खेसरी दाल की वापसी
जब से माननीय नरेंद्र मोदीजी ने सिक्किम को जैविक प्रदेश का नाम दिया है और हर प्रदेश को जैविक खेती करने का आव्हान किया और केंद्रीय खाद्य मंत्री श्री पासवान जी ने खेसरी दाल की तारीफ़ की है तब से रासायनिक खेती का बोरिया बिस्तर लिपटने लगा है। श्री पासवानजी का यह कहना की न मेरा परिवार स्व मेने बचपन में खूब इस दाल का सेवन किया है यह दाल बहुत ताकतवर और लाभप्रद है। इसी प्रकार श्री स्वामीनाथन जी की पुत्री भी इस दाल को देश में आये दाल संकट का हल मानती हैं।
मुझे याद है जब हम छोटे थे और रासायनिक खेती शुरू नहीं हुई थी बेलों से जुताई कर खेती की जाती थी। उन दिनों खेसरी दाल को बरसात के बाद बो दिया जाता था जो मूल रूप से बेलों को चारे के रूप में देने के लिए बोया जाता था इसको खाने से बैल बहुत जल्दी मोटे हो जाते थे जिनसे बहुत जुआई का काम लया जाता था।
खेसरी दाल का सबसे अच्छा गुण यह था की इसका बीज जमीन पर पड़ा रह जाये तो यह सुरक्षित रहता है जो अपने मौसम में अपने आप उग आता है। यह खेतों में जबरदस्त नत्रजन प्रदान करने वाला पौधा है तथा इसमें जबरदस्त प्रोटीन होता है जो खाने के लिए सर्वोत्तम है।
इन्ही गुणों के कारण इस दाल को प्रतिबंधित कर दिया गया था। यह प्रतबंध व्यापारिक सोच के चलते किया गया था। प्रतिबंध के बाद भी इस दाल का चलन आज भी होता है इसकी दाल अरहर की दाल में मिलावट के काम में आती है। दूसरा देशी परम्परागत खेती किसानी में यूरिया का चलन किसानो को स्वीकार्य नहीं था इसलिए भी इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
यह कहा जाता है की इसमें जहर है जिस से लखुए का रोग हो जाता है यह भ्रान्ति है। जबकि यूरिया और अनेक किस्म के भोपाली जहर खुले आम चल रहे जिनसे एक अनेक बीमारियां हो रही है किन्तु खेती किसानी के डॉ इसका विरोध नहीं करते हैं।
खेसरी दाल एक बहुत अच्छा कम या बिना सिंचाई के होने वाला ग्राउंड कवर की फसल है जो नत्रजन देने के आलावा ,नमी के संरक्षण और खरपतवारों और कीड़ों की रोक थाम में बहुत ही महत्व पूर्ण फसल है। यह बिना जुताई की जैविक खेती की जान है।
अब जबकि रासायनिक खेती के कारण खेत बंजर होने लगे है खेती अलाभकारी हो गयी है अनेक किसान खेती छोड़ रहे हैं या आत्म हत्या कर रहे हैं। इस दाल का महत्व समझ में आ रहा है इस लिए इसको वापस लाने की कोशिश हो रही है। हम इसका स्वागत करते हैं।
भारतीय परम्परगत देशी खेती किसानी में दालों का बहुत महत्व था हर किसान खेतों की नत्रजन बरकरार रखने के लिए दालों को बोया करता था जिसमे सिंचाई ,जमीन की जुताई और मानव निर्मित जैविक खादों की कोई जरूरत नहीं है।
अरहर के साथ ११-१२ अनाजों को बो दिया जाता था जिनसे साल भर की खेती आसानी से हो जाती थी किन्तु जब से हरित क्रांति के नाम से सिंचाई पर आधारित रासायनिक खेती का आगमन हुआ है तब से किसान कंगाल होने लगे हैं। खेती में हो रहे घाटे का कारण किसान खेती छोड़ रहे हैं।
केवल खेसरी दाल के वापस आने से दालों समस्या हल होने वाली नहीं है। दालों को यदि वापस लाना है तो रासायनिक यूरिया पर प्रतिबन्ध लगाना होगा क्योकि यही वह रसायन है जिसने दालों के महत्व को कम कर दिया है। दूसरा सबसे अधिक घातक उपाय है जमीन की जुताई जिस खेतों की नत्रजन गैस बन कर उड़ जाती है और खेतों की जैविक खाद बह जाती है।
हम पिछले 30 सालो से बिना जुताई करे जैविक खेती को अमल में ला रहे हैं जिसे हम ऋषि खेती कहते हैं। इसमें हम मूल रूप से दलहन फसलों से नत्रजन पैदा करते हैं जिसके सहारे गेंहूँ और चावल को बोते हैं जिस से हमे बंपर फसलें मिल जाती हैं।
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