Friday, March 30, 2012

गंगा मां और ऋषि खेती


           गंगा मां और ऋषि खेती
    वैसे तो हर नदी हमारी पवित्र  और पूज्यनीय है किन्तु अब भारत की सभी नदियों के अस्तित्व का संकट मंडराने लगा है. नदियों में लगातार पानी कम हो रहा है वे सूखने लगी हैं, कम पानी होने कारण प्रदुषण चरम सीमा पर पहुँचने लगा है.  यदि यही हाल रहा तो उन तमाम नदियों की तरह जो  सूख चुकीं हैं  गंगा जैसी जैसी अनेक बड़ी बड़ी नदियाँ भी सूख जाएँगी. इस लिए हमें पता लगाना पड़ेगा की इस समस्या के पीछे राज क्या है. क्यों नदियों में पानी कम होते जा रहा है? इस सम्बन्ध में अनेक लोगों के अनेक मत हैं.कोई कहता है की नदियों पर बन रहे बांधों के कारण नदियाँ सूख रही हैं. कोई कहता की नदियों के केचमेंट में जंगलो के कट जाने से पानी की कमी की समस्या निर्मित हुई है. कोई कहता अत्यधिक पानी के शोषण के कारण ये हाल हैं.कोई गाद के भर जाने से पानी कम हो रहा है कहता है.
   हमें इस बात पर ध्यान देने की जरुरत है की आखिर नदियों में पानी कहाँ से आता है. इस में बड़े मत भेद है लोग कहते हैं जहाँ से नदियाँ
  निकलती हैं पानी वहां से आता है.
  कितु हम जो पिछले दो दशको से अधिक समय से नर्मदा नदी के किनारे होशंगाबाद में अपने खेतों में निजी स्तर पर ऋषि खेती का अभ्यास कर रहे हमने कुछ और ही पाया है.
     हमारा मानना है की नदियों का  पानी धरती की देन है नदियों के केचमेंट में यदि धरती में जल है तो ही नदियों में जल रहेगा और बरसात होगी. धरती में उपलब्ध जल के सोते एक और जहाँ नदियों को साल भर पानी उपलब्ध कराते हैं वही ये जल वास्प के माध्यम से बादल बन बरसता हैं.
    अब कोई भी कहेगा की इस का खेती से क्या सम्बन्ध असल में खेती में चल रही जमीन की जुताई का इस से बहुत गहरा सम्बन्ध है. जब भी जमीन में फसलों के उत्पादन के लिए जमीन को  जोता जाता है. तब बारीक बखरी  मिट्टी बरसात के पानी के साथ मिलकर कीचड में तब्दील हो जाती है जिस से बरसात का पानी जमीन में नहीं जाता है. वह तेजी से बहता है. जिस के कारण धरती प्यासी रह जाती है. इस कारण जहाँ पहले उथले कुए ओवर होते थे वहां एक हजार फीट नीचे तक पानी का नामो निशान नहीं है.
  यदि हम आसमान  से नीचे देखे  तो हमें  हर नदियों के केचमेंट में जुताई वाले खेत या रेगिस्थान ही नजर आएंगे. जहाँ पहले हरे भरे कुदरती वन हुआ करते थे, जहाँ पहले अनेक बाग बगीचे हुआ करते ,जहाँ अनेक स्थाई चारागाह हुआ करते थे वहां अब दूर  दूर तक मोटे अनाज के खेत या पनपते रेगिस्थान ही नजर आएंगे. असल में जब से हरित क्रांति का आगाज हुआ है तब से हमारी नदियों के केचमेंट में भारी जुताई मशीनो से के जाने लगी जिस से तेजी से हरियाली खेतों में और खेत रेगिस्थान में तब्दील होने लगे.
     हमारे यहाँ ऋषि पंचमी के पर्व में आज भी कांस घास की पूजा  होती है और बिना जुताई करे पैदा हुए अनाजों को  खाने की सलाह दी जाती है. कांस घास एक ऐसा पौधा है जो पानी की कमी के कारण पैदा होता है. इस की जड़े जमीन के भीतर बहुत गहराई जहाँ पानी रहता है तक चली जाती हैं.  जिसे  जितना  खोदो वह उतनाबढ़ता है   किसान जब देख लेते थे की उनके खेतों में कांस फूलने लगी है वेसमझ जाते थे की अब पानी नीचे चला गया है. यानि खेत सूखने लगे हैं. वे खेतों में जुताई बंद कर देते थे. कुछ सालों में खेत पुन: पानीदार हो जाते थे और कांस राम राम करती चली जाती थी.
    असल में जो काम  कुदरत कर सकती है वह इंसान नहीं कर सकता चाहे आप अरबो रु खर्च कर दीजिये. ऋषि खेती एक ऐसी ही बिना खर्च की खेती है जिस में जुताई नहीं की जाती है , जुताई नहीं करने से बरसात का पानी बहना पूरी तरह रुक जाता है वह जमीन में रहने वाले जीव जंतुओं, कीड़े मकोड़ों ,और सूक्ष्म जीवाणुओं के द्वारा बनाये छेदों के मध्यम से जमीन में चला जाता है. जुताई करने से ये छेद बंद हो जाते हैं इस लिए पानी जमीन न जाकर तेजी तेजी से बहता है साथ में उपजाऊ मिटटी को भी ले जाता है. खेत रेगिस्थान में तब्दील हो जाते हैं.
    हमारे खेत भी जुताई करने के कारण कांस से भर गए थे और कुए सूख गए थे. किन्तु जैसे ही हमने खेतों में जुताई बंद कर खेती करना शुरु किया देखते ही देखते कांस गायब हो गयी, और कुए पानी से लबा लब हो गए. पूरे खेतों में साल भर नमी रहने लगी. वे हरियाली से भर गए.
      इस लिए हमारा मानना है की यदि हमें आज अपनी पवित्र नदियों को बचाना है तो उस के केचमेंट में जुताई पर अंकुश लगाना बेहद जरुरी है. ऋषि खेती की उत्पादकता और गुणवत्ता हर हाल में वैज्ञानिक खेती से बहुत अधिक है जबकि लगत ९० % कम बैठती है. आज कल सुना है गंगा को बचने के लिए सरकार अरबों रु खर्च कर रही उसके लिए वह विश्व बेंक से भी कर्ज ले रही है इस की कोई जरुरत नहीं है .
          केवल हमें बहते पानी को रोकने के वजाय बहती मिटटी को रोकने की जरुरत है. पानी अपने आप रुक जायेगा.

शालिनी एवं राजू टाइटस

ऋषि खेती

होशंगाबाद. म.प्र.

461001

Wednesday, March 28, 2012

शाकाहारी और गेर शाकाहारी में क्या अच्छा है?

शाकाहारी और गेर शाकाहारी में क्या अच्छा है?
हार कोई भी हो अच्छा रहता है किन्तु इसे कुदरती होना चाहिए . अधिकतर लोग वैज्ञानिक सोच से आहार में विटामिन आदि को महत्व देते हैं.तथा अनेक लोग शाकाहारी भोजन को महत्व देते हैं उनका सोच है कि मांसाहार से हिंसा होती है. इसी के साथ अनेक मांसाहार को गलत नहीं मानते. कुछ लोग तो दूध तक के सेवन को मांसाहार समझ इसका सेवन नहीं करते हैं.
    हमारा सोच इन सब से भिन्न है हम मानते हैं हर वो आहार जिसमे कुदरती खुशबू,जायका और स्वाद रहता है वह खाने लाएक रहता है. हर कुदरती आहार स्वाद और जायके से परीपूर्ण रहता है,. किन्तु आज कल अनेक गेर कुदरती तरीके से पैदा किये जाने वाला आहार अपना स्वाद,खुशबू  और जायका खो रहा है. मांस ,मछली, अंडे , दूध,फल सब्जी ,अनाज आदि सब में गेर कुदरती तरीके से पैदा करने के कारण वो गुण नहीं हैं जो होना चाहिए.
    इन सब चीजों का सम्बन्ध जमीन कि कुदरती ताकत से है. जमीन में  यदि कुदरती ताकत है तो उस के सहारे पैदा होने वाली हर चीज में स्वाद,जाएका और खुशबू रहती है. आज कल ओर्गानिक का हल्ला बहुत सुनाई दे रहा है लोग कहते हैं. रासयनिक खाद और दवाओं के कारण हमारा आहार प्रदूषित हो रहा है. यदि इन रसायनों के बदले जैविक खाद और दवाओं का उपयोग किया जाये तो प्रदुषण नहीं रहेगा. ये भ्रान्ति है.
     जब तक हम जमीन कि बीमारी के मूल कारण को नहीं हटाते हम  जमीन कि कुदरती  ताकत को वापस नहीं ला सकते चाहे कितने भी रसायन या खाद डालें. बीमार जमीन में बीमार फसल ही पैदा होती है. बीमार चारे से बीमार मांस दूध और अंडे ,फल  मिलेंगे.
     आज कल फसलों, मुर्गी आदि को जल्दी बड़ा करने के लिए अनेक ओक्सीतोसीन जैसे खतरनाक रसायनों का इस्तमाल होने लगा है जिस से हमारा आहार बहुत प्रदूषित हो रहा है. दूसरा जेनेटिक  तकनीक से नस्लों के कुदरती गुणों को नस्ट कर उनमे गेर कुदरती गुणों को डाला जा रहा है. जिस से नस्लें  अपना कुदरती स्वरूप खो रही  हैं. उन्हें पैदा करने के लिए भारी मात्रा में गेर कुदरती दवाओं कि जरुरत होती है. जेनेटिक नस्लों से पैदा किये  गया  आहार बे सुवाद , बे जाएका वाला होता है. इनके सेवन से अनेक प्रकार कि बीमारियाँ होती है.
    इस लिए हमारी सलाह  है कि जब भी हम अपना आहार तलाशें उसकी परख कुदरती रंग, खुशबू, जायके और स्वाद से करनी चाहिए. हर स्वादिस्ट आहार गुणकारी होता है. उसको खाने से बड़ी से बड़ी बीमारी को ठीक किया जा सकता है किन्तु बे स्वाद आहार को खाने से बीमारी उत्पन्न होना लाजमी है. आज कल केंसर, खून में कमी , अप्रत्याशित वजन में इजाफा,नवजात बच्चों कि मौत, बच्चों में फेफड़ों के रोग आदि के पीछे गेर कुदरती आहार के सेवन का मूल कारण है.
         कुदरती खेती इसका सबसे सरल और सहज उपाय है. इस को करने एक और हमें स्वादिस्ट आहार मिलता है वहीँ हमारा पर्यावरण भी संतुलित रहता है. जिस से कुदरती पानी और हवा भी मिलती है.
   

Saturday, March 24, 2012

केंसर का भूत

केंसर का भूत
प्रिय मित्रो,
    मुझे मेरी बहन जो डाक्टर है ने फोन कर बताया की कुछ दिनों से वो पीठ मे एक ग्लेन्ड हो जाने से बहुत परेशान थी असल मे हुआ ये की उनके पति जो स्वं भी डाक्टर हैं ने उनके पीठ मे इस ग्लैंड को देखा और वो बहुत घबरा गए  उन्हें ये ग्लैंड केंसर जैसी लगी वे दोनों फ़िर इसे दिखाने स्थानीय विशेषग्य के पास गए उन्होंने देखकर कहा की पहले ब्यओपसी करना होगा फ़िर इसका ओपरेशन करना होगा  वो और घबरा गए उन्होंने फ़िर दूसरे विशेषग्य को दिखाया उनका भी यही जवाब रहा.
कुदरती फलों की खेती जुताई ,रसायन ,निदाई ,टहनियों की छटाई नहीं

   मेरी बहन बहुत हिम्मत वाली है उसने सोचा की क्यों ना किसी होम्योपेथ को दिखाया जाये तो स्थानीय  फेमस होम्योपेथ के पास गए उन्होंने उन्हें और डरा दिया  कहा की मैने अपने जीवन मे कभी ऐसी ग्लैंड नहीं देखी इसका तो हमारे पास कोई इलाज नहीं है मरता क्या नहीं करता तो वे किसी दूसरे हाकिम के पास गए.
   ये कैसी विडंबना है की जो स्वं डाक्टर हैं केंसर के भूत से इतना डर गए की सारी डाक्टरी ही भूल गए  पर अच्छा हुआ अबकी बार वो जिसके पास गए थे उन्होंने खाने की कुछ गोलियां और लगाने की कोई दवा इन्हें दे दी और कहा कुछ दिन देखते हैं वो गोलियां खाने लगे और दवाई लगाने लगीं तीसरे दिन उन्होंने देखा की  वो ग्लैंड गिरकर उनके हाथ मे आ गयी उन्होंने उसे रख दिया किन्तु थोड़ी ही देर मे वो उस ग्लैंड मे से  अनेक पांव निकल आये और वो चलने लगी, वो ग्लेन्ड नहीं थी वो तो पशुओं का खून चूसने वाली किल्ली  थी जो अक्सर कुत्तों आदि पर लटकती दिखती है. उनके घर मे काम करने वाली कर्मचारी जो पढ़ी लिखी नहीं है वो  उसे पहचान चुकी थी वो बार बार उन्हें बता रही थी की ये किल्ली है पर किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया.

घर में काम करने वाली ये महिला पढ़ी लिखी नहीं थी वह कोई डाक्टर नहीं थी किन्तु पहली नजर में उसने पहचान  लिया था।  असल में  गेर कुदरती रहन सहन और खान पान के कारण और रासायनिक दवाओं आदि के कारण अनेक व्याधियां  हमे घेर लेती हैं। जिसे डाक्टर लोग जिन्हें अधूरा किताबी ज्ञान होता है उस व्याधी को और बढ़ा देते हैं।

हम पिछले २८ सालो से कुदरती खेती कर रहे हैं तथा अपने परिवार के लिए थोड़ी बहुत बीमारी के लिए कुदरती इलाज ही करते हैं।  इसके लिए हम बंदर और बकरी की  अक्ल  का सहारा लेते हैं।  हरी पत्तियों के रस ,फलों ,कच्चे ताजे दूध , अंकुरित अनाजों का सेवन कर बीमारियों को ठीक कर लेते हैं।  हमने पाया है की रासायनिक दवाएं बीमारियों को ठीक करने के बदले  और बढ़ा देती हैं।

कुदरती खेती के दोरान हमे इसे अनेक लोग मिले हैं जिन्हें केंसर बता दिया था किन्तु कुदरती खान पान ,रहन सहन से वे बिलकुल ठीक हो गए हैं .वो कहते हैं साधारण सर्दी खांसी और केंसर में कोई फर्क नहीं रहता है . सब से बड़ा डाक्टर हमारा शरीर होता है उसे कुदरती हवा ,खान ,पान मिलने से वह हर बीमारी को ठीक कर लेता है .

Thursday, March 22, 2012

पानी रे पानी

  पानी रे पानी
हरियाली है जहाँ खुशहाली है वहां !
   ज कल दिन प्रति दिन पानी का संकट गहराता जा रहा है इस के पीछे हरियाली की बढती कमी है. हम लोग ये सोचते हैं की पानी कहीं दूर आसमान से आता है किन्तु ये भ्रान्ति है. असल में पानी हमारे नीचे बसने वाली धरती की देन है. धरती में पानी है तो बरसात होगी नहीं तो नहीं होगी. धरती का पानी ही बादल बन बरसता है. हरयाली इस पानी को सहेजने का काम करती है.
    आज कल की खेती हरयाली की दुश्मन है. कोई भी किसान अपने खेतों के आस पास और दूर दूर तक पेड़ों को देखना नही चाहता है. गहरी जुताई, घातक  रसायनों और भारी सिंचाई से  होने वाली आधुनिक वैज्ञानिक खेती जिसे हरित क्रांति का नाम दिया गया है ने हरयाली को बहुत नस्ट किया है. मोटे अनाजो की बाजारू खेती के कारण तेजी से हरयाली के देवता स्वरूप वन.बाग़ बगीचे और चारागह  सब के सब खेतों में फिर रेगिस्थान में तब्दील हो रहे हैं.
      इस कारण हम केवल पानी ही नहीं वरन कुदरती हवा और आहार के भी मोताज हो गए हैं.
असल में किसानो की सब से बड़ी समस्या खरपतवार है. वे ये समझते हैं की हमारी मूल फसल को सब से अधिक नुकसान उस के आस पास उगने वाली वनस्पतियाँ हैं. ये उस खाद और पानी को ले लेंगी जो हमारी फसलों के लिए जरूरी है. किन्तु ये भ्रान्ति है.  असल में जमीन को ढंकने वाली हर वनस्पति जमीन को और अधिक उर्वरक और पानी दार बनाती है. इस हरी वनस्पति को किसान खरपतवार मान कर मारते रहते हैं विडंबना ये है की ये तो नहीं मरती  किन्तु किसान ही मरने लगे हैं.     
  हरयाली के इस भूमि ढकाव   में असंख्य जीव जंतु  और सूक्ष्म जीवाणु रहते हैं. ये जमीन को बनाने का काम करते हैं. इनके घरों और जड़ों के सहारे बरसात का पानी जमीन में समां जाता है किन्तु किसान जब इस हरियाली और नरवाई आदि को जला देते हैं और खेतों को बखर देते हैं तो पानी को धरती के भीतर लेजाने के ये कुदरती मार्ग नस्ट हो जाते हैं इस लिए पानी जमीन में न जाकर तेजी से बहता है. वह अपने साथ कीमती मिटटी को भी बहा कर ले जाता है. इस लिए हर साल भूमिगत जल का स्तर घटता जाता है. जिस से बरसात में कमी तो होती ही है आस पास के नदी नाले भी सूख जाते हैं. हम पानी को कितना भी सहेजने का काम करें कुदरत जो करती है उस का मुकाबला नहीं के सकते हैं. पानी की समस्या के पीछे सबसे बड़ा हाथ जुताई आधारित वैज्ञानिक खेती का है.
  प्राचीन  खेती किसानी की पद्धति में बहुत कम किसान जमीन की जुताई करते थे. बार बार खेतों को पडत कर वे खेतों को सुधार  लेते थे. हमारे इलाके में आज भी ऋषि पंचमी के दोरान कान्स घास की पूजा होती है और बिना हल चलाये अनाज आदि को खाने  की सलाह दी जाती है. खेतों में जब कान्स फूलने लगता था तो कहा जाता था की अब खेत सूखने लगे हैं. कान्स घास की जड़ बहुत गहराई तक जाकर पानी को खोज लेती हैं इस लिए वे तो  बच जाती हैं किन्तु अन्य फसल नहीं बच पति हैं. जुताई बंद कर देने से  बरसात का का पानी जमीन में जाने लगता है इस से कान्स की जड़ें अपने आप ऊपर आ जाती हैं और कान्स ख़तम हो जाता है. खेत अपने आप पानीदार और उर्वरक हो जाते हैं.
    हम पिछले २५ सालों से बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं. इस से पहले हम आधुनिक वैज्ञानिक खेती करते थे हमारे उथले कुए सूखने लगे थे अब वे लबा लब  रहने लगे हैं हर साल उनका जल स्तर बढ़ रहा है. इस पानी के कारण हमारे खेत हरियाली से भर गए हैं. पूरा का पूरा बरसात का पानी जमीन में समां जाता है वह बह कर बाहर नहीं जाता है.
   आधुनिक खेती को हमने अमेरिका से लाया है वहां भी अब बिना जुताई की जैविक खेती धूम मचा रही है. वे हरयाली को  मारने की वजाय उसे बचा कर खेती करने लगे हैं. इस हरियाली को वे कवर क्राप कहते हैं. इस कवर के सहारे सिंचाई के बिना भी आसानी से उत्तम खेती होने लगी है. सूखे इलाके पानीदार और उर्वरक होने लगे हैं.

Monday, March 12, 2012

हार है ! आम कर्ज माफी

हार है ! आम कर्ज माफी 

आज़ादी के बाद पयावर्णीय टिकाउ विकास के लिये सभी सरकारों ने कृषि कोे प्राथमिकता इसलिये दी कि हमारा देष कृषि प्रधान है। खेती की तरक्की से हमारे गांव विकसित होते हैं तथा गांव से देष। किन्तु आम किसानों के कर्जेंा की माफी से पता चलता हैै कि बरसों से चलाया जा रहा विकास का यह फार्मूला पूरी तरह फेंल हो गया है। हम हार गये हैं।

अहिंसात्मक आज़ादी की जंग जीतने के बाद जब हमारे बापू महात्मा गांधी नहीं रहे थे पूज्य विनोबा जी ने देष के टिकाउ विकास के लिये सत्य और अहिंसा के फार्मूले के अनुरुप देष के विकास का बीड़ा उठाया था। जिसमे उन्होने पर्यावर्णीय टिकाउ खेती पर बल दिया था। जिसका नाम उन्होने ऋषि खेती रखा था। यह खेती पूरी तरह भारतीय सस्ंकृति पर आधारित थी।इसमे सोच यह था कि हर व्यक्ति अपनी आवष्यकता अनुसार ऐसी खेती करे जिससे एक ओर हमारा पर्यावरण सुरक्षित रहे वहीं हर हाथ को काम मिले।

किन्तु पष्चिमी संस्कृति पर आधारित हिसांत्मक विनाषकारी औधोगिक खेती हरिकृान्ति ने उनके इस फार्मूले को बिलकुल चलने नहीे दिया। इस खेती के आने से हरे भरे वन,स्थाई बाग बगीचे ओर तमाम कुदरति चारागाह खेतों मे तथा उपजाउ खेत मरुस्थ्लों मे तब्दील हो गये और किसान कंगाल हो गये। किसान जो कल तक सबका पेट भरता था आज अपना पेट भरने मे अक्षम हो गया है। उसे सरकारी अनुदान कर्ज इसलिये दिया जाता है कि वह आत्मनिर्भर हो जाये किन्तु ऐसा हो नहीं सका इसलिये सरकारों के पास कर्ज माफी के सिवाय कुछ उपाय नहीं रहा। हम हार गये।

हरितकृन्ति मे समतलीकरण, सिंचाई,मषीनों, कृषि अनुसंधान, खाद, बीज और दवाओ के लिये क्या कुछ नहीे किया गया किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ और हम हार गये।

शलिनी एवं राजू टाईटस,होषंगाबाद.

तंरनाजपजने/हउंपसण्बवउ

क्यों सड़ रहा है अनाज गोदामों में ?

क्यों सड़ रहा है अनाज गोदामों में ?
   क्योंकि ये खाने लायक नहीं है इस की गुणवत्ता सामान्य से बहुत नीचे है. ये कमजोर  जमीन में रसायनों के बल पर पैदा किया गया गेंहू है. यदि ये अच्छा गुणवत्ता वाला होता तो हाथों हाथ उठ गया होता. अच्छी गुणवत्ता वाला गेंहू बाजार में हाथों हाथ ऊंची कीमत में बिक रहा है. गुणवत्ता की कमी के कारण  ही इसे समर्थन भाव से सरकार ने किसानो से खरीदा है. इसे किसी को भी देने से पहले इस की गुणवत्ता की समुचित जाँच होना चाहिए. हम पिछले २५ सालों से अपने खेतों में बिना जुताई की कुदरती खेती का अभ्यास कर रहे हैं तथा इसके प्रचार प्रसार में लगे हैं. इस खेती की खोज जापान के जाने माने कृषि वैज्ञानिक मस्नोबू फुकुओका ने की है. इस से ये पता चला है की खेती में जुताई करने से खेत कमजोर हो जाते हैं इस लिए उर्वरक  और जहर जरुरी हो जाते हैं. जुताई खेती के लिए जरुरी नहीं है. जुताई करने से बरसात का पानी खेतों में नहीं समाता है वो तेजी से बहता है अपने साथ खाद को भी बहा कर ले जाता है. गहरी जुताई और नरवाई को जलाना  , रासायनिकों का उपयोग वैज्ञानिक खेती की बहुत बड़ी भूल है. इस से शुरू में उत्पादन बढ़ जाता है बाद में ये घटने लगता है इस से रसायनों का डोस बढ़ता जाता है और अनाज जहरीला हो जाता है. हमारी थाली में जहर का  ही है।

खाद और दवाओं पर अनुदान और कर्ज

खाद और दवाओं पर अनुदान और कर्ज

महोदय,

सरकार के द्वारा रासायनिक और गैर रासायनिक खादों और दवाओं पर दिये जाना वाला अनुदान और कर्ज न केवल किसानो को गरीब बना रहा है वरन् खेतों को बंजर बना रहा है। इससे एक और जहां गर्माति धरती की समस्या का सीधा संम्बन्ध है वहीं इससे हमारे भोजन ,हवा,और पानी मे विष घुल रहा है।

कहने को तो सरकारी अनुदान किसानो को सहायता के रुप मे दिया जाता है किन्तु यह सब का सब खाद और दवा बनाने वाली कम्पनियो की जेब मे चला जाता है।

हम पिछले बीस सालों से बिना खाद और दवाओं के, बिना जुताई की खेती कर रहे हैं। हमारी उत्पादकता और गुणवत्ता वैज्ञानिक खेती से बहुत अधिक है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि खाद और दवाओं का एक गैर जरुरी गोरख धन्दा सरकार की मदद से ेचल रहा है जो किसानों को न केवल गरीब बना रहा है वरन उन्हे कर्ज में डूब कर आत्महत्या करने पर पर मजबूर कर रहा है।

खेतो मे जुताई, और रासायनो का उपयोग करने से खेत की उपजाउ और जल धारण शक्ति नष्ट हो जाती है इसलिये खेत कमजोर हो जाते है। कमजोर खेतों में कमजोर फसल उत्पन्न होती है। इससे हमारी फसलें, मिटटी, और पानी प्रदूषित होते और किसान घाटे मे चले जाते हैं। वे कर्ज मे फंस जाते हैं न पटाने के कारण वे आत्म हत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं। हरित क्रान्ति के पितामय के रुप मे जाने वाले विष्व विख्यात कृषि वैज्ञानिक एवं सासंद माननीय डा. एम एस स्वामीनाथन का कहना है कि यदि हमे हमारी खेती किसानी को बचाना है तो हमे भूजल,मिटटी और जैवविधता को बचाने वाली खेती को अमल मे लाना ही पडेगा। इसके लिये रासायनिक खादों और दवाओं पर अंकुष लगाने की पहल करना जरुरी है।

अमेरिका सहित अनेक सम्पन्न देषों मे बिना जुताई की कुदरति खेती अब तेजी से इसलिये पनप रही है कि वहां इस खेती के लिये अनुदान दिया जाता है। हमारी सरकार को हवा, पानी, मिटटी और भोजन के प्रदूषण को रोकने और किसानो को बचाने के लिये अविलम्ब घातक खाद और दवाओं पर रोक लगा देना चाहिये तथा उन किसानों को जो पर्यावर्णीय खेती कर रहे हैं उन्हे प्रोत्साहित करने के लिये अनुदान देना चाहिये।

शालिनी एवं राजू टाईटस

बिनाजुताई की कुदरति खेती के किसान

खोजनपुर, होषंगाबाद. म.प्र.

Friday, March 9, 2012

An alternative mode of farming

An alternative mode of farming


Baba Mayaram

Natural farming has always been on my radar. The following write up is a centered on one such implementation of natural farming. It is necessary to explore if this alternative can be adopted on a larger scale.

Just 3 kms outside the town of Hoshangabad, MP is the home of Titus Farm. Here, for the last 25 years, a unique method of natural farming is being practised. Raju Titus, who started out as a chemical based farmer, has now become famous for natural farming. His farm draws visitors from all over the world. Hoshangabad recently witnessed the suicide of three farmers. This saddens him, but he does not lose hope. He sees natural farming as a viable alternative for farmers to escape their current predicament.

He believes that the days of chemical farming are numbered. Excessive use of chemicals, fertilizers, pesticides and tilling has reduced the regenerative power of the soil. Early on, people definitely increased yields using scientific methods. Irrigation enabled by the Tawa dam lead to high yields initially, but sustaining those yields is a pipe dream. This year, the soybean crops failed in Hoshangabad: yields ranging from 20Kg to 200Kg per acre. Against this background of uncertainty, it becomes important to think of alternatives. And this is what draws our attention to natural farming.

His partner in this unique venture is his wife Shalini, and she accompanied us on a tour of the farm. Supple, green guava trees were swaying in the breeze. A young employee was working with a tool to flatten the weeds. A simple crimper-roller is used to bend down the weeds and leave them in place. Wheat had already been planted in this field. A layer of green covered the whole field: the weeds acting as a green ground cover. Here the field was also covered in paddy straw. Weeds like parthenium were being used in the cultivation as well. When asked, he explains that after a little bit of watering, the field is covered with weeds and straw. The rays of sunlight filtering in through the covering help the seeds to sprout, and the green shoots come up. This is beautiful to behold. Raju mentioned that maintaining a green cover allows micro-organisms, worms, and other insects to thrive, and they increase the porosity and moisture retention capacity of the soil. All these contribute to the overall health and fertility of the soil, which leads to good harvests. He says that in chemical farming, the fields are flooded with water, but the tilled and disturbed soil does not allow the water to seep deep into the ground. In contrast, natural farming allows deeper penetration of water, and in the long run, increases the ground water levels.

While the ground cover helps conserve water in the soil, it also help increase water availability in nearby wells. The covering also helps protect plants from pests by playing host to many natural predators. This prevents major plant diseases in the first place. According to him, whenever the soil is tilled and turned, the soil disintegrates into fine particles which are washed away in the rain. This leaves the fields hungry and thirsty, and necessitates the use of external inputs. Chemical fertilizers or other supplements need to be introduced to the weakened fields from the outside. As a result of tilling, the organic matter in the soil, which is stored in form of organic carbon, gets oxidized into carbon dioxide and leaves the soil. This adds to the problem of global warming, heating up the earth and causing severe changes in weather patterns. Global warming and climate change have come to dominate the world as issues of major concern. But if no-till farming is adopted, then this problem can be addressed as well. Raju believes that the use of tilling and tractors can only exacerbate the global warming problem.

Raju Titus has 13.5 acres of land, and he cultivates 12 of those acres. This year, he is experimenting on some neighbors’ fields. Out of the 12 acres, 11 acres are covered in a heavy jungle of Subabul (Australian Acacia) trees. These trees provide good fodder for animals, and firewood for the local people. He sells the firewood to the poor labourers nearby, at about half the market price. According to him, just selling the firewood earns him about Rs. 2.5 lacs per year. Active farming is happening only on one acre of land.

Raju Bhai maintains that he is farming to meet his own needs, not the needs of the market. His needs are met by farming a single acre. All his family’s basic needs of grains, vegetables, fruits and milk are met by his farm. Wheat in the winter, maize and moong in the summer, and rice in the rainy season: this is the cycle of crops.

After showing us the wheat fields, he took us towards the forest. We had to cross over a small flowing stream, and the bridge too was hand built using local wood and supplies. We crossed over it to reach the forest: the crossing was similar to walking on a tight rope.

Natural farming is also know as ‘Rishi Kheti’ (Rishi: the sanskrit word for a forest dwelling ascetic; Kheti: means farming). Raju Titus calls this Natural Organic farming. There are absolutely no inputs required from the outside. Neither is the field tilled with a plough, nor is there any application of man-made fertilizers. For the last 25 years, he has not ploughed his fields, nor  has he applied any pesticides to control plant diseases. This is a truly non-violent form of farming.

This was pioneered by the famous agriculture scientist Masanobu Fukuoka of Japan, and he himself visited this farm. Fukuoka practised these methods in his fields for many years, and wrote about his experience in his book “One Straw Revolution”. This book has influenced farmers all over the world, including America.

Ordinarily, anything that is not the main crop is considered a weed, and an enemy to be eliminated. But natural farming flourishes in co-existence with these weeds. They are treated as friends, and not destroyed. This maintains a constant green cover on the fields. When asked if the crops are hurt by the presence of trees, Raju answers: “Definitely not.”

Raju maintains that due to the trees, a deep network of roots is created under the soil. And this strengthens the soil. Grains and vegetables grow quite well in the shadow of the trees. The impact of shadow on crop yields is also influenced by the strength of the soil. Since his soil is already strong, the shade from the trees do not have any negative impact on the crops. He says: “People think no till agriculture is difficult, and this is understandable. When I first heard about it, I too could not believe it. But once you see it with your own eyes, then all doubts disappear. In fact, this style of farming continues to increase the fertility of the soil over time. In contrast, chemical farming gradually reduces the natural fertility of the soil, rendering it barren over a short time.”

Natural farming is a way of life. This not only addresses the problem of feeding humans, but pays attention to the welfare of all life forms. Natural farming ensures a supply of fresh air, and increases water levels in the soil. Trees provide shade, and help stabilize the erratic shifts in climate due to global warming. This is known as Rishi farming because the ancient Rishis lived on a simple diet of grains, leaves, fruits, and milk.  They were able to get healthy harvests on small plots of land. They looked upon the earth as their own mother. They would only take that much from mother earth as was necessary, they were not trying to extract every last drop from the earth. This attitude can be revived through natural farming. Even though it is not common today, it does provide a viable alternative. 

Translated by sri koushik katari



Thursday, March 8, 2012

सामाजिक खेती (Community - supported agriculture CSA )


                                                      
                                              सामाजिक खेती


                      (Community - supported agriculture CSA )
     ज कल बाज़ार न तो किसानो के हक़ में रहा है नहीं वह ग्राहकों की चिंता करता है. इस लिए एक और जहाँ किसानो को बाज़ार के लिए नए नए तरीके से खेती करते परेशान होना पड़ रहा है वहीँ चाह  कर, अच्छी से अच्छी कीमत चुकाने पर भी ग्राहकों को मन पसंद आहार नहीं मिल रहा है.
   
सबसे बड़ी समस्या स्वादिष्ट,स्वास्थवर्धक, कुदरती आहार की है. ये लगातार ग्राहकों से दूर होते जा रहा है ऐसा खेती करने की गेर कुदरती तकनीकों के कारण  है. गहरी और बार बार मशीनो से की जाने वाली जुताई, अत्यधिक घातक खरपतवार और कीट नाशक जहरों , रासयनिक उर्वरक आदि के उपयोग से अब हमारे खाने की तमाम फसलें जहरीली होती जा रही हैं. जिस से केंसर जैसी जानलेवा बीमारियाँ अब हर दसवे घर में दस्तक देने लगी है. हाल ही के एक अंतररास्ट्रीय सर्वे ने बताया की तीन चोथाई महिलाओं में हीमोग्लोबिन का स्तर सामान्य से कम है. नवजात शिशुओं  की मौत  का भी आंकड़ा भी सामान्य से बहुत अधिक है. एक और जहाँ कुदरती चारे की कमी  के कारण कुदरती दूध भी अब ग्राहकों को  नहीं मिल रहा है वहीँ  दूध पिलाने वाली माताओं के दूध में अब फसलों में डाले जाने वाले जहरों के अवशेष मिलने लगे हैं. इस लिए डॉ. माताओं को अपना दूध देने से मना करने लगे हैं. उनका कहना है की यदि बच्चों को जहरीला दूध दिया गया तो उन्हें कम उम्र में  ही केंसर हो सकता है.
      
पंजाब भारत  का  खेती किसानी का विकसित प्रदेश  कहलाता है. वहां भी अब आम आदमी  के खून में फसलों में डाला जाने वाला जहर घुलने लगा है. केंसर महामारी  के रूप में जड़ जमा रहा है. वहां से एक ट्रेन  मुबई जाती है जो  केंसर के मरीजो को भर कर ले जाती है इस  ट्रेन का नाम ही केंसर ट्रेन रख दिया गया है.
     अधिकतर लोग समझते हैं की रासयनिक दवाओं,टानिकों, आदि से कमजोर होते खेतों की कमजोर फसलें ताकतवर हो जाती हैं ये भ्रान्ति है. बल्कि इन फसलों में रासयनिक जहर घुलने से ये और भी प्रदूषित हो जाती है. स्वाद किसी भी फसल के गुण को दर्शाता है हर स्वादिष्ट आहार गुणकारी भी होता है. यदि स्वाद नहीं है तो आहार भी गुणकरी नहीं रहेगा. इस लिए आज कल आम आदमी ये कहते पाया जाता है की जो स्वाद पहले मिलता था अब नहीं मिलता है. बच्चे भी स्वाद की कमी के कारन खाना ठीक से नहीं खाते हैं इस लिए उनका सही विकास नहीं हो रहा है. मोटापा मधुमेह जैसी बीमारियाँ अनियंत्रित हो रही हैं.
      इन समस्याओं के कारण आज कल अनेक खेती करने की वैकल्पिक विधियों का विकास हो गया है. जो इस बात का दावा करती हैं की उनके उत्पाद पूरी तरह कुदरती और स्वास्थवर्धक हैं. इसी आधार पर बाज़ार में इन की अलग से दुकाने भी खुलने लगी हैं.जो सामान्य से अधिक कीमत में उत्पादों को बेच रही हैं. इन उत्पादों की प्रमाणिकता के लिए अनेक प्रमाण पत्र देने वाली कम्पनियां भी खुल गयी है. ये दुकाने सामान्यत: जैविक या ओर्गानिक के नाम से चल रही हैं. किन्तु इस से भी आम ग्राहकों की समस्या का अंत नहीं हुआ है. क्यों  की इन में तमाम नकली फसलों, दवाओं.खाद, का बोल बाला है. ग्राहक फिर भी ठगा की ठगा ही रहता है.
     इस समस्या के निवारण में केनेडा,अमेरिका सहित अनेक विकसित राष्ट्रों में ग्राहकों ने एक अभिनव प्रयोग किया है उन्होंने ग्राहक मित्र खेती को करने का बीड़ा उठाया है. ये सामाजिक खेती ( Community -supported agriculture CSA) के नाम से जानी जाती है. वे ग्राहकों के समूह बनाकर कुछ फार्मों को जो उन्हें असली कुदरती आहार प्रदान कर सकते हैं को गोद ले लेते हैं, और उन्हें वे सब सुविधाएँ प्रदान करते हैं जिस से वे असली कुदरती आहार पैदा कर सकें और वे फिर उन उत्पादों को स्वं अपने सदस्यों के मध्य वितरित करते हैं इस में वे फार्मों के उचित प्रबंधन में पूरी तरह  सहयोगी बन जाते हैं. फार्म के घाटे और लाभ में वे पूरी तरह सहयोगी रहते हैं. ये शोषण रहित खेती है. इस में ग्राहकों की मंडलियाँ और किसानो की मंडलियाँ मिलजुल कर कुदरती खेती करते हैं. अनेक बार  वे इस कारण सभाए आयोजित करते हैं.किसानो का सम्मान करते है और उन्हें पुरस्कृत भी करते हैं.
    बाजारू खेती के कारण किसान और हमारे पर्यावरण का बहुत शोषण हो रहा है.बिचोलिये दोनों ग्राहकों और किसानो का शोषण करते हैं. जमीने  ख़राब हो रही हैं, पर्यावरण नस्ट हो रहा है.किसान आत्म हत्या करने लगे हैं.
      सामाजिक खेती का चलन पिछले कुछ सालों में ही  शुरू हुआ है किन्तु कुदरती आहार की मांग के कारण ये बहुत तेजी से पनप रहा है. इस से एक और जहाँ ग्राहक इस लिए संतुस्ट रहते हैं की उन्हें एक और जहाँ कुदरती आहार मिलता है वहीँ वे भी किसान(अन्न दाता ) बन जाते हैं एक जमाना  था की हम सब किसान थे और समाज  में हमारा बहुत सम्मान होता था. गेर कुदरती खेती के कारण किसान अब अपना सम्मान खो रहे हैं.
    सामाजिक  खेती करने से किसान और ग्राहकों के मध्य एक ऐसा सम्बन्ध बन जाता है जिस से दोनों लाभान्वित रहते है, तथा समाज में जल, जंगल ,जमीन के संरक्षक कहलाते हैं. वे सच्चे सम्मान के हक़दार हो जाते हैं. खान,पान आर्थिक लाभ अतिरिक्त रहता है.
    फुकुओका फार्मिंग जो दुनिया भर में नेचरल फार्मिंग के नाम से जानी जाती है. जिस में जमीन की जुताई , मानव निर्मित खाद और दवाओं का बिलकुल उपयोग नहीं होता है. ये खेती खाद बनाने वाली वनस्पतियों, जीव जंतुओं,सूख्स्म जीवाणु के सहारे की जाती है इस लिए पूरी तरह अहिंसात्मक है. जबकि जुताई आधारित सभी खेती करने की विधियाँ हिंसात्मक रहती हैं. खेतों की ताकत का सीधा सम्बन्ध उस में जीवित रहने वाली जैव विविधताओं पर निर्भर रहती है. यदि हम मिट्टी के एक कण को सूख्स्म दर्शी यंत्र से देखें तो उस में अजैविक कुछ भी नजर नहीं आयेगा. ये असंख्य सूक्ष्म जीवाणु का समूह रहता है. इनके कारण ही खेतों में ताकत बनी रहती है. इस ताकत को भूमि के उपर रहने वाली जैव-विविधताएँ ताकत प्रदान करती हैं. फुकुओका फार्मिंग इन तमाम जैव-विविधताओं को बचाते हुए उनके सहारे होती है. जबकि सभी जुताई आधारित खेती की विधियाँ  चाहे वो जैविक ही क्यों न कहालती हों जैव-विवधताओं की हत्या कर की जाती हैं.
     रसायन रहित कम्पोस्ट से की जाने वाली खेती की विधियाँ भी हिंसा पर आधारित रहती हैं इस लिए उन्हें भी हम स्वास्थवर्धक और पर्यावरण  के अनुकूल नहीं मान सकते हैं.
  बिना जुताई की जैविक खेती या बिना जुताई की नेचरल खेती, भूमि ढकाव की फसल जिसे आम आदमी खरपतवार कहता है, के सहारे की जाती है. भूमि ढकाव में अनेक जीव-जंतु  ,कीड़े मकोड़े और सूख्स्म जीवाणु निवास करते हैं. जो लगातार खेतों को उर्वरकता और नमी प्रदान करते है, जिनसे मूल फसलों की खाद और पानी की मांग की आपूर्ति हो जाती है.
       फुकुओका फार्मिंग(नेचरल फार्मिंग) सब से सरल तथा सबसे कम लागत से की जाने वाली खेती है. इस में हरयाली से भरे भूमि ढकाव (कवर क्राप) में सीधे बीजों को बिखराकर या मिट्टी की गोली में बंद कर डाल देने और भूमि ढकाव को जमीन पर सुला भर देने से खेती की बुआई संपन्न हो जाती है.  ये मशीनो के उपयोग के बिना भी सम्भव है. इस को करने से आम खेती की करने की विधियों की तुलना में ९०% खर्च कम आता है इस लिए घाटे की कोई सम्भावना नहीं रहती है. जुताई और खाद के बल पर की जाने वाली खेती में यदि मात्र १५% फसल कम उतरती है तो खेती घाटे का सौदा बन जाती है. कुदरती खेती में गुणवत्ता और  उत्पादन बढ़ते क्रम में मिलता है जबकि गेर कुदरती खेती की विधियों में उत्पादन और गुणवत्ता हर मोसम कम होता है.
     हम पिछले २५ सालों से अधिक समय से नेचरल फार्मिंग के अभ्यास और उसके प्रचार प्रसार में सलग्न हैं. हम सामाजिक खेती के पक्षधर हैं किन्तु हम समाज को किसानी और गेर किसानी  आबादी के रूप में बंटे हुए देखना नहीं चाहते हैं. जब से किसानो का शोषण गेर किसानी आबादी ने करना शुरू किया है. तब से ही खेती किसानी से जुडी समस्या बढती रही हैं जो आज कल चरम सीमा पर हैं. भारत जैसे विकाशशील देश में खेत रेगिस्थान में तब्दील हो रहे हैं और किसान आत्म हत्या करने लगे हैं.
     हम सामाजिक खेती से बहुत उम्मीद रखते हैं  यदि ये  बिना जुताई की जैविक या कुदरती खेती  जैसी खेती करने की विधियों से अनुबंधित होती हैं. अन्यथा ये भी ओर्गानिक के गोरखधंदे जैसी ही साबित होंगी.


 

राजू टाइटस