स्कूली बच्चों की आत्म हत्या ?
हम पैदा होते ही हैं स्कूल जाने के लिए
सीखने की आज़ादी होना चाहिए
हमारे पैदा होते ही हम पर अनेक प्रकार के बंधन डलने लगते हैं जिसमे सब से बड़ा बंधन हमारी शिक्षा को लेकर होता है। माता पिता बच्चों के पैदा होते ही उसके भविष्य के प्रति चिंतित होने लगते हैं और उनके सामने स्कूल के आलावा कोई विकल्प नहीं रहता है इसलिए हमे मजबूरन स्कूलों के हवाले कर दिया जाता है और हम स्कूल के गुलाम हो जाते हैं।
स्कूल चाहे कोई भी उसे भी अपने भविष्य की चिंता रहती है इसलिए वह भी स्कूली सिस्टम के गुलाम हो जाते हैं उन्हें वही पढ़ाना पड़ता है जिसे सिस्टम चाहता है। पढ़ाई के सिलेबस भी इस सिस्टम के अनुसार तय किए जाते हैं। अधिकतर यह सिस्टम पूंजीपति घरानो के अधीन रहता है। ये घराने हमेशा अपनी पूँजी बढ़ाने के लिए बाजार खोजते रहते हैं और एक दिन हमारी पढ़ाई का पूरा सिस्टम हमारे सहित इस बाजार की भेंट चढ़ जाता है।
बाजार में कोई यह नहीं देखता कि क्या सही है की क्या गलत है वहां तो खरीदने और बेचने के लिए कीमतों का खेल चलता है सस्ता खरीदो और महंगा बेचो। इस खेल का दबाव हमारे स्कूली बच्चों और पेरेंट्स पर आ जाता है।
पेरेंट्स महँगे और महंगे स्कूलों को हमारे बच्चों के भविष्य के खातिर ठीक समझते हुए उन्हें दाखिला दिलाते रहते हैं।
जितने महंगे स्कूल होते हैं उतनी महंगी पढ़ाई बन जाती है जिसको अधिक से अधिक नम्बरों की जरूरत रहती है। जो जितने अधिक नंबर लाएगा वही आगे जाता है।
इस प्रकार एक ओर पेरेंट्स और फीस के चक्कर में उलझ जाते हैं वहीं हमारे बच्चे और अधिक नंबर के चक्कर में उकझ जाते है। इसी दबाव के चलते बच्चों पर आत्म हत्या करने के के आलावा कोई रास्ता नहीं बचता है। ऐसा नहीं है की यह दवाब केवल बच्चों पर ही रहता है पेरेंट्स भी इसके शिकार हो जाते है। बच्चे अच्छे नम्बर नहीं ला पाये इस लिए अनेक पेरेंट्स भी आत्म हत्या कर लेते हैं।
किन्तु यदि हम हमारे समाज के सफल लोगों की तरफ देखें चाहे वे अच्छे खिलाडी बने है ,अच्छे कारोबारी बने हैं,अच्छे अभिनेता बने हैं ,अच्छे डॉ या वकील बने हैं किसान बने हैं। उनका आधार अच्छे नंबर नहीं रहा है वे सभी अपनी प्रतिभा के अनुसार अच्छे बने हैं। उनकी अच्छाई के पीछे उनकी सीखने की आज़ादी रही है।
सीखने की आज़ादी में बच्चा बेफिक्र होकर वह सब सीखता है जिसमे उसकी रूचि होती है यही उसकी असली पढ़ाई रहती है। रूचि जिसे हम पागलपन भी कह सकते। जब रूचि का चस्का लगता है वह बच्चा उठते बैठते सोते खाते पीते वही सोचता रहता है जिसकी रूचि उसमे है। इस पागलपन में वह सफल हो जाता है। कभी निराशा नहीं आती वह आत्म हत्या के बारे में कभी सोच ही नहीं सकता है। वरन वह यह सोचता है की मेरे काम जल्दी निपट जाये ऐसा न हो की में बूढा हो जाऊं और फिर इस काम को ना कर सकूँ।
इसलिए हमे हमारे बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए हमे उनको उनकी रूचि के अनुसार सीखने की आज़ादी के साथ साथ सहयोग करने की जरूरत है। इसमें शुरुवाद पेरेंट्स को करना चाहिए फिर हमारे स्कूलों को भी इसी प्रकार की शिक्षा और सिलेबस तैयार करना चाहिए जिसमे हमारे समाज को भी पूरा पूरा सहयोग करने की जरूरत है।
आजकल नो स्कूल या होम स्कूल की अवधारणा प्रबल हो रही है जिसमे बच्चों को अपने आप सीखने दिया जाता है। उन्हें कुछ सिखाने की कोशिश नहीं की जाती है किन्तु ऐसा नहीं है को बच्चों को इसमें लावारिश छोड़ दिया जाता है ,जब बच्चा कुछ पूछता है या सीख्नने लिए आग्रह करता है उस पेरेंट्स उसे मदद करते हैं जिसमे दबाव बिलकुल नहीं रहता है। उदाहरण के लिए जब बच्चा पूछता है की रेल कैसे चलती है तो हमे उसे रेल कैसे चलती है बताना जरूरी हो जाता है। इसके लिए यह जरूरी नहीं है हमे भी जाने की रेल कैसे चलती है। हमे उसे ऐसे स्कूल में ले जाने की जरूरत जहाँ से वह सीख सके की रेल कैसे चलती है। इस प्रकार अनेक आयाम हो सकते हैं।
तमाम परम्परगत स्कूल हमारे कुदरती ज्ञान प्राप्ति में बाधक है उनमे रहकर हमारे बच्चों का दिमाग खराब हो रहा है क्योंकि जो बच्चा सीखना चाहता है उसे वह नहीं सिखाया जाता है इसलिए उसका दिमाग खराब हो जाता है। वह गलत दिशा पकड़ लेता है जिसका आभास पेरेंट्स और टीचर दोनों को नहीं होता है।
इसलिए हम पेरेंट्स और बच्चों को सलाह देते हैं की वो जितनी जल्दी हो सके रूचि रहित शिक्षा से बाहर निकल लें और उन्हें रूचि सहित शिक्षा प्राप्त करें। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है किन्तु इसके लिए जरूरी है रूचि रहित स्कूलों को छोड़ने की, जब तक आप रूचि रहित स्कूल नहीं छोड़ेंगे आप रूचि सहित शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
आत्म-हत्या करने से अच्छा है बच्चे स्कूल छोड़ने का विकल्प चुने पेरेंट्स को बच्चों के इस निर्णय में सहयोग करने की जरूरत है।
rajuktitus@gmail.com
महाराष्ट्र में 2014 में ८००० बच्चों ने आत्म हत्या कर ली है। |
स्कूल चाहे कोई भी उसे भी अपने भविष्य की चिंता रहती है इसलिए वह भी स्कूली सिस्टम के गुलाम हो जाते हैं उन्हें वही पढ़ाना पड़ता है जिसे सिस्टम चाहता है। पढ़ाई के सिलेबस भी इस सिस्टम के अनुसार तय किए जाते हैं। अधिकतर यह सिस्टम पूंजीपति घरानो के अधीन रहता है। ये घराने हमेशा अपनी पूँजी बढ़ाने के लिए बाजार खोजते रहते हैं और एक दिन हमारी पढ़ाई का पूरा सिस्टम हमारे सहित इस बाजार की भेंट चढ़ जाता है।
बाजार में कोई यह नहीं देखता कि क्या सही है की क्या गलत है वहां तो खरीदने और बेचने के लिए कीमतों का खेल चलता है सस्ता खरीदो और महंगा बेचो। इस खेल का दबाव हमारे स्कूली बच्चों और पेरेंट्स पर आ जाता है।
पेरेंट्स महँगे और महंगे स्कूलों को हमारे बच्चों के भविष्य के खातिर ठीक समझते हुए उन्हें दाखिला दिलाते रहते हैं।
जितने महंगे स्कूल होते हैं उतनी महंगी पढ़ाई बन जाती है जिसको अधिक से अधिक नम्बरों की जरूरत रहती है। जो जितने अधिक नंबर लाएगा वही आगे जाता है।
इस प्रकार एक ओर पेरेंट्स और फीस के चक्कर में उलझ जाते हैं वहीं हमारे बच्चे और अधिक नंबर के चक्कर में उकझ जाते है। इसी दबाव के चलते बच्चों पर आत्म हत्या करने के के आलावा कोई रास्ता नहीं बचता है। ऐसा नहीं है की यह दवाब केवल बच्चों पर ही रहता है पेरेंट्स भी इसके शिकार हो जाते है। बच्चे अच्छे नम्बर नहीं ला पाये इस लिए अनेक पेरेंट्स भी आत्म हत्या कर लेते हैं।
किन्तु यदि हम हमारे समाज के सफल लोगों की तरफ देखें चाहे वे अच्छे खिलाडी बने है ,अच्छे कारोबारी बने हैं,अच्छे अभिनेता बने हैं ,अच्छे डॉ या वकील बने हैं किसान बने हैं। उनका आधार अच्छे नंबर नहीं रहा है वे सभी अपनी प्रतिभा के अनुसार अच्छे बने हैं। उनकी अच्छाई के पीछे उनकी सीखने की आज़ादी रही है।
सीखने की आज़ादी में बच्चा बेफिक्र होकर वह सब सीखता है जिसमे उसकी रूचि होती है यही उसकी असली पढ़ाई रहती है। रूचि जिसे हम पागलपन भी कह सकते। जब रूचि का चस्का लगता है वह बच्चा उठते बैठते सोते खाते पीते वही सोचता रहता है जिसकी रूचि उसमे है। इस पागलपन में वह सफल हो जाता है। कभी निराशा नहीं आती वह आत्म हत्या के बारे में कभी सोच ही नहीं सकता है। वरन वह यह सोचता है की मेरे काम जल्दी निपट जाये ऐसा न हो की में बूढा हो जाऊं और फिर इस काम को ना कर सकूँ।
इसलिए हमे हमारे बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए हमे उनको उनकी रूचि के अनुसार सीखने की आज़ादी के साथ साथ सहयोग करने की जरूरत है। इसमें शुरुवाद पेरेंट्स को करना चाहिए फिर हमारे स्कूलों को भी इसी प्रकार की शिक्षा और सिलेबस तैयार करना चाहिए जिसमे हमारे समाज को भी पूरा पूरा सहयोग करने की जरूरत है।
आजकल नो स्कूल या होम स्कूल की अवधारणा प्रबल हो रही है जिसमे बच्चों को अपने आप सीखने दिया जाता है। उन्हें कुछ सिखाने की कोशिश नहीं की जाती है किन्तु ऐसा नहीं है को बच्चों को इसमें लावारिश छोड़ दिया जाता है ,जब बच्चा कुछ पूछता है या सीख्नने लिए आग्रह करता है उस पेरेंट्स उसे मदद करते हैं जिसमे दबाव बिलकुल नहीं रहता है। उदाहरण के लिए जब बच्चा पूछता है की रेल कैसे चलती है तो हमे उसे रेल कैसे चलती है बताना जरूरी हो जाता है। इसके लिए यह जरूरी नहीं है हमे भी जाने की रेल कैसे चलती है। हमे उसे ऐसे स्कूल में ले जाने की जरूरत जहाँ से वह सीख सके की रेल कैसे चलती है। इस प्रकार अनेक आयाम हो सकते हैं।
तमाम परम्परगत स्कूल हमारे कुदरती ज्ञान प्राप्ति में बाधक है उनमे रहकर हमारे बच्चों का दिमाग खराब हो रहा है क्योंकि जो बच्चा सीखना चाहता है उसे वह नहीं सिखाया जाता है इसलिए उसका दिमाग खराब हो जाता है। वह गलत दिशा पकड़ लेता है जिसका आभास पेरेंट्स और टीचर दोनों को नहीं होता है।
इसलिए हम पेरेंट्स और बच्चों को सलाह देते हैं की वो जितनी जल्दी हो सके रूचि रहित शिक्षा से बाहर निकल लें और उन्हें रूचि सहित शिक्षा प्राप्त करें। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है किन्तु इसके लिए जरूरी है रूचि रहित स्कूलों को छोड़ने की, जब तक आप रूचि रहित स्कूल नहीं छोड़ेंगे आप रूचि सहित शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
आत्म-हत्या करने से अच्छा है बच्चे स्कूल छोड़ने का विकल्प चुने पेरेंट्स को बच्चों के इस निर्णय में सहयोग करने की जरूरत है।
rajuktitus@gmail.com
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