Friday, February 27, 2015

प्रधानमंत्रीजी की मिट्टी परिक्षण योजना

प्रधानमंत्रीजी की मिट्टी परिक्षण योजना

किसान स्वं अपनी मिट्टी को जाँच कर अपने खेतों को सुधार सकते है। इस से किसान और सरकार पर पड़ने  वाले आर्थिक बोझ में 80 % कम होने की संभावना है। 

माननीय  प्रधान मंत्रीजी ने यह सही कहा की किसानो को यह मालूम होना चाहिए जिस मिट्टी से वह फसल उगा रहा है वह लगातार वर्षों से जुताई और रसायनो के  कारण वह मिट्टी खराब तो नहीं हो गयी है। इसलिए उसे स्वं अपने ही इलाके में अपने ही  तरीकों से मिट्टी का प्रशिक्षण कर मालूम कर लेना चाहिए की मिट्टी में किन किन तत्वों की जरूरत हैं।


 पिछले २८ सालो से अपने खेतों में कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं इस से पहले हम वैज्ञानिक खेती करते थे  से कृषि वैज्ञानिकों से मिट्टी का परिक्षण करवाते थे वो अपनी रिपोर्ट में बताते थे की आप अपने खेतों में अमुक उर्वरक इतनी मात्रा  में डालें हम उनके बताये अनुसार उर्वरक डालते रहते थे। किन्तु जब हमे वांछित परिणाम नहीं मिलते थे तो वे हमे दुसरे किस्म के उर्वरकों को डालने की सलाह देते थे।

इस  प्रकार हमेशा वैज्ञानिकों के द्वारा करवाई जा रही मिट्टी की जांच और उनके द्वारा बताये उर्वरकों का उपयोग करने के बाद भी हमारे खेत बंजर हो गए तो हमारे पास खेती को छोड़ने  के सिवाय कोई उपाय नहीं बचा था। आज भी  वैज्ञानिक खेती की यही दशा है  इस कारण खेती घाटे में है  किसान खेती छोड़ रहे हैं ,आत्महत्या कर रहे हैं।


 वैज्ञानिक लोग  इस समस्या का दोष किसान के ऊपर ही मढ़ रहे हैं।  उनका कहना है किसान मिट्टी की जाँच नहीं करवाते हैं हमारे बताये  अनुसार गोबर की /उर्वरक नहीं डालते हैं जरूरत से अधिक कीट और खरपतवार नाशक डालते जा रहे हैं।
इसलिए उत्पादकता में कमी आ रही है।

 हमारे प्रधान मंत्रीजी निश्चित किसानो के प्रति चिंता रखते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है इसलिए वो चाहते हैं एक किसान को अपनी मिट्टी की जानकारी होना चाहिए। उसके अनुसार उसे फसलों के उत्पादन के लिए क्या  करना है स्व निर्णय लेने की जरूरत है। इस लिए उन्होंने एक बहुत अच्छी बात कही है की हर गाँव के आसपास स्कूल रहते हैं वहां  से वे पढ़ने वाले बच्चों  की सहायता से अपनी मिट्टी की जांच कर उचित उपाय कर फसलों का उत्पादन करें।

भारतीय परम्परागत प्राचीन खेती किसानी में में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब किसान अपनी  मिट्टी को जांचने के अनेक देशी उपाय अमल में लाते थे तथा उसके अनुसार अपने खेतों को बंजर होने से बचा लेते  थे। जैसे आज भी ऋषि पंचमी के पर्व में कांस घास की पूजा होती है किसान जब देखते थे उनके खेत कांस से भर गए हैं वे जुताई बंद कर देते थे जिस से उनके खेत की कांस गायब हो जाती थी और पुन: खेत  ताकतवर हो जाते थे। उन दिनों तो कोई रासायनिक उर्वरकों का उपयोग नहीं होता था। इसलिए प्रश्न उठता है की फिर क्यों खेत कमजोर हो जाते थे। असल में कांस घास  जुताई के कारन होने वाले भूमि छरण  के कारण पैदा होती है उसकी जड़ें  २५-३० फ़ीट तक नीचे पानी की तलाश में चली जाती हैं।  इस परिस्थिति में किसान के लिए खेती करना असम्भव हो जाता है। किन्तु जब वह जुताई बंद कर देता है भूमि छरण रुक जाता है और कांस गायब हो जाती है।

कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती भी कहते हैं वह जुताई के बगैर की जाती है इसका सबसे बड़ा फायदा यह   है की खेत की मिट्टी जो असल में जैविक खाद है वह बहती नहीं है।  जुताई करने से बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है वह अपने साथ खाद /मिट्टी को भी बहा  कर ले जाता है। इसलिए खेत बंजर जाते हैं।

इस बात को अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं इस वीडियो को देखें

 --                                                https://www.youtube.com/watch?v=q1aR5OLgcc0&feature=player_detailpage


जब हमने इस वीडियो को देखा तो हमने भी अपने खेतों की मिट्टी की जांच करने के लिए अपने घर  में ही सधारण यंत्र बना कर अपनी मिट्टी की जाँच कर देखा तो हमे भी पहली मर्तवा विश्वाश नहीं हुआ की मिट्टी की जांच करना इतना सरल है। देखें http://youtu.be/CT1YfZqorGw

इसे भी देखें
https://www.youtube.com/watch?v=XSJdyQ_Yymk&feature=player_embedded
हलकी हम अनेक सालो से बिना जुताई की खेती कर रहे हैं किन्तु हम अब दावे के साथ कह रहे हैं कि किसान को स्वम् अपनी मिट्टी की जाँच कर उचित उपाय करना चाहिए। अब समय आ गया है की वह वैज्ञानिकों और उनके द्वारा बताई गयी दवाइयों का आँख बंद कर उपयोग  नहीं करें।

हर खेत की मेढ़ पर बिना जुताई की मिट्टी मिल जाती है वह उसे अपने जुताई वाली खेतों की मिट्टी के बीच तुलना कर देख सकता है की जुताई करने से कितना नुक्सान है।

अनेक वैज्ञानिक कहते हैं की जमीन में यूरिया डालने से खेत बंजर हो रहे  हैं ऐसा नहीं है असल में जमीने जुताई के कारण बंजर हो रहीं है किन्तु जब हम जुताई नहीं करते हैं तो खेतों की मिट्टी बहती नहीं है इसलिए यूरिया की कोई जररत नहीं रहती है। इसलिए कम्पोस्ट,अमृत पानी ,अमृत मिटटी को भी  बना कर डालने की  कोई जरूरत नहीं रहती है।



Thursday, February 26, 2015

भारत सरकार और म. प्र. सरकार की योजना

भारत सरकार और म. प्र.  सरकार की योजना 
BCRLIP प्रशिक्षण
"जिओ और जीने दो "

ऋषि खेती फार्म होशंगाबाद म प्र।


भारत एक कृषि प्रधान देश है।  किन्तु आज़ादी के बाद से जब से देश में "हरित क्रांति " (आधुनिक वैज्ञानिक खेती ) का आगमन हुआ है तब से किसान अपनी तरक्की के लिए एक कोल्हू के बेल को तरह तथाकथित विकास की धुरी के इर्द गिर्द घूम रहा है। वह आस लगाये है की अब उसकी मंजिल आने वाली है।

किन्तु भूमि ,जल ,जैव विविधताओं के छरण के कारण उसकी मंजिल दिन दूनी रात चौगनी गति से दूर होती जा रही है। इस का सबसे अधिक प्रभाव हमारे पर्यावरण पर पड़  रहा है। मौसम बिगड़ गया है ,सूखा बाढ़ और ज्वार  भाटों से आने वाली मुसीबत अब सामान्य हो गयी है।
जुताई नहीं ,रासायनिक उर्वरक नहीं ,कीट नाशक नहीं ,खरपतवार नाशक नहीं ,धान के गड्डे  बनाना नहीं , पेड़ों और खरपतवारों के संग गेंहूँ और चावल की खेती 

इसका सबसे बड़ा  कारण है "वृक्ष विहीन खेती " है। मीलो तक खेतों में पेड़ नजर नहीं आते हैं किसान मोटे अनाज की खेती के लिए पेड़ों को दुश्मन समझ कर रहने नहीं दे रहे  है। बरसात होती है पानी जमीन में नहीं जाता है वह अपने साथ जैविक खाद को भी बहा कर ले जाता है।

दूसरी और हमारा पर्यावरण एवं मौसम परिवर्तन विभाग वर्षों से खेतों में पेड़ लगाने हेतु प्रयास का रहा है वहीँ किसान पेड़ों को मशीन से उखड़वा रहे हैं। वन विभाग  जंगलो के छेत्र को सुरक्षा प्रदान करने के लिए अनेक कार्य योजना चला रहा हैं जिसमे "सतपुरा टायगर प्रोजेक्ट  " महत्व पूर्ण योजना है। जो होशंगाबाद और छिंदवाड़ा के बीच "टागर कॉरिडोर " के रूप में लाई गयी है। इसमें जंगलों के अंदर एवं बाहर ग्रामीणो की आजीविका के लिए पर्यावरणीय खेती को प्रोत्साहित करना है।

इस योजना का मूल उदेश्य गैरपर्या मित्र  खेती को पर्या मित्र खेती में परिवर्तित करना है। जिस से जल ,जंगल और जमीन के बीच सामंजस्य स्थापित हो। इसमें शेर जब जंगल से निकले तो उसे कोई घबराहट न लगे की वह कहाँ आ गया।  इसी  प्रकार ग्रामीणो को भी शेर और हिरन से होने वाले नुक्सान का कोई भय नहीं रहे। वे उनसे  अपने पालतू जानवरों की तरह प्रेम करें ,डरे नहीं ,मारे नहीं बल्कि उन्हें बचाएं।

यह एक सामाजिक पर्यामित्र  योजना है जिसमे आमआदमी की भागीदारी की जरूरत है। जिस से हम विलुप्त होती अनेक जैव विविधताओं को संरक्षित कर सकें। जंगल और जमीन से जुडी  तमाम जैव विवधताओं का हमारे  जीवन और आजीविका से गहरा सम्बन्ध है। हम एक दुसरे के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं।

किन्तु बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड  रहा है की हम रोटी के खातिर  जल ,जंगल और जानवरों को बहुत बे रहमी से मार रहे हैं। ऋषि खेती एक "सत्य और अहिंसा " पर आधारित जैवविविधताओं के संरक्षण से चलायी जा रही कुदरती रोटी आधारित योजना है।

BCRLIP  सरकार और मध्य प्रदेश सरकार के द्वारा जैव विविधताओं के संरक्षण से ग्रामीण आजीविका को पोषित करने की योजना है जिसमे ऋषि खेती होशंगाबाद को एक सर्वोत्तम माडल माना गया है। इसलिए मध्य प्रदेश के सतपुरा टागर प्रोजेक्ट ने टाइटस फार्म में प्रशिक्षण का कार्य शुरू किया  है। यह विश्व  में अब तक किये जा रहे तमाम प्रयोगो से उत्तम प्रोजेक्ट सिद्ध हुआ है।  इसके लिए हम म.प्र. सरकार को सलाम करते हैं।

हम जानते हैं की कुदरत हमारी माँ है वह हमे पाल सकती है यदि हम उसे जीने दें।  इसके लिए "जिओ और जीने दो "के सिद्धांत पर अमल करने की जरूरत है। स्वान  फ्लू , डेंगू  ,मलेरिया , बर्ड फ्लू के दोषी बेचारे जानवर नहीं है।  असली दोष तो हमारा है जिसने सीमेंट कंक्रीट के जंगलों के खातिर हरियाली को नस्ट कर दिया है। खेतों में चल रही जमीन की जुताई रासायनिक जहरों से पैदा रोटी,गैर कुदरती पानी ,और पेट्रोलियम से दूषित हवा  इन बीमारियों का असली कारण है।

 अभी कुछ दिनों से "सतपुरा टायगर प्रोजेक्ट " के अधिकारीयों और NGO के  लोगों ने फार्म में पधारकर टाइटस फार्म के माडल को देखा  और सराहा है अब वे किसानो को यहाँ पर भ्रमण करवा कर इस योजना से अवगत करवाएंगे।  इसके बाद इस योजना को किसानो के खेतों में लागू करने की योजना है।

 टाइटस ऋषि खेती फार्म एक निजी फार्म है जो इस योजना में स्वम् सेवा की भावना से सहयोग कर रहा है।


 

Tuesday, February 24, 2015

हमे स्मार्ट सिटी नहीं स्मार्ट खेत चाहिए

हमे स्मार्ट सिटी नहीं स्मार्ट खेत चाहिए  


ये जल जंगल जमीन  पर आश्रित आत्म निर्भर कुदरती(स्मार्ट ) खेती के  किसान लोग हैं .ये सभी एकता परिषद् की पद यात्रा कर राज्गोपल्जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक आन्दोलन करते हैं. ये महानगरों की चकाचोंध और तथा कथित "विकास" से कोसों दूर हैं .ये आम शहरी लोगों की  तरह सरकार पर आश्रित नहीं हैं .ये कुछ मांगते नहीं हैं ये अपनी  जमीन,जल ,जंगल से प्यार करते हैं . उसकी पूजा करते हैं उसे खराब  नहीं करते वरन संजोते हैं .ये विकसित हैं .बिना बिजली और पेट्रोल के रहना जानते हैं .अंग्रेजी राज  के समय से आज तक ये अपने को  बचाए हुए हैं। किन्तु अभी कुछ सालो से इनकी आजीविका को खतरा हो गया है।

 इनके जल, जंगल और जमीन को अनेक गेर पर्यावरणीय योजनाओ के तहत छीना जा रहा है।
कभी बड़े बांध की योजना आती है ,कभी सड़क की योजना आती है ,कभी बिजली  घर बनाने की योजना आती है ,कभी अस्पताल ,स्कूलों की योजना के नाम पर  ,कभी टायगर प्रोजेक्ट के लिए कभी  नॅशनल पार्क के लिए योजनाये आती रहती है। खदानों के लिए आदि इनकी जमीने छीनी जा रही हैं।

क्यों इनकी जमीन ही छीनी जा रही हैं ? असल में इनकी जमीने इनकी कुदरती खेती के कारण जलवायू की नजर में तथाकथित विकसित जमीनों की तुलना में बहुत उम्दा हैं जबकि विकसित  छेत्रों की जमीने अब मरुस्थल में तब्दील हो गयी हैं। वहां के किसान अब आत्महत्या करने लगे हैं। विकास तो केवल बहाना है।

पिछली कांग्रेस की सरकार भी आज की सरकार की तर्ज पर विकास कर रही थी इसलिए इन आदिवासियों ने सरकार पर दबाव डाल कर उनसे भूमि अधिग्रहण  बिल को ठीक करवाया था किन्तु नयी सरकार ने आते ही इस कानून को पलट दिया।  इस कारण बेचारे ये आदिवासी फिर से पद यात्रा कर आज दिल्ली आये हैं।

असल में आज कल पूँजीपति लोग सरकार को बनवाने और सरकार को गिरवाने में अहम् भूमिका निभाते हैं।  ये पूँजी पति लोग फिर सरकार  पर दबाव डाल कर अपना उल्लू  सीधा करते रहते हैं और ये सारा काम आमदमी के विकास के नाम पर  किया जाता है। यह विकास नहीं भयानक विनाश है।

मोजूदा सरकार ने अमेरिका की नक़ल से "स्मार्ट" शब्द लाया है वह सभी विकसित शहरों को स्मार्ट शहर बनाना  चाहती है जिसके लिए उसे  निजी जमीनों को अधिग्रहित करने की जरूरत है।इसलिए  वह इस कानून को बदलना चाहती है। जिस से निजी कंपनियों को रोजगार मिले और खूब कमीशन बटोरा जा सके। इसके लिए सरकार गरीबों के कल्याण की बात करने लगी है। 

हमारा कहना है की यदि सरकार सच में गरीबों का कल्याण करना चाहती है तो उसे "स्मार्ट " सिटी के बदले "स्मार्ट खेती" को बढ़ावा देना चाहिए। जैसा  ये आदिवासी लोग कर रहे हैं। ये कुदरती तरीके से जल ,जंगल को बचाते हुए अपनी आजीविका चलाते हैं। ये पानी ,बिजली ,पेट्रोल, मशीने और जहरीले रसायनों का उपयोग नहीं करते हैं। इनकी खेती करने की तकनीक हर हाल में अमेरिका और पंजाब की खेती से अधिक गुणवत्ता और उत्पादकता वाली है।

आधुनिक वैज्ञानिक सिचित खेती जो हरित क्रांति के नाम से जानी जाती है असल में" मरु खेती" है इसके कारण
स्वान फ़्लू ,केंसर ,बेरोजगारी ,भुखमरी ,सूखा और बाढ़ जेसी अनेक समस्याए हैं। गुजरात जेसे विकसित प्रदेश में" स्वास्थ  मंत्रीजी जी " स्वान फ्लू से पीड़ित हैं। दिल्ली जेसे विकसित कहे जाने वाले प्रदेश में AC में लोग मास्क लगाये बेठे हैं जबकि ये "स्मार्ट खेती के किसान" एक समय खाना खाकर ,१५ कम प्रतिदिन चलकर ,भरी ठण्ड में सड़कों पर सोकर निरोग आये  हैं और निरोग जायेंगे। ये कुदरती आवोहवा और खाना खाते हैं।

असल में जब से "मरू खेती "का असर  दिखाई देना शुर हुआ है तब से  मरू खेती के किसान जमीन को सरकार को ऊंची कीमत पर टिकाना चाहते हैं।  ये एक बहुत बड़ी मिलीजुली चाल है जिसे हमे समझने की जरूरत है। उसका कारण यह है की ये मरू खेती अब घाटे का सौदा बन गयी है।

किन्त सरकार यदि ईमनदारी से" मरू खेती" को स्मार्ट खेती में तब्दील करने पर ध्यान दे   तो अपने आप देश की आर्थिक ,सामाजिक ,पर्यावरणीय और अध्यात्मिक स्थित में सुधार आ  जायेगा। जिस से सरकार के कुल खर्च में आधे की बचत निश्चित है। उसे विकास के नाम पर  विश्व बैंक से कर्ज लेने की कोई  जरूरत नहीं है।
स्मार्ट खेती पेड़ों के नीचे बिना जुताई ,खाद ,दवाई गेंहूं की खेती

हमारा देश पढ़े लोगों नोजवानो  का देश है उन्हें स्मार्ट सिटी का सपना अच्छा लग सकता है किन्तु उन्हें पहले कोई स्मार्ट  सिटी के माडल को देखने की जरूरत है पूरी दुनिया में एक भी स्मार्ट सिटी नहीं है जहाँ इन आदिवासियों की तरह कुदरती आवोहवा और ,आहार  उपलब्ध हो।  यह एक धोका है।

अनेक लोग महानगरीय रहन सहन के कारण बीमार हो जाते हैं वे  कुदरती रहन सहन खान पान से बिलकुल  ठीक हो जाते हैं। केंसर ,स्वान फ्लू ,डेंगू, मलेरिया आदि बीमारियों का स्मार्ट खेती को कोई नहीं जाता है।
इसलिए हमारा कहना है की हमे स्मार्ट सिटी नहीं स्मार्ट खेती चाहिए।

 

Monday, February 23, 2015

Friday, February 20, 2015

जल ,जंगल और जमीन

जल ,जंगल और जमीन

कुदरत की और वापसी का मार्ग


बिना जुताई की कुदरती खेती एक मात्र उपाय है।

ब से भारत आज़ाद हुआ  तब से जल ,जंगल और जमीन की लगातार अवहेलना हो रही है। यही कारण है की मौसम अनियमित हो गया है सूखा  और बाढ़ मुसीबत बनते जा रहे है। सबसे विकसित कहे जाने वाले प्रदेश भी पानी पानी चिल्ला रहे हैं। बादल फटने और ज्वार भाटों की  समस्या आम हो गयी है। जंगल दिन प्रति दिन घट ते जा रहे हैं जंगलों में रहने वाले लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है उनकी आजीविका का  खतरा उत्पन्न हो गया है। खेत बंजर होते जा रहे किसान आत्महत्या करने लगे हैं।

इसके विपरीत शहरीकरण चरम सीमा पर है। जिस की आजीविका गैर शहरी छेत्रों पर टिकी है। जिसे विकास कहा जा रहा है।  असल में यह विकास नहीं वरन जल ,जंगल और जमीन का शोषण है।  २०% आबादी के लिए ८० % कुदरती संसाधन  उपयोग किया जा रहा है। यह २० % आबादी जिसे विकसित कहा जाता है पेट्रोल और बिजली की गुलाम हो गयी है।  विकास की धुरी इन्ही चीजों की आपूर्ति के इर्द गिर्द घूम रही है इसे ही विकास कहा जा रहा है।

विगत दिनों केंद्र की सरकार का चयन भी विकास के नाम पर हुआ है जिसमे २४ घंटे बजली मूल मुद्दा था इसी प्रकार हाल ही में दिल्ली की सरकार का चयन भी बिजली पानी जैसे मुख्य मुद्दों पर हुआ है। इस से सिद्ध हो गया है आजादी के बाद से सबसे विकसित कहे जाने प्रदेश भी आज जल ,जंगल और जमीन की अवहेलना के शिकार हैं उनके पास कोई सोच नहीं है।

हम सब जानते हैं की देश का स्वतंत्रता संग्राम "सत्य और अहिंसा "के मार्ग से लड़ा गया था जिसमे भारत की जल ,जंगल और जमीन पर आश्रित आबादी ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। आज़ादी के बाद जब देश के जल ,जंगल और जमीन के विकास का प्रश्न सामने आया तो  विकास का प्रश्न सामने आया तो उस समय आंदोलन के मुखिया गांधीजी नहीं रहे थे तो "सत्य और अहिंसा  " के मार्ग के अनुरूप जल ,जंगल और जमीन के विकास का भार गांधीजी के परम शिष्य आचार्य विनोबा भावे जी ने उठा लिया था।

विनोबाजी का कहना था की देश का स्थाई विकास जल,जंगल और जमीन के विकास के बिना संभव नहीं है उस समय उन्होंने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए स्थाई खेती विषय पर शोध कर ऋषि खेती की तकनीक को सर्वोत्तम पाया था। उनका कहना था अधिकतर आबादी खेती पर आश्रित है , जिसका आधार जल ,जंगल और जमीन है। ऋषि खेती "सत्य और अहिंसा " पर आधारित खेती है जिस से हर हाथ को काम मिलने की गारंटी के साथ साथ  कुदरत का  शोषण और प्रदूषण शून्य है.

किन्तु  अफ़सोस की बात है उस समय के  लोकतान्त्रिक नेताओं से लेकर आज तक नेताओं ने इस बात को नहीं माना  और देश पुन : कंपनियों का गुलाम हो कर रह गया है। हम अपने खेतों में पिछले २८ सालो से बिना जुताई की कुदरती खेती जिसे हम ऋषि खेती कहते कर रहे हैं। इस खेती का सिद्धांत  जल ,जंगल और जमीन का शोषण किए बगैर  अपनी आजीविका चलाना  है। जिसमे आयातित तेल ,भारी मशीनो, पशु बल  और जहरीले रसायनो का कोई उपयोग नहीं है।

 ऋषि खेती एक कुदरत की और वापसी का मार्ग है यह असली स्थाई विकास की पहली सीढ़ी है। देश में असली धन हमारे जंगल ,नदियां और खेत हैं। जिनका विकास करने के लिए धन की जरूरत नहीं है। ऋषि खेती को कर हम आसानी से खेती किसानी और जंगलों को बचाने  के लिए लगने वाले धन को बचा सकते हैं। स्वास्थ  सेवाओं पर लगने वाला खर्च भी इस से बच सकता है।



 

AAP gives first jolt; Andolans shall give 2nd, warn thousands of farmers


Wednesday, February 18, 2015

जंगल और खेतों की लड़ाई को थामने में कुदरती खेती का योगदान

जंगल और खेतों की लड़ाई को थामने में कुदरती खेती का योगदान



भारतीय पम्परागत प्राचीन खेती किसानी में जब अटाटूट जंगल थे उस समय खेती ,पशु पालन और जंगलों में एक समन्वय स्थापित रहता था। किसान पशु पालन और वनो के सहारे हजारों साल टिकाऊ खेती करते रहे हैं।  किन्तु जब से  विज्ञान के सहारे फसलोत्पादन ,पशु पालन और वनीकरण की शुरुवाद हुई है तब से खेती ,जंगल और पशु पालन अलग अलग विषय बन गए हैं जिनमे परस्पर असहयोग पनप रहा है।


एक और जहाँ किसानो के पशुओं से जंगलों को खतरा होने लगा है वहीं वन्य जीवों से फसलों  को नुक्सान हो रहा है। दोनों एक दुसरे को प्रतबंधित कर रहे हैं। वनो से ग्रामीण आबादी को हटाया जा रहा है उन्हें गैर संरक्षित छेत्रों में स्थापित किया जा रहा है। इसी प्रकार किसानो के खेतो की फसलों में जंगली जानवरों के नुकसान  को रोकने के अनेक उपाय खोजे जा रहे है।

हम पिछले करीब तीन दशकों से बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं इस खेती में तमाम जमीन से जुडी जैव विवधताओं जैसे पेड़ पौधे ,जीव जंतु ,कीड़े मकोडे ,पालतू जानवर ,और आँखों से नहीं दिखाई देने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं आदि को बचाते हुए फसलों  का उत्पादन किया जाता है। यह जैव विविधतायें  फसलोत्पादन  में  अहम भूमिका निभाती हैं।  आज तक हमने इनमे कोई लड़ाई नहीं देखी है। इतना ही नहीं हमारे इन खेतों में खतपरवार और फसलों की बीमारियों के कीड़ों की कोई समस्या नहीं है वरन उनका रहना  बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ है।
https://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=-aoKA2OtuGA
कुदरती खेती खेतों में अपने आप पनपने वाली वनस्पतियों जिन्हे आमतौर पर खरपतवार या नींदा कहा  जाता है , महत्वपूर्ण सिद्ध हुई हैं। इनके ीचे असंख्य जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े ,केंचुए ,दीमक ,चीटियाँ  आदि रहते हैं जो जमीन को उपजाऊ ,नम और छिद्रित बना देते हैं। जिनके सहारे बम्पर फैसले पैदा होती हैं।  इतना बखूबी होता है की कोई भी वैज्ञानिक तरीका ऐसा नहीं कर सकता है। पेड़ों के कारण खेत और अधिक उपजाऊ हो जाते हैं।

https://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=oC2DwiqJBu8

हमारे  खेतों में अनेक जंगली जानवर जैसे सूअर ,नेवले सांप ,मोर आदि सहज ही देखे जा सकते है ये हमारी फसलों को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाते है।

हमारा  मानना है की भारी  मशीने से की जाने वाली जमीन की जुताई और जहरीले रसायनो के कारण जंगली जैवविवधताएं गुस्सा हो जाती हैं इसलिए वे नुक्सान करने लगती है किसान इनको मारने  के लिए अनेक प्रकार के उपाय करते हैं जिस से  दुश्मनी बन जाती है।

बिना मशीनी जुताई और जहरीले रसायनो के उपयोग नहीं करने के कारण जंगली जैवविवधताओं को खेत अपने घर जैसे लगते हैं इसलिए वो हमे  भी अपना दोस्त समझने लगते हैं।  ना तो हम उनसे डरते हैं ना वो हम से डरते हैं।

कुदरती खेतों में हरियाली और तमाम जंगली जैव विवधताओं के बीच एक कुदरती संतुलन रहता है जिस से फसलों का कोई नुक्सान नहीं होता है।









 

धान की कुदरती खेती (Natural Paddy farming )

धान की कुदरती खेती

 एक गोली में कम से कम एक बीज होना चाहये 
पानी नहीं रुके इसलिए नालियां बना कर निकासी करना जरूरी है 
धान की कुदरती खेती करने के लिए जुताई ,रोपा लगाना ,कीचड मचाना आदि की कोई जरूरत नहीं।  धान की कुदरती खेती के लिए गड्डे बनाकर पानी को नहीं रोका जाता है। हम धान की खेती के लिए पहले धान के बीजों की क्ले के साथ बीज गोलियां बना लेते हैं फिर इन गोलियों को बरसात से पहले एक वर्ग मीटर में दस बीज गोलियों के हिसाब से जमीन पर रख देते हैं। इसे पिछली फसल के पुआल या नरवाई से ढक दिया जाता है।ढकावन   इस प्रकार होना चाहिए  की सूर्य की रौशनी नीचे तक जा सके जिसके सहारे धान अंकुरित होकर ढकावन  के बहार निकल आये।

Natural farming of Paddy

There is no need of tilling, making mud, making seedlings, making bunds in natural Paddy cropping.
1- Make seed balls with the help of clay. keep minimum one seed in one ball ,diya of ball is 1/2 inch .
2- Sowing 10 seed balls per sq. meter .
3- cover seed balls with straws of previous crop.
4- Cover of straw must be as sun light goes inside.
पिछली फसल की नरवाई /पुआल से ढांकना जरूरी है 
5- Stop water logging by making channels. Bunds
are not required. (as shown in picture )




Saturday, February 14, 2015

ऋषि को खेती को BCRLIP ने अपनाया

ऋषि को खेती को BCRLIP ने  अपनाया

म. प्र. के वन विभाग ने होशंगाबाद की ऋषि खेती योजना को
जैव् विविधता  संरक्षण और ग्रामीण आजीविका के लिए अपना लिया है।

 इसी तारतम्य में यहाँ वाइल्ड लाइफ के अधिकारीयों ,NGO आदि का दौरा अब चालू हो गया है।

समस्या क्या है  ?

समस्या यह है की एक ओर  जहां हमे खाने को आहार चाहिए  वहीं हमे  हमे कुदरती हवा और पानी भी चाहिए किन्तु देखा यह जा रहा है मौजूदा फसलोत्पादन और हरियाली के बीच जंग छिड़ी है।  एक और वन एवं पर्यावरण विभाग  हरियाली हेतु सजग हैं वहीं आधुनिक खेती के माध्यम से हरे भरे संरक्षित छेत्रों को मोटे अनाज के फसलोत्पादन के लिए जुताई वाले खेत बनाया जा रहा है।  जिस से हरे भरे संरक्षित छेत्र ,बाग़ ,बगीचे और चरोखर तेजी से नस्ट हो रहे हैं।

इसलिए संरक्षित छेत्रों को बचाने के लिए  जुताई आधारित  खेती से जुड़े  किसानो को संरक्षित छेत्र से विस्थापित कर उन्हें सुरक्षित  स्थानो पर बसाया जा रहा है।  इसमें दो समस्याएं जुडी हैं  पहली उन नए स्थानो पर जहाँ इस ग्रामीण आबादी को बसाया जा रहा है वहां उन्हें जंगलों के माफिक पर्यावरण उपलब्ध  करना है तथा दूसरी समस्या उन उजड़े वन छेत्रों की जहाँ  से किसानो को विस्थापित किया हैं उसे पुन  : हरा भरा बनाना है।

ऋषि खेती क्या है ?

होशंगाबाद म. प्र. विगत २८ सालो से भी अधिक समय टाइटस  फार्म में की जा रही खेती जो कुदरती खेती के नाम से जानी जाती है, में खेती पेड़ों के साथ की जाती है जैसा की हम जानते हैं की पेड़ जमीन को खाद ,पानी और हवा देते हैं तथा हमारी  फसलों को भी खाद ,पानी और हवा की जरूरत रहती है। ऋषि खेती हरियाली के सहारे  से की जाती है।  इसमें जुताई ,रसायनो ,मशीनो ,भारी  सिंचाई ,तथा कोई भी मानव निर्मित खाद और दवाइयों की जरूरत नहीं रहती है।

खरपतवारों और पेड़ों के नीचे असंख्य जीव ,जंतु ,कीड़े मकोड़े रहते हैं जो जमीन में खाद,पानी और छिद्रियता का इतजाम कर देते हैं। जिसके सहारे फसलो का उत्पादन करने से उसका लाभ फसलों को मिल जाता है और बंपर फसलें पैदा होती है जिस से हरियाली भी बच जाती है और जल चक्र बिगड़ता नहीं है।

BCRLIP (Biodiversity Conservation and Livlyhood improvement Project)

 यह  भारत सरकार की मानव कल्याणी  योजना है। जो होशंगाबाद के सतपुरा टायगर प्रोजेक्ट में चलायी  जा रही है  जिसमे जैविविवधताओं को  संरक्षित कर ग्रामीण आजीविका को पोषित करना है। यह योजना म. प्र. सरकार , भारत सरकार के  वन्य जीव संस्थान और विश्व बैंक के समन्वय से कार्यरत है। जिसमे सरकार के साथ अनेक NGO भाग ले रहे हैं।

इसी संदर्भ में टाइटस ऋषि खेती फार्म एक सर्वोत्तम मॉडल के रूप में स्वीकारा गया है ।  टाइटस फार्म एक निजी खेती किसानी वाला फार्म है। जो निजी स्तर पर पिछले २८ सालो से इस मानव कल्याणी  योजना  में लगा है। जिसका स्थान आज विश्व  में न.  वन है ।

हमे ख़ुशी है आज इतने वर्षों बाद इसे सरकार के द्वारा स्वीकारा  जा रहा है. वैसे तो इतने सालो  में यह विधा देश विदेश में फेल चुकी है अनेक लोगों ने इसे अपनाया है किन्तु यह पहला अवसर जब इसे स्थानीय स्तर पर सरकार के द्वारा अपनाया जा रहा है।

इसी तारतम्य में अब टाइटस ऋषि खेती फार्म में विस्थापित किसानो , NGO और वन कर्मियों के  प्रशिक्षण का कार्य शुरू हो गया है .








 

Friday, February 6, 2015

गेंहूँ की नरवाई से करें मूंग की कुदरती खेती

गेंहूँ की नरवाई से करें मूंग की कुदरती खेती

बिना जुताई की कुदरती खेती में जहां सिंचाई का साधन उपलब्ध है गर्मी की मूंग बहुत सहायक सिद्ध होती है
यह एक और जहां आर्थिक लाभ देती है वहींं खेतों में नत्रजन की मांग को भी पूरा कर देती है। इसका यह कारण है की इसकी जड़ों में नत्रजन (यूरिया ) सप्लाई करने वाले जीवाणु रहते हैं।

इसके लिए हमे गेंहूँ की नरवाई बिना बारीक की हुई की जरुरत रहती है सामन्यत : यह नरवाई हाइवेस्टर से प्राप्त हो जाती है अन्यथा हमे इसे पांव से चलने वाले थ्रेशर की सहायता से प्राप्त करने की जरुरत रहती है।

हम गेंहूँ की कटाई और गहाई  के उपरांत  मूंग के बीजों को  जमीन पर सीधे फेंक कर उसके ऊपर गेंहूँ की नरवाई को  इस प्रकार डाल देते हैं जिस से सूर्य की रोशनी  के सहारे बीज अंकुरित होकर ऊपर आ जाएँ। यदि नरवाई सघन हो जाती है तो बीज बाहर नहीं निकलते हैं।इसलिए नरवाई  प्रकार डालने की जरुरत है जैसे वह स्वम् अपने आप गिर जाती है।

गेंहूँ और धान की फसल नत्रजन (यूरिया ) को खाने वाली फसलें हैं जबकि मूंग नत्रजन देने वाली फसलें रहती हैं दोनों के समन्वय से जैविक खादों की आपूर्ती हो जाती है। मूंग की फसल जब थोड़ी बड़ी हो जाती है । हम उसमे धान की क्ले से बनी  बीज गोलियों को डाल  देते हैं ।  गर्मियों में मूंग पक जाती है।  धान की फसल तैयार होने लगती हैं।

ऋषि खेती में गेंहूँ  की नरवाई और धान की पुआल को जहां का थान लोटा देने से बढ़ते क्रम में फसलें मिलती हैं।  नरवाई एक और जहां बीजों को सुरक्षित करती हैं वहीं वो खरपतवार नियंत्रण और जलप्रबंधन में महत्व पूर्ण भूमिका निभाती हैं। अंत में वह सड़ कर उत्तम जैविक खाद देती है  कारण आगामी फसलों को कोई खाद की जरूरत नहीं रहती है।
नरवाई के ढकाव में फसलों में कोई रोग नहीं लगते हैं उदाहरण के लिए इल्लियां जब आती हैं  भीतर रहने वाली छिपकलियां आदि उन्हें चट  कर जाती हैं।