गहराता जल संकट दोष खेती में की जा रही जुताई का है।
बिना जुताई खेती से बढ़ाएं भूमिगत जल स्तर।
हमारा ऋषि खेती फार्म होशंगाबाद की जीवन दायनी माँ नर्मदा नदी के तट पर बसा है। जिसमे पानी की कोई कमी नहीं है। हमारे फार्म में उथले देशी कुए हैं जो 40 फ़ीट तक ही गहरे हैं जो साल भर पानी से लंबा लब रहते हैं। एक और जहाँ हमारे आस पास के खेतों के कुए भरी बरसात में दम तोड़ देते हैं वहीं हमारे कुए भरी गर्मी में भी भरे रहते हैं।
किन्तु ऐसी स्थिती तब नहीं थी जब हम आधुनिक वैज्ञानिक खेती को अमल में लाते थे जिसमे गहरी जुताई और कृषि रसायनो जरूरी रहता है। हरयाली को दुश्मन मान कर मार दिया जाता है। यह परिस्थिति तब बनी जब हमने बिना जुताई की कुदरती खेती को अमल में लाना शुरू किया।
इस बात से यह सिद्ध हो जाता है की
" जमीन में जल के संचयन के लिए हरियाली आधार है और जमीन की जुताई हरियाली का दुश्मन है। "
असल में जब भी हम जमीन की जुताई करते हैं जुती हुई बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड़ में तब्दील हो जाती है जो बरसाती के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है इसलिए पानी तेजी से बह जाता है साथ में अपने साथ जुती हुई बारीक उपजाऊ जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है जिस से भूमिगत जल का स्तर लगातार घटता जाता है और खेत कमजोर होते जाते हैं।
" जमीन में जल के संचयन के लिए हरियाली आधार है और जमीन की जुताई हरियाली का दुश्मन है। "
असल में जब भी हम जमीन की जुताई करते हैं जुती हुई बारीक मिटटी बरसात के पानी के साथ मिल कर कीचड़ में तब्दील हो जाती है जो बरसाती के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है इसलिए पानी तेजी से बह जाता है साथ में अपने साथ जुती हुई बारीक उपजाऊ जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है जिस से भूमिगत जल का स्तर लगातार घटता जाता है और खेत कमजोर होते जाते हैं।
ऋषि खेती करने के लिए जमीन की जुताई को नहीं किया जाता है जिस से जमीन अपने आप हरियाली से ढक जाती है। ये हरियाली पानी की जननी है जिसे हम खरपतवार कहते हैं। असल में खरपतवार कुदरती भूमि ढकाव का प्रबंध है जिसे बचाने से जमीन की जैव-विविधता बच जाती है जैसे केंचुए , चीटी, चूहे आदि जो जमीन को बहुत अंदर तक पोला बना देते हैं जिस से बरसात का पानी जमीन में समा जाता है।
जब से हमने जुताई को बंद किया तबसे कभी हमने बरसात के पानी को खेतों से बह कर बाहर निकलते नहीं देखा है वह पूरा का पूरा जमीन में समा जाता है।
जुताई नहीं करने से खेत वर्षा वनो के माफिक काम करने लगते हैं जो एक ओर बरसात को आकर्षित करते हैं वहीं बरसात के जल को जमीन में संचयित करते हैं। जिस से सूखे का समाधान हो जाता है।
जमीन की जुताई खेती में हजारों सालों से बहुत पवित्र काम माना जाता रहा है इसलिए किसान इसे करते हैं और कृषि वैज्ञानिक भी जानते हुए इसका विरोध नहीं कर पाते है। किन्तु आजकल बिना जुताई की खेती की अनेक विधियां अमल में लाई जाने लगी है। इसका मूल उदेश्य खेतों की जैविक खाद और बरसात के जल का संचयन है।
असल में किसान खरपतवारों और छाया के डर के बार बार जुताई करते रहते हैं जबकि ये खरपरवारे जमीन में जैविक खाद और जल के स्रोत हैं।
एक बार की जमीन की जुताई से जमीन की आधी जैविक खाद पानी के साथ बह जाती है इस प्रकार हर बार करीब १०-१५ टन /एकड़ जैविक खाद का नुक्सान हो जाता है। जिसकी कीमत लाखों /करोड़ों में है।
सूखे का मूल का कारण खेतों में की जा रही जुताई है जो अनावश्यक है। इसके कारण ही जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग समस्या बन रही है। बार बार बाढ़ आने का भी यही कारण है।
अब जब यह दिखाई देने लगा है की खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं और खेती किसानी घटे का सौदा बनती जा रही है तो जैविक खेती की बात हो रही है किन्तु जुताई के चलते जिसमे टनो जैविक खाद बह जाती है का कोई औचित्य नहीं है।
तवा कमांड का कृषि छेत्र जो मिनी पंजाब कहलाता है में तवा बाँध बनने से पहले बहुत उपजाऊ और पानीदार था। यहां एक साथ असिंचित 7 से लेकर 11 फसलें लगाई जाती थीं। भूमिगत जल का स्तर इतना ऊपर था की देशी उथले कुए बरसात में ओवर हो जाते थे। अनेक बाग़ बगीचे ,स्थाई चारागाहों तालाबों बावड़ियों के कारण यह छेत्र बहुत सम्पन्न था जिसे आधुनिक यांत्रिक रासायनिक खेती ने देखते देखते मरुस्थल बना दिया है। 11 -१२ अनाजों के बदले अब केवल गेंहूँ की फसल रह गयी है वह भी लुप्त होती जा रही है। सोयाबीन आया और चला गया ,धान अभी अपना पैर जमा नहीं पायी है की किसानो के दिल से उत्तर गयी है।
तवा कमांड की पूरी खेती कर्जे में फंस गयी है बाँध का पानी ,सरकारी कर्ज और आयातित तेल के बिना खेती अब हो नहीं सकती है। यह सब जानते हैं इसलिए जैविक की बात होने लगी है कुदरती खेती का नाम भर लेने वालों को अवार्ड मिलने लगे हैं।
बरसों से भूमिगत जल का स्तर घटते जा रहा है। यह मरुस्थल की निशानी है वो दिन दूर नहीं जब यह छेत्र भी बुंदेलखंड न बन जाये। ऋषि खेती एक बिना जुताई बिना खाद बिना दवाई और बिना मशीन से की जाने वाली खेती है जो पेड़ों के साथ की जाती है। जो मरुस्थलों को उपजाऊ और पानीदार बना देती है।
एक बार की जमीन की जुताई से जमीन की आधी जैविक खाद पानी के साथ बह जाती है इस प्रकार हर बार करीब १०-१५ टन /एकड़ जैविक खाद का नुक्सान हो जाता है। जिसकी कीमत लाखों /करोड़ों में है।
सूखे का मूल का कारण खेतों में की जा रही जुताई है जो अनावश्यक है। इसके कारण ही जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग समस्या बन रही है। बार बार बाढ़ आने का भी यही कारण है।
अब जब यह दिखाई देने लगा है की खेत मरुस्थल में तब्दील हो रहे हैं और खेती किसानी घटे का सौदा बनती जा रही है तो जैविक खेती की बात हो रही है किन्तु जुताई के चलते जिसमे टनो जैविक खाद बह जाती है का कोई औचित्य नहीं है।
तवा कमांड का कृषि छेत्र जो मिनी पंजाब कहलाता है में तवा बाँध बनने से पहले बहुत उपजाऊ और पानीदार था। यहां एक साथ असिंचित 7 से लेकर 11 फसलें लगाई जाती थीं। भूमिगत जल का स्तर इतना ऊपर था की देशी उथले कुए बरसात में ओवर हो जाते थे। अनेक बाग़ बगीचे ,स्थाई चारागाहों तालाबों बावड़ियों के कारण यह छेत्र बहुत सम्पन्न था जिसे आधुनिक यांत्रिक रासायनिक खेती ने देखते देखते मरुस्थल बना दिया है। 11 -१२ अनाजों के बदले अब केवल गेंहूँ की फसल रह गयी है वह भी लुप्त होती जा रही है। सोयाबीन आया और चला गया ,धान अभी अपना पैर जमा नहीं पायी है की किसानो के दिल से उत्तर गयी है।
तवा कमांड की पूरी खेती कर्जे में फंस गयी है बाँध का पानी ,सरकारी कर्ज और आयातित तेल के बिना खेती अब हो नहीं सकती है। यह सब जानते हैं इसलिए जैविक की बात होने लगी है कुदरती खेती का नाम भर लेने वालों को अवार्ड मिलने लगे हैं।
बरसों से भूमिगत जल का स्तर घटते जा रहा है। यह मरुस्थल की निशानी है वो दिन दूर नहीं जब यह छेत्र भी बुंदेलखंड न बन जाये। ऋषि खेती एक बिना जुताई बिना खाद बिना दवाई और बिना मशीन से की जाने वाली खेती है जो पेड़ों के साथ की जाती है। जो मरुस्थलों को उपजाऊ और पानीदार बना देती है।