उसमे कीचड मचाता है वह कीचड़ इसलिए मचाता है जिस से बरसात का पानी खेतों में बिल्कुल सोखा ना जाये। खेतों में पानी इसलिए भरा जाता है जिस से खरपतवरें नहीं पनपे और केवल धान ही पनपे यह खरपतवार नियंत्रण का तरीका है। जो भूमिगत जल के स्तर को लगातार कम करता जाता है।

इसी प्रकार अधिकतर किसान ठण्ड में गेंहूं की खेती करते हैं पहले यह खेती बिना सिंचाई होती थी किन्तु अब यह सिंचाई के बिना नहीं होती है। इसमें बहुत अधिक मात्रा में पानी बर्बाद होता है।

बिना जुताई सुबबूल के पेड़ों के साथ गेंहूं की खेती। 
जुताई करने और कीचड बनाने से बरसात का पानी खेतों के अंदर नहीं सोखा जाता है इस कारण लगातार भूमिगत जल का स्तर गिरता जाता है। थोड़ी भी बरसात कम होने से सूखा पड़  जाता है। अब जबकि गेंहूं और चावल हमारे आहार का मुख्य अंग बन गए हैं हम गेंहूं और चावल के बिना नहीं रह सकते है।  इसलिए हमारे कृषि वैज्ञानिक गेंहूं और चावल की खेती पर ही अधिक जोर  दे रहे है। सरकार भी इस खेती को बढ़ावा देने के लिए अनेक प्रकार से प्रलोभन दे रही है। इसलिए सूखे की समस्या निर्मित हो रही है।  जो बढ़ती जाएगी कितनी भी बरसात हो जाये इस में कोई इजाफा होने की सम्भावना नहीं है।

यदि हमे सूखे से निजात पाना  है तो हमे दलहनी पेड़ों के साथ बिना जुताई की  गेंहूं और चावल की खेती करना ही पड़ेगा। पेड़ बरसात के पानी को बादल बना कर बरसात करवाने में  बहुत सहायक रहते हैं। ये बरसात के पानी को जमीन के भीतर ले जाने में भी सहयोगी है। यही कारण है भरी गर्मी में पहाड़ों से झरने चलते हैं जबकि मैदानी इलाके में पानी पानी का शोर मचा  रहता है।






Friday, April 15, 2016

अब चल पड़ी बाबाओं की दुकान

सावधान ! बोतल बंद ,डिब्बा बंद और प्लास्टिक पाउच में भी हो सकता है जहर। 

अब चल पड़ी बाबाओं की दुकान  

जो कुदरत बनाती है वह इंसान नहीं बना सकता है। -- स्व. मसनोबु फुकुओका  जापान (कुदरती खेती के किसान)









Wednesday, April 13, 2016

सन और गेंहूं की कुदरती खेती

सन और गेंहूं  की कुदरती खेती 

जुताई , गोबर  और रसायनों  की जरूरत नहीं 

 देशी खेती किसानी में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिसमे किसान खेतों की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए सन को लगाते  रहे हैं।  सन एक दलहन जाती नत्रजन सप्लाई करने वाला पौधा है जो समान्यत: रस्सी बनाने के काम में आता है इस से गनी बैग्स भी बनाए जाते हैं।  इसकी फसल सामान्यत: बरसात में ली जाती है।
जैविक खेती करने के लिए किसान सन की हरी फसल को जमीन में जुताई  कर मिला देते है। किन्तु कुदरती खेती में सन की फसल ले ली जाती है। जब सन की फसल पक  जाती है इसे ऊपर से काट लिआ जाता है और गहाई  कर इसके बीज निकाल लिए जाते है। 
इसके बाद बचे  भाग के बीच गेंहूं के बीज छिड़क दिए जाते हैं और सन  के बचे भाग को काटकर खेत में  जहां का तहां गिरा दिया जाता है जिस से गेंहूं के बीजों पर ढकावन बन जाती है बीज सुरक्षित ही जाते हैं। 
  तदुपरांत सिंचाई कर दी जाती है। जिस से गेंहूं के बीज अंकुरित होकर ऊपर छा जाते हैं। जिस से बिना जुताई , बिना यूरिया ,बिना गोबर की खाद दिए बंपर फसल उतरती है। 

जबसे हमारे देश में "हरित क्रांति " का आगमन हुआ है तब से किसान मशीनों और रसायनों का बहुत उपयोग करने लगे है।  जिस के कारण खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे है। 
खेती किसानी घाटे का सौदा बन गयी है।  अनेक किसान खेती किसानी छोड़ रहे है। लागत  अधिक हो जाने के कारण और पर्याप्त लाभ नहीं मिलने के कारण कर्जों  के कारण किसान आत्म हत्या भी कर रहे हैं। 
 असल में किसानो  पता नहीं है की जुताई करना कितना हानि कारक है।  जुताई करने से बरसात का पानी जमीन में नहीं सोखा जाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेतों की जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है। 
जुताई नहीं करने और नरवाइयों  (Straw) को  जहां  का तहां आड़ा तिरछा डाल देने से खेतों में पर्याप्त जैविक खाद जमा हो जाती है जिसके कारण रासायनिक और गोबर की खाद की बिलकुल जरूरत नहीं रहती है। इस विधि से साइल हेल्थ अच्छी  हो जाती है इस कारण फसलों में बीमारियों और खरपतवारों की समस्या नहीं रहती है।  इसलिए किसी भी प्रकार की जैविक या अजैविक दवाई की जरूरत  नहीं रहती है। 

आजकल अनेक लोग किसानों को रासायनिक खादों के बदले गोबर और गोमूत्र से बनी दवाइयां डालने की सलाह दे रहे हैं किन्तु वे जुताई को हानि कारक नहीं बताते हैं।  जबकि एक बार जुताई करने से खेत की आधी जैविक खाद बह  जाती है और  गैस बन कर  उड़ जाती है।  जुताई करके अपने खेत की जैविक खाद को नस्ट कर ,रासायनिक खाद ,जैविक खाद ,बायो फ़र्टिलाइज़र , अमृत पानी /मिटटी का उपयोग एक मूर्खता पूर्ण कार्य है। 
बरसात का पानी जमीन में नहीं जाने कारण भूमिगत जल की हानि अलग है। 

हमने अपने खेतों में पिछले तीस सालो  से जुताई  नहीं की है न ही कोई भी रसायन या जैविक खाद का उपयोग किया है। हमारे खेत पूरी तरह कर्ज ,अनुदान और मुआवजे से मुक्त हैं। साइल हेल्थ हर साल बढ़ रही है भूमिगत जल में भी इजाफा हो रहा है। बरसात का पूरा पानी खेतों के द्वारा सोख लिए जाता है। 
  




Wednesday, April 6, 2016

जहरीले खाने से कैसे बचें ?



स्वाद ,खुशबू और जायके  से पहचाने कुदरती आहार। 

खेतों में की जाने वाली जुताई  और जहरीले रसायनों का सबसे बड़ा दोष है। 
भारत में अधिकतर गेंहूं और चावल को मुख्य आहार के रूप में इस्तमाल किया जाता है। ये ही वो  मुख्य अनाज है जिन्हे हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने हरित क्रांति के माध्यम से प्रोत्साहित किया है। इन अनाजों की खेती करने के लिए सरकार किसानों को पूरी सहायता उपलब्ध कराती है। इन फसलों की खेती में काम आने वाले बीज , रसायन ,मशीनों और सिंचाई के लिए पूरी सहायता सरकार से मिलती है।  जो कम्पनियाँ इन उत्पादों का धन्दा करती हैं वे भी सरकार से अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त कर रही हैं। इन उत्पादों की बिक्री भी सरकार के माध्यम से सम्पन्न होती है। इसलिए यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है है की इन मोटे  अनाजों की खेती पूरी  कि पूरी सरकारी है। 

जहरीले खाने से कैसे बचें ?





किन्तु अब इस सरकारी खेती पर ग्रहण लगने लगे हैं। खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं उनमे उर्वरकों ,जुताई  , रसायनों और सिंचाई  की लागत बढ़ती जा रही है।  खेतों के मरुस्थलीकरण के कारण फसलों में खरपतवारों और बीमारियां भी तेजी से बढ़ रही हैं इसलिए कीट नाशकों और खरपतवार नाशक जहरों का अतिरिक्त खर्च बढ़ते क्रम में आ रहा है।  जिसका फायदा इन कीट नाशक  को बनाने  वाली कम्पनियां उठा रही हैं।

इन रासायनिक जहरो  से एक और जहाँ हमारी रोटी में जहर घुल रहा है वहीं किसान के लिए इनकी लागत एक मुसीबत बनते जा रही है। यदि किसान जहर नहीं डालते  हैं तो उनकी फसलों के बर्बाद होने का खतरा रहता है। इस लिए ना चाहते हुए भी किसान  इन जहरों को खरीदकर डाल  रहा है।

जिसके कारण फसले के साथ साथ हवा ,पानी और मिट्टी भी जहरीली होती जा रहे है। जिसके कारण अब फसलों का उत्पादन बहुत तेजी से गिरने लगा है। लागत अधिक होने और आमदनी के कम हो जाने के कारण खेती किसानी  घाटे का सौदा बन गयी है। घाटे  के कारण अब बड़े किसान भी आत्म  हत्या करने और खेती किसानी छोड़ने लगे हैं।
जहरीली मिट्टी में जहरीली फसल पनपती है।   

गेंहूं और चावल आजकल सबसे अधिक जहरीले अनाजों में गिने जाते है। जब किसान अपने खेत में गेंहूं की सरकारी खेती करता है वह अनेक प्रकार रासायनिक तत्वों को डालता है जिन्हे NPK  कहा जाता है। ये तत्व अधिकतर पेट्रोलियम पदार्थों से बनते हैं। असल में जब किसान गेंहूं और चावल बोते हैं वे अपने खेतों के सभी नरवाई आदि को जला देते हैं फिर खेत को ट्रेक्टेरों की सहायता से गहराई तक खोदते और जोतते हैं। जिसके कारण बरसात का पानी जमीन में नहीं सोखा जाता है वह तेजी से बहता है अपने साथ खेतों की जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है। इसलिए खेत मरू होते हैं मरू खेतों में NPK , अनेक किस्म के सूख्स्म तत्व और टॉनिक  ,कीटनाशक और खरपतवार नाशक आदि खेत में डालते हैं। ये सभी गैर -कुदरती रासयनिक तत्व खेत की मिटटी जो जीवित है को पसंद नहीं आते हैं। इसलिए यह मिट्टी इन तत्वों को उड़ा  देती है जिस के कारण कुदरती तत्व भी उड़ जाते हैं और मिट्टी बेजान और जहरीली हो जाती है। इसमें पैदा होने फसलें भी जहरीली होने लगती हैं।

जहरीले आहार  से हमारे शरीर को क्या  नुक्सान है ?

अधिकतर लोग समझते हैं की केवल जहरीले रसायनों के कारण ही फसलें जहरीली होती है यदि जहरीले रसायन नहीं डाले  जायेंगे तो फसलें  जहरीली नहीं होंगी यह भ्रान्ति है। इसमें जमीन की जुताई  का सबसे बड़ा दोष है एक बार की जुताई से खेत की अधि ताकत नस्ट हो जाती है हर बार जुताई करने से यह ताकत लगातार घटती जाती है।  जिसके कारण   खेतों में फसलों को पैदा करने की ताकत नस्ट हो जाती है। फसले कमजोर और बीमार पैदा होती है जिसमे जहरीले रसायन आग में घी डालने का काम करते हैं।
जहरीली फसलों में  पोषक तत्वों की भारी कमी रहती है इसको खाने से शरीर को जिन  तत्वों की जरूरत रहती है वे नहीं मिलते हैं इस कारण जितना भी हम कहते है है वह शरीर को नहीं लगता है।  इसके कारण कुपोषण की बी मरी हो जाती है। कुपोषित शरीर में अन्य बीमारियां भी अपना  घर बना लेती है। यह तो हम सब जानते हैं।

किन्तु सवाल यह है की हम अब इस समस्या से कैसे  से कैसे बचें।

रासायनिक गेंहूं और चावल का त्याग करें छोटे अनाज जैसे ज्वार ,मक्का ,बाजरा ,राजगीर कोदों ,कुटकी समां आदि का सेवन करें। सब्जियों में कठहल ,मुनगा आदि का सेवन किया जा सकता है।  सफडफरम की मुगी के बदले देशी मुर्गी और उनके अण्डों का सेवन करें।  दूध के लिए पैकेट के दूध का सेवन  न करे हो सके तो बकरी के दूध का सेवन करें।

उपभोक्ताओं को चाहिए अपने आसपास के किसानो को जुताई  आधारित रासायनिक खेती को छोड़ने और कुदरती खेती करने के लिए प्रेरित करें ,कुदरती आगनबाड़ी और ऑर्गनिक रूफ गार्डनिंग करे और  प्रसार प्रचार करें।  जागरूकता कमी सबसे बड़ी बाधक है सब मिलकर प्रयास करने की जरूरत है।

Friday, April 1, 2016

आयुर्वेद दुकान नहीं है !


आयुर्वेद दुकान  नहीं है !

आयुर्वेद कुदरत के साथ जीवन जीने की कला है उसे दुकान न बनाये। 

मारे ऋषि जन जंगलों में रहते थे और आज भी रह रहे हैं। वो आजकल के बाबाओं की तरह शहरों में ना रहते थे ना हवाई जहाजों घूमते थे।
उनके ज्ञान से हम आज तक सुरक्षित हैं। परम्परागत देशी खेती किसानी में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिसमे जंगलों से अनेक प्रकार फल ,सब्जियां ,अनाज बिना उगाये सालो  साल मिलते रहते थे। जिसमे मूल बात इन वनस्पतियों को बचाने के आलावा कुछ नहीं रहता था। फल सब्जियों को खाकर उनके बीज जहाँ वापस जमीन पर फेंक देते थे। मल  विसर्जन भी अन्य जानवरों की तरह होता था जिस से बीजों का विसर्जन भी हो जाता था। इस प्रक्रिया में कुदरत का बिलकुल नुक्सान नहीं होता था। हरियाली पूरी तरह सुरक्षित रहने से कुदरत जिन्दा रहती थी। इसीलिए हम लोग आज तक धरती माता ,नदी ,पर्वत ,पेड़ पौधों को पवित्र मानकर पूजते हैं।
भारतीय देशी खेती किसानी जिसमे खेतों ,जंगलों और पशु पालन ,चरागाहों के समन्वय से अनाज ,फल सब्जियों की खेती की जाती थी। जिसमे ऐसे कोई भी काम नहीं किए जाते थे जिस से कुदरत माता को नुक्सान होता हो। यही कारण है हमारी देशी खेती किसानी हजारों साल टिकाऊ रही और आज भी है।  हमारे ऋषि जन इस में पूरा सहयोग करते थे।

किन्तु इस कुदरती खेती किसानी को वव्यापारिक  रासायनिक खेती के आलावा व्यापारिक  नीम हकीमो ने बहुत नुक्सान पहुँचाया है। उनके कारण खेती आज रसायनो , मशीनो और अनेक टोने टोटकों का शिकार हो गयी है।
जिसके कारण एक और हमारा हरा भरा पर्यावरण रेगिस्तान में तब्दील हो गया है और   खेती किसानी घाटे  का सौदा बन गयी है।

रासायनिक यूरिया में नीम मिलाया जाने लगा है। मेलाथियोन के साथ गोबर और गोमूत्र का उपयोग होने लगा है। इस कारण अब किसान ऋषिजनो के ज्ञान को भूल गए हैं। ऋषि खेती के बदले 'जैविक खेती 'की बात की जाने लगी है।  हर किस्म की डाक्टरी चल बैठी है जिसमे रासयनिक दवाओं की तर्ज पर आयुर्वेदिक दवाओं का भी बोल बाला  हो गया है।

असल में बहुत कम लोग इस बात में विश्वाश करते हैं की जो  कुदरत बनाती है वह इंसान  नहीं बना सकता है।
ऋषिजन जंगलों में रहते थे वे न तो खेत जोतते थे ना बीज  बोते थे  ना वे किसी भी प्रकार के कीट या खरपतवारों को मारने  का काम करते थे न ही वे सिचाई करते थे।  फिर भी उन्हें साल भर खाने के लिए कुदरती आहार ,साँस लेने के लिए कुदरती हवा पीने के लिए कुदरती बरसात नियमानुसार उपलब्ध रहती थी।

हम पिछले तीस साल से अपने पारिवारिक खेतों में ऋषि खेती का अभ्यास कर रहे हैं जिसमे जमीन की जुताई ,किसी भी रासायनिक या आयुर्वेदिक दवा की जरूरत नहीं रहती है। खेती कुदरती खेती कहलाती है। कुदरत हमे सब कुछ देती है हमे कुछ भी बाजार से लाने की जरूरत नहीं रहती है।

कुदरत का नियम है की बीज जमीन पर गिरता है अपने मौसम में उग कर पेड़ बन जाता है जो फिर असंख्य फल बढ़ते क्रम में देता है। किन्तु यह जब गुस्सा हो जाता है जब हम उसके जीवन चक्र में रासायनिक या आयुर्वेदिक डाक्टरी की दखलंदाजी करने लगते हैं।

अब समय आ गया है की हम असत्य वैज्ञानिक और असत्य धार्मिक ज्ञान से हट कर कुदरत के सत्य और अहिंसातमक ज्ञान  को समझें और अपने जीवन में अमल में लाएं।  इसके लिए कुदरत से अच्छा कोई गुरु नहीं है। जो हमारे बिलकुल करीब है। जिसे देखने के लिए हमे केवल आँखे खोलने की जरूरत है।