Tuesday, December 29, 2015

धान की खेती में पानी खड़ा रखना हानि कारक है।

कृषक आराधना के लिए ऋषि खेती का लेख दिनांक २५ दिसंबर २०१५

 

धान की खेती में पानी खड़ा रखना हानि कारक है। 

धिकर लोग धान की खेती में पानी को खड़ा रखने के लिए खेत में मेड बनाते हैं ,उसमे खूब जुताई करते हैं फिर कीचड़ मचाते हैं जिस से बरसात का या सिंचाई का पानी जमीन के भीतर नहीं जाये। यह गेरकुदरती काम है। ऐसा करने से खेत कमजोर हो जाते हैं। खेत सूख जाते हैं।
ऋषि खेती में धान के खेत (आगे वाले ) जिनमे  नालियां बनाई गयी हैं
 पीछे वाले खेत पडोसी किसानो के हैं
जहाँ मेड बनाई गयी हैं।  
खेतों में पानी खड़ा रखने के   पीछे खरपतवार को रोकना मात्र उदेश्य रहता है  खेतों में पानी खड़ा रहता है तो उसकी जैव -विवधता मर जाती है। यह जैव विविधता ही असली खाद का काम करती है। जमीन की जैविकता को जिन्दा रखने के लिए हम कुदरती खेती में पानी को रोकने केके लिए मेड  नहीं बनाते वरन पानी की निकासी के लिए नालियां बनाते हैं। नालियां  हमे केवल एक बार बनानी पड़ता है जबकि मेड  को हर साल बनाना पड़ता है या सुधारना पड़ता है।  हमने यह पाया है जरा सी  भी मेड  खराब हो जाती  है तो सब पानी निकल जाता है इसलिए  किसान को पानी भरने के लिए  पूरे मौसम पम्प को चलाते रहना पड़ता है। इस से अत्यधिक ऊर्जा का खर्च लगता है और फसल घाटे  का सौदा बन जाती है।

हमारे खेत हमारे शरीर के माफिक जीवित रहते हैं जब हम उन्हें पानी में डुबा  देते हैं तो वे हवा की कमी के कारण मर जाते हैं। पानी से भरे खेतों में जो धान की फसल बनती है उसमे अधिक पुआल और कम धान रहती है जबकि बिना भरे खेतों में धान के पौधों में कम पुआल और अधिक धान लगती है।  ऐसा असामन्य पौधों की बढ़वार के कारण होता है।

अधिकर किसानो को नहीं मालूम है की खेतों में पानी खड़ा रखने से  खेतों की जल धारण शक्ति नस्ट हो जाती है  पानी सूखते ही फसल भी सूख जाती है। खेत की जल धारण शक्ति खेत की जैविकता पर निर्भर रहती है ,जैविकता को जीवित रहने के लिए प्राण वायु की जरूरत रहती है।

 धान के पौधों में अच्छी पैदावार के लिए पौधों की जड़ों का घना और गहराई तक जाना जरूरी रहता है यह पानी भरे बिना ही संभव रहता है डूबे  खेतों में जड़ें उथली होती हैं जिस से उन्हें भरपूर पोषक तत्व नहीं मिल पाते हैं इसलिए पैदावार में कमी आ जाती है।

कुदरती धान की खेती में खरपतवार नियंत्रण  के लिए पिछली फसल की नरवाई को खेतों में आड़ा तिरछा फैला दिया जाता है जिस से खरपतवारों का  नियंत्रण हो जाता है और नमी का भी संरक्षण हो जाता है। नरवाई की ढकावन  में फसल में लगने वाले कीड़ों का भी नियंत्रण हो जाता है हवा,  नमीऔर रौशनी में बीमारी के कीड़ों को खाने वाले कीड़े पनप जाते हैं और केंचुए जमीन को अंदर तक पोरस बना देते हैं जिस से खेत बरसात का पानी सोख लेते हैं।

कुदरती खेती में सीधे बीजों को फेंक कर उगाया जाता है इसमें रोपा बनाना ,कीचड़ मचाने जमीन की जुताई करने की कोई जरूरत नहीं रहती है। पानी खड़ा नहीं रखने के कारण ऊर्जा की भारी  बचत रहती है जिस से धान की गुणवत्ता और उत्पादकता में भारी  इजाफा रहता है जिस से धान की खेती लाभप्रद बन जाती है।




Saturday, December 12, 2015

जैविक खाद का पनपता गोरख धंधा !

जैविक खाद का पनपता गोरख धंधा !


दि हम मिटटी के एक कण को सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखें तो हम पाएंगे की हमारी मिट्टी  जैव -विवधता का समूह है। यह खुद अपने आप में सर्वोत्तम जैविक खाद है। जुताई  करने से मिट्टी की जैविकता मर जाती है। इसलिए खाद की जरूरत महसूस होती है।
गेंहूँ और राइ की नरवाई  के ढकाव से झांकते धान के नन्हे पौधे 

हम अपने खेतों में पिछले ३० सालो से बिना जुताई की जैविक खेती (ऋषि खेती ) कर रहे हैं।  इन तीस सालो  में हमने कभी भी जमीन की जुताई नहीं की है ना ही उसमे किसी भी प्रकार का कोई भी मानव निर्मित खाद बना कर या खरीद कर डाला है।
असल में जुताई करने से बरसात में बखरी बारीक मिट्टी कीचड में तब्दील हो जाती है जो बरसात के पानी को जमीन में नहीं जाने देती है पानी तेजी से बहता है अपने साथ मिटटी (जैविक खाद ) को बहा  कर ले जाता है।  जुताई नहीं करने से  जैविक खाद का बहना रुक जाता है। हम अपने खेतों से निकलने वाले  हर अवशेषों जैसे नरवाई ,पुआल ,गोबर /गोंजन ,पत्तियां ,टहनियां आदि को जहाँ का तहाँ वापस फैला देते हैं। जो सड़  कर उत्तम जैविक खाद में बदल जाता है।

जब से रासायनिक खेती के नुक्सान नजर आने लगे हैं तब से जैविक खेती का हल्ला बहुत सुनायी देने लगा है।  अनेक प्रकार की जैविक खाद बनाने के तरीके बताये जा रहे है ,अनेक प्रकार के बायो  खाद  बाज़ार में बिकने लगे हैं। गोबर /गोमूत्र की भी बहुत चर्चा हो रही है। किन्तु ये सब डाक्टरी फिजूल है यदि हम अपने खेती की जैविक खाद को बहने से रोक लेते हैं।

एक बार की जुताई से खेत  की आधी जैविक खाद बह जाती है जो करीब 5  टन  से 15  टन प्रति एकड़   तक हो सकती है।  इसे हम बेफ़कूफी ही कहेंगे की पहले हम अपनी खेत की कीमती कुदरती जैविक खाद को बहा दें फिर बाज़ार से महंगी जैविक खाद ख़रीद कर लाएं या कमर तोड़ महंत कर खाद को बनाये।
इसका  यह मतलब नहीं  है की फसलों  के उत्पादन में जैविक खाद का कोई महत्व  नहीं है हमारा यह कहना है अपनी जैविक खाद को हम आसानी से जुताई को बंद कर बचा सकते हैं  तमाम अवशेषों को जहाँ तहाँ वापस लोटा देने से से हमे जैविक खाद की कोई जरूरत नहीं रहती है।

अधिकतर लोगों का कहना है की रसायनो के कारण खेतों की जैविकता नस्ट हो रही है किन्तु हमने यह पाया है कि जुताई से सबसे अधिक जैविकता का नुक्सान हो रहा है। इसलिए जुताई आधारित जैविक और रासायनिक खेती में कोई अंतर नहीं है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं।

आजकल अनेक किसान बिना जुताई की बोने  की मशीन से बुआई करने लगे हैं वे बधाई के पात्र हैं किन्तु वे नरवाई और पुआल को खेतों में वापस नहीं लोटा  रहे हैं इसलिए उन्हें खाद की जरूरत महसूस होती है यदि वे पिछली फसल की नरवाई को वापस खेतो में डालने लगे तो वे रसायन और खाद मुक्त हो सकते हैं।




Tuesday, December 1, 2015

गोबरधन पूजा और ऋषि खेती



गोबरधन पूजा और ऋषि खेती 

चारे के पेड़ों से अनाज और पशुपालन 

मारे देश की संस्कृति ऋषि मुनियो की संस्कृति है जिसमे गोबरधन का खेती किसानी में विशेष महत्व है इसलिए हम यह त्यौहार मनाते हैं। खेती किसानी का पशुपालन के साथ चोली और दामन का साथ है। किसान पशुपालन के सहारे टिकाऊ खेती कर रहे थे,  किन्तु इसे आधुनिक वैज्ञानिक खेती की "हरित क्रांति " ने मात्र कुछ सालो में मिटा कर रख दिया है। इसलिए खेती किसानी अब लाभ का धंदा नहीं रही है। अनेक  किसान खेती छोड़ रहे हैं अनेक किसान आत्म हत्या जैसे जघन्य अपराध को करने  लगे हैं।
हाई प्रोटीन दलहन(नत्रजन ) जाती के चारे के पेड़ों के साथ गेंहूँ की ऋषि खेती

उन दिनों जब बिजली ,पेट्रोलियम पदार्थ  नहीं थे मशीने भी नहीं थी इसलिए किसान पशु पालते थे जिस से दूध ,गोबर  ,ऊर्जा,चमड़ा और मांस आदि मिल जाया करता था। किसान जुताई के प्रति जागरूक रहते थे जुताई से कमजोर होते खेतों में जुताई को बंद कर उसमे पशु चराते थे जिस से खेत पुन : ताकतवर हो जाते थे और असंख्य हरे भरे पेड़ मिल जाते थे जिस से लकड़ियों का इंतजाम हो जाया करता था। किन्तु अब हमारी खेती पूरी तरह आयातित तेल की गुलाम हो गयी है पशुपालन की संस्कृति ख़त्म हो गयी है लोग शहरों में रहने लगे हैं। गोबरधन की पूजा बड़ी बड़ी गेरकुदरती गोशालों से लाये जा रहे गोबर से की जाती है। जिनका दूध भी दूषित है।


ऋषि खेती एक बिना जुताई की कुदरती खेती है इसमें पशु पालन कुदरती तरीके से किया जाता है पशुओं को कुदरती आहार खिलाया जाता है जिस से दूध और गोबर सब कुदरती रहता है इस से एक और जहाँ खेतों को कुदरती खाद मिल जाती है वही  कुदरती दूध मिलता है। ऋषि खेती में हम हाई प्रोटीन चारे के दलहनी  जाती के पेड़ लगाते हैं। जिनसे साल भर कुदरती हरा चारा मिलता रहता है। जुताई नहीं करने के कारण ऋषि खेत लगातार ताकतवर होते जाते हैं। जिस से भरपूर बंपर फसलें मिलती हैं।  बरसात का पानी पूरा जमीन के द्वारा सोख लिए जाता है सूखे की कोई समस्या कभी नहीं रहती है। कुदरती खान पान से कैंसर की बीमारी भी ठीक हो जाती है।  हमारे ऋषि खेत अब कुदरती अस्पताल में तब्दील हो गए हैं जिसमे यहां पैदा होने वाला अनाज ,सब्जियां दूध आदि दवाइयाँ हैं।
इसलिए हमारा  अनुरोध है की गोबरधन के महत्व को समझे और ऋषि खेती के माध्यम से कुदरत की ओर  वापस आएं और प्रदूषणकारी रासायनिक आहार और दवाइयों के प्रदूषण से बचें।